कल मैंने एक पोस्ट लिखी थी 'हम नहीं सुधरेंगे'.. 'यहाँ' और 'वहाँ' के परिवेश में जो फर्क है लिख कर बताना मुझे जैसे कलमकार के वश की बात नहीं है...फिर भी कोशिश करना मेरा कर्तव्य है...फर्क बुनियादी सोच की है...'यहाँ' अधिकतर जगहों में जो, सोच देखने को मिलती है वो 'वहाँ' बिरले ही नज़र आता है, ख़ैर आज फिर कुछ घटनाओं का ज़िक्र करती हूँ....मेरी इन बातों का ग़लत अर्थ न लिया जाए, हमारे यहाँ ही कहा गया है...
निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय
हालांकि में निंदा नहीं कर रही हूँ, जो अच्छी बात है वो अच्छी बात है और उसे अपनाने में हिचक नहीं होनी चाहिए...भारत और यहाँ के जीवन में कुछ बुनियादी फर्क है...'वहाँ' की आम ज़िन्दगी और सोच से बहुत ही अलग है 'यहाँ' की आम ज़िन्दगी और सोच... 'वहाँ' अर्थात भारत में जीवन हर वक्त एक स्पर्धा में बीतता है..हर इंसान एक होड़ में लगा हुआ है...'यहाँ' ऐसी बात नहीं है...
शायद यह जीतने की इच्छा ही हमलोगों को 'यहाँ के लोगों' से अलग करती है...और हम यहाँ आकर बहुत आगे निकल जाते हैं, जो एक अच्छी बात है..लेकिन जीतने के लिए कुछ भी कर गुज़रना ग़लत बात है...
यहाँ अनुशासन, ईमानदारी, सिविक सेन्स लोगों के खून में ही है....
रोड ट्रैफिक : कहते है किसी देश की अगर आपको मानसिकता देखनी है तो उस देश के ट्रैफिक को देखिये...टैफिक वहाँ के बाशिंदों की मानसिकता बता देता है...हमारे देश का ट्रैफिक कैसा है ...ये मुझे कहने की ज़रुरत नहीं है...लेकिन 'यहाँ' आम इंसान की गाड़ी, कोई सामने हो या न हो ट्रैफिक के नियमों का पालन करती है...यहाँ होर्न आपको सुनने को नहीं मिलेगा...होर्न दो ही वक्त बजाते हैं लोग...
१. जब किसी को ताक़ीद करनी हो या फिर उसे उसकी ग़लती बतानी हो
२. जब कोई ख़ुशी की बात हो, जैसे किसी की शादी हो या फिर किसी टीम ने कोई मैच जीता हो
लेकिन 'वहाँ', शादी किसी के घर और शामियाने के लिए सड़क तक खुद जाती है...जबकि सडकें बहुत मुश्किल से बनतीं हैं...
बुरा लगता है सुनना अपने देश के बारे में ऐसी बातें, है न !...हमें भी बुरा लगता है, जब समाचारों में भारत की धज्जी उड़ते हुए देखते हैं, जब 'शाइनिंग इंडिया' के साथ-साथ 'क्रिप्लिंग इंडिया' भी दिखाई देता हैं, लेकिन उसे सुधारेंगे हम-आप ही...इसलिए जो कमी है वो बता रही हूँ...मैं भी अपने देश का गुणगान करने वाली पोस्ट लिख सकती हूँ...और बिना मतलब की वाह वाही ले सकती हूँ...लेकिन आज कल जो समाचारों में देख रही हूँ..कॉमन वेल्थ गेम के नाम पर जो थू-थू हो रही है, जो खेल गाँव के कमरों की तसवीरें दिखाई जा रही हैं, जहाँ बिस्तर पर, बेसिन में मल-मूत्र और दीवारों पर पान की पीक दिखाई जा रही है..खेल शुरू होने के कुछ दिन पहले..जो पुल गिर रहे हैं, वह असहनीय है...इसलिए सोचा कि ज़रा हमारी अपनी कमियों की तरफ उंगली उठा ही दूँ...भ्रष्टाचार झेलने और करने की आदत से बाहर आना ही होगा...अच्छाई हर इंसान में होती है ज़रुरत होती है उसे उंगली करने की...अपनी जद में रह कर अगर कुछ भी हम ख़ुद को सुधार सकते हैं तो क्यों नहीं ये काम करें...बड़े मकसद छोटी कोशिशों से ही पूरे होते हैं...
एक घटना बताना चाहूंगी...
ये हमारे सामने ही घटित हुई है...हम एक भारतीय ग्रोसरी शॉप में, दाल चावल लेने गए हुए थे...अभी हम अपना सामान ले ही रहे थे, देखा एक अंग्रेज आया और उसने समोसा माँगा, समोसे की कीमत १ डोल्लर में २ थी, उसने २ समोसे लिए...और पूछा कितने पैसे हुए..भारतीय दूकानदार ने कहा १ डोल्लर, अंग्रेज ने पूछा और टैक्स ? दूकानदार ने कहा टैक्स नहीं लूँगा...१ डोल्लर दे दो...लेकिन ग्राहक से साफ़-साफ़ कहा मैं टैक्स देना चाहता हूँ..और आप टैक्स लेंगे...
अलबत्ता ऐसी सोच वाले लोग आपको यहाँ बहुत बड़ी तादाद में मिलेंगे...जो टैक्स देना अपना धर्म समझते हैं...
घटना नम्बर २...
बात उन दिनों कि है जब गुजरात में भूकंप आया था...मैंने अपने ऑफिस में कुछ चंदा इकठ्ठा करना शुरू किया और एक एम्बुलेंस खरीद कर भेजने का प्लान किया...इस घटना की विभीषिका ने बहुतों को छूवा था...मुझे मेरे ऑफिस वालों ने २५००० डोल्लर जमा करके दिया...जब सबके टैक्स की रसीद मैं देने लगी तो देखा, ५ लोग ऐसे थे जिन्होंने १०००-१००० डोल्लर दिए थे..मेरे साथ ही काम करने वाले आम लोग थे...ऐसा भी नहीं था कि बहुत पैसेवाले लोग थे...मैंने उनसे कहा कि इतना पैसा देने की ज़रुरत नहीं है...कुछ कम ही दे दो...लेकिन उनका ये कहना था...कि ये पैसे उनके पास 'सरप्लस' है फिलहाल उनकी ऐसी कोई ज़रुरत नहीं है...जिसमें वो इस पैसे का इस्तेमाल करें...मैं हैरान हो गई...क्या हम भारतीयों के पास करोड़ों आने के बाद भी ऐसा लगेगा कि हमारे पास पैसा 'सरप्लस' है ...सोचियेगा ज़रा..
तीसरी घटना.....
हमारी कंपनी..ने कुछ काम करवाया था एक सब्जेक्ट मैटर एक्सपर्ट से ..हमारा contract उनके साथ ५००० डोल्लर का था, उन्होंने अपना काम किया और हमने उनको ५००० का चेक दे दिया...कुछ दिनों के बाद हमारे पास ३००० डोल्लर का चेक वापिस आ गया...साथ ही उनका एक नोट भी..कि काम मैंने सिर्फ़ २००० डोल्लर का ही किया था..इसलिए ये ३००० डोल्लर वापिस कर रह हूँ...क्या ये भारत में संभव है...?
बताइयेगा ज़रा..
क्लासिक घटना...
अब जिस घटना का मैं ज़िक्र करने वाली हूँ वो एक क्लासिक घटना है...
हमारा घर नदी के पास में है और आस पास बहुत सारे फार्म हाउस हैं...जहाँ चेरी और स्ट्राबेरी, मौसम में कुछ दिनों तक आप मुफ्त में तोड़ कर खा सकते हैं...वहीं एक फार्म में बहुत सारी लगभग ५० गायें हैं...जाहिर सी बात है, इतनी गायें हैं तो दूध इफ़रात होता है...हर गाय एक बार में १५-२० लीटर दूध देती है...एक दिन बहुत अच्छा मौसम था हम बस यूँ ही पहुँच गए...जब हम पहुँचे तो देखा ...सामने दूध से भरा हुआ बहुत बड़ा कंटेनर था, और Mr. Fredrik उस बर्तन को पलटने कि कोशिश कर रहे थे...उस टब में २०० लीटर दूध था, और वो उसे फेंकने का प्रयास कर रहे थे...हमलोग परेशान हो गए कि ऐसा क्यों कर रहे हैं....पूछने पर बताया कि...उनका कुत्ता, उस टब में मुँह लगा गया है..और अब वो इस दूध को नहीं बेच सकते हैं...ये अब किसी भी काम का नहीं है....याद रखिये, वहाँ कोई था भी नहीं जिसने इस बात को होते हुए देखा था....ये तो उनकी अपनी ईमानदारी थी न...देखते ही देखते उन्होंने २०० लीटर दूध हमारे सामने ही पलट दिया...और उनके चेहरे पर एक शिकन तक नहीं आई...मैं तो बस सोचती रह गई की हमारे यहाँ तो दूध के नाम पर लोग बहुत आराम से 'सिंथेटिक दूध' बेच कर चले जाते हैं...उनको तो उन दूधमुंहे बच्चों तक का ख्याल नहीं आता..जो इस दूध को पीने वाले हैं...
मैं ऐसी ही ईमानदारी, और विश्वास की बात कर रही हूँ...ऐसी मानसिकता हमारे लोगों में कब आएगी...? आएगी भी या नहीं आएगी ? मेरी इन पोस्ट्स का मकसद है..यहाँ की कुछ अच्छाइयों को आप सबके सामने लाना...घटनाएं छोटी हैं सभी लेकिन सोचने को मजबूर करती हैं...
pathetic
ReplyDeleteदीदी,
ReplyDeleteपूरी तरह सहमत .... जो सच है वो सच है .... इसलिए देश के गुणगान करती किसी पोस्ट पर मेरा कमेन्ट नहीं है
वैसे ये आजतक की सबसे बेकार फोटोज है :)) आपके ब्लॉग पर , पर क्या कहूँ लेख पर पर सूट कर रही है :(
कमोड की "साफ़ सफाई युक्त निवृति " वाले कंसेप्ट की इंडियन इतनी अच्छी तरह वाट लगायंगे की विदेशी भी एक दिन कमोड देख के घबराएंगे :))
मैंने जो अंतर देखा है
वो बात करने की तहजीब , स्वच्छता , बोडी लैंगुएज , यहाँ तक की मृत्यु के समय पर विदेशियों की प्रतिक्रिया को [आज के ] भारतियों से बहुत बेहतर और संभला हुआ पाया है
इफ़रात ??
ताक़ीद ??
Hey
Deleteबहुत ही जानकारी पूर्ण आलेख .... यहाँ और वहां काफी फर्क हैं ... काफी कुछ जानने का मौका मिला .. आभार
ReplyDelete@ गौरव..
ReplyDeleteइफ़रात= excess/plenty, बहुत
ताक़ीद=होशियार करना
उफ्फ अदा जी क्या क्या कह डाला आपने. अब कुछ दिनों तक नींद हराम रहेगी अपनी..... बस यही ख्याल आता रहेगा कि हम ऐसे क्यों नहीं हैं... हाँ नहीं तो.
ReplyDeleteमुझे तो लगता है आप हिन्दुस्तान को बहुत miss कर रहीं है, इसलिए अपने आप को समझाने के लिए सुबूत इकठ्ठा कर रहीं है की कनाडा हिन्दुस्तान से अच्छा है ! कभी कभी खुद को समझाना भी बहुत जरूरी हो जाता है. आशा है आपको सफलता मिलेगी ...
ReplyDeleteलिखते रहिये ..
इन सब बैटन के मूल में एक ही चीज़ है अदा जी ! और वो है शिक्षा ..जहाँ यहाँ प्रारंभिक शिक्षा के तौर पर बच्चों को सिविक सेन्स,अनुशासन ,और अपने फ़र्ज़ सिखाए जाते हैं.पहले उन्हें एक नागरिक बनाया जाता है बाद में किताबी शिक्षा दी जाती है. .वहीँ भारत में इन सब को दरकिनार कर क ख ग और ए बी सी रटाने पर जोर होता है.
ReplyDeleteअगर स्वार्थीपना छोड़ दें और दुनिया को परिवार समझ लें तो शायद यह सब हो सकता है... काश कि सारी दुनिया इतनी हसीं होती..
ReplyDeleteआँखें खोलती घटनायें।
ReplyDeleteइन सब बैटन के मूल में एक ही चीज़ है अदा जी ! और वो है शिक्षा ..जहाँ यहाँ प्रारंभिक शिक्षा के तौर पर बच्चों को सिविक सेन्स,अनुशासन ,और अपने फ़र्ज़ सिखाए जाते हैं.पहले उन्हें एक नागरिक बनाया जाता है बाद में किताबी शिक्षा दी जाती है. .वहीँ भारत में इन सब को दरकिनार कर क ख ग और ए बी सी रटाने पर जोर होता है.
ReplyDeleteशिखा जी के एक एक शब्द से सहमत !!
प्रेरणादायक पोस्ट ...
ReplyDeleteगुनाह कर के भी हम सुकून से है,
ReplyDeleteअपना अपना ज़मीर है न?
कमेंट में कही पूरी बात के लिये :
ReplyDeletehttp://sachmein.blogspot.com/2010/06/blog-post_26.html
दुखी मन से, आपसे अक्षरशः सहमत हूँ.
ReplyDeleteहमारी आदत है ना, राम का देश, कृष्ण का देश, पाणिनि का ज्ञान, अशोक का न्याय और सचिन का क्रिकेट करने की... एक महान प्राणी या एक अवतार जो था वो पर्याप्त है, बाकी हम कुछ क्यूँ करें?
फिर भाई-भतीजा, घर-परिवार, मोहल्ला, गली, इलाका, तहसील, गाँव, शहर, राज्य, भाषा, देश, जाति, लिंग... बडी चीजें हैं देखने को, फुर्सत किसे है इतना सब कुछ करने की...??
फिर तैंतीस करोड़ देवता भी हैं, करेंगे सब... जरा पूजा अर्चना कर लेंगे हम गँगा यमुना में...
हाँ कोई कहेगा तो राम का हवाला है अपने पास... अरबों साल पुरानी संस्कृति है (संस्कृत नहीं आती ये अलग बात है)
शुक्रिया जो आपने लिखा इसे... बहुत शुक्रिया
इस तरह की तुलना होनी ही चाहियें, तभी हम अपना सही मूल्यांकन कर सकेंगे।
ReplyDeleteआपने जितनी घटनायें बताई हैं, सभी आंखें खोलने वाली हैं। एक एक करके अपने देश में ऐसी स्थितियों की कल्पना करते हैं तो एक्दम उलट तस्वीर दिखाई देती है। मैं भी एक जनरल बात ही कर रहा हूँ, अपवाद तो हर जगह होते हैं।
निंदक नियरे चाहियें जी, बिल्कुल चाहियें। हमेशा वाहवाही से सही विकास नहीं हो सकता, कभी कभी नीम का दातुन भी जरूरी है।
तौबा तौबा , अदा जी । अपने टी वी चैनल्स से ली गई तस्वीरें छाप दीं । इसमें उनका क्या मकसद है ये तो वही जाने । लेकिन दिल्ली इतनी बुरी भी नहीं है । यकीन न आता हो तो ज़रा हमारे ब्लॉग पर कल लिखी पोस्ट को देखिये । और देखिये कि दिल्ली की कैसे कायापलट हुई है ।
ReplyDeleteहाँ , मानसिकता बदलने में अभी समय लगेगा ।
सहमत हूँ आपकी बातों से.ईमानदारी अपने आप से,देश से ...बस ये सोच होती तो ऊपर दिखाए चित्र आज यहाँ नही होते.हम ये सोचे कि ये मेरा है.मेरी खरी कमाई से निकाल कर दिए टेक्स से नबे हैं इसलिए मेरे या हमारे हैं तो हम हर चीज का इस्तेमाल अपनी चीज की तरह करते,पर....ऐसा नही करते.अपने अंदर की आवाज सुने तो भारत मे ये सब हो सकता है हर फील्ड मे.
ReplyDeleteबहुत पीड़ा होती है अपने देश मे ये सब देख कर.अच्छी बात जिसे हम 'फोलो' कर सकते हैं किसी भी मुल्क की हो,बताना,जानना कत्तई गलत नही.
मैं उस दिन बहुत खुश हुई थी जिस दिन क्रिकेटर 'हेन्स क्रोनिय'ने,क्लिंटन ने कन्फेस किया था.हम मे से कितनो मे ये साहस है?
अच्छा लगा आर्टिकल पढ़ कर. सच्ची.क्योंकि ऐसिच हूँ मैं भी
शिखा जी और संगीता जी ...
ReplyDeleteआप के विचारों से ...असहमत हो रही हूँ...
इतने विशाल देश में..पढ़े-लिखे लोगों में ही देखती हूँ..सिविक सेन्स और अनुशासन की कमी...आप किसी भी सरकारी दफ़्तर में चले जाइए आपको पान की पीक और गन्दगी फैलाते हुई, अफसर और बाबू मिल जायेंगे...क्या इन्होने पढाई नहीं की है...और बड़े से बड़ा घपला क्या मजदूर करता है...नहीं शिखा जी और संगीता जी...सारे दिग्गज ही ये काम कर रहे हैं...
मेरी दादी बिल्कुल भी पढ़ी-लिखी नहीं थी...लेकिन मैंने हमेशा उनमें ये गुण देखा है...इसलिए इन बातों का पढाई से कोई ताल्लुक नहीं है....ये मन की बातें हैं...
दराल साहब,
ReplyDeleteदिल्ली तो चमक गई है...लेकिन ये चमक कितने दिन रहेगी ये भी देखना है...साथ ही इस चमक की कीमत क्या है...और यह भी की दिल्ली हिन्दुस्तान नहीं है....
आपका बहुत आभार....
अदा जी,
ReplyDeleteसबसे पहले एक शानदार पोस्ट पर बधाई ऐसी आत्मालोचनात्मक और यथार्थपरक प्रविष्टियों की बेहद ज़रूरत है ! विश्वगुरु होने का शुतुरमुर्गाना भ्रम कब तक पाल कर रखेंगे ?
पोस्ट में नागरिक बोध की नजीरें देख कर यूं लगा कि जैसे हम पशुओं से सभ्य और सुसंस्कृत नागरिक हो जाने के बीच की कड़ी हों ! कई बार कहा है ,अक्सर कहता हूं और आज फिर से सही ...इस महादेश को अच्छे नागरिकों की दरकार है !
एक बार फिर से बेहतरीन प्रविष्टि की बधाई ! आत्मालोचन होना ही चाहिए !
जिसने भी इन दोनों विपरीत ध्रुवों को ठीक से देखा है वहा आपसे असहमत हो पायेगा - इसमें शक है.
ReplyDeleteदेश के हालात , यहाँ के निवासियों की बेईमानी पर अच्छा आलेख ...आत्मावलोकन तो करना ही होगा ...
ReplyDeleteमगर ये जरुर कहूँगी कि ...
जिन देशों के अनुशासन का जिक्र आप कर रही हैं , वहां सभी का पेट भरा हुआ है ...
जिन परिस्थितियों में हम भारतवासी रहते हैं , उनमे रहने के बाद शायद उनकी ईमानदारी भी कायम नहीं रह पाए ....
एक बेहद रचनात्मक सोचने को मजबूर करती हुई पोस्ट ....!
बढ़िया लेख और विचारों के लिए पूरी तौर पर सहमत हूँ अदा जी , मगर मेहमानों के सामने अपने घर में कुश्ती ठीक नहीं ....
ReplyDeleteभारतीय मीडिया को सकारात्मक रोल अदा करना चाहिए खास तौर पर जब हमें बाहर वाले शक की नज़र से देख रहे हूँ ! रह गयी बात एक्सिडेंट की , तो विश्व में ऐसा कोई देश नहीं जहाँ कार्य होते समय दुर्घटनाएं नहीं घटती हों , आप गूगल पर सर्च कर इमेज देख लें ! जिस पैमाने पर देश में विकास कार्य हो रहे हैं उसमें एक दो एक्सिडेंट होने मामूली कहलाये जायेंगे ! मानवीय गलतियाँ कहाँ नहीं होती ! हम बुरे हैं हम बुरे हैं कहते रहिये .... पहले से ही भयभीत विदेशी आपके देश में झांकेंगे भी नहीं और आपके दुश्मनों को आपका मुंह काला करने का मौका आसानी से मिलेगा !
शुभकामनायें
@वाणी दीदी
ReplyDeleteवहां सभी पेट इसीलिए भरा हुआ है क्योंकि वे अनुशासित हैं
यहाँ किसी का पेट जरूरत से ज्यादा भरा है और इसीलिए किसी का बिल्कुल खाली :))
@आदरणीय सतीश जी
ReplyDeleteआपका उत्तर अभी शेष है
@ वाणी जी...
ReplyDeleteवैसे इन देशों में भी लोग गरीबी में रहते हैं...ऐसा नहीं है...कि इस देश में कम भाग्यशाली लोग नहीं हैं....लेकिन उसकी वजह से वो ईमानदारी के साथ समझौता नहीं करते...अगर पेट ख़ाली होना बेईमानी. अनुशासनहीनता कि वजह माना जाए तो हिन्दुस्तान के सभी धनिक और मंत्रीगण बहुत ईमानदार और अनुशासित होने चाहिए...परन्तु क्या ऐसा है..?
आपका बहुत आभार....
@आदरणीय सतीश जी
ReplyDelete@मगर मेहमानों के सामने अपने घर में कुश्ती ठीक नहीं
अगर कोई मुह दबाकर हंस रहा हो तो इसका मतलब ये नहीं की वो हंस नहीं रहा ...... ये मानसिक कुश्ती जरूरी है .. ये एक स्वस्थ मानसिकता का परिचय है :)
ट्रेफिक के मामले में तो खैर हमारे मैनर्स पर एक पूरा लेख बनाया जा सकता है [मैं एवरेज राष्ट्रीय मानसिकता की बात कर रहा हूँ ], मुझे बात परिणाम[एक्सीडेंट ] की नहीं कारण [लापरवाही वाला रवैया या मानसिकता ] की लगती है, मानवीय गलती की नहीं [वो होना तो जायज है ]
वो अपने राष्ट्रीय ध्वज को किसी भी तरह प्रयोग करते हैं पर राष्ट्र के प्रति भक्ति में हम से आगे हैं और हम बस ध्वज के सम्मान में उनसे आगे हैं.
मुह काला होनान तो बस एक मुहावरा हुआ ..... आप ही सोचे एक आदमी जिसकी शर्ट एकदम साफ़ है जूते गंदे हैं बाल बिखरे हैं उस पर कोई यकीन करेगा क्यों ?? हमारी इमेज कुछ ऐसी ही तो नहीं ??
सिर्फ त्यौहार पर नए कपडे पहन कर खाली पेट महंगा वेवेजुला बजाना हमारी आदत में शमिल न हो जाये कहीं.... या भी एक चिंता का विषय है
@आदरणीय सतीश जी
ReplyDelete@मगर मेहमानों के सामने अपने घर में कुश्ती ठीक नहीं
अगर कोई मुह दबाकर हंस रहा हो तो इसका मतलब ये नहीं की वो हंस नहीं रहा ...... ये मानसिक कुश्ती जरूरी है .. ये एक स्वस्थ मानसिकता का परिचय है :)
ट्रेफिक के मामले में तो खैर हमारे मैनर्स पर एक पूरा लेख बनाया जा सकता है [मैं एवरेज राष्ट्रीय मानसिकता की बात कर रहा हूँ ], मुझे बात परिणाम[एक्सीडेंट ] की नहीं कारण [लापरवाही वाला रवैया या मानसिकता ] की लगती है, मानवीय गलती की नहीं [वो होना तो जायज है ]
वो अपने राष्ट्रीय ध्वज को किसी भी तरह प्रयोग करते हैं पर राष्ट्र के प्रति भक्ति में हम से आगे हैं और हम बस ध्वज के सम्मान में उनसे आगे हैं.
मुह काला होना तो बस एक मुहावरा हुआ ..... आप ही सोचे एक आदमी जिसकी शर्ट एकदम साफ़ है जूते गंदे हैं बाल बिखरे हैं उस पर कोई यकीन करेगा क्यों ?? हमारी इमेज कुछ ऐसी ही तो नहीं ??
सिर्फ त्यौहार पर नए कपडे पहन कर खाली पेट महंगा वेवेजुला बजाना हमारी आदत में शमिल न हो जाये कहीं.... ये भी एक चिंता [मेरा मतलब चिंतन ] का विषय है
सतीश जी...
ReplyDeleteजब आग लगी हो तो कुवाँ खोदना बेवकूफी है....भारत के पास समय था और एक अच्छा मौका भी....आखिर इतना पैसा टैक्स पेयर्स का खर्च हुआ ही है...फिर काम में किसी किसिम कि कोताही, सिर्फ ये सोच कर कि मेहमान क्या कहेंगे बर्दाश्त करना मुझे नहीं लगता उचित है...हादसा होना और काम में ही कमी होना में फर्क है...किसी हादसे में पुल टूट जाए...वो समझ में आता है...लेकिन सामग्री में कमी कि वजह से पुल टूट जाए...यह अशोभनीय है...और फिर इस बात की क्या गारंटी है कि और ऐसे हादसे नहीं होंगे अगर....सामान ही घटिया लगा हुआ है तो....७००० खिलाड़ियों की ज़िन्दगी, लाखों लोगों का आवा-गमन सभी कुछ है....और अगर ऐसा कुछ हुआ तो भारत की छवि....दुश्मनों की छोडिये दोस्तों के बीच क्या होगी...?
ईश्वर से प्रार्थना है सब कुछ ठीक ठाक बीत जाए....लेकिन संदेह से बाहर आना मुश्किल है..इस समय जो छवि देखने को मिल रही है भारत की उससे...
आपने अपना दृष्टिकोण रखा आपका आभार...
वो सुबह कभी तो आएगी।
ReplyDeleteaur phir...chupaya oose ja sakta hai....jo chhip
ReplyDeletesake....ja chhip nahi sakta to oose swikar karne
me koi galat nahi hai.......
pranam
अदा जी !आप शायद मेरे कहने का मतलब नहीं समझीं. शिक्षा का मतलब सिर्फ स्कूली और किताबी शिक्षा नहीं होता हम घर बैठकर भी शिक्षित हो सकते हैं ,और बड़ी बड़ी यूनिवर्सिटी की डिग्री लेकर भी अशिक्षित रह सकते हैं.
ReplyDeleteशायद आपने स्कूल में चार मुर्ख पंडितो वाली कहानी पढ़ी हो जो किताबो में ही व्यवहारिक ज्ञान ढूढ़ते हैं :).
वैसे सोच अपनी अपनी :).
भाई वाह क्या बात कही है ओशो ने .... पर जनाब ये पोस्ट मेरे ब्लॉग पर भी लगी है ..... मतलब के आपकी पोस्ट चोरी हो गयी है ......
ReplyDeleteअदा जी
ReplyDeleteगाड़ी से चलना तो दूर की बात है पैदल चलने तक का सेन्स नहीं है | इस तरह की कोई आलोचनात्मक बात या कोई तुलना आप करेंगी तो कुछ लोग शुरू हो जायेंगे यहाँ के संस्कार वहा नहीं मिलेगा यहाँ का भाईचारा वहा नहीं मिलेगा वहा तो लोग एक दुसरे को पहचानते भी नहीं ब्ला ब्ला ब्ला .......... मै आप को बताती हु की क्या होता है जब लोग पन की पिक से परेशान हो जाते है तो वहा पर भगवान की तस्वीर स्टीकर आदि लगा देते है पर महान आत्माए स्टीकर निकल कर फेक देती है और तस्वीर गायब हो जाती है और पिक फिर से शुरू | ऐसा नहीं है की ये बंद नहीं हो सकता किसी प्राइवेट स्कटर के आफिस में जाइये सब कुछ साफ सुथरा मिलेगा | असल में हमें हमें अनुशासित हो कर रहना ही नहीं है |
ReplyDeleteऔर हाँ ..... एक्सीडेंट का मतलब पुलों के गिरने से है तो भी मेरे विचार वही हैं .. इस बारे में काफी जानकारी है [रीसेंट इतिहास की ]
दोहरा रहा हूँ
"मुझे बात परिणाम[एक्सीडेंट ] की नहीं कारण [लापरवाही वाला रवैया या मानसिकता ] की लगती है, मानवीय गलती की नहीं [वो होना तो जायज है ]"
ये एक ग्लोबल सेंटेंस है :))
मैंने किसी घटना विशेष से निष्कर्ष न निकाला है न निकालूँगा :)
मैं जिस मोटिव के लिए इस रचना को बनाई गयी समझ रहा हूँ मुझे वो उदेश्य पूरा होता नजर आता है
अगर नहीं आता तो मैं पूछता जैसे ऊपर दो मीनिंग पूछे हैं
पर"निंदा" एक बुरी बात है पर यह पर"देश " नहीं है स्व "देश" है
चोरी पकड़ी जाने पर बिल्ली आंख बंद कर ले तो क्या उसका गुनाह खत्म हो जाता है...
ReplyDeleteयहां क्लासिक एसएमएस चल रहा है- सुरेश कलमाड़ी ने इतनी बदनामी के बाद स्टेडियम में ही फंदा लगाकर खुदकुशी का फैसला किया...लेकिन यहां भी वक्त ने दगा दे दिया...जिस सीलिंग से फंदा लटकाया था, वो सीलिंग ही नीचे आ गिरी...
जय हिंद...
आबादी, अशिक्षा और असहिष्णुता इसके लिए जिम्मेदार हैं
ReplyDeleteबहुत सही और सटीक लेख।
ReplyDeleteअब आपके प्रश्न के बारे में...
जी हाँ, भारत में भी यह सब कुछ संभव है और शायद कहीं इससे भी ज्यादा बेहतर संभव है।
यहाँ भी कई ऑटो वाले अपने यात्रिओं के भूले लाखों के सामान को लौटाने के लिए मारे मारे फिरते हैं, यहाँ भी आज भी एक सामान्य मध्यमवर्गीय इन्सान को मिले लाखों के हीरों को लौटाने के लिए एक महीने वह परेशान होता है, और भी ऐसे बहुत से उदाहरण हैं।
क्या विदेशों में अपराध नहीं होते? क्या वहाँ कोई भ्रष्ट नहीं होते? दुनियां के भ्रष्ट देशों में भारत का क्रमांक बहुत नीचे है।
दरअसल ये मानवीय भावनाएं होती है। हर जगह हर तरह के इन्सान मिलते हैं। गुजराती में एक कहावत है, ज्यां गाम होय त्यां उकरडो होय ज ( जहाँ गाँव होता है वहाँ कचरे का ढ़ेर भी होता ही है।
विदेश के जो आपने उदाहरण दिये हैं (खासकर दूध वाला) मैं उनसे सहमत हूँ पर ये भी मानता हूँ कि हमारे यहाँ बस एक ही चीज की कमी है और वह है शिक्षा की कमी! और सरकारों/ सरकारी महकमों के द्वारा दी जाने वाली जानकारियों का अभाव।
बहुत सी बाते हैं फिर कभी चर्चा होगी।
॥दस्तक॥,
गीतों की महफिल,
तकनीकी दस्तक
@सागर नाहर
ReplyDeleteऑटो वाले का सामान लौटा देना जैसे उदहारण अपवाद हैं या नियम? ऐसी ईमानदारी नियम होती तो बताने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती. यहाँ कितने कंसल्टेंट सिर्फ अंतरात्मा की आवाज़ पर पैसा लौटा देते हैं (क्या आप लौटते हैं? स्वेच्छा से टेक्स देते हैं? जब रसीद न लेने पर पांच सौ बच रहे हों तब क्या आप रसीद के लिए अड़ते हैं?). एक उदहारण मेरी तरफ से, सरे भारत में ट्रेन में जो चाय मिलती है उसमे ज़्यादातर इलाइची क्यों पड़ी होती है? क्योंकि इलाइची सिंथेटिक दूध और पोस्टर कलर के कसैले स्वाद को कुछ हद तक दबा देती है. आप और आपके बच्चे उसे पीते हैं और भारत की ईमानदारी का तराना गाते हैं.
और तुर्रा यह की सच हमें सहन नहीं. हम दुनिया के सबसे बड़े पाखंडी हैं.
अदाजी ने जो बताया वह वहां का नियम है, भ्रष्टाचार, मक्कारी, धूर्तता, ट्रेफिक नियम तोडना वहां अपवाद हैं. यहाँ का क्या नियम है? सामान तो छोडिये यहाँ लाखों बच्चे चोरी हो जाते हैं और कभी वापस नहीं मिलते.
ईमानदारी में 180 देशों की सूची में चौरासीवां स्थान सचमुच बहुत नीचे है. गरीबी और शिक्षा की कमी अगर वजह होती तो भूटान जैसा महागरीब और लगभग अशिक्षित पड़ोसी देश हमसे कहीं अधिक ईमानदार न होता.
ab inconvenienti जी ..
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया...
मैं पिछले कई सालों से ईथोपिया जाती हूँ..गरीबी किसे कहते हैं..अगर ये देखना है तो वहां जाकर कोई देखे...
लेकिन ईमानदारी में वहां के लोग भारत से बहुत आगे हैं...
मुझे याद है, हमारे प्रोजेक्ट के जो मुखिया थे, ईथोपिया में जब मैं उनके घर गयी थी तो मन में उनके घर के बारे में एक छवि थी, जब मैं उनके घर पहुंची और जो मेरे सामने आया वह झकझोरने वाला था...दरवाजे कनस्तर को खोल कर पीट कर बनाया गया था, घर के नाम पर एक कमरा, जिसके आधे हिस्से में बिस्तर और आधे हिस्से में ड्राइंग रूम...बिस्तर के बगल में ही रसोई और सामान रखने की जगह...लेकिन ईमानदारी, आप सोच नहीं सकते हैं...और ज्यादातर सरकारी कर्मचारियों की यही हालत है...
इतने गरीब देश में भी अधिकतर लोग ईमानदार है...
नेपाल भी गयी हूँ...वह देश भी ईमानदारी में बहुत आगे है, भारत से...
आपका हृदय से शुक्रिया...मैं तो हारने लगी थी...आपने हौसला बढ़ा दिया...
बहुत शुक्रिया..
@ ab inconvenienti जी
ReplyDeleteआपने भूटान का संदर्भ दिया है। कभी सिक्किम जाके देखिये वहाँ भी लोग गरीब हैं लेकिन भोले और ईमानदार हैं। भारत के ज़्यादातर पहाड़ी इलाकों के लोग सीधे और ईमानदार हैं । अगर सर्वेक्षण कराया जाए तो सबसे ज्यादा लोग इस देश में हिन्दी भाषी हैं और पता नहीं क्यों वही सबसे ज्यादा बेईमान हैं ।
@महेश सिन्हा
ReplyDeleteजी हाँ, आप सही लिखते हैं. मैं सिक्किम तो नहीं गया पर लद्दाख एवं हिमाचल के ग्रामीणों को काफी सीधा और ईमानदार पाया है. पहाड़ी सच में दिल के साफ़ होते हैं. वनों में रहने वाले आदिवासी भी ऐसे ही होते हैं. पर पैसा, आधुनिकता और तथाकथित शिक्षा मिलने के बाद हम शहर और कस्बों के लोग अपनी मासूमियत खो बैठे हैं.
ओ अभी अभी
ReplyDeleteनींद से जागे देशभक्तों
घर से झाडू लेकर
निकले हो कितनी बार
पता लग गया है सबको
क्योंकि तुम तो
साफ सफाई को
मानने लगे हो संस्कार
सफ़ेद कोलर की देश भक्ति
है बिलकुल बेकार
एक्जाम की तैयारी
हुयी है नहीं है ठीक से उनकी
तभी तो मीडिया भगवान् से बोले
इस बार पास करा दो ना यार
१४ दिन पूरे होते ही देशभक्त
स्कूल से बाहर फिर छुट्टी पर जायेंगे
अगले आयोजन पर फिर
एक्जाम देने आयेंगे
भारत माता के रुदन पर
सारे विदेशी खिलखिलाएँगे
जब बड़ी सुन्दर बिल्डिंगो के आस पास
बिना दीवार के शौचालय बन जायेंगे
भाई लोगों ,
ReplyDeleteएक बात तो साबित हो गयी हमने इस खेल[चर्चा ] में सीखने की नहीं रखी है
बस खुद को सही साबित करने की रखी है
हम तर्क बाजी में चाहे जीत जाएँ पर अगर ध्यान से देखें तो हम हार रहे हैं
और कारण हमारे तर्क ही हैं जो हमें संतुष्ट कर देते हैं , असंतुष्टि जरूरी है सुधार के लिए
कोई "सुधार की पहल किये बिना" "संतुष्ट रहना" एक बड़ी परेशानी बन जाता है
कर्म करो फल की चिंता मत करो
कहा है
ना की
संतुष्ट रहो ... फल की चिंता मत करो
उठो जागो लक्ष्य को प्राप्त करो
छोडो ये सब नहीं होगा
कम से कम अपनी कमियाँ तो स्वीकार ही लो [कुतर्क मत करो ]
@ ab inconvenienti जी ..
ReplyDeleteमेरी तरफ से भी धन्यवाद स्वीकार करें :)
बहुत ही अच्छा लेख और उस्से भी ज्यादा अच्छा उद्देश्य।।।।
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