विकल भानु रश्मियाँ जलधि को पुकारती
कभी यहाँ संवारती, कभी वहाँ सिंगारती
सिंधु के चरण वो जगह जगह पखारती
उषा से अवसान तक निर्निमेष निहारती
कृतज्ञता स्वरुप वो आरती उतारती
उत्कर्ष हो तरंग तो रश्मि बिम्ब चूमती
विशाल सिन्धु वक्ष पर गोल-गोल घूमती
अनादि काल से गगन मही को ताकता रहा
चक्षु फिर असंख्य लिए नीरनिधि झाँकता रहा
अगम अधूत अभय बने उभय आसक्त हैं
अथक अकथ प्रीत मग्न दोनों अतृप्त हैं यहाँ कुछ शब्दों का अर्थ डालना उचित होगा :
भानु=सूर्य
जलधि=सागर
सिन्धु=सागर
नीरनिधि=सागर
मही=धरा
मही=धरा
अगम=दुर्गम
अधूत=निर्भय
उभय=दोनों
अथक=जो थके नहीं
अकथ=जो कहा न जाए
अथक=जो थके नहीं
अकथ=जो कहा न जाए
दीदी,
ReplyDeleteगजब है जी
वाह वाह
बेहतरीन शुद्ध हिंदी [ रचना को पढ़ कर हमेशा की तरह आनंद आ गया]
चित्र तो शानदार , लाजवाब , काबिले तारीफ़ सब कुछ है
स्पष्टीकरण
ReplyDeleteये निर्मल आनंद भाषा पर निर्भर नहीं था [भावनाओं पर निर्भर था]
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDelete___________
इसे भी पढ़े :- मजदूर
http://coralsapphire.blogspot.com/2010/09/blog-post_17.html
अदा जी,
ReplyDeleteआप के लिखे को हम जैसे ढपोर शंख भी पढ़ते हैं, इसलिए इतनी भारी शब्दावली भेजे में घुसने में थोड़ी तकलीफ होती है...
जय हिंद...
सरस, रोचक और प्रवाहमय चंदबद्ध कविता पढकर मन प्रफुल्लित हो उठा।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
फ़ुरसत में … हिन्दी दिवस कुछ तू-तू मैं-मैं, कुछ मन की बातें और दो क्षणिकाएं, मनोज कुमार, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!
सागर की लहरे, पवन से बलखाए,
ReplyDeleteदिनकर निहारे, और रत्नाकर सकुचाए,
कवि चिंतन मनन जो आरंभ हो जाए,
उपमाओं को नित नूतन आवरण मिल जाए...
अदा दीदी ,
ReplyDeleteबहुत पसन्द आया
हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
बहुत देर से पहुँच पाया ............माफी चाहता हूँ..
‘विकल भानु रश्मियाँ जलधि को पुकारती’
ReplyDeleteसुंदर कविता की ले लूं आरती :)
बहुत अच्छा लिखा है...बधाई
ReplyDeletehttp://veenakesur.blogspot.com/
खुशदीप भैया के कमेन्ट को मेरा कमेन्ट माना जाए....
ReplyDeleteहिंदी का अपमान करते पाठक ?? :))
ReplyDeleteऐसे काम नहीं चलेगा ...हिंदी सीखनी पड़ेगी , तभी [सुविधा जनक] देश भक्त माना जायेगा :))
अनुरोध : मेरे इस कमेन्ट को सीरियसली न लिया जाए
जितना विलक्षण चित्र, उतनी विलक्षण कविता।
ReplyDeleteविकल भानु रश्मियाँ जलधि को पुकारती
ReplyDeleteकभी यहाँ संवारती, कभी वहाँ सिंगारती
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रचना के साथ-साथ शब्द संयोजन बहुत बढ़िया है!
मात्र दो शब्द प्रतिस्थापित करने की इच्छा हुई अस्तु अवगत होवें :)
ReplyDelete'उत्कर्ष' के स्थान पर 'उत्ताल' और 'गोल-गोल' के स्थान पर 'वर्तुलों' में अथवा सी !
शेष कथन यह कि प्रस्तुत काव्य चित्र अत्यंत क्लिष्टात्मक सौन्दर्य वर्णन एवं प्रेम अभिव्यक्ति की श्रेणी में है ! इस कोटि के प्रेम हेतु केश लुंचित , शिखा धारी , त्रिपुंड मस्तक , ब्रह्म कुमार सम वेशभूषित, उदभट विद्वज्जन ,युवजन अपरिहार्य है देवि :)
बहुत ही शानदार! फोटो भी गज़ब का है......
ReplyDeleteव्यंग्य: युवराज और विपक्ष का नाटक
इस कोटि के प्रेम हेतु केश लुंचित , शिखा धारी , त्रिपुंड मस्तक , ब्रह्म कुमार सम वेशभूषित, उदभट विद्वज्जन ,युवजन अपरिहार्य है देवि :)...
ReplyDeleteये अलीजी क्या कह गए ....:):)
बहुत बेहतरीन रचना....
ReplyDeleteचर्चा का अंतिम भाग अवश्य पढ़ें
ReplyDeleteआप नाराज़ हों तो बेशक हों, ऐसी पंक्तियाँ और ऐसा चित्र देखकर वाह-वाह न करें तो क्या करें जी? दो बड़ी सी वाह-वाह, एक चित्र के लिये और दूसरी सूर्यकिरणों और सिन्धु-लहरों के संबंध दर्शाती इन मोह्क पंक्तियों पर। अच्छी चीजों पर ही वाह-वाह करी जाती है, हां नहीं तो....। (बुरा मत माना करिये, असुविधाजनक लगे तो सीधे से मना कर दें या कमेंट दबा दें, हम समझ जायेंगे)
ReplyDelete@ अली साहब:
हुज़ूर, आप तो कम से कम हिन्दी में शेष कथन कह देते:)
अली साहब,
ReplyDeleteविलम्ब के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ , आपकी टिपण्णी सर्वथा उचित प्रतीत हो गयी...आपने जिन शब्दों का चयन किया है, अतियुत्तम लग रहे हैं...
सच पूछिए तो मेरा शब्द संसार बहुत ही छोटा है...फिर भी प्रयासरत रहती हूँ...
आपके टिपण्णी का अधोभाग भी उचित तो जान पड़ता है ...
किन्तु देवाधिपति यही मंच तो है..जहाँ अपने ज्ञान सागर की परिमिति का विस्तार करने को सुअवसर प्राप्त है....:):)