न मंदिर न मस्जिद न कोई धरम चाहिए
इंसानियत मिले वो दैर-ओ-हरम चाहिए
मेरी ख्वाहिशों की मुझसे सरहद न पूछ
कम से कम मुझे दोआलम चाहिए
तुझको मुबारक हों तेरे बन्दूक औ तमंचे
मुझको तो बस मेरी कलम चाहिए
मुझको तो बस मेरी कलम चाहिए
मौत से मुझे कोई शिकायत ही नहीं
फिलहाल ज़िन्दगी का भरम चाहिए
दैर-ओ-हरम=मंदिर-मस्जिद
दोआलम=दोनों जहान
दैर-ओ-हरम=मंदिर-मस्जिद
दोआलम=दोनों जहान
अदा जी आजकी ग़ज़ल के तो क्या कहने. वाह बहुत सुंदर.
ReplyDeleteन मंदिर न मस्जिद न कोई धरम चाहिए
ReplyDeleteइंसानियत मिले वो दैर-ओ-हरम चाहिए
बहुत सुन्दर ... इंसानियत खुद धरम है.
तीन पीढियाँ एक साथ .. त्रिवेणी
गजल के सभी मिसरे बहुत खूबसूरत हैं!
ReplyDeleteतुझको मुबारक हों तेरे बन्दूक औ तमंचे
ReplyDeleteमुझको तो बस मेरी कलम चाहिए..
जब काम सुई कर सकती है , तलवार की जरुरत क्या है ...
ये हुई ना कोई गल समझदारी वाली ...:):)
माँ ,बाबूजी को प्रणाम कहियेगा ...!
@तुझको मुबारक हों तेरे बन्दूक औ तमंचे
ReplyDeleteमुझको तो बस मेरी कलम चाहिए
सही है दीदी , क्योंकि राइटर [मतलब फाइटर ] हमेशा जीतता है :)
फोटो दोनों बढ़िया लगे
हाँ अब बात फेमिली फोटो की
सबसे पहले तो हम से ये बेहद प्यारी तस्वीर शेयर करने का आभार
आप से तो ब्लॉग पर बात होती रहती है
इ - भांजी तक भी स्नेह आपने पिछली बार पहुंचा ही दिया था
इस बार खासतौर से माता जी जो प्रणाम और चरण स्पर्श कहियेगा
आप तीनो ही बड़े क्यूट लग रहे हो
ये मेरा फोटो
(\__/)
(='.'=)
(")_(")
दोआलम ??
दैर-ओ-हरम ??
तुझको मुबारक हों तेरे बन्दूक औ तमंचे
ReplyDeleteमुझको तो बस मेरी कलम चाहिए
..बहुत खूब।
्सुंदर विचारों की अभिव्यक्ति
ReplyDeletebahut hi umdaah rachna....
ReplyDelete----------------------------------
मेरे ब्लॉग पर इस मौसम में भी पतझड़ ..
जरूर आएँ..
खूबसूरत...इंसानियत के ज़ज्बे से भरपूर पोस्ट ! पर ...
ReplyDeleteबन्दूक औ तमंचे वो रखें , कलम आप रखिये, हमें तो बस 'की-बोर्ड' की दरकार है :)
आज बस एक सुझाव ...कम्प्यूटर के सामने से फ़ौरन हटिये ! जाइये बिटिया की नज़र उतारिये ! भले ही मैं पुरातनपंथी लगूं तो भी !
दीदी,
ReplyDeleteअली जी के सुझाव से मैं भी सहमत हूँ :)
कविता में चित्र और चित्र में कविता।
ReplyDeleteसंग्रहणीय चित्र है, भावों से साराबोर।
माता जी को मेरा प्रणाम।
@ गौरव...
ReplyDeleteतुम्हारा सन्देश दे दिया है..माँ ने तुम्हें ढेर सारा आशीर्वाद दिया है...
जिन शब्दों के अर्थ तुमने पूछे थे वो लिख दिया है मैंने..
धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
ReplyDeleteमंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला...
जय हिंद...
अमन का संदेश, सार्थक प्रस्तुति! बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ReplyDeleteसमझ का फेर, राजभाषा हिन्दी पर संगीता स्वरूप की लघुकथा, पधारें
मेरी ख्वाहिशों की मुझसे सरहद न पूछ
ReplyDeleteकम से कम मुझे दोआलम चाहिए
तुझको मुबारक हों तेरे बन्दूक औ तमंचे
मुझको तो बस मेरी कलम चाहिए
अदा जी बहुत खूब कहा। बधाई।
हमारी कामना तो ये है कि मंदिर भी हो, मस्ज़िद भी हो और इंसानियत उनसे पहले हो। और यकीन मानिये इंसानियत मरी नहीं है, मर सकती भी नहीं।
ReplyDeleteआपका अकेला शेर शेरों की बिरादरी में आकर और भी जम रहा है।
बंदूक तमंचों के मुकाबिल कलम ज्यादा ताकतवर और धारदार होती है, ऐसे ही आपकी कलम चलती रहे, यही कामना है।
दो माँओं और दो बेटियों वाली पारिवारिक तस्वीर(त्रिवेणी)भी अच्छी लगी।
आभार।
bahut sunder kaita hai.
ReplyDeleteन मंदिर न मस्जिद न कोई धरम चाहिए
ReplyDeleteइंसानियत मिले वो दैर-ओ-हरम चाहिए
वाह क्या रचना है !!
तीन पीढियां एक साथ .. रांची पहुंच गयीं क्या ??
भई सच कहूँ तो शेरो शायरी समझने में मैं हु कमजोर
ReplyDeleteपर कल आज और कल का मिलन फैलाये खुशियाँ चहुँ ओर.
‘मेरी ख्वाहिशों की मुझसे सरहद न पूछ’
ReplyDeleteहज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी की हर ख़्वाहिश में दम निकले :)
तीन पीढियों के सुंदर चित्र के लिए आभार। तीन पीढियां फलती-फूलती रहे, यही प्रार्थना ॥
न मंदिर न मस्जिद न कोई धरम चाहिए
ReplyDeleteइंसानियत मिले वो दैर-ओ-हरम चाहिए
अदा जी, बहुत ही सारगर्भित पंक्तियों का सृजन किया है आपने। जयशंकर प्रसाद जी ने कहा था, "इंसानियत का एक पक्ष यह भी है जहां वर्ण, धर्म और देश को भूल कर इंसान, इंसान के लिए प्यार करता है।" (एक घूंट) और उन्होंने यह भी कहा था, "जिसे काल्पनिक देवत्व कहते हैं, वही तो सम्पूर्ण इंसानियत है।" (अजातशत्रु)और उन्होंने यह भी कहा था "इंसानियत का नाश करके कोई धर्म नहीं रह सकता है।" (दैवरथ) आपने एक शे’र में ये बातें कह दी है। आपको सलाम।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
और समय ठहर गया!, ज्ञान चंद्र ‘मर्मज्ञ’, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!
बहुत ही खूबसूरत एहसासों को ग़ज़ल के रूप में उकेरा है आपने. मंदिर और मस्जिद लोगों में एकता बढ़ने के लिए बनाए जाते हैं, अगर किसी धर्म स्थल का लोग दुश्मनी बढ़ने के लिए प्रयोग करते हैं, तो कोई आवश्यकता नहीं है उसकी.
ReplyDeleteआपके कलम वाले शेर को पढ़कर दिनकर की वो पंक्तियाँ याद आती हैं
ReplyDeleteदो में से तुम्हें क्या चाहिए कलम या कि तलवार,
मन में ऊँचे भाव या तन में शक्ति अजेय आपार
अरे नहीं संगीता जी...
ReplyDeleteहम राँची में होते तो आपको पता नहीं होता क्या..?
मा-पिताजी कनाडा आए हुए हैं...
बेहतरीन ग़ज़ल....बधाई
ReplyDeleteतुझको मुबारक हों तेरे बन्दूक औ तमंचे
ReplyDeleteमुझको तो बस मेरी कलम चाहिए
वाह क्या बात कही है ....और इस तस्वीर के तो कहने ही क्या आपके चहरे पर माँ के आचल को पाने का सुकून साफ़ दिखाई देता है .
यदि लोग हथियारों की ताकत कि बजाए कलम और शब्दों कि ताकत का प्रयोग करना सीख जाएं तो आपसी रंजिश का समाधन कितना आसान हो जाये।
ReplyDeleteकिंतु फिर नेता लोग क्या करेंगे? उनका क्या होगा? उनकी रोज़ी रोटी कैसे चलेगी?