ख्याल आते रहे,
सोहबत में ज़रुरत के
किसी-किसी तरह ,
ज़िन्दगी गुज़रती रही
इशारों को अब कैसे,
इशारों को अब कैसे,
हम जुबां दे दें भला
मोहब्बत बच जाए,
ये दुआ निकलती रही
रेत के बुत बने,
रेत के बुत बने,
खड़े रहे हम सामने
पत्थर की इक नदी,
पत्थर की इक नदी,
पास गुज़रती रही
रूह थी वो मेरी,
लहू-लुहान सी पड़ी
बदन से मैं अपने,
बाहर निकलती रही
क्यों बेवजह तुम,
यूँ ठिठकने लगे हो
मैं अपने ही हाथों,
देखो फिसलती रही
आईना तो वो मेरा,
सीधा-सादा था 'अदा
उसमें मैं हर घड़ी,
बनती संवरती रही
रूह थी वो मेरी,
लहू-लुहान सी पड़ी
बदन से मैं अपने,
बाहर निकलती रही
क्यों बेवजह तुम,
यूँ ठिठकने लगे हो
मैं अपने ही हाथों,
देखो फिसलती रही
आईना तो वो मेरा,
सीधा-सादा था 'अदा
उसमें मैं हर घड़ी,
बनती संवरती रही
गज़ब.. गज़ब.. गज़ब की कविता है दी.. काफी समय बाद इस तरह की कविता मिली पढ़ने को.. या शायद मैं ही नहीं पढ़ पा रहा था.. :P
ReplyDeleteइशारों को अब कैसे,
ReplyDeleteहम जुबां दे दें भला
मोहब्बत बच जाए,
ये दुआ निकलती रही
.......क्या बात है बधाई
ज़रूरतों की अंगुली थामें जिंदगी का निबाह और यूं हीं ख्यालों का गुज़र जाना मुहब्बत की अमान की दुआओं
ReplyDeleteके साथ !
संगदिल हकीकतों के खिलाफ अपने वजूद के रेतीले अहसास का खाका खींचती बढ़िया कविता ! अच्छी कविता !
बहुत शानदार.
ReplyDeleteइशारों को अब कैसे,
ReplyDeleteहम जुबां दे दें भला
मोहब्बत बच जाए,
ये दुआ निकलती रही
रेत के बुत बने,
खड़े रहे हम सामने
पत्थर की इक नदी,
पास गुज़रती रही
बहुत प्यारी कविता ... वाह !
.... बेहतरीन
bhn ji aapki rchna dil ko chune vale he buraa naa maano to aek baat khun pehle antre men sohbt kaa istemaal kiya he vese sohbt ke do arth hote hen is liyen bhrm thoda saa ho jata he ise bdl len to kaavy mnjusha men or chaar chan lg jaayengen maamfi chahta hun. akhtar khan akela ktoa rajsthana
ReplyDeleteजैसा की दीपक भाई ने बोला, जब कुछ अच्छा बनता है तो खुदी समझ में आ जाता है. वो जग्गू दादा की ग़ज़ल है न, वैसे तो रोमांटिक है, पर ये बात शायरी पर भी लागू होती है :
ReplyDeleteआप को देख कर देखता रह गया,
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया !
वो मेरे सामने से गुजर गए और मैं,
रास्ते की तरह देखता रह गया !...
शायरी-ए-कमाल !
ब्लॉग ब्लॉग भटकता
ReplyDeleteएक मासूम सा बच्चा
अक्सर रुक जाता है
यहीं पर
देखकर हर बार
नयी सजावट भावनाओ की
अपनी गोल आँखों
और साफ़ मन से
बस देखता है और
जितना भी समझता है
उसके लिए तो बहुत होता है
दीदी,
क्या कहा जाये .. बेहतरीन .. गजब .. शानदार
कोई भी शब्द काम नहीं कर रहा
फिर भी
बेहद सुन्दर रचना, बेहद सुन्दर चित्र
[मासूम सा बच्चा = गौरव]
बेहतरीन। बधाई।
ReplyDeleteफ़ुरसत में .. कुल्हड़ की चाय, “मनोज” पर, ... आमंत्रित हैं!
बहुत ही सुन्दर रचना।
ReplyDeleteअदा जी अच्छा बिम्व बुना है आपने.....देर से आपके ब्लॉग पर आया मगर इतनी अच्छी कविता पढने को मिली तो तत्काल कमेन्ट देने बैठ गया.....
ReplyDeleteरेत के बुत बने,
खड़े रहे हम सामने
पत्थर की इक नदी,
पास गुज़रती रही
बहुत सुन्दर,,,,,,,!
"रेत के बुत बने,
ReplyDeleteखड़े रहे हम सामने
पत्थर की इक नदी,
पास गुज़रती रही
रूह थी वो मेरी,
लहू-लुहान सी पड़ी
बदन से मैं अपने,
बाहर निकलती रही"
अदा जी, तारीफ़ के लायक शब्द नहीं हैं जी हमारे पास। आप तो ये बतायें कि अपनी कविताओं गज़लों का संकलन कब छाप रही हैं?
बहुत शानदार...
ReplyDeleteमो सम कौन जी,
ReplyDeleteआपको पसंद आई कविता, जान कर ख़ुशी हुई,
कम से कम मेरी मेहनत सार्थक रही..
बहुत जल्द अपनी किताब छापने के काम में लगने वाली हूँ...
और अपनी अल्बम भी..बस ज़रा सा priority ...बदल गया है...
लेकिन ये काम होकर रहेगा...
आपलोगों की दुआएं चाहिए ..
बस्स्स्स !
रेत के बुत बने,
ReplyDeleteखड़े रहे हम सामने
पत्थर की इक नदी,
पास गुज़रती रही
Bahut sundar ada ji
"मोहब्बत बच जाए,
ReplyDeleteये दुआ निकलती रही"
उनके तेवर बदल जाए
इधर जान निकलती रही :)
बहुत ही बेहतरीन रचना..... बहुत खूब!
ReplyDeleteमेरी ग़ज़ल:
मुझको कैसा दिन दिखाया ज़िन्दगी ने
इस कविता की पुन: प्रस्तुति अच्छी लगी । पिछले वर्ष इन्हीं दिनों में इसे पढ़ा था ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरती से पेश की गए कविता को गमेदिल का नमन..............
ReplyDeleteइशारों को अब कैसे,
हम जुबां दे दें भला
मोहब्बत बच जाए,
ये दुआ निकलती रही.........
बहुत खूब.........