बहादुरशाह ज़फ़र |
१८५७ में जब भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का समापन हुआ, तो विजेताओं के सामने एक बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ, इसके नेतृत्त्व करने वाले अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र (१७७२-१८६२) का क्या किया जाए, 'फूट डालो राज करो' की मानसिकता से प्रेरित अंग्रेजों ने इस समस्या का बड़ा ही अनोखा समाधान ढूंढ निकाला, मुग़ल बादशाह को ब्रिटिश राज के किसी दूर-दराज़ और उजाड़-वीरान कोने में भेज दिया जाए, और वो स्थान था अंग्रेजों द्वारा हाल में ही जीता हुआ अलसाया सा शहर 'रंगून' (ऐसा ही कुछ उन्होंने रंगून के आखरी नरेश 'थिबौ' के साथ भी किया, नरेश थिबौ को उन्होंने महाराष्ट्र में रत्नागिरी में निर्वासित कर दिया था....)
लाल किला में बादशाह का तख़्त |
शुरू में तो देख-रेख के लिए प्रभारी, ब्रिटिश अधिकारी कैप्टन नेल्सन डेविज़ की समझ में ही नहीं आया कि अपनी इस नयी जिम्मेवारी से किस तरह निपटा जाए, जो दिल्ली के भव्य लाल किले का अंतिम निवासी था,
राजनयिक शिष्टाचार के हर तौर-तरीकों को दरकिनार करते हुए उसने इस बंदी को अपने छोटे से बंगले के तंग गैराज में रखने का फैसला किया, इसी जगह १८५८ से १८६२ तक बहादुरशाह ज़फ़र, उनकी बेग़म ज़ीनत महल, पोती शहज़ादी रौनक ज़मानी अपने दो पुत्रों तथा शाही खानदान से जुड़े अन्य लोगों के साथ अपने जीवन के आखरी वर्ष गुज़ारे, गौरतलब है कि बहादुरशाह ज़फर १८३६ से लेकर १८५७ तक दिल्ली की गद्दी के मालिक थे...
ज़ीनत महल |
स्वतंत्रता संग्राम के विफल हो जाने के बाद बहादुरशाह ज़फ़र बहुत निराश हो चुके थे, आज़ादी की लड़ाई की असफलता का उन्हें बहुत बड़ा खामियाज़ा भुगतना पड़ा था...उनके दो बेटों का बहुत बेरहमी से कत्ल कर दिया गया , उनका राजसिंहासन छिन गया और उन्हें देश से निर्वासित कर दिया गया..
उन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए छोटे-छोटे राजाओं को इकठ्ठा करने का प्रयास भी किया था, अपने एक ऐतिहासिक पत्र में उन्होंने लिखा भी था 'उनकी हार्दिक इच्छा है कि समूचा हिन्दुस्तान आज़ाद हो'
बीमार बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र |
७ नवम्बर १८६२ को ८९ वर्षीय बादशाह की मौत हुई थी, उनकी मौत के बाद भी अँगरेज़ उनसे डरते थे , उनके पार्थिव शरीर को अंग्रेज अधिकारियों के रिहायशी बंगले के अहाते में ही फ़ौरन दफ़्न कर दिया गया, जहाँ उन्हें दफ़्न किया गया, उस जगह को बड़ी सावधानी से छिपा भी दिया गया..हर कोशिश की गई कि कभी पता न चल सके कि हिन्दुस्तान के आखरी बादशाह की कब्र कहाँ है ..!
ज़ाहिर है, अंग्रेजों को मालूम था, हिन्दुस्तान की अवाम के मन में अपने बादशाह के लिए लगाव है, साथ ही इस कब्र के प्रतीकात्मक महत्त्व का भी उन्हें भरपूर अहसास था ...
लेकिन इतिहास ने डेविज़ और अंग्रेजी हुकूमत दोनों को ग़लत साबित कर दिया, न तो लोग क़ब्र को भूले न ही मज़ार को भुलाया जा सका, यह मक़बरा, हिन्दुस्तान के आखरी बादशाह के स्मारक के रूप में आज भी खड़ा है, वही बादशाह जो अकबर और शाहजहाँ जैसे बादशाहों का वंशज था..
१९९१ में मज़ार का जीर्णोधार करते समय, बादशाह के असली कब्र का पता चला... इसकी पहचान १९ वीं शताब्दी में इस्तेमाल किये जाने वाली विशेष प्रकार की ईंटों और कैप्टन डेविज़ द्वारा किये गए विवरण से की गई...
बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र की मज़ार....रंगून में |
स्थानीय मुस्लिम समुदाय, अब हर मुक़द्दस मौके पर यहाँ इकट्ठे होते हैं और नमाज़ अता करते हैं..बादशाह को एक संत की तरह माना जाता है ..कहा जाता है बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र चिश्तिया सूफी परंपरा के अनन्य भक्त थे, ज़फर अपने रहस्यवादी काव्य के लिए भी जाने जाते हैं , उनके कलाम श्रोताओं के मन को उद्वेलित कर जाते हैं...ऐसा भी माना जाता है कि उनकी रचनाएँ 'भविष्य में होने वाली घटनाओं के पूर्वानुमान को भी बताती हैं'...अगर आप में से कोई इसपर प्रकाश डाल सके तो बहुत अच्छी बात होगी...
सबसे अहम् बात यह है कि अंग्रेजों की कोशिश नाकामयाब रही...हिन्दुस्तान की आवाम ने अपने आखरी बादशाह को पा लिया है...
१९८७ में मज़ार का दौरा करते हुए स्वर्गीय श्री राजीव गाँधी ने बहुत ही सटीक बात कही थी...'मैं भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रतीक और केंद्र बिन्दु को श्रद्धान्जलि अर्पित करता हूँ, यह संग्राम जीता जा चुका है, भारत फिर कभी भी विदेशी दासता का शिकार नहीं होगा, हम अपनी एकता और अपनी विविधता के साथ सुरक्षित रहेंगे, सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता, और सभी धर्मों के प्रति आदर के अपने उन जीवन मूल्यों पर हम सदा अपनी निष्ठा रखेंगे, जिसकी परम्परा ५००० साल से अविछिन्न रूप से चली आ रही है..'
बहादुरशाह ने अपने एक शेर में जिस पीड़ा का जिक्र किया है, उसे सुनकर भला किसका दिल नहीं रो उठेगा...
कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
इसी के प्रत्युत्तर में किसी कवि ने कहा है...
दो गज ज़मीन भी न मिली तो क्या मलाल
ख़ुशबू ये कू-ए-यार है इस यादगार में.....
हाँ नहीं तो...!!
रोचक! क्या ही अल्हैदा बात है ये कि हिन्दुस्तान का बादशाह एक शायर था!! याने, दिल से, रूह से और अदबे इल्म से मालामाल!!
ReplyDeleteहिंदुस्तान के अंतिम सम्राट और ऐसे शायर जिनकी शायरी ने कभी अंग्रेजों की गुलामी नहीं कबूली, मिर्ज़ा ग़ालिब को पोसने वाले बहादुर शाह ज़फर को शत शत नमन|
ReplyDeleteउनके ही आशारों में कहूँगा...
गर यक़ीं हो ये हमें आयेगा तू दो दिन के बाद
तो जियें हम और इस उम्मीद पर दो दिन तलक
क्या सबब क्या वास्ता क्या काम था बतलाइये
घर से जो निकले न अपने तुम "ज़फ़र" दो दिन तलक
बहुत अच्छी व नयी जानकारी।
ReplyDeleteblogging ki...M..rakhi hai tum jaison ne....
ReplyDeleteband kar do blogging...
ahsaan karo.....hindi par..lekhan par...
insaaniyat par.....
अहा!
ReplyDeleteएक और ऐतिहासिक पोस्ट।
बहुत सरस भाषा में प्रस्तुति।
आभार।
आंच पर संबंध विस्तर हो गए हैं, “मनोज” पर, अरुण राय की कविता “गीली चीनी” की समीक्षा,...!
ज़फ़र की शायराना तबीयत को देखते हुये अंग्रेजों की तरफ़ से एक खत भेजा गया था जिसमें इस अंदाज में चेतावनी दी या मज़ाक उड़ाया गया था, कि
ReplyDelete’दमदमों में दम नहीं, अब खैर मांगों जान की,
ऐ जफ़र ठंडी हुई शमशीर हिन्दुस्तान की।’
(दमदम उस तोप का नाम था जिसके बल पर कभी मुगलों ने बहुत लड़ाईयां जीती थीं, लेकिन उस समय तक शायद वह आऊटडेटिड हो गई थी)
इधर से जवाब गया,
"गाज़ियों में बू रहेगी, जब तलक ईमान की,
तख्त-ए-लंदन तक उठेगी, शमशीर हिन्दुस्तान की।’
अपनी बेटी के नाम एक पत्र लिखा था जफ़र ने जो ’अहा जिन्दगी’ पत्रिका में छपा था, बहुत मार्मिक पत्र था।
आपकी इस पोस्ट के बहाने हम भी दिल्ली के आखिरी बादशाह को याद कर लेते हैं।
आभार।
nice
ReplyDeleteअपने वतन की मिट्टी में दफन होने की चाहत ! मुमकिन है अब भी पूरी की जा सकती हो !
ReplyDeleteइतिहास को बड़े दिलचस्प अंदाज़ में पेश करती हैं आप !
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteहिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।
हिन्दी का विस्तार-मशीनी अनुवाद प्रक्रिया, राजभाषा हिन्दी पर रेखा श्रीवास्तव की प्रस्तुति, पधारें
सत्यजीत रे साहब ही एक फिल्म आई थी 'शतरंज के ख़िलाड़ी'. उसमे एक तरह से जफ़र पर कटाक्ष किया गया है जब दरबार में लोग न्याय के लिए आते है और अपनी व्यथा सुना रहे होते है, तब जफ़र साहब अपनी महाकृति रचने में मशगूल होतें है, अब पता नहीं बात सही है या नहीं ...
ReplyDeleteकितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये
ReplyDeleteदो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
........
aaj aapke kalam me panaah mili
बहुत ही सुन्दर प्रयास है आपका ..............इतिहास के झरोके से हिंदुस्तान के कुछ महँ शक्शियातो के बारे में और जानकर बहुत अच्छा लगा.......सराहनीय प्रयास है आपका ..........इसको बढ़ने के लिए आपको फॉलो कर रहा हूँ |
ReplyDeleteकभी फुर्सत में हमारे ब्लॉग पर भी आयिए-
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एक गुज़ारिश है ...... अगर आपको कोई ब्लॉग पसंद आया हो तो कृपया उसे फॉलो करके उत्साह बढ़ाये|
गौरवशाली इतिहास पर रोचक प्रस्तुति... बादशाह जफ़र ऊँचे इल्म वाले शायर हैं.
ReplyDeleteएक शेर याद आया...(१८५७ के कत्लो गारद के बाद )
दमदमे में दम नहीं खैर मानो जान की
ऐ जफ़र ठंडी हुई शमशीर हिन्दुस्तान की
कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये
ReplyDeleteदो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
Mera Salam Akhiri Basdshah ko......
Aur apko bhi itni achi post ke liye...
Jai Hind.... Jai Bharat
उनकी पेशिन्गोई सही निकली.......
ReplyDeleteकितना है बदनसीब ज़फ़र, दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीं न मिली कू-ए-यार में :(
बादशाह अबू ज़फर की ही एक और ग़ज़ल के दो बहुत खूबसूरत शेर नज़र करता हूँ जो कि उनकी बेबसी को बयाँ करते हैं-
ReplyDelete'या मुझे अफसर-ए-शाहा ना बनाया होता
या मेरा ताज गदाया ना बनाया होता..
खाकसारी के लिए गर्चे बनाया था मुझे
काश खाक-ए-दर-ए-जानां ना बनाया होता'
उनको याद करने और दिलाने के लिए आभार दी..
बहुत रोचक और जानकारीपूर्ण पोस्ट रही. आपका आभार.
ReplyDeletebahot achha hai.
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