उसने फिर
अपने वज़ूद को
झाडा-पोंछा,
उठाया
दीवार पर टंगे
टुकडों में बंटें
आईने में
खुद को
कई टुकडों में पाया,
अपने उधनाये हुए
बालों पर कंघी चलायी,
तो ज़मीन कुछ
उबड़-खाबड़ लगी,
जिसपर उसने एक
लम्बी सी माँग खींच दी,
जो अनंत तक जा
पहुंची,
जहाँ घुप्प अँधेरा था
और
शून्य खडा था...
उसने
लाल डिबिया को देखा तो
अँधेरे, चन्दनिया गए,
होंठ मुस्कुरा उठे,
उँगलियों ने शरारत की,
लाली की दरदरी रेत
माँग में भर गयी,
आँखों ने शिकायत
का काज़ल
झट से छुपा लिया,
होठों ने रात का कोलाहल
दबा दिया,
अंजुरी भर आस पीकर,
निकल आई वो घर से,
अब शाम तक
पीठ पर दफ्तर की
फाइल होगी
या
सर पर आठ-दस ईटें
या कोई भी बोझा,
ड्योढी के बाहर
आते ही
मन उड़ गया,
पर मन
उड़ पायेगा ?
शाम तक तो उड़ेगा
फिर सहम जाएगा,
जुट जाएगा
इंतजार में
एक और
कोलाहल के,
जो आएगा
उसी अनंत
अँधेरे से...
ये है रेशमी जुल्फों का अँधेरा न घबराइये....