Tuesday, May 27, 2014

जानकी ....!

कहा जाता है, 'मौन' कई प्रश्न भी खड़े करता है और कई बार कई प्रश्नों के उत्तर भी देता है । कुछ प्रश्नों के उत्तर वाणी से नहीं कर्म से दिए जाते हैं । एक चुप्पी हज़ारों सवालों पर भारी पड़ जाती है । ऐसी ही एक चुप्पी है, सीता की चुप्पी । सीता का चुपचाप पृथ्वी में प्रवेश, सीता के द्वारा पूछा गया विकट प्रश्न भी है और कई प्रश्नों का उत्तर भी ।

वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के अन्त में, अश्वमेध यज्ञ के समापन के उपरान्त, अयोध्या के जन समूह की ओर से एक आवाज उठी : राम, सीता को फिर से स्वीकार कर अपना घर बसाएं।

राम ने सीता का परित्याग तो कर दिया था लेकिन वो जानते थे और पूरे अन्त:करण से मानते भी थे कि सीता निष्कलंक और निष्पाप है, परन्तु महज लोकभय से राम ने सीता का परित्याग किया था । राम ने साफ-साफ स्वीकार भी किया है कि 
‘सेयं लोकभयात् ब्रह्मन् अपापेत्यभिजानता, परित्यक्ता मया सीता’ (उत्तरकाण्ड, सर्ग 97, श्लोक 4) ‘हे, ब्रह्मन्, मैं जानता हूं कि सीता निष्पाप है, परन्तु लोकभय से ही मैंने इसका परित्याग किया है।’

राम ने, वाल्मीकि से यह भी कहा था, कि अगर वाल्मीकि, जन समाज में, सीता को निष्पाप घोषित कर दें और लोग इस बात को मान लें, तो वो सीता को फिर से ग्रहण करने के लिए तैयार हैं । परन्तु तभी एक असाधारण घटना घटित हो गई ।  जब सीता ने यह सब सुना, तब उन्होंने एक अप्रत्याशित फैसला ले लिया । बिना पलक ऊपर उठाए और बिना पल भर की प्रतीक्षा किए, सीता ने, पृथ्वी को सम्बोधित करते हुए जो कहा, उसे आदिकवि वाल्मीकि ने इन श्लोकों में व्यक्त किया है :

सीता कहतीं हैं (यथाहं राघवादन्यं मनसापि न चिन्तये। तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति।) ‘अगर मेरे मन ने राम को छोड़ कर किसी के भी विषय में सोचा हो तो माधवी देवी (पृथ्वी) मुझे अपने में समा लें । (मनसा कर्मणा वाचा यथा रामं समर्चये। तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति।)अगर मैं मन, वचन और कर्म से सिर्फ राम की अर्चना करती हूं तो हे माधवी देवी मुझे अपने में समा लें । (यथैतत् सत्यमुक्तं मे वेह्नि रामात् परं न च। तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति॥) अगर यह सच है कि राम के अतिरिक्त मैं किसी को नहीं जानती तो हे माधवी देवी मुझे अपने में समा लें ।’ सीता के ऐसा कहने के पश्चात, पृथ्वी फट जाती है और सीता पृथ्वी में समा जाती हैं ।

अब कहने वाले कह सकते हैं, क्या कहीं, किसी के आग्रह मात्र से ऐसे ही पृथ्वी फट जाती है ? हो सकता है यह महर्षि वाल्मीकि की कोरी कल्पना हो । लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि हमारे देश का इतिहास अनेकोनेक ऐसी ही असाधारण घटनाओं से भरा पड़ा है, जिन्हें आम जीवन में असम्भव माना जाता है। जैसे गर्भ में ही शिशु को सबकुछ ज्ञात हो जाना । यह भी सम्भव है, स्वयं को निष्पाप साबित करने की कड़ी चुनौती, जो बार-बार सीता के सामने आ रही थी, उससे मुक्त होने का इससे बेहतर विकल्प शायद उन्हें दिखाई न दिया हो । शायद इस कठिन चुनौती ने ही उन्हें कोई  विकट कार्य करने के लिए प्रेरित किया हो, जिसे  पृथ्वी में समा जाने की उपमा, आदिकवि वाल्मीकि ने दे दी हो । बहुत सम्भव है कि सीता ने अपने ही प्रयासों से स्वयं को पृथ्वी में विलीन कर वैसे ही समाप्त कर दिया हो, जैसे बाद में राम ने स्वयं को जल को समर्पित कर महासमाधि ले ली थी ।

सीता ने अपनी निष्कलंकता साबित करने के प्रयास में स्वयं को ही नष्ट कर दिया । लेकिन फिर सोचने वाली बात यह है, उन्होंने आखिर ऐसा क्यों किया ? क्यों नहीं वो प्रजा की जयजयकार और पुष्पवृष्टि के बीच, फिर से अपने राम के साथ सुखमय जीवन बिताने को तैयार हुईं ? राम तो उन्हें निष्पाप मानते ही थे और सीता को भी इस बात का अखण्ड विश्वास था, कि राम को उनकी पवित्रता पर रंचमात्र भी संदेह नहीं है । यह बात वाल्मीकि रामायण में कई बार स्पष्ट भी की गई है । सिर्फ राजा की मर्यादा की रक्षा के लिए, लोकापवाद से बचने के लिए ही राम ने सीता का परित्याग किया । यह भी राम ने कई बार स्पष्ट कर दिया था। फिर जब वाल्मीकि के कथन पर जन समुदाय, सीता को निष्पाप मानने और क्षमायाचनापूर्वक स्वीकारने को तैयार था तो क्यों नहीं सीता ने लोकस्वीकृति को महत्व दिया और क्यों स्वयं को पृथ्वी के हवाले कर दिया?

सीता का पृथ्वी में प्रवेश, सीता के मौन द्वारा पूछा गया एक विकट प्रश्न भी है और प्रश्न का उत्तर भी । जब सीता का अपहरणकर्ता रावण, राम के हाथों मारा जाता है, तब सीता की  प्रसन्नता की  सीमा नहीं होती । रावण का अपने पति के हाथों मारे जाने के बाद, प्रसन्न सीता अपने पति से मिलने जातीं हैं, उनके अंग लज्जा के मारे अपने में ही सिमटते जा रहे हैं और वे विस्मय, अपार हर्ष और स्नेह के साथ पति के सौम्य मुख को निहारने लगीं परन्तु इस प्रतीक्षारत, सकुचाती, लज्जामयी और प्रेम से परिपूर्ण सीता को राम से सुनने को क्या मिला ? यह कि राम चाहते हैं कि सीता पहले अपने चरित्र की शुद्धता प्रमाणित करे ? (प्राप्तचारित्रसंदेहा मम प्रतिमुखे स्थिता, दीपो नेत्रातुरस्येव प्रतिकुलासि मे दृढा)...उस समय राम इतने कठोर हो गए थे कि सीता से यह भी कहने लगे, जानकी, तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ. मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ ।  देवी, ये दसों दिशाएं तुम्हारे लिए खुली पड़ी हैं, तुमसे मेरा अब कोई सरोकार नहीं रह गया है, (तद् गच्छ त्वानुजानेsद्य यथेष्टं जनकात्मजे,एता दश दिशो भद्रे कार्यमस्ति न मे त्वया ) जिस कीर्ति के लिए मैंने तुम्हारा उद्धार किया था, वह मुझे प्राप्त हो गई. मुझे तुमसे कोई लगाव नहीं रहा तुम अब जहाँ जाना चाहो, जा सकती हो (यदर्थं निर्जिता मे त्वं यशः प्रत्याहृतं मया. नास्ति मे त्वय्यभिष्वङ्गो यथेष्टं गम्यतामितः युद्ध. 103.21) देवी, मैंने तुमसे यह बात सोच-विचारकर कही है. तुम चाहो तो भरत या लक्ष्मण के साथ रह सकती हो, तुम्हारा मन करे तो सुग्रीव या फिर विभीषण के साथ भी रह सकती हो, जहाँ तुम्हें सुख मिलने की आशा हो, वहीं मन से रम जाओ (इति प्रव्याहृतं भद्रे मयैतत् कृतबुद्धिना, लक्ष्मणे भरते वा त्वं कुरु बुद्धिं यथासुखम्, सुग्रीवे वानरेन्द्रे वा राक्षसेन्द्रे विभीषणे, निवेशय मनः सीते यथा वा सुखमात्मना... युद्ध. 115.22-23), जाहिर है कि राम ने ऐसी कटुता पूर्ण बातें, लोकापवाद के भय से ही कही, अन्यथा वे तब भी सीता को हृदयप्रिया ही मानते थे । 

हालांकि रावणवध और युद्ध समाप्ति के उपारान्त राम को, अयोध्या की प्रजा से वैसी कोई शिकायत सुनने को नहीं मिली थी, जैसी राज्याभिषेक के बाद मिली । परन्तु सम्भावित लोकापवाद से राम भयभीत थे, इसीलिए उन्होंने सीता से चारित्रिक शुद्धता का प्रमाण माँगा । लोक भय से, रूखे और निष्ठुर राम को सीता ने कई तरह से समझाया, उन्हें उलाहना भी दिया, परन्तु राम अपनी बात पर अड़े रहे, तब हार कर सीता ने, लक्ष्मण से चिता तैयार करने को कहा और  यह कहते हुए अग्नि में प्रवेश कर गईं कि अगर मेरा चरित्र शुद्ध हो तो अग्निदेव मेरी रक्षा करें-(कर्मणा मनसा वाचा यथा नातिचराम्यमहम् राघवं सर्वधर्मज्ञं तथा मां पातु पावक: युध्दकाण्ड, सर्ग 116, श्लोक 27) और अग्निदेव ने सीता की रक्षा कर ली ।

परन्तु प्रश्न यह है कि क्यों नहीं दूसरी बार भी सीता ने अग्नि, पृथ्वी इत्यादि से अपनी रक्षा की प्रार्थना की और शेष जीवन, श्री राम के साथ बिताने की इच्छा ठीक वैसे ही प्रकट की जैसे रावण वध और युद्ध समाप्ति के उपरांत, अग्निप्रवेश के समय की थी ? क्या इसलिए कि पहली बार उन पर संदेह उनके पति ने किया था, जिसका निवारण करना, तमाम परिस्थितियों को देखते हुए, सीता ने अपना कर्तव्य समझा ? और क्या दूसरी बार उन पर संदेह उनके पति ने नहीं, बल्कि जन समाज ने किया था, जिसके निवारण की उन्होंने कोई आवश्यकता नहीं समझी ? अपने पति के संदेह का निवारण करना सीता को अपना कर्तव्य लगा, पर समाज द्वारा उठाए गए इस निर्मूल संदेह का निवारण करना उन्हें कतई अपना कर्तव्य नजर नहीं आया और न ही आना चाहिए था । इस शंका का निवारण करना अब राम का कर्तव्य था । 

इसलिए अपने गहरे मौन के जरिए इस बार सीता ने राम को जता देना चाहा कि बेशक इस बार आक्षेप तुमने नहीं, समाज ने लगाया है, पर इस बार असली दोषी तुम हो । सीता मानो कहना चाहती हैं कि हे राम, बेशक मेरा निर्वासन कर, मुझसे दूर रहकर, अकेले में अपने हृदय को कष्ट देकर तुमने श्रेष्ठ नायक, एक पत्नीधर्म का पालन कर मर्यादापुरुषोत्तम राजा का पद पा लिया हो, पर मर्यादायुक्त पति के सिंहासन तक तुम नहीं पहुंच पाए ।




तो अब प्रश्न यह है कि राम को क्या करना चाहिए था ? राम के पास दो विकल्प थे । या तो वो सीता से खुद को अलग कर लेते या सीता के साथ रहने का निर्णय कर खुद को राजपाट से अलग कर लेते । पहला विकल्प आसान था, परन्तु दूसरा कठिन । और राम ने पहला और आसान विकल्प चुना । न सिर्फ सीता को निर्वासित किया, स्वयं को भी दण्डित कर दिया । लेकिन वो राजा थे, वो प्रजा से कह सकते थे, क्यों सिर्फ नारी ही परीक्षा का विषय होनी चाहिए ? क्यों नहीं आरोप लगाने वाली प्रजा की भी परीक्षा होनी चाहिए ? कहने का तात्पर्य यह है कि वो गर्भवती सीता को, जिनकी निष्कलंकता पर उन्हें रंच मात्र भी संदेह नहीं था, ऐसी सीता को, जो निश्छलता और स्नेह की प्रतिमा थीं, ऐसी सीता को बिना निर्वासित किए, बिना पलभर का कष्ट दिए हुए, वो प्रजा से कह सकते थे कि जो प्रजा ऐसी सीता को अपना नहीं सकती, वह सीता के पति, राम के लायक भी नहीं । परन्तु राम ने ऐसा नहीं किया।

शायद इसीलिए दूसरी बार अपनी शुद्धता सिद्ध करने के लिए बुलाई गई सीता ने अपने पति की इस दुर्बलता का, अपनी पत्नी की रक्षा नहीं कर पाने की असफलता का, पति की तुलना में अपने राजा होने को अधिक महत्व देने की प्रवृत्ति का, विरोध इस तरह से किया कि बिना पति से एक शब्द कहे, बिना उसकी ओर निहारे, यहां तक कि उन्हीं की भक्ति की शपथ उठा कर सीता, पृथ्वी में समा गईं ।  मानो राम से कह गईं कि हे राम, तुम्हें मैं प्रिय अवश्य हूं, मेरे बिना तुम व्याकुल भी हो, पर अपनी प्रजा के आगे तुम विवश हो । प्रजा के लिए तुम मेरा ही बार-बार अपमान करते हो, तो इस अपमान को बार-बार सहना मेरे लिए अब सम्भव नहीं । अनन्य प्रेम से भरे पति के साथ शेष जीवन बिताने का विकल्प सीता ने इसलिए नहीं चुना क्योंकि एक से अधिक बार साबित हो चुका था कि राम, प्रजा और सीता के बीच प्रजा के निराधार आरोप और अनर्गल बातों को ही हमेशा अधिक महत्व देंगे और सीता बार-बार एक प्रेम से भरे, परन्तु एक कमजोर पति की ख़ातिर और अग्निपरीक्षाएं देने के लिए तैयार नहीं थीं ।


कौन जाने सीता क्या कहना चाहती थीं ?  बिना पल भर विलम्ब किए सीता का पृथ्वी में प्रवेश, कितने प्रश्न खड़े कर गया है ।  जिनमें से सबसे बड़ा सवाल यक़ीनन राम से है कि क्या पति होने के नाते राम का सीता के प्रति कोई कर्तव्य नहीं था ? वाल्मीकि ने लिखा है, सीता के सहसा पृथ्वी में प्रवेश कर जाने के उपारांत राम देर तक रोते रहे थे । थोड़ी देर बाद क्रोधित होकर वो पृथ्वी को ललकारने लगे कि सीता को वापस करो अन्यथा वो बाणों से उसे विर्दार्ण कर पर्वत-समुद्र सहित हमेशा-हमेशा के लिए खत्म कर देंगे ! लेकिन सीता मानो अपने पृथ्वी प्रवेश से उपजे सन्नाटे में राम से कह रही थी कि हे राम, ऐसा ही उद्वेग तुमने तब क्यों नहीं दिखाया, जब मुझ पर झूठे आरोप लग रहे थे ?