Saturday, March 31, 2012

वो सात दिन...!!


अभी-अभी वो बेटे को एअरपोर्ट छोड़ कर लौट रही है..आँखों से सामने बेटे की छवि अब भी मुस्कुरा रही है, देखते ही देखते कितना वक्त गुज़र गया...कितना छोटा सा था ये मृगांक और अब डॉक्टर बन जाएगा...एयरपोर्ट हो या पार्टी...पाँव छूना नहीं भूलता मेरा बच्चा, सच बहुत ख़ुशी होती है, सोच कर कि मैंने काम अच्छा किया है...सपना अपने ख्यालों में गुम, घर तक का रास्ता तय करती जा रही थी...

पिछला एक हफ्ता पलक झपकते बीत गया...गुरूवार को मृगांक का फ़ोन आया था...मम्मी exam हो गए मेरे, ठीक ही गयें हैं, लेकिन अभी उसके बारे में बात नहीं करूँगा, अगले सन्डे से मेरे रोटेशन स्टार्ट हो रहे हैं, पता नहीं किस हॉस्पिटल में मिलेगा, पिछले २-३ महीने तो बस, पढाई-पढाई  ही करता रहा हूँ, अब एक हफ्ता थोडा आराम करूँगा मम्मी,  बेटे तुम घर क्यूँ नहीं आ जाते ? सपना थोड़ी चिंतित होकर बोली थी, मम्मी ! अभी नहीं आ सकूँगा, अगले महीने कोशिश करूँगा आने की, मृगांक की आवाज़ में निराशा थी...ठीक है बेटा, जैसा ठीक समझो, लेकिन आराम का मतलब आराम ही करना, ये नहीं कि दोस्तों के साथ कभी बीच में, या कभी बंजी जम्पिंग के लिए चले जाओ, समझे न ..हाँ-हाँ मम्मी समझ गया, नहीं जाऊँगा बस...ठीक है मम्मी, अब रखता हूँ...ओ के बेटा..आई लव यू मेरा छोना..खुश रहो....!
कितना अच्छा होता, मेरा राजा बेटा, इस वीक एंड आ गया होता, फोन रखते रखते, सपना ने सोचा था....

बड़ा बेटा, मयंक, अभी थोड़ी देर पहले ही सॉकर खेलने निकल गया है, बेटी यूनिवर्सिटी से नहीं लौटी है अभी, सपना बिलकुल अकेली थी, घर में, और वैसे भी इनदिनों उसे फुर्सत ही फुर्सत है, प्रोजेक्ट ख़तम, बच्चों के पापा अफ्रीका में प्रोजेक्ट को फाईनल करने में लगे हुए हैं, कहने का मतलब ये कि, उसके पास वक्त ही वक्त है..और वो इस समय का उपयोग कर रही है लिखने में...आज कल उसे लिखने की बीमारी हो गयी है...:):)

इतने में दरवाज़ा खुलने की आवाज़ हुई, सपना ने बिना सर उठाये ही सोचा, मयंक होगा, लेकिन इतनी जल्दी कैसे वापिस आ गया ? अभी ही तो गया है वो, शायद कुछ भूल गया होगा, अन्दर आकर आगंतुक सदा की तरह, ऊपर नहीं जाकर, सपना के पीछे आकर खड़ा हो गया, और सपना के बाल सहलाने लगा, सर झुकाए-झुकाए सपना ने कहा, आज इतनी जल्दी कैसे आ गए, सॉकर मैच नहीं हुआ क्या, बेटा...? जब कोई जवाब नहीं मिला, तो सपना को पलट कर देखना ही पड़ा, और वो हैरान, हक्की-बक्की रह गयी, मेरा बच्चा मृगांक ! उल्लू का पट्ठा...! अभी ५ मिनट पहले ही तो बात करके कह रहा था, कि अगले महीने आऊंगा, और ये क्या मृगांक उसके सामने खड़ा था, मृगांक ठहाके मार कर हँसता रहा, मम्मी तुम्हें छेड़ने में बहुत मज़ा आता है...पता है आपको फ़ोन मैंने घर के बाहर खड़े होकर किया है....हा हा हा हा....हे भगवान्  ! कितना तंग करते हो तुम लोग...अरे बुद्धू, पहले बता देते, तो तुम्हें लेने आ जाते हम, पता रहता तुम आ रहे हो तो, कुछ बना कर रखते हम...अरे मम्मी आप जो भी बना दोगे, बेस्टेस्ट होगा, बस मैं नहा लूँ ...जानती हो मम्मी ! आपका बेटा पूरे २६ घंटे बस में सफ़र करके आ रहा है, शिकागो से....अच्छा...!! बताया क्यूँ नहीं तुमने ? सपना प्यार भरे गुस्से से मृगांक हो देखती जाती, माथा चूमते हुए कहा था सपना ने, और फिर बस में आने की क्या ज़रुरत थी...? अरे मम्मी, पैसे बचा लिए न मैंने तुम्हारे, पूरे ९०० डॉलर, अब उसकी शोपिंग करूँगा...हाँ हाँ क्यूँ नहीं..!! कर लेना बाबा, अब समझी, तभी तुम्हारा फ़ोन नहीं मिल रहा था कल से, हर वक्त बंद-बंद बता रहा है, सुन लेना ४-५ मेसेज तुमको छोड़ा है मैंने ''डांट कर...हाँ नहीं तो...!! फिर हमको नहीं सुनना है, वो मेसेज मम्मी...रहने दीजिये..और वो हँसता-मुस्कुराता हुआ सीढियां चढ़ने लगा..सपना बहुत खुश थी, बेटा उससे मिलने २६ घंटे का सफ़र करके घर आया था...और गज़ब का ज़बरदस्त प्लेजेंट सरप्राइज़ दे दिया उसने..:)

जाओ जल्दी नहा लो बेटा, बस अभी हम बना देते हैं खाना, और सपना जुट गयी खाना बनाने में, बस मन नाच उठा अपने बेटे को देख कर...कितना दुबला हो गया है, बाल कितने बड़े हो गए हैं, पता नहीं अपने गंदे कपडे लाया है या नहीं, कहती तो हूँ जब भी आओ, कपडे ले आया करो, यहीं साफ़ कर दिया करुँगी...उसको नॉन-वेज पसंद है, अच्छा हुआ आज ही चिकेन ले आई थी, हाँ थोडा सा shrimp भी है, वो भी बना लेती हूँ...हालांकि, सपना ने खुद खाना छोड़ ही दिया है ये सब, लेकिन बच्चों के लिए तो बनाना ही पड़ता है, जब तक खाना बनता है, कुछ हल्का-फुल्का दे देती हूँ, मेरा बच्चा, कितनी भूख लगी होगी इसे, बचा हुआ खाना तो है, लेकिन देने का मन नहीं है...चलो अच्छा हुआ कल के दही बड़े बचे हुए हैं..वही देती हूँ, मन में लाखों सवाल और करोड़ों जवाब आ रहे थे, बस यूँ समझिये, ख्यालों का जैसे मेला लग गया, एकदम से पाँव में चकरी लग गयी..कहाँ उठाऊँ, कहाँ, बिठाऊँ, उसने फटाफट, मीठी और हरी चटनी के साथ दही-बड़े निकाल कर रख दिए, नहा कर मृगांक आ गया नीचे, दही-बड़े की प्लेट लेकर बैठ गया...मम्मी ! दही-बड़े बहुत अच्छे बने हैं, दही-बड़े खाकर मृगांक फिर फ्रिज खोल कर कुछ ढूँढने लगा, ओ माई गोड मम्मी ! बड़ी भूख लगी है कुछ और दो ना, तब तक जूस पीते रहो, अभी बन जाएगा खाना, जूस का ग्लास लेकर मृगांक बैठ गया टी.वी के सामने, वो गप्प करता जाता और सपना खाना बनाती जाती, कमरा खाने की खुशबू और माँ-बेटे के प्यार से सराबोर था...ऐसा है सपना का मृगांक....!

हाँ नहीं तो..!!

Friday, March 30, 2012

TROPHY WIVES...


तलाक़-तलाक़-तलाक़...
इस्लामी शरीयत में ये शब्द, मात्र शब्द नहीं है, ये है शब्दों की सुनामी...जो पल भर में ही पति-पत्नी के रिश्तों को तहस-नहस करके, इतना सडा-गला देती है...जिनको फिर से खड़ा करना..मुश्किल ही नहीं, असंभव हो जाता है...और co-lateral damage बन जाते हैं, बच्चे, बूढ़े माँ-बाप, और न जाने कौन-कौन, कितनी ही जिंदगियों के भूत-वर्तमान-भविष्य मटिया-मेट हो जाते हैं...लेकिन सबसे ज्यादा आहत होती है, वो परित्यक्ता स्त्री, जिसके स्वाभिमान, सम्मान, अभिमान, मनोबल की धज्जियां, चिंदी-चिंदी होकर उसके सामने बिखर जातीं हैं...जिनको समेटने में उसकी उम्र भी कम पड़ जाती हैं...हर मुस्लिम औरत इस दहशत में उम्र गुजारती है..न जाने कब ये क़हर किस दम उसपर टूट पड़े...

इस्लामी शरीयत द्वारा, मुस्लिम पुरुषों को दिया गया, ये ऐसा वीटो पावर है..जिसपर प्रश्न करने का अधिकार, उसकी अपनी पत्नी तक को नहीं होता...'तीसरा' शब्द तलाक़ का, ताबूत पर आखरी कील की तरह होता है, निकाह का क़ानून शरीयत में,  बिलकुल माफ़िया क़ानून की तरह है..जिसमें आप आते तो अपनी, तथाकथित मर्ज़ी से हैं, लेकिन जाते आप दूसरी पार्टी की मर्ज़ी हैं...

त्रासदी यह है, जो निक़ाह, बिना स्त्री के मर्ज़ी के हो ही नहीं सकता..जिस शादी को जायज बनाने के लिए, क़ाज़ी बार-बार दुल्हन से पूछता है...क्या आपको ये निकाह क़बूल है...और जो निक़ाह दुल्हन के 'क़बूल है' कहने पर ही मक़बूल होता है..उसी शादी को, नाजायज़ बनाने के लिए...सिर्फ और सिर्फ शौहर की मर्ज़ी मानी जाती है...उस एक शक्स के हाथ में, ये पावर किस हिसाब से दे दिया जाता है ??? उस शादी में तलाक़, बिना स्त्री के मर्ज़ी के, किस आधार पर, और कैसे हो जाता है...???

क्या पत्नी को भी, सिर्फ तीन शब्द 'तलाक़' के बोल कर, अपने पति को तलाक़ देने का अधिकार है ???? क्योंकि, ये तो हो नहीं सकता, स्त्री में ही सारी कमियाँ होतीं हैं...अगर पति नकारा हो, दुर्गुणों की खान हो, और उसकी पत्नी उसके साथ नहीं रहना चाहती, तो उसके लिए क्या प्रोविजन है ???

'हलाला'....एक अलग प्रकरण है...जिसमें नारी के अपमान की, सभी हदें पार हो जातीं हैं...अगर पति या दम्पति, तलाक़ हो जाने के बाद यह महसूस करता है...कि यह गलत हुआ...और वो इस ग़लती को सुधारते हुए, दोबारा एक साथ अपना जीवन बिताना चाहते हैं...तो वो सीधे-सीधे, पुनर्विवाह नहीं कर सकते...इसमें भी औरत को ही बलि का बकरा बनना पड़ता है...

अपने पति (जिसने उसे तलाक़ दिया है ) से पुनर्विवाह करने के लिए, औरत को किसी दूसरे व्यक्ति से विवाह करना पड़ता है...ज़ाहिर सी बात है, कि उस विवाह के लिए भी उसे 'क़बूल है' कहना पड़ता है...इतना ही नहीं, उसे उस व्यक्ति के साथ, निर्धारित अवधि के लिए हम-बिस्तर भी होना पड़ता है...जो सरासर वेश्यावृत्ति  है...फिर अगर दूसरा पति उस स्त्री को तलाक़, जो फिर एक बार उस पुरुष की इच्छा पर निर्भर करता है, दे देता है, तब जाकर यह जोड़ा, पुनर्विवाह कर सकता है...इन सारी टेक्निकलिटी में एक और परिवार हलाक़ होता है...

एक स्त्री की अस्मिता को, तार-तार करने का इससे बेहतर तरीक़ा और क्या हो सकता है भला, ये बिलकुल सोची-समझी साज़िश है...ताकि वो औरत अपनी नज़र में ऐसे गिरे, कि फिर कभी उठ ही न पाए...

इस सारे प्रकरण में, स्त्री अपने हक़ का इस्तेमाल, सिर्फ 'क़बूल है' तक ही कर सकती है, उसे वो निक़ाह 'क़बूल' करना होता है जब उसका पहला निक़ाह होता है, उसे वो तलाक़ क़बूल करना होता है जो उसके पहले पति ने उसे दिया होता है, उसे वो शादी क़बूल करनी होती है, जो वो दूसरे पति से करती है, फिर उसे दूसरा तलाक़, जो उसे दूसरा पति, अपने साथ अपना अच्छा-ख़ासा समय बिताने के बाद देता है...उसे क़बूल करना होता है...और अंत में, वो अपनी शादी, पहले पति से क़बूल करती है....न ही उसे अपने मन पर कोई इख्तियार होता है, न ही तन पर....वो तो कुछ समय तक, बस एक गेंद होती है, दो टीमों के बीच...और बाद में ट्रोफी, जिसे जीतने वाला अपने साथ ले जाता है..एक जीती हुई ट्रोफ़ी की तरह ...वाह वाह ..!! 
कौन कहता है हम सभ्य नहीं हैं...:):)

हाँ नहीं तो..!!

Thursday, March 29, 2012

महिला शक्तिकरण और उत्थान मंत्रालय....


नेता जी ने आज,
बहुत काम किया
महिलाओं के उत्थान पर
'जागो नारी' भाषण दिया,
ट्विटर पर ट्विट किया,
फेसबुक को फेस किया,
दस लाख फोलोवर बनाए
और ना जाने इस सन्दर्भ में
कितने पोस्ट छपवाए..
फिर....
एक विधवा आश्रम, एक कन्या अनाथालय
का उद्घाटन किया
दलित महिलाओं के उद्धार लिए
संसद में बहस किया,
'नारी तुम सबला हो' नामक बिल पेश किया..
अपनी पाँच हज़ार करोड़ की योजना,
सविस्तार बताई
आंकड़ों की फेहरिस्त दिखाई
अगले पाँच सालों में, 
पाँच लाख महिलाओं को
सबल बनाने की योजना बताई
काम का बड़ा बोझ है,
बेचारे मंत्री जी...
अब घर नहीं जा पाते हैं
पत्नी-बच्चों से अब वो बस फ़ोन पर बतियाते हैं, 
पिछले कई सालों से वो अपने
ऑफिस में रात बिताते हैं...
जहाँ हर रात, 
सुबह तक बलपूर्वक
'नारियों को सबल' बनाते हैं....!!!

क्षतिपूर्ति..!! (संस्मरण)


बताया था न मैंने कि, इन दिनों फुर्सत में हूँ... इसलिए जो जी में आ रहा है, बस लिखती जा रही हूँ...
संस्मरण लिखना अच्छा लगता है मुझे...जब फुर्सत में हूँ तो जाने कितनी यादें उमड़-घुमड़ दिमाग में आकर झूमने लगतीं हैं...
आज बिस्तर पर बत्ती बुझा कर, मेरा लेटना और आकस्मिक एक याद का घुटन की तरह आते रहना, मुझे झकझोर कर इस पोस्ट को लिखने के लिए मजबूर कर देना...इतना तो साबित करता ही है...कि बात महत्वपूर्ण है...

बात उन दिनों कि है, जिन दिनों कारगिल युद्ध की सनसनी फैली हुई थी...इस युद्ध ने हमारे कई परिचित घरों को आहत किया था...एक ऐसे ही परिवार की बात है ये....

मिस्टर वर्मा, थल सेना में कार्यरत थे...अब वो रिटायर हो चुके थे....मिसेज वर्मा एक कुशल गृहणी थी और आज भी हैं...उनका एक ही बेटा अनुराग, प्यार का नाम अनु था...शायद २५-२६ की उम्र होगी उसकी...पिता की तरह अनु ने भी थल सेना ज्वाइन करके देश के लिए अपना, जीवन सौंपने का फैसला किया...मिस्टर वर्मा को भला क्या आपत्ति हो सकती थी...उनकी भी स्वीकृति मिल गयी...माँ  का दिल धड़का था, एक बार के लिए, लेकिन, पति, और बेटे का फैसला अडिग था...याद है मुझे, मैंने भी कहा ही था...रिस्क कहाँ नहीं होता...फिर ये तो आपके, गौरवशाली अतीत पर, वर्तमान की ड्रेसिंग होगी...

अक्सर, दिल्ली बात होती ही थी, प्रोमिला दीदी से, सिद्धार्थ एक्सटेशन में...और बाज़दफा, मिसेज वर्मा, प्रोमिला दीदी के घर पर ही मिल जाया करतीं थी...उनसे भी सलाम-नमस्ते उसी एक, फ़ोन में हो जाया करती थी... 

मुझे भारत जाना हो, और प्रोमिला दीदी को मालूम न हो, ऐसा हो नहीं सकता...उस बार भी ऐसा ही हुआ...मैंने बता दिया कि आ रही हूँ...लेकिन पहले रांची जाऊँगी...लौटते वक्त आऊँगी, आपके पास...वैसे भी इतना लम्बा सफ़र होता है, कि बस दिल करता है राँची पहुँच कर ही साँस लूँ...अच्छी बात ये है कि...मेरी फ्लाईट रात के २-३ बजे पहुँचती है, दिल्ली एयरपोर्ट और सुबह के ५-३० पर रांची की पहली फ्लाईट होती है...दिल्ली से मात्र १.३० में रांची पहुँच जाती हूँ....रांची में, सुबह-सुबह वैसे भी ट्राफिक की कीच-कीच नहीं होती, और मेरी प्यारी माधुरी के, दर्शन भी हो जाते हैं....उस बार भी ऐसा ही करने का ईरादा था...फ़ोन पर प्रोमिला दीदी को ये बात, बता ही रही थी कि...उन्होंने ' एक बुरी खबर है'...कह कर मेरे धाराप्रवाह व्याख्यान में ब्रेक लगा दिया...एकदम से, मन में कितने ही बुरे ख़याल आ गए, कुछ ही पल में...कहीं जीजा जी को तो कुछ नहीं हुआ...मना करती रहतीं हूँ...इतनी दारू मत पिया करें...लेकिन 'अब इतनी पुरानी आदत कहाँ छूटनेवाली है'  कह कर, बात ही ख़तम कर देते हैं...इससे पहले कि, मैं जीजा जी की तबियत पूछती, दीदी ने बताया 'अनु' नहीं रहा....क्क्क्याआ...!!! मैं तो बस हकला के रह गयी थी...हाँ सपना..गोली लगी थी...वहीँ  ड्यूटी पर ही मारा गया...एकबारगी मेरी आँखों के सामने, सारा मंजर घूम गया...लेकिन दीदी अभी ३-४ महीने पहले ही तो उसकी शादी हुई थी...याद  है आपने ३ सूट बनवाये थे...हम कितनी देर तक, इस बारे में बात करते रहे थे..कि किस दिन आप क्या पहनेंगी... 'सब याद है....', बोलते हुए प्रोमिला दीदी की आवाज़ भर्राई थी, मेरा मन भी विषाद से भर उठा...मात्र एक ही तो बच्चा था, वर्मा दंपत्ति का...कितने अरमान से मात्र ४ महीने पाहिले उसकी शादी हुई थी...'रितू' नाम था लड़की का...मुझे अच्छी तरह याद है, शादी का कार्ड मुझे भेजा था और मैं मिसेज वर्मा से इस बारे में, बहस करती रही कि आपने, गलत स्पेलिंग छपवा दिया है कार्ड में...'ऋतु' होना चाहिए, जबकि कार्ड में 'रितू' है...कहने लगीं, 'अरे हिंदी में ऐसे ही लिखती है वो अपना नाम'...शादी के दिन भी मैंने कॉल करके, उनको शादी के ढोल नगाड़ों कि आवाज़ के बीच उनको बधाई दी थी...बहुत खुश हुईं थीं मिसेज वर्मा...'अनु' से बात हुई थी, कह रहा था सिर्फ १५ दिन की छुट्टी मिली है...वापिस ड्यूटी पर पहुँचना है, उसे टाइम से...'हनीमून की बात पर शरमा गया था वो...कहने लगा, वो तो बाद में देखूंगा, फिलहाल, तो बस शादी हो जाए, तो गनीमत है...इतनी जल्दी में था, कि मैं उसे ठीक से छेड़ भी नहीं पायी थी....पूछा था मैंने, 'रितू' को तो मैं अपनी मर्ज़ी से कुछ दे दूंगी...लेकिन तुम्हें क्या चाहिए गिफ्ट...हँस कर कहा था उसने..अरे आपका आना ही बहुत बड़ा गिफ्ट होता है....बस आप आ जाइए...शादी में नहीं आयीं आप, मैं नाराज़ हूँ आपसे...सबकुछ चलचित्र की तरह आँखों के सामने घूम गया था मेरे...दिल किया था भगवान् से पूछूँ, तुम्हें और कोई काम है कि नहीं हैं, जो सिर्फ अच्छे लोगों के पीछे ही पड़े रहते हो...

दीदी से मैंने कहा...बहुत बुरा लग रहा है...मुझे तो जाते वक्त ही, वर्मा दम्पति से मिलना चाहिए...लेकिन अब टिकट भी हो चुकी है...और फिर घंटे-दो घंटे मिलकर भी क्या होगा...जल्दी ही लौटना है मुझे, ऐसा करती हूँ, एक दिन पहले आ जाऊँगी और आराम से मिलूँगी उनसे....सारा प्रोग्राम बना कर मैं सीधी राँची चली गयी..,

किस्मत की बात....दिल्ली से रांची की फलाईट में मेरे साथ का सहयात्री भी...कारगिल के युद्ध से ही लौट रहा, एक जवान  था...'अनु' का दिवंगत हो जाना...मन को कहीं से साल तो रहा ही था...बात-बात में मैंने सहयात्री, सेना के जवान से पूछ ही लिया...क्या वजह है कि इस बार इतने जवान वीरगति को प्राप्त कर रहे हैं...उसने जो बात बतायी...उसको सुन कर, हमारी सरकार को डूब मरना चाहिए...उसका कहना था, हम युद्ध के लिए तैयार ही नहीं थे....हमारे पास असलहे हैं हीं नहीं...बंदूकें नहीं हैं, यहाँ तक कि गोलियां भी नहीं हैं....हम कैसे लड़ सकते हैं मैडम...ऐसी हालत में, हम सिर्फ जान दे सकते हैं और वही हम कर रहे हैं....अनु ने भी यही किया...ऐसा नहीं है कि मैं अनु के बलिदान का मान कम कर रही हूँ...परन्तु, हमारे अपनों की जान सिर्फ इसलिए चली जाए...क्योंकि जिस काम के लिए उन्हें भेजा गया था, उस काम के लिए proper equipment उन्हें नहीं दिया गया था...क्योंकि हमारी सरकार इसके लिए तैयार नहीं थी...ऐसी सरकार से जवाब-तलब होनी ही चाहिए...  

राँची में भी मन बहुत उदास रहा...खैर मैं समय से दिल्ली पहुँच गयी...वर्मा दम्पति के सामने जाने की हिम्मत नहीं थी मुझे...लेकिन जाना तो था ही...उनसे मिलते ही लगा...दोनों कितने बूढ़े हो गए हैं, एकदम से....इस घटना ने मिस्टर वर्मा को तोड़ कर रख दिया था...वो बीमार हो गए थे...मुझे 'रितू' की भी बहुत चिंता थी...लग रहा था..उस बेचारी के साथ, कितना बड़ा अन्याय हो गया...अभी कुछ दिनों पहले ही तो, नयी दुल्हन बना कर उसे धूम -धाम से, लाया गया था...मैंने पूछ लिया मिसेज वर्मा से...रितू' कहाँ है..? उनके चेहरे का अवसाद और गहरा हुआ था, या कुछ और था...'रितू' के बारे में वो, जवाब नहीं देना चाह रहीं थीं...क्योंकि मैंने पूछ लिया था, प्रोमिला दीदी ने ही बता दिया, वैसे भी रितू यहाँ नहीं रहती है...जिस दिन इस घटना की खबर मिली, उसके दूसरे दिन वो आई थी मिलने, अपने सास-ससुर से....मैंने भी सोचा, इतना बड़ा दुःख, नयी दुल्हन, इस वक्त माँ के घर ही रहना, शायद ठीक था, रितू के लिए...बातें होतीं जातीं और आँखें छल-छलातीं जातीं थीं...'अनु' की हज़ारों यादों को हमने मिल कर उस दिन, जिया था...

मुझे तो आना ही था कनाडा , आ गयी...कुछ महीनों बाद, फिर जाना हुआ....इस बार मैं सीधी राँची नहीं जाकर, प्रोमिला दीदी के घर ही चली गयी...इसकी एक और वजह थी...मिस्टर वर्मा का देहांत हो गया था....मिसेज वर्मा, तो जैसे काठ की बन गयीं थीं...इसी बीच में ये भी पता चला, रितू ने दूसरी शादी कर ली...एक बार तो मन में आया, चलो अच्छा हुआ...वो बेचारी करती भी क्या भला...अपने मन की बात, मैंने कह भी दिया प्रोमिला दीदी से...'बेचारी ??? वो बेचारी थी...अगर ऐसा ही है तो ऐसी बेचारी सबको हो जाना चाहिए...प्रोमिला दीदी बिफ़र गयी थी....सिर्फ एक हफ्ते रही थी वो...अपने ससुराल में...अरे उसकी तो लाटरी निकल आई...जानती हो क्या हुआ...अनु के मरने के बाद सारा का सारा पैसा, जो लगभग ४० लाख था, अनु को मिला....सिर्फ इसलिए कि उसकी शादी ७ दिन के लिए अनु से हुई थी...उस लड़की ने सारा पैसा समेटा...अनु के माँ-बाप को, एक फूटी कौड़ी नहीं दिया...न ही उनसे मिलने आई...सारा पैसा, शादी के सारे गहने...यहाँ तक कि जो भी सामन उसे उसके माँ-बाप ने दिया था, एक-एक सामान यहाँ से उठा कर ले गयी...और मजे में दूसरी शादी कर ली..यहाँ तक कि शादी की भी खबर इनको नहीं दी....जानती हो कुछ पैसे तो उसने दूसरी शादी करने के बाद निकाले हैं....मेरा मुंह बस खुला ही रह गया....प्रोमिला दीदी बोलती जा रही थी, मिस्टर और मिसेज वर्मा के जैसे किस्मत भगवान् किसी को न दे...बेटा भी हाथ से गया, बहू को तो खैर जाना ही था, यहाँ से...इन्स्युरेंस का पैसा और जो भी पैसा, मिलना था सब कुछ इस लड़की को मिला...वो माँ-बाप जिन्होंने, इतनी मेहनत से, अपने बच्चे को, पाल-पोस कर बड़ा किया...कितनी तकलीफ झेली, रात को रात नहीं और दिन को दिन नहीं समझा,  उनके हिस्से क्या आया ?  

अब मैं सोचने लगी हूँ...क्या किसी इंसान की ज़िन्दगी में विवाह के बाद,  सिर्फ एक ही रिश्ता, रह जाता है, पति का पत्नी से और पत्नी का पति से...क्या और कोई भी रिश्ता कोई मायने नहीं रखता ? माँ-बाप क्या कोई मायने नहीं रखते..? जब सरकार ही इन रिश्तों को कोई तवज्जो नहीं देती..तो और कोई क्या देगा...क्या ये सही है..? मेरी नज़र में, ये महा गलत है...सरासर गलत है...जिस तरह का हादसा ये था...ऐसे हादसों के लिए, माँ-बाप के लिए, कोई न कोई प्रावधान होना ही चाहिए...विवाह की अवधि निर्धारित होनी चाहिए...अगर शादी के कुछ साल हो गए हों, और पति का इन्तेकाल हो जाता है...फिर तो बात समझ में आती है, विधवा को, पति के मरणोपरांत, मिलने वाली राशि मिलनी चाहिए...लेकिन, विवाह की इतनी कम अवधि, जबकि सबको मालूम है, लड़की दूसरा विवाह करेगी ही...फिर भी सारा पैसा सिर्फ तथाकथित विधवा को मिल जाना और...माँ-बाप को एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिलना...माँ-बाप के प्रति घोर अन्याय है...मुझे यकीन है, वीरगति प्राप्त अनु को भी, ये बात बिलकुल पसंद नहीं आती...इस तरह के exceptional, केसों के लिए अलग नियम का होना बहुत ज़रूरी है...वर्ना नयी बहुएँ सास-ससुर, को दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक देंगी...और बुजुर्गों के हिस्से में ज़िन्दगी की वीरानी, दुःख, कोफ़्त और पीड़ा के सिवा कुछ नहीं आएगा...ऐसे नियमों का होना, हमारे बुजुर्गों के साथ घोर अन्याय है....शायद अपनी ऐसी दुर्गति मिस्टर वर्मा, नहीं झेल पाए, इसी लिए दुनिया छोड़ कर चले गए...

ऐसी बातों की तरफ, सरकार का ध्यान दिलाना अत्यावश्यक है...हालाँकि कुछ क्षतियों की पूर्ति कभी नहीं होती...!


हाँ नहीं तो..!!

Wednesday, March 28, 2012

'प्रसाद' की कामायनी, अब अंतर्मुखी हो गई ...


आज कल उमंगें, 
हृदय में, पर्वतों से
उतरती जाह्नवी सी,
धवल हो गईं...
बैठ किनारे मैं,
जीवंत, विभोर, 
नीलकंवल हो गई...
धूमिल सी एक उमडन,
जो सताती थी मुझे...
धीरे-धीरे,
मत्स्गंधा सी, उद्बुद्ध,
दृष्टिगोचर हो गई ...
राशि-राशि, सौन्दर्य मेनका,
बेसुध प्रस्तर हो गई... 
बंध गई, विश्वमित्र के,
कठोर प्राण पाश में...
संवाद की कल्पना
रोम-रोम उतर गई...
'प्रसाद' की कामायनी
अब अंतर्मुखी हो गई ... !!    

भगवान् बनाने की फैक्टरी है...हिन्दुस्तान...!!



अक्सर हैरानी होती है, आख़िर क्या बात है, हिन्दुस्तान की गरीबी ख़तम ही नहीं हो रही है...अगर गौर करें, तो दो बड़े कारण नज़र आते हैं...एक राजनेता, दूसरे धर्म गुरु...जो जनता की मेहनत की कमाई को बड़ी बेदर्दी से लूट ले जाते हैं...बस दोनों के लूटने का तरीका ज़रा अलग है...राजनेता जब लूटता है, तो आपको महसूस हो जाता है, आप लूट लिए गए हैं...लेकिन जब धर्म गुरु लूटता है, तो आप ख़ुशी-ख़ुशी लुट जाते हैं, और आपको महसूस भी नहीं होता...या यूँ कहें, आप सहर्ष अपना सबकुछ अपने हाथों से, इन धर्म गुरुओं के हाथों में देकर, लुट-पिट कर चले आते हैं...

आज बात करते हैं धर्म गुरुओं की....इन दिनों भारत में धर्म गुरुओं की बाढ़ सी आई हुई है...मुझे तो वैसे भी जीते-जागते भगवानों से समस्या रही है...

हम भरतीयों का बहुत ही, प्रिय शगल है...रोज़ नए-नए भगवान् इजाद करना...भारत में भगवान् बन जाना कोई बहुत कठिन काम नहीं है... जिसमें ज़रा सा भी करिश्माई व्यक्तित्व होगा, वो बड़े आराम से भगवान् का दर्ज़ा पा सकता है....जो ज़रा सा भी चमत्कारिक व्यक्तित्व का मालिक होता है, उससे हम भारतीय सिर्फ इम्प्रेसेड नहीं होते, हम महा-इम्प्रेसेड होते है...और फिर हम उसे देखते ही देखते भगवान् बना देते हैं.... किसी भी ऐरे-गैरे को,  भगवान् बना देना हम हिन्दुस्तानियों के बायें हाथ का खेल है...जैसे, धीरेन्द्र ब्रह्मचारी, रजनीश,  आसाराम बापू इत्यादि....

महात्मा गांधी, इंदिरा गाँधी जैसे व्यक्तित्व लगभग भगवान् की श्रेणी में आ ही चुके हैं....खुशबू, सचिन, को बहुत सारे लोग भगवान् मानते ही हैं...जयललिता, अमिताभ बच्चन, रजनीकांत भी भगवान् हैं...ऐसी ही बिना सिर-पैर की बातें देख कर लगता है, या तो हम हिन्दुस्तानी, इतने फ्रस्ट्रेटेड हैं, कि किसी भी कीमत पर मन की शान्ति चाहते हैं, या फिर हम में इतनी ज्यादा हीन भावना है कि, कोई भी जो हमसे ज़रा भी बेहतर होता है उसके समक्ष हम खुद को ज़मीन पर ही पड़ा हुआ पाते हैं, या हम बहुत ही कमज़ोर मनोबल के स्वामी हैं, कोई भी टहनी पकड़ लेते हैं सहारा के लिए या फिर हमारी आस्था बिना रीढ़ की है...जिसे कोई भी, कभी भी, कैसे भी, तोड़-मरोड़ कर कूड़े-दान में डाल सकता है...

भारत की जनता, हद दर्जे की भोली है....कहते हैं, जब भोलापन अपनी हद पार कर जाता है, तो उसे बेवकूफी कहते हैं....हैरानी तब होती है, जब अच्छे खासे पढ़े-लिखे, डाक्टर, इंजिनीअर, चार्टेड अकाउनटेंट, बड़े-बड़े मिनिस्टरफिल्म डिरेक्टर, प्रोड्यूसर भी इस जाल में, बुरी तरह फंसे नज़र आते हैं...हम एक नम्बर के, डरपोक, अहमक और धर्मभीरु हैं, इस हद तक कि, इन धर्म गुरुओं के विरोध में कुछ कहना तो दूर की बात है, हम सोचने से भी घबराते हैं...हमें लगता है, कहीं ऐसा सोचकर हम पाप तो नहीं कर रहे हैं...कहीं हम अपने लिए कोई अनर्थ या अपशकुन का रास्ता तो नहीं खोल रहे हैं...इतने कमज़ोर क्यों हैं हम ??

ऐसे जीते-जागते इंसानों को भगवान् का दर्ज़ा देकर...अपनी मेहनत की कमाई, ख़ुशी-ख़ुशी, इनके सुपुर्द करके, और हंस कर, अपने लिए औसत दर्जे का जीवन, हम स्वीकार कर लेते हैं...और बदले में, ये धर्मगुरु इन्हीं पैसों से खुद के लिए, ऐशो-आराम की ज़िन्दगी की व्यवस्था कर लेते हैं...बड़े-बड़े मकान, फ़ार्म हाउस, हज़ारों एकड़ ज़मीन, विदेशों में होटल, प्राइवेट प्लेन और प्राइवेट हवाई अड्डा, प्राइवेट आइलैंड, प्राइवेट खदान, सोने-चांदी, हीरे-मोती के ज़खीरे, और जाने क्या-क्या... और हम बस, दिल से खुश होते हैं कि चलो वो आराम से हैं...ये सारे धर्म गुरु, भोली जनता को बेवकूफ बनाने के लिए हर हथकंडा अपनाते हैं, आराम से अपना बैंक बैलेंस, ऐसा बना लेते हैं कि, आने वाली उनकी कई पीढियां ठाठ से रह सकें,  इन सारे धर्म गुरुओं के खाते, भारत से बाहर के बैंकों में, आपके ही पैसों से, ठसा-ठस भर जाते हैं, जिन्हें गिनना भी उनके लिए असंभव हो जाता है...

कुछ साल पहले की बात है...मैं एक पार्टी में गयी थी...ओटावा की जानी-मानी हस्तियाँ वहां मौजूद थी...जिसमें से कुछ उन्हीं दिनों हिन्दुस्तान से लौटे थे...सत्य साईं बाबा से मिल कर...भगवान् के साक्षात दर्शन जिसे हो गए हों, वो भला खुश क्यूँ नहीं होंगे..एक धनाढ्य बता रहे थे ..उनको साईं बाबा ने हीरा दिया है...मैंने उनसे पूछ ही लिए...ये साईं बाबा हीरा बाँटते फिरते हैं...रोटी क्यूँ नहीं बाँटते...जिसकी लाखों लोगों को ज़रुरत है...वो कुछ जवाब नहीं दे पाए...मैंने उनसे पुछा...सर जी, आपने कितना डोनेशन दिया था सत्य साईं बाबा को...कहने लगे सपना जी दान की राशि नहीं बतायी जाती है...मेरा जवाब था कोई बात नहीं, मैं रकम बोलती हूँ आप मुंडी तो हिला सकते हैं ना...खैर वो राज़ी हो गए...मैंने रकम कहनी शुरू की...मैंने पूछा २०,००० डॉलर, उनकी मुंडी 'न' में हिल गयी...कुछ देर में ही असली राशि पता चल गयी...वो राशि थी एक लाख डॉलर...रकम सुन कर मैंने उन्हें प्रोफिट-लोस का लेखा-जोखा देना उचित समझा...मैंने कहा, आपको जो हीरा मिला है, वो अगर ५०,००० का भी हुआ तो, साई बाबा को ५०,००० डॉलर का फायदा हुआ है...अब ये बताइये कि इससे अच्छा बिजिनेस साईं बाबा के लिए और क्या हो सकता है भला...मात्र एक क्लाएंट को १५ मिनट तक दर्शन दो और ५०,००० डॉलर कमा लो.. अब उन महानुभाव की शक्ल पर, वो ख़ुशी बाकी नहीं रही, जो कुछ समय पहले तक थी....

क्या पता कितने ऐसे लोग हैं, इस दुनिया में जो...इन तथाकथित भगवानों के हाथों,  बुद्धू बन जातें हैं...तभी तो साईं बाबा के ऑफिस, घर, दराज़ में नोटों और सोने का अम्बार मिला था...अगर कोई सचमुच भगवान् हो तो भला, इन चीज़ों की क्या उसे आवश्यकता हो सकती है...?

बात करते हैं, मदर टेरेसा की...मदर टेरेसा ने इतना पैसा जमा किया था, जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं...कहते हैं पैसे की कोई जात नहीं होती, न ही धर्म होता है...वो कहीं से भी आ सकता है...मदर टेरेसा ने पैसों की जात सचमुच नहीं देखी..,उन्होंने, अपनी संस्था के लिए, पैसे बड़े-बड़े अपराधियों से भी ले लिए...उनको डोनेशन देने वाले, ड्रग माफिया, पोर्न क्रिमिनल, ह्यूमन ट्रैफिकिंग करने वाले, हर तरह के अपराधी थे...इतना ही नहीं, ऐसे अपराधियों के साथ उनका, काफी उठाना-बैठना भी था, जो हम जैसे लोगों की समझ से परे है....इनमें से कुछ अपराधी ऐसे भी हैं, जो आज भी जेल में हैं...और हैरानी की बात ये है कि, उनकी तरफदारी करते हुए मदर टेरेसा ने, उनको बचाने के लिए जजों को अपनी तरफ से पत्र लिख कर, उन्हें छोड़ देने की अपील भी की थी, अपराधियों से उनकी दोस्ती, बात कुछ समझ में नहीं आई....सोचने वाली बात ये है कि, धर्म और ह्यूमैनिटी का काम करने वाली, मदर टेरेसा की संस्था, 'सिस्टर्स ऑफ़ चैरिटी', मोरालिटी को बरकरार रखते हुए, कम से कम ऐसे पैसों से परहेज़ कर ही सकती थी...क्यूंकि पैसा तो उन्हें अच्छे लोगों से भी मिल ही रहा था...

दुनिया भर से उनकी संस्था को पैसा, दान स्वरुप मिलता था, इस उम्मीद से कि वो, रोगी बच्चों के इलाज में उसे खर्च करेंगी...लेकिन ऐसा नहीं होता था...कैंसर से पीड़ित बच्चों, या व्यक्तियों को, कोई पेन किलर नहीं दिया जाता था, मदर टेरेसा का कहना था, जीजस ने बहुत दर्द सहा था इसलिए, उन बीमार बच्चों को भी दर्द सहना ही चाहिए, ऐसा करने से वो जीजस का साथ देते हैं...ये कितना अमानुषिक था, इसकी कल्पना आप भी कर सकते हैं...ड्रिप्स के लिए, सूईयों का इस्तेमाल, तब तक किया जाता था, जब तक वो भोथरे नहीं हो जाते थे...और उन सूइयों को सिर्फ ठंढे पानी से धोया जाता था....कोई स्टरलाइजेशन नहीं किया जाता था...रोगियों को बहुत ही अस्वस्थ माहौल में रखा जाता था....जब कि, आज से कई वर्ष पहले, जब रुपैये की कीमत बहुत ज्यादा थी, उनकी संस्था के अकाउंट में सैकड़ों मिलियन डॉलर होने के बावजूद भी, किसी रोगी को कभी भी ढंग का उपचार नहीं दिया जाता था....कितने रोगी ऐसे थे, जिनको अगर सही उपचार मिलता, तो वो बहुत आराम से बच सकते थे...लेकिन ऐसा नहीं होता था....वहाँ  काम करने वाले लोगों का कहना है..उसकी संस्था एक दिन में कम से कम ५०,००० डॉलर दान राशि प्राप्त करती थी...अब आप अंदाज़ा लगा सकते हैं...कि कलकता के 'सिस्टर्स ऑफ़ चैरिटी' की वार्षिक आमदनी कितनी थी...

मदर टेरेसा, मूर्ति पूजा की सख्त विरोधी थीं, वो अक्सर हिन्दुओं से कहा करती थी कि, तुम लोग मूर्ति पूजा करते हो, और इतनी मूर्तियाँ हैं तुम्हारी, किस-किस की पूजा करोगे...वैसे भी ईश्वर एक है और उसी की पूजा होनी चाहिए...लेकिन मूर्ति पूजा की विरोधिनी मदर टेरेसा की त्रासदी ये है,  कि आज वो ख़ुद मूर्ति बन चुकीं हैं और अब लोग उनकी ही पूजा कर रहे हैं...

हाँ नहीं तो..!!
बहुत भारी भरकम बातें हो गयीं...अब मेरी पसंद का एक गीत...

Tuesday, March 27, 2012

BOLD AND BEAUTIFUL...!!

 ये हैं सही मायने में बोल्ड और ब्यूटीफुल..
आज कहीं 'बोल्डनेस' शब्द पढने को मिला...लगा कि इस शब्द का अर्थ ही बदल गया है...मेरी नज़र में 'बोल्ड' का अर्थ है 'मज़बूत और निडर', आप कहेंगे कि बिकिनी पहन कर, छाती तान का खड़े हो जाना भी मजबूती और निडरता दिखाता है...तो गलत सोच रहे हैं....

गौर से सोचिये..क्या सचमुच ऐसी हरक़त को आप मजबूती और निडरता कहेंगे ? 'निडरता' का सही अर्थ है, विपरीत परिस्थिति का सामना बिना डरे करना...और खुद को उस विपरीत परिस्थिति से निकाल कर ले जाना...बिकिनी पहन लेना, अपने उरोजों के बीच साडी का आँचल लेना, ओढ़नी नहीं ओढना,  अपने शरीर का हर वो हिस्सा दिखा देना, जिसे दिखाने के लिए 'मजबूती और निडरता' की नहीं बेशर्मी, बेहयाई की ज़रुरत होती है 'बोल्डनेस' नहीं होता..आप घूंघट में रह कर भी बोल्ड हो सकतीं हैं... बोल्ड होना सद्गुण है...दुर्गुण नहीं...

बोल्ड का सही अर्थ क्या होता है..आइये देखते हैं...

- सच बोलना, सच्चाई के लिए खड़े होना...चाहे वो कितना भी दुखद, कड़वा और डरावना हो...बोल्डनेस दर्शाता है...

- कोई भी परिस्थिति, व्यक्ति या वस्तु जो आपके नियंत्रण में नहीं होना चाहिए, उसे ज़बरदस्ती अपने नियंत्रण में रखना कायरता है...और उसे जाने देना बोल्डनेस...

- स्वयं पर और समय पर विश्वास करना बोल्डनेस है...

- अपने स्वार्थ से परे होकर, दूसरों के लिए अच्छा सोचना और अच्छा करना...बोल्डनेस है..

- अपनी प्रतिभा का सही मूल्याँकन करना, एक स्वस्थ लक्ष्य निर्धारित करना और परिश्रम से उसे पाने की कोशिश करना...उसे आगे बढाने के लिए, सही रास्ता इख्तियार करना, चाहे ऐसा करना, परिवार, दोस्तों और समाज को कितना भी अजीब क्यों न लगे...बोल्डनेस है...

- अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनना..अपने गुणों और कार्यों  से स्वयं को ऐसे लोगों के बीच स्वाकार्य बनाना जिन्हें आप जानते भी नहीं हैं...बोल्डनेस है...

- एक दूरी बना कर चलना...अगर आपको कोई बात या सन्दर्भ पसंद नहीं और आप उसमें हिस्सा नहीं लेना चाहते , तो मत लें, परन्तु जो उसमें हिस्सा ले रहे हैं, उनपर अपनी सोच जबरदस्ती थोपना, उन्हें उसमें हिस्सा लेने के लिए,  जजमेंटल बन कर सजा देना...बोल्डनेस नहीं है...

- बोल्ड वो भी होता है जो अपने परिजनों और प्रियजनों का सिर्फ और सिर्फ भला चाहता है...आप जिनसे प्यार करते हैं, उनकी भलाई के लिए अगर उन्हें खोना भी पड़े, उन्हें खोने से नहीं डरना...बोल्डनेस है...

- और अंत में कहना चाहूंगी....बोल्ड होने के विकल्प आत्मा से बनते हैं, शरीर से नहीं...अगर आपका विकल्प गलत है, तो आपको पता चल जाएगा, कि आप भूल कर रहे हैं...क्योंकि आपके मन की शान्ति चली जायेगी और आपको नींद ही नहीं आएगी...!!

हाँ नहीं तो..!!



Monday, March 26, 2012

शब्दों के खंडहर...!!


कोई प्रसंग नहीं,
चिंतन नहीं,
सृजन की भूमिका भी नहीं,
न कोई योग बना,
न कुछ प्रत्यक्ष हुआ,
बस, अंतस के अकाल पर,
शब्दों के बूँद,
झमा-झम बरस गए,
और...
पंक्तियाँ गुनगुनाने लगीं,
तीसरी पंक्ति,
उषा सी, क्षितिज पर,
चटक गयी...।
तक्षशिला के खंडहर बने
थोड़े शब्द,
उदास थे,
कुछ दूर खड़े थे,
कुछ मेरे आस-पास थे,
बैठे-बैठे, अंतिम पंक्ति,
स्वयं निकल आई,
मूक तो लगी थी मुझे वो,
परन्तु..
अब धीरे-धीरे बोलने लगी है .... !!

Sunday, March 25, 2012

इंसान ग़लतियों का पुलिंदा ...! (एक संस्मरण)


कहते हैं इंसान ग़लतियों का पुलिंदा होता है...उस हिसाब से, हम सभी पुलिंदे हैं...क्योंकि ग़लती हर इंसान से होती है...
जानते बूझते हुए, जो ग़लती बार-बार की जाए उसे 'आदत' कहते हैं...जिसके लिए आप खुद जिम्मेदार होते हैं..लेकिन अनजाने में की गई ग़लती को पहचान लेना, उसपर पछतावा करना...और उसे दोबारा नहीं दोहराने की कोशिश करना अच्छे इंसान की पहचान है और सबसे महत्वपूर्ण बात भी ...
ऐसी ही एक ग़लती मेरे बाबा ने की थी...उस गलती ने उन्हें हिला कर रख दिया था...मैंने अपने बाबा को पहली और आखरी बार..थर-थर काँपते हुए देखा था...

मेरी उम्र शायद ७-८ साल की रही होगी...हमारे घर में भी हर जमींदार घर की तरह कई बंदूकें थीं ...जिन्हें उन दिनों 'स्टेटस सिम्बल' भी माना जाता था...शिकार का शौक मेरे दादा जी को बहुत था, लेकिन मेरे बाबा को कम...मेरे दादा, चाचा, बाबा निकल जाया करते थे, तीतर-बटेर, खरगोश, हरिला मारने, हर वीक एंड पर...अगर कुछ ना मिलता, तो कम से कम अपने निशाने को ही पजा कर वो लोग वापिस घर आ जाया करते थे...घर आकर बंदूकों की डिसमेंटल किया जाता था, कारतूसों को चमड़े के बैग में करीने से रखा जाता था...जिंदा कारतूसों की कतार एक तरफ होती थी और जो कारतूस नहीं चलते उनको एक अलग बैग में, निशान लगा कर रख दिया जाता था...निशान होता था 'NW' यानी Not Working'

हफ्ते-पंद्रह दिनों में बंदूकों की सफाई भी, एक महत्वपूर्ण काम हुआ करता था...सारे अपनी-अपनी बन्दूक साफ़ करने बैठ जाया करते थे...लम्बी तार में मुलायम मलमल का टुकड़ा बाँध कर...बन्दूक की नली में डाल कर...अन्दर तक सफाई की जाती थी...फिर पोलिश करके...करीने से सारे पुर्जे अलग करके रख दिए जाते थे...हमारे घर में बन्दूक कभी भी..बिना डिसमेंटल किये नहीं रखी जाती थी...बल्कि ये एक हास्य का विषय भी हो जाया करता था...कि अगर कभी कोई चोर-डाकू आ जाए तो...इससे पहले कि बदूकों को जोड़ा जाए..वो सब लूट कर, जा भी चुके होंगे...

ऐसी ही एक गर्मी की दोपहर थी...इतवार का दिन था, इतवार बहुत ही ख़ास दिन हुआ करता था, बचपन में...उस दिन मीट जो बनता था...बचपन का हर इतवार, पर्व सा होता था...सब कुछ ख़ास सा लगता था...स्कूल से छुट्टी, माँ की छुट्टी, बाबा की छुट्टी, और स्पेशल खाना, सुबह से ही मसाला पिसाना, मीट लाना, पकाना, घर में माहौल ही बहुत अलग हो जाता था...दोपहर होते-होते सबने खाना खा लिया था...कामवाली लडकियां या तो आराम कर रही थी या फिर बर्तन साफ़ कर रहीं थीं...हर माँ की तरह, मेरी माँ भी बचे हुए समय का सदुपयोग करने में जुटी हुई थी...माँ को बड़ी-अचार बना कर रखने का शौक था...उस दिन बड़ी बनाने की बारी थी....माँ आँगन में बैठ कर, बड़ी सी चटाई पर बड़ियाँ बना रही थी...खजूर के पत्तों से बुनी चटाई पर जब बड़ियाँ सूख जातीं हैं..तो उन बड़ियों के तले पर, चटाई का डिजाईन बन जाता है...मुझे बड़ा मज़ा आता था...बड़ियों को समेटकर..उनके नीचे डिजाईन देखने में...

इधर माँ अपने काम में मशगूल थी, और बाबा अपनी बन्दूक की सफाई में ...मैं साथ में बैठी बाबा को, बड़े मनोयोग से अपनी प्यारी बन्दूक को साफ़ करते देख रही थी...हम बच्चों को, किसी भी पुर्जे को छूने की आज्ञा नहीं थी...हाँ, पास बैठ कर देखने की आज्ञा ज़रूर थी... डिसमेंटलड पुर्जे चमकते जा रहे थे...बन्दूक की नली के अन्दर से बारूदी रंग भी, अब मलमल पर आ चुका था...बाबा बार-बार नली से एक आँख लगा कर, अन्दर तक झाँक कर तसल्ली कर लेते थे, कि अन्दर कोई अवरोध न रह गया हो...मुझे याद है, वो कहते थे, किसी भी बन्दूक, का सबसे महत्वपूर्ण पूर्जा होता है, उसकी 'मक्खी', जो बन्दूक की नली के आखरी सिरे पर, लगा हुआ, धातु का बहुत छोटा सा टुकड़ा होता है...

सफाई करने के बाद, एक बार तसल्ली ज़रूर कर ली जाती थी..कि सारे पुर्जे फिट हो रहे हैं...बाबा ने भी वही किया...सारे पूर्जे फिट हो गए...और अब बन्दूक अपने, लकड़ी के बट्टे, नली, मक्खी के साथ सम्पूर्ण नज़र आ रही थी....और बाबा संतुष्ट...

जाने क्या सोच कर बाबा ने एक 'फुस्स' हुई हुई नकारा सी गोली.. जिसपर निशान लगा हुआ था कि ये काम नहीं करती...बन्दूक की नली को झुका कर डाल दी...'खट' की आवाज़ के साथ बन्दूक, अपनी जगह वापिस आ चुकी थी, अर्थात गन लोडेड हो चुकी थी...जबकि बाबा सौ प्रतिशत श्योर थे कि, gun लोडेड होते हुए भी...बिलकुल भी लोडेड नहीं है...

जैसा मैंने बताया, माँ आँगन में, बैठी चटाई पर बड़ियों की कतार सजा रही थी, मैं बीच-बीच में बड़ियाँ बनाने की जिद्द कर जाती...लेकिन माँ मुझे भगा कर कहती...कुंवारी लडकियां बड़ियाँ नहीं बनातीं...शादी के दिन बना लेना जितना बनाना है....तुम इनपर लाल मिर्चा खोस सकती हो...जिससे किसी की नज़र न लगे....मैंने कई बड़ियों पर 'गोटा' लाल मिर्चा खोस दिया...ये लाल मिर्च मात्र मिर्च नहीं होते..ये आश्वासन होतीं हैं, बनाने वालों के लिए और खाने वालों के लिए...कि कितनी भी बुरे नज़र किसी की क्यों न हो, इन मिर्चों की धाह से पार पाना असंभव है.. मिर्चा खोसते हुए, हींग की खुशबू नथुनों में समां गयी थी, और मैं फिर एक बार जिद्द पर आ गयी थी...'माँ हमको भी बनाना है बड़ी...' 'बहुत जिद्दी है ई लड़की'...माँ बड़बड़ाई  थी...

बाबा आख़िर अपनी प्यारी बेटी की ऐसी तौहीन कैसे देख सकते थे भला, आख़िर कह ही दिया माँ से... 'सुनती हो, मेरी बेटी को क्यूँ डांटती हो...कोई इसको नहीं डांट सकता, डांटओगी तो ठीक नहीं होगा..' कहते हुए, बाबा ने शरारत से मुस्कुराते हुए, बन्दूक की नली माँ की तरफ तान दिया, वो अब भी मुस्कुराते जा रहे थे...उनका हाथ ट्रिगर पर था, और चुहल करते हुआ कहा...ऐ, चला दें गोली...? माँ कौन सी कम थी..उसने भी कह दिया  ''हाँ..हाँ चला दीजिये, हम कौनो डरते हैं का....'  लेकिन पता नहीं क्या बात हुई थी, किस शक्ति ने उस दिन काम किया था, उस दोनों ने अटूट प्यार ने, माँ की प्रार्थना ने, या ईश्वर के आशीर्वाद ने या फिर हम बच्चों की किस्मत ने, या कि उन लाल मिर्चों ने, जो कुछ देर पहले मैं बड़ियों को बुरी नज़र से बचाने के लिए खोस आई थी...बाबा ने हँसते-हँसते बन्दूक की नली...आँगन के खुले आसमान की तरफ कर दिया और ट्रिगर दबा दिया...'धाएँ' की आवाज़ से घर, आसमान गूँज गया...माँ आवाज़ सुन कर एकदम से चौंक गयी...मुड़ कर बाबा को देखा था उन्होंने...और आखों से ही कहा था 'जाईये-जाईये, बहुत देखे हैं निशाना लगाने वाले, हाँ नहीं तो...!' इस अप्रत्याशित अनहोनी से, मेरे बाबा का चेहरा सफ़ेद हो गया...एकबारगी वो पसीने से नहा गए थे, उनके हाथ-पाँव कांपने लगे थे, असमंजस के हज़ारों बादल उनके चेहरे पर छा गए थे... लेकिन माँ एक ज़रा विचलित नहीं थी...उसके चेहरे पर संतोष और विश्वास की आभा कायम थी...बाबा ने बन्दूक रख दी, धप्प से बैठ गए थे वो, कुछ पथराये से लग रहे थे और अपनी सांस पर काबू पाने की कोशिश में जुटे हुए थे...उन्होंने कितनी बड़ी गलती की है...ये वो कह भी नहीं पा रहे थे...मैंने देखा था, उनके हाथ पत्तों की तरह काँप रहे थे, बन्दूक उनसे सम्हल नहीं रही थी,  फिर भी उन्होंने कांपती हाथों से झट से बन्दूक की नली खोली थी....कारतूस के लाल खोके को बाहर निकाल कर देखा था...उसपर अब भी काला निशान लगा हुआ था...NW  (Not Working)...वो बार-बार उस लाल सी चीज़ को देखते, चेहरे पर विश्वास-अविश्वास के अनगिनत भाव लगातार आ जा रहे थे...

अब उनकी सांस काबू में आ चुकी थी...वो बस लगातार माँ को देखे जा रहे थे...उनकी आँखों में क्या जाने क्या-क्या रंग थे...प्यार, विश्वास, दुःख, पछतावा, ग्लानी, क्षोभ, कौन जाने क्या-क्या...सारे रंग गडमड हो रहे थे...लेकिन, कुछ देर बाद, एक रंग आकर उनके चेहरे पर थम गया था..'प्रतिज्ञा' का रंग...अब उन्होंने बन्दूक को टुकड़ों में तब्दील करना शुरू कर दिया था, वो हर टुकड़े को दृढ़ता से अलग करते और, एक सौगंध के साथ उसकी पेटी में रखते, उस दिन वो बन्दूक आखरी बार, साफ़ हुई थी, और आखरी ही बार वो डिसमेटल भी हुई थी, फिर कभी वो बन्दूक जुड़ नहीं पायी...माँ अब भी मजे में , कोंहड़ा बड़ी, तिलौरी और सादा बड़ी बना रही थी...मेरी जिद्द अब भी कायम थी.. 'सुनते हैंSSSS..देखिये फिर जिद्द कर रही है मुन्ना...ले जाईये इसको यहाँ से...काम ही नहीं करने देती है, फिर हमको कब फुर्सत मिलेगा भला...कल से फिर ऑफिस जाना है..' पता नहीं बाबा सुन भी रहे थे या नहीं...!
हाँ नहीं तो...!!

Saturday, March 24, 2012

QUICK POST....विवाहित स्त्री को तलाक़ के बाद 'उसके पति की' संपत्ति में हिस्सा मिलेगा..

सुना है शादी के नियम बदल रहे हैं...
अब विवाहित स्त्री को तलाक़ के बाद 'उसके पति की' संपत्ति में हिस्सा मिलेगा...ये स्त्री के लिए बहुत बड़ा कम्फर्ट ज़ोन होगा...चलिए, अच्छा है, कम्फर्ट ज़ोन को अब कानून की भी मदद मिल जायेगी...

मैं महिलाओं की बेहतरी के विरुद्ध नहीं हूँ...लेकिन बेईमानी का रास्ता इख्तियार करने के विरुद्ध हूँ...नारी शक्ति के नाम पर भीख लेने के विरुद्ध हूँ...या तो ये माना जाए हम कमज़ोर हैं और हमें सहायता चाहिए...या फिर ये कहा जाए, हमें कोई सहायता नहीं चाहिए, हम खुद को इस काबिल बना सकतीं हैं...और दिखा सकतीं हैं कि हम सचमुच पुरुषों के बराबर हैं...

जो भी क़ानून बन रहा है, इस कानून में इन बातों को भी शामिल करना चाहिए....
१. अगर पुरुष और स्त्री एक मत होकर तलाक़ लेना चाहते हैं, तो संपत्ति का विभाजन, ५०-५० होना चाहिए...ऐसी हालत में उसी संपत्ति का विभाजन इस तरीके से हो जो, विवाह के बाद अर्जित की गयी हो...विवाह के पूर्व अगर पति ने कोई संपत्ति अर्जित की हुई है, तो उस संपत्ति पर तलाक़ के बाद पत्नी का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए...

२. अगर तलाक का कारण पति का बुरा रवैय्या या पति की इच्छा है, और यह बात कानूनी तौर पर साबित होती है, तब विवाह के बाद अर्जित संपत्ति के विभाजन में, पत्नी को अधिक संपत्ति मिलनी चाहिए...

३. अगर तलाक़ का कारण पत्नी का बुरा रवैय्या या पत्नी की इच्छा है, और यह बात कानूनी तौर पर साबित होती है, तो विवाह के बाद अर्जित संपत्ति के विभाजन में, पति को अधिक संपत्ति मिलनी चाहिए..

४. महिला पहले तलाक़ के बाद अगर दूसरी शादी करती है..तो उस पर प्रतिबन्ध होना चाहिए, कि अगर वो दूसरे पति से भी तलाक़ लेती है, तो वो दूसरे पति की संपत्ति की अधिकारिणी न हो ...क्योंकि ये तो एक धंधा ही बन जाएगा..शादी करो तलाक़ लो, हिस्सा लो, फिर शादी करो फिर तलाक़ लो और फिर हिस्सा लो...
अगर ऐसा होने लगा तो पत्नियों की बल्ले-बल्ले हो जायेगी और पतियों को 'निरीह प्राणी' माना जाएगा...

अगर कोई ऐसा कानून पास होता है, जिसमें पत्नी द्वारा अर्जित संपत्ति का विभाजन तलाक़ के बाद होता है और पति का उस संपत्ति पर अधिकार माना जाता, जो होना भी चाहिए तो यही सारे नियम उस पर भी लागू होने चाहिये...क्यूंकि आज स्त्रियाँ भी कम नहीं कमातीं...मैंने खुद अपनी कमाई से ३ घर खरीदें हैं... अगर कल मुझे तलाक़ लेना होगा, तो मैं अपने पति को, अपने द्वारा अर्जित, संपत्ति में हिस्सा देने में नहीं हिचकूंगी...

इतना ही नहीं, तलाक के बाद, अगर पति इस काबिल न हो कि वो अपना खर्चा खुद चला सके, तो पत्नी के ऊपर उसके भरण-पोषण की जिम्मेदारी आनी चाहिए...जिस तरह पति के ऊपर, ये जिम्मेदारी, आती है ...बराबरी चाहिए तो हर बात में बराबरी होनी चाहिए..सेलेक्टिव बराबरी की बात नहीं होनी चाहिए..ये सरासर बेईमानी है...

हाँ नहीं तो..!!

हम अभी भी अपूर्ण हैं..


हो सकता है..
हम अपूर्णता से पूर्णता की ओर,
या..
जटिलता से सरलता की ओर, 
चल पड़े हैं,
किन्तु...
अभी भी अपूर्ण हैं हम ।
तभी तो,
अवचेतन मन में दबी हुईं,
हमारी, 
कामनायें, वासनाएँ,
गाहे-बगाहे, सिर उठा लेंतीं हैं,
और..
युद्ध, हत्या, व्यभिचार,
क्रूरता, निर्दयता, बन कर,
फूट पड़तीं हैं ।
भौतिक दृष्टि से हम, 
कितने साधन-संपन्न दिखते हैं,
किन्तु ...
मानवता की नज़र में,
सिर्फ अपूर्ण हैं हम ।
जिसे भी..
पूर्णता का आभास होता है,
समझ लो वो भ्रान्तिग्रस्त है ।
पूर्णता उसे ही प्राप्त होती है,
जो स्वयं को,
अपूर्ण और जिज्ञासु रखता है....!! 

 

Friday, March 23, 2012

कम्फर्ट ज़ोन....!!



बड़ी चिलचिलाती धूप थी, देखा तो एक कुत्ता बड़े आराम से, मेरे दादा जी की खाट के नीचे जहाँ एक बहुत ही बढ़िया कम्फर्ट ज़ोन था...वहाँ बिना इजाज़त, फ़ोकट में, बड़े आराम से टांग-पूँछ सम्हाले हुए कम्फर्टेबली पड़ा हुआ था...मुझे बड़ा गुस्सा आया...इसकी ये मजाल, हमारे सामने कम्फर्टेबल हो जाए...मैंने उसी दम उसे लात मार कर भगा दिया...कह भी दिया उससे...अरे जब कम्फर्ट ज़ोन में जाने का हम इंसानों को अधिकार नहीं, तो तू कौन और तेरी औकात क्या ..हाँ नहीं तो ....!!
लेकिन, मेरी उस लात मारने की भंगिमा से, दिमाग का कम्पूटर चालू हो गया...और विचारों के की-बोर्ड ने ये पोस्ट लिख डाली....अब आप नोश फरमाइए...

कम्फर्ट ज़ोन हम सभी ढूंढते हैं...ये इंसानी तो इंसानी, जनावरी फितरत भी है...परन्तु यहाँ हम सिर्फ इन्सान की बात करेंगे...एक आम इन्सान जब जीवन समर में कदम रखता है, तो पहले नौकरी ढूंढता है, बहुत तीन-पाँच करके, नौकरी पाता है, विवाह करता है, बाल-बच्चे होते हैं...घर-परिवार की देख-भाल, बच्चों का भविष्य बनाते-बनाते ये सोचता रहता है...कि बस ये हो जाए, या वो हो जाए, तो मैं चैन की बाँसुरी बजाऊंगा...कम्फर्टेबल हो जाऊँगा...लेकिन ये कम्फर्ट तो किसी सोन परी की तरह, सामने ही नहीं आती...कम्फर्टेबल होने की आस लगाए लगाए, वो रिटायर भी हो जाता है...फिर भी कम्फर्ट उसके आस-पास नहीं फटकती...और एक दिन इस मुई कम्फर्ट की आस में वो, ऐसी कम्फर्ट ज़ोन में पहुँच जाता है...जहाँ से वापसी की कम्फर्टीबीलिटी उसे नहीं मिल पाती...

कहते हैं, आविष्कार आवश्यकता की जननी है, लेकिन अब आविष्कार कम्फर्ट की जननी है...हर ३ महीने में मोबाईल का दूसरा मॉडल निकाल देता है Apple , और वो पहले वाले से, ज्यादा पोपुलर सिर्फ इसलिए होता है, क्योंकि उसका कम्फर्ट ज़ोन, पिछले वाले से बेहतर होता है...पहले हम पैदल चलते थे, उसके बाद रिक्शा में जाते थे, फिर बस में और अब कार में...ये पैदल से कार तक की  दूरी तय की गई है...कम्फर्ट ज़ोन की तलाश में...पहले पंखा भी नहीं था, फिर पंखा लगा, फिर कूलर और अब ए.सी...बहुत कम्फर्टेबल लगता है न...!
हम घर में क्यों रहते हैं...किसी पहाड़-पर्वत, गुफा, तराई में जाकर नहीं रहते...हम घर में रहते हैं, क्योंकि हम वहाँ कम्फर्टेबल होते हैं...अरे जनाब घर की बात छड्डो हम तो अपना सोफा तक नहीं छोड़ते...इस दुनिया का सारा का सारा मामला ही कम्फर्ट का है जी...
सच पूछा जाए, साधारण लोगों (दुनिया की ९९% आबादी) के जीवन का मकसद ही है कम्फर्ट की तलाश...वर्ना इतने सारे आविष्कार दुनिया में जिन्होंने किये, वो सब पागल करार दिए जायेंगे...और उनको अपनाने वाले हम-आप महापागल...

कुछ समय पहले कहीं पढ़ा था कि, साड़ी में काम करना, खाना पकाना, कम्फर्टेबल नहीं होता...वेस्टर्न ड्रेस ज्यादा कम्फर्टेबल है...अब बताइये बात तो फिर वहीँ आ गयी न...कम्फर्ट की :):) जब इन बातों में कम्फर्ट की इतनी ज़रुरत है, तो फिर पूरा जीवन कम्फर्टेबल बनाने के लिए, शादी करके कम्फर्ट ज़ोन में जाने में का दिक्कत है भाई...हमरे हिसाब से तो कोई बुराई नहीं है...अरे ! हमरी किस्मत फूटी थी कि, हमरे लिए किसी multimillionaire का रिश्ता नहीं आया,  न माँ-बाबा ही देखे, नहीं तो हम भी आज कम्फर्ट ज़ोन में झूला झूल रहे होते....ऐसन खटे हैं हम कि हमरे घर में एक चम्मच भी खरीदे हैं, तो अपनी मेहनत की कमाई से...ई अलग बात है कि माँ-बाप ने इतना काबिल बना दिया था हमको,  कि आज चम्मच की दो-चार फैक्टरी तो खोल ही सकते हैं...बाकि multimillionaire भी मिलता तो हमको कौनो परहेज़ नहीं था...;):)

माँ-बाप जब अपनी पढ़ी-लिखी, और ख़ूब क़ाबिल बेटी के लिए भी, जीवनसाथी ढूँढते हैं..तो ये देखते हैं कि लड़का पढ़ा-लिखा, अच्छी नौकरी वाला, अच्छे परिवार से आता हो, थोड़ी संपत्ति हो....ताकि, कभी बुरा वक्त आ जाए तो, बेटी को कोई तकलीफ न हो...हम हिन्दुस्तानी आज के लिए कम, भविष्य के लिए ज्यादा जीते हैं...और ऐसा सोचना कतई गलत नहीं है...ऐसी सोच रखते हुए, बेटियों को क़ाबिल बनाने में, आजकल के माँ-बाप पूरा सहयोग देते हैं...हमसे पहले की पीढ़ी ने बेशक लड़के-लड़की का भेद-भाव रखा है...लेकिन हमारी पीढ़ी इन बातों से बहुत ऊपर उठ चुकी है...आज हम अपने बच्चों को सामान दृष्टि से देखते हैं..चाहे वो लड़की हो या लड़का...


लड़कियों को भी अपने पाँव में खड़े होने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए...क़ाबिल लड़की अपने वैवाहिक जीवन में और अपनों के जीवन के स्तर में इज़ाफा ही करती है...आज आम हिन्दुस्तानी जोड़े प्रगति कर रहे हैं..उनका जीवन स्तर समृद्ध है, इसका सबसे बड़ा कारण है..महिलाओं की ओर से अपने परिवार में आर्थिक योगदान...'आमदनी इक रुपिया, खर्चा अठन्नी'...

आज का मध्यमवर्गीय युवा वर्ग, शादी सिर्फ कम्फर्ट के लिए नहीं करता...उनमें कुछ करने की ललक देखने को मिलती है...यूँ तो शादी शब्द के ख़याल से ही, किसी भी उम्र के नोर्मल इन्सान के मन में , जो ख्याल आता है, उसमें 'प्रेम', पवित्रता, समर्पण, परिवार इत्यादि शामिल होते हैं...समाज को अनुशासित रखने वाली, पवित्र संस्था का नाम है 'विवाह'....जो पूर्णता का अहसास दिलाती है...उपलब्धि का बोध कराती है...साधारण लोगों को एक उद्देश्य देती  है...कह सकते हैं, शादी एक बहुत ही महत्वपूर्ण वजह है, जिसके कारण, समाज में बुराईयाँ अपनी पराकाष्ठा तक नहीं पहुँच पायीं हैं...परिवार की जिम्मेदारी, बच्चों का स्नेह, पत्नी का प्रेम, पति का प्यार, दुनिया के बहुत से पति-पत्नियों को एक दिशा देती है और अनुशासित रखती है...वर्ना दुनिया का क्या हश्र होता...यह भगवान् ही जानता है....


बचपन में पढ़े थे..पहले कर्तव्य होता है, उसके बाद अधिकार...अब यहीं देखिये न...नारी के अन्दर उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने की इतनी कोशिश करना...इसे क्या कहेंगे आप...अधिकार या कर्तव्य ?  :):) जैसा कि ज्ञात है,  अधिकार से पहले कर्तव्य आता है...और अधिकार पाने के लिए परिश्रम करना पड़ता है...हम जब भी नए परिवेश में जाते हैं...वो पहले दिन से ही, हमारे अनुकूल नहीं होता...चाहे वो नया घर हो, स्कूल हो, कॉलेज हो...बस हो ट्रेन हो, प्लेन हो...हर जगह हम अडजस्ट करते हैं....और ये तो बहुत बेवकूफी होगी कि हम घर से उम्मीद करें, वो अडजस्ट हो जाए हमारे हिसाब से...या फिर स्कूल के सारे टीचर्स, स्टुडेंट्स से अपेक्षा करें कि वो बदल जाएँ हमारे हिसाब से...जी नहीं हम बदलते हैं उनके हिसाब से...

ठीक वैसे ही, नयी बहू जब अपने नए ससुराल आती है, तो उसके लिए जगह बदलता है, सामान बदलता है, परिवेश बदलता है...उसे वहां अडजस्ट करना पड़ता है...जूता-छाता, झाडू ब्रुश सब कुछ बदल जाता है...लेकिन वहाँ रहने वालों के लिए कुछ नहीं बदलता...इसलिए अडजस्ट नयी बहू को ही करना पड़ता है... हाँ, ससुराल के लोग, बहू को, अडजस्ट करने में मदद करते हैं, और करना भी चाहिए...ससुराल वालों का व्यवहार अच्छा होना ही चाहिए, यह एक बुनियादी बात है...लेकिन जो खडूस हैं, वो रातों-रात न तो खडूस बने होते हैं, न ही खाडूसियत छोड़  सकते....ये उनके जन्मजात लक्षण होते हैं...और हम हिन्दुस्तानियों में इस गुण की भरमार है ...ब्लॉग जगत में ही कौन सी कमी है इसकी..

हाँ अगर, ससुराल या ससुराल वालों से दूर ही रहना है...तो सबसे अच्छा होगा, शादी करके सीधे ससुराल नहीं जाकर...अपना ही बसेरा बनाया जाए...फिर ज़रुरत ही नहीं होगी किसी को भी झेलने की...वैसे हम लडकियाँ सेतु होतीं हैं...दो परिवारों के बीच...हमारा कर्तव्य न सिर्फ ससुराल और सास-ससुर के प्रति होता है... अपने माता-पिता, के प्रति भी होता है...उनके बुढापे का सहारा बनना भी हमारा ही कर्तव्य है...हम सिर्फ अपने बारे में सोच कर अपनी जिम्मेदारियों से अगर भागना शुरू कर दें, तो जितने भी बुजुर्ग हैं, सबका बुढ़ापा अंधकारमय हो जाएगा...हिन्दुस्तान अभी तक  individualistic society नहीं है...यहाँ विवाह एक सामाजिक रिवाज़ है..अगर ऐसा नहीं होता...तो हिन्दू शादी में भी, कागज़ी करवाई होती...लेकिन ऐसा नहीं होता...यहाँ विवाह, समाज के सामने, समाज को साक्षी मान कर हो जाता है, और सारी उम्र निभ भी जाता है...अगर हमारी माओं ने भी अपने अधिकार को इतनी ही तवज्जो दी होती तो...जितनी हमसे देने की अपील की जाती है, तो हमारे भी ५-७ बाप हो चुके होते...जैसे वेस्ट में होता है...हाँ अगर अपने ज़मीर को मार कर और सिर्फ अपने लिए ही जीना है...तो बात अलग है...

याद आता है मुझे, जब स्कूल से हम कॉलेज गए थे, तो हमारी रैगिंग हुई थी...वो स्टुडेंट्स सिनिअर थे...कॉलेज में उनका आधिपत्य था...वो वहाँ कम्फर्टेबल थे...उनके पास स्वघोषित अधिकार था, जुनिअर्स के साथ कुछ भी कर जाने का....हम जुनिअर्स सब बर्दाश्त कर गए थे...क्योंकि हम और कुछ नहीं कर सकते थे...एक कहावत सुनी थी 'जल में रह कर मगर से बैर नहीं करना चाहिए'...अगर हम उनसे उलझ गए होते, तो हमारे कॉलेज की शुरुआत ही रोंग फूटिंग पर होती...फिर हम कितने कॉलेज बदल सकते थे...और क्या गारंटी थी कि दूसरा कॉलेज, इस बात से अछूता होगा...लिहाज़ा हमसे कहा गया नाचो...हम नाच कर निकल लिए...अगर न नाचते तो अगले चार साल हम उलझते-सुलझते रहते....फिर, धीरे-धीरे, हमने अपनी पहचान बना ली...हमारा नाम होने लगा...फिर तो, हम ही हम थे हर जगह ...हा हा हा...धीरे-धीरे वही सिनिअर्स, हमें न सिर्फ अपना दोस्त मानने लगे...हमारे लिए जान देने को तैयार हो गए....हमने वो जगह, वो अधिकार अपने संयम, अपने धीरज से पा ली...जो हम पाना चाहते थे


ठीक वैसे ही, नयी बहू को भी अधिकार अर्जित करना पड़ता है, धीरे-धीरे, धीरज के साथ.... बदकिस्मती कहिये या खुशकिस्मती, कोई नयी बहू, लाठी-बल्लम ले कर नहीं जाती अपने ससुराल और पहले दिन से ही, कुंगफू नहीं करने लगती है....हालांकि कुछ समाज सेविकाएँ चाहती हैं कि पहले दिन से ही वो उतर जाएँ मैदाने जंग में, देती जाएँ ईंट का जवाब पत्थर से...और कभी-कभी ऐसा भी होता है...लेकिन फिर वो बातें सारी उम्र रह जातीं हैं...और कटुता मरते दम तक नहीं जाती...न उस बहू के मन से न ही उसके परिजनों के मन से...

एक घटना ४-५ साल पहले की है...
मेरी एक परिचिता की बेटी की शादी कनाडा में हुई...लड़की पढ़ी-लिखी कितनी है, नहीं मालूम लेकिन, शक्ल से आधुनिका है...वेस्टर्न ड्रेस पहनती है...शादी करके वो भारत से कनाडा आई थी...जाहिर सी बात हैं, माँ-बाप की याद आती थी तो, रोज़ ही फ़ोन किया करती थी अपने माँ-बाप, अपने दोस्तों और अपने रिश्तेदारों को...उसके ससुराल वालों को बुरा नहीं लगता था...फिर फ़ोन के बड़े-बड़े बिल आने लगे घर पर...क्योंकि फ़ोन पर जब भी वो बात करती, घंटा-दो घंटा लगा देती...इस चक्कर में घर का काम भी करना उसे अच्छा नहीं लगता...बल्कि घर के काम के लिए, वो कह देती, उसे आता ही नहीं है...खाना उसने कभी बनाया ही नहीं, न ही खाना बनाने के लिए वो यहाँ आई है...बल्कि प्याज की  छौक से उसे अलेर्जी हो जाती है....उसकी इन बातों से, धीरे-धीरे रिश्तों में कडवाहट आने लगी...अब वो अपने पति से भारत में बसने की जिद्द करने लगी...पति ने उससे कहा कि उसका सारा परिवार यहाँ है, उसकी नौकरी यहाँ है...वो कैसे जा सकता है...लेकिन उसने दबाव डालना कम नहीं किया...पति ये भी कहता, मैं भारत जाकर काम भी क्या करूँगा...लेकिन वो नहीं मानती, अब उन दोनों में रोज़ ही झगडा होने लगा...घर की शांति भंग हो गयी...एक दिन उसकी किसी बात पर उसकी सास ने उसे डांट दिया...बस उसने आव देखा ना ताव.. सास को पीट दिया....जब ससुर ने छुड़ाना चाहा , उसने उनको भी धक्का देकर गिरा दिया...लड़के से माँ-बाप का ये अपमान नहीं देखा गया...उसने उसी वक्त उसे घर छोड़ कर चले जाने को कहा...शादी टूट गयी....अधिकार पाने का ये तरीका क्या कारगर था...? अब दोबारा उसकी शादी हो गयी है...लेकिन उसके पति और उसकी उम्र में बड़ा फर्क है, दूसरा पति पहले की अपेक्षा ज्यादा अनुशासन प्रिय है...अब वो लड़की ज्यादा नम्र रहती है...मोरल ऑफ़ दी स्टोरी...उफनती नदी किनारे तोड़ कर सर्वनाश ही करती है....गरिमा में रह कर बहने वाली नदी, जीवन दायिनी होती है...कभी-कभी नदी कुछ गंदगियों को भी समेटती है...मनुष्यों के अत्याचार भी सहती है...

हम सब इंसान हैं..और कुछ भावनाएं प्राकृतिक रूप से हमारे अन्दर हैं...जिनको अगर हम बदलना चाहते हैं, तो खुद पर हमें काम करना पड़ता है...जैसे पिता को दामाद से चिढ होती है और माँ को बहू से जलन...ऐसी भावनाओं का, बड़ा ही लोजिकल एक्सप्लेनेशन है....वो माँ जिसने बेटे को जन्म दिया, तिल-तिल करके बड़ा किया, जिस लड़के ने उसकी एक भी बात ऐसी नहीं, जो न मानी हो...अचानक एक दिन एक लड़की आती है, और अपना पूरा अधिकार उसपर जमा बैठती है, एक दिन उस माँ को पता चलता है कि, अब उसका बेटा उसकी नहीं, बहू की बात मानता है...जलन की शुरुआत कर देता है...लड़कियों को उनका अधिकार मिलना ही चाहिए...लेकिन अगर बहू भी सास की मनोदशा समझ कर थोड़ी समझ से काम ले, अपने पति को, एक माँ का बेटा भी बने रहने दे, तो कोई समस्या नहीं होगी....
मुझे याद है मेरी सास ने एक दिन मुझसे कहा था 'सपना तुम मेरी बहू नहीं हो...ये सुनकर मैं डर गयी थी...मैंने पूछा था ऐसा क्यूँ कह रही हैं माँ...उन्होंने आगे कहा था...तुम मेरी बेटी भी नहीं हो...तुम मेरा बेटा हो....मैं आज तक उनकी इस बात को नहीं भूल पायी हूँ...

हम समाज में रहते हैं...एक अच्छे नागरिक का कर्तव्य निभाते हैं...शहर को साफ़ रखने में, अपना योगदान देते हैं, सरकारी संपत्ति को सम्मान देते हैं...देश के नेताओं की बकवास झेलते हैं...लेकिन जो हमारे अपने बन जाते हैं, उनके साथ ताल मिला कर चलने से पहले, अपने अधिकार की  बात करें, तो किसी को अच्छा नहीं लगता...एक एम्लोयर भी, अपने एम्लोई से ये उम्मीद करता है कि...पहले अच्छा काम कर के विश्वास जीते, फिर तनखा बढाने की बात करो...नई बहू बिलकुल उसी एम्लोई की तरह होती है...सारी नज़रें उसपर टिकी होतीं हैं...और सबको उससे उम्मीद होती है...उसे भी सबका विश्वास जीतना होता है...अब ये उस पर है, कि वो कैसे ख़ुद को साबित करती है...और ऐसा करने में कई बार उसे कुछ बातों को सहना भी पड़ता है...
हमने बचपन में एक कहावत सुनी थी...
कम खाना और ग़म खाना
न हकीम को जाना न हाकिम को जाना

नारी, का मनोबल पुरुष से कहीं ज्यादा मजबूत मनोबल होता है....तो फिर ये शक्ति, सिर्फ अधिकार के लिए ही क्यों, कर्तव्य के लिए भी क्यों नहीं....हाँ अत्याचार सहना गलत है, और अत्याचार करना भी...हमारी पीढ़ी की मानसकिता बदल रही है...हमलोग अडजस्ट करना सीख चुके हैं...अब बहुत बदलाव आ रहा है...बहुएं अपनी ज़द में रहकर अपना अधिकार और कर्तव्य समझतीं हैं...सास-ससुर भी अब पहले की तरह नहीं हैं...उनको भी मालूम है, अगर उन्हें प्यार और प्रतिष्ठा चाहिए तो, उन्हें प्यार और प्रतिष्ठा देनी होगी...समय बदल रहा है...हमलोग बदल रहे हैं...
हाँ नहीं तो..!!

Wednesday, March 21, 2012

ये एतबार इस दिल ने, यूँ ही न किया होगा ....


जुबाँ से खुद ही खुद से, मेरी बात कही होगी  
कहीं ज़िक्र किया होगा, मेरा नाम लिया होगा

क्यूँ भीगी-भीगी सी, ज़मीं क़दम के नीचे 
मेरी आँख से ही शायद, कोई क़तरा गिरा होगा

दीवाना मुफ़लिसी का, वो आशिक़ सूफ़ियाना    
पशे-चिलमन निहाँ है जो, वो मेरा ख़ुदा होगा

वो रहता शहर-ए-तन्हाँ, पर तन्हाँ नहीं वो होता  
मुमकिन है कहीं उसको, कोई अपना मिला होगा 

मिला है मुझे जाके,  वो जो मेरा हम-नवाँ  है
यकीं मेरे दिल ने, यूँ ही न किया होगा 

Monday, March 19, 2012

हम चाँद तुम्हारे हैं...


हम चाँद तुम्हारे हैं, तुम रात हमारी हो
हर शाम तुझे मिलना, ही मेरी हकीक़त है

ख़ुदा का शुक्र मानो, नेमत मिली है हमको
इक प्यार तुम्हारा है, इक मेरी मोहब्बत है

आवाज़ तुम्हें दी है, फिर मेरी हसरतों ने
गर तुम न सुन सको तो, ये मेरी क़िस्मत है 

हर रोज़ उठूंगी मैं, नज़रों में तेरी हमदम
वो मेरी इबादत है, वो मेरी इतअत है 

मंसूबे शिकायत का, कई बार बनाया है 
अब तुमसे क्या छुपा है, इंसानी फ़ितरत है  

शाने पे फूलों की, है मुस्कान तबस्सुम की  
हर सुब्ह फ़ना होना ही, उसकी तिज़ारत है 
 
इतअत=समर्पण

Saturday, March 17, 2012

Deceptions of the Century...

दुनिया की,
सारी बड़ी सच्चईयाँ,
बड़े-बड़े झूठ से बनी हैं...
फिर वो चाँद पर जाना हो,
या ट्विन टावर का गिरना,
वेपन ऑफ़ मॉस डिस्ट्रक्शन का सच हो,
या...
एड्स का आविष्कार....
ये सारे झूठ,
सच बन जाते हैं,
छोटे लोगों को मिटा कर....  
ठीक वैसे ही,
जैसे..
ब्रेन-सर्जरी में,
महारत हासिल होती है,
मेंटली रिटार्डेड को 
गिनी-पिग बना कर...!!


हम चाँद पर कभी गए ही नहीं...सबूत ये रहा...

Friday, March 16, 2012

शक़ की सूई...संस्मरण...


बात शायद आठ-दस साल पुरानी होगी...
हमरे माँ-बाबा हमरे पास कनाडा आये हुए थे...हमरा छोटा भाई सलिल, ओ.एन.जी.सी में अधिकारी था, सिनिअर जीओलोजिस्ट, उसे पंद्रह दिन काम करना होता था और पंद्रह दिनों की छुट्टी मिलती थी..उसकी पत्नी राधा और बच्चे रांची में ही रहते थे...सलिल को बॉम्बे हाई के आयल रिग, जो हिंद महासागर में है...में पंद्रह दिनों तक रहना पड़ता था...पंद्रह दिनों के लिए हेलीकाप्टर से रिग तक जाना, पंद्रह दिनों बाद हेलीकाप्टर से किनारे तक आना फिर फ्लाईट लेकर घर आना....
अब जब माँ-बाबा हमरे पास, कनाडा आ गए थे तो..उसकी पत्नी और बच्चों को रांची में अकेले रहना पड़ा...वैसे तो अकेले रहना कहने भर की बात है...सभी तो थे वहाँ कामवाली, अड़ोसी-पडोसी, घर के कैम्पस में कई किरायेदार और शहर में ढेरों रिश्तेदार...दिक्कत तो कुछ नहीं थी, और कोई दिक्कत नहीं होगी, यही हम सबने सोचा था...लेकिन दिक्कत कोई बता कर थोड़े ही आती हैं...बस जी आ गयी दिक्कत...!
मेरे भतीजे बहुत छोटे-छोटे थे..यही कोई ३-४ साल की उम्र होगी उनकी...शशांक और श्वेतांक...एक दिन कनाडा में, राधा का फ़ोन आया, बहुत घबराई हुई थी...पूछने पर उसने बताया..

उस दिन सुबह-सुबह..रूबी, जो हमारी किरायेदार थी, एक कॉलेज स्टुडेंट थी और अपने माँ-बाप के साथ रहती थी..ने एक चिट्ठी लाकर राधा को दी...चिट्ठी का मजमून कुछ इस तरह का था...अगर ५ दिनों के अन्दर तुमने पांच हज़ार रुपये नहीं दिए तो, तुम्हारे बच्चों को टुकड़े-टुकड़े कर के फेंक दिया जाएगा...
ज़ाहिर सी बात है...अपने-आप में यह चिट्ठी, किसी भी साधारण इंसान को हिला सकती थी...राधा भी बहुत परेशान हो गयी...रिग में मेरे भाई को फ़ोन करना, तब उतना आसन भी नहीं था..इसलिए उसने हमलोगों को फ़ोन किया था...मेरा भाई, अपनी ड्यूटी पर, बस दो-तीन पहले ही पहुंचा ही...और हम उसे परेशान भी नहीं करना चाहते थे...माँ-बाबा की हालत, इस घटना को सुनकर ही ख़राब हो गयी....वैसे भी उन्होंने पूरे आठ महीने, कनाडा में बिता ही लिया था...लिहाजा, मैं समेत माँ-बाबा ने इंडिया वापिस आने का फैसला कर लिया...टिकट कटाया और हम सभी, राधा को आश्वासन देते हुए...भारत वापिस पहुँच गए...इतनी अफरा-तफरी की वजह वो 'पांच दिन' भी थे...जिसका अल्टीमेटम हमारे परिवार को दिया गया था...

ख़ैर, हम आनन्-फानन रांची, माँ-बाबा के घर पहुँच ही गए....और पहुँचते ही हम, तहकीक़ात करनी शुरू कर दिए..किसी अच्छे डिटेक्टिव की तरह, लग गए हम खोज-बीन में...मोहल्ले वालों और बाकी सारे किरायेदारों से पूछ-ताछ करने में, हम कुछ घंटे बिता दिए..

चिठ्ठी तो हम जाते साथ ही देख लिए थे, सबसे पहली बात जो हमने गौर की उस चिट्ठी में...काफी बिगड़ी हुई लिखाई थी...लग रहा था देख कर, सीधे हाथ वाले ने उलटे हाथ से लिखी थी...चिट्ठी में जो 'राशि' लिखी गयी थी 'पांच हज़ार' मेरे गले से वो उतर नहीं रही थी...लग रहा था....या तो धमकी देने वाला टुटपुंजिया है या फिर नवसिखिया...या फिर एकाध जीरो छूट गया होगा...वर्ना पांच हज़ार जैसी रकम के लिए कोई इतना बड़ा रिस्क नहीं लेगा...
अब हमने बात करनी शुरू की रूबी से....रूबी, मंझोले कद की साँवली सी लड़की, जो कालेज में पढ़ती थी...नयन-नक्श साधारण से थे...मैं उसके कमरे में जाकर बैठ गयी...कमरे में देखा जासूसी किताबों की भरमार थी...कोर्स की किताबों से कहीं ज्यादा तो जासूसी उपन्यास थे उसकी टेबल पर...मैंने इधर-उधर नज़र दौडानी शुरू कर दी...अब रूबी के माँ-बाप भी आकर बैठ गए...उनकी पूरी सहानुभूति थी हमारे परिवार के साथ...

रूबी से हम कहे, तुम हमको पूरा वाकया बताओ क्या हुआ था...क्योंकि चिट्ठी तुम्हीं लेकर आई थी राधा के पास...उसने जो बताया वो कुछ इस तरह था...
सुबह लगभग ६ बजे जब वो बाहर ब्रुश कर रही थी...गेट के पास एक लम्बा सा आदमी खड़ा था..उसने रूबी को बुलाया और उसके हाथ में वो चिट्ठी देकर, कहा हमारे घर में इसे पहुंचा दे..उसके बाद वो फ़ौरन चला गया...और जैसा उस व्यक्ति ने कहा था, रूबी ने ठीक वैसा ही किया...हमने रूबी से पूछा वो देखने में कैसा था...उसने कहा लम्बा था...हमने फिर पूछा, अगर तुम उसे कहीं देखोगी तो पहचान जाओगी ना...उसने कहा नहीं पहचान सकती...ये बात ज़रा नागवार गुजरी हमको...हम कहे, जब तुमने उससे बात की है तो फिर कैसे नहीं पहचान सकोगी...?? वो जवाब नहीं दे पायी...
अब हम उससे सही तरीके से सवाल करने को आतुर हो गए...क्योंकि कुछ बातें कहीं से फिट नहीं हो रहीं थीं...
पहली बात...हमारे मोहल्ले में लोग पांच साढ़े पांच बजे ही उठ जाते हैं...हमारे घर के कूआं से पानी भरने का सिलसिला सुबह पाँच साढ़े पाँच बजे से ही शुरू हो जाता है...हमारे घर के मंदिर में पूजा करने वाले पंडित जी पाँच साढ़े पाँच बजे ही आ जाते हैं...आँगन में झाडू करने वाला लौउदा (नाम है उसका ) पांच बजे ही आ जाता है...इन दोनों लोगों से हम पूछ चुके थे, क्या उस दिन आपलोग देर से आये थे...उनलोगों को अच्छी तरह याद था...कि वो समय से आये थे...क्योंकि चिट्ठी मिलने की बात दूसरे दिन, पूरे मोहल्ले में आग की तरह फ़ैल चुकी थी....लोगों ने पुलिस में इत्तला करने को भी कहा था राधा को...लेकिन राधा अकेली थी और डरी हुई थी...पूरे मोहल्ले में पूछने पर कोई नहीं बता पाया कि किसी ने भी ऐसे किसी इंसान को हमारे गेट के बाहर खड़ा देखा था...मेरी शक़ की सूई बार-बार घूम-फिर कर रूबी पर ही अटकने  लगी...वो बार-बार कहती, एक लम्बा सा आदमी ये ख़त उसे देकर गया है...और वो कुछ नहीं जानती...

अब हमको अपना शक ज़ाहिर करना बहुत ज़रूरी हो गया...बिना लाग-लपेट हम कह दिए...कोई भी बाहरी आदमी, कोई चिट्ठी लेकर नहीं आया था....ये चिट्ठी रूबी ने ही लिखी है...इतना सुनकर भी रूबी के चेहरे पर कोई, आश्चर्य, कोई दुःख-अवसाद कुछ भी नहीं आया..उसकी चालांकी भरी आँखों में कोई बदलाव नहीं आया....लेकिन उसके माँ-बाप तो बस इस बात को मानने को तैयार ही नहीं थे...आखिर ये उनकी बेटी का सवाल था...माँ ने जोर-जोर से बोलना शुरू कर दिया...
उसके पिता कहने लगे मेरे बच्चे ऐसा काम कर ही नहीं सकते...मैं उनकी गारंटी लेता हूँ.. शोर सुनकर मेरे बाबा भी आ चुके थे...हम भी बाबा से पूछ लिए..आप मेरे पिता हैं...हमको आप अच्छी तरह जानते हैं...फिर भी क्या आप हमरी गारंटी ले सकते हैं कि हम कोई गलत काम नहीं किये हैं ....हमरे बाबा का झिझकते हुए उत्तर था 'नहीं'...रूबी की माँ कुछ ज्यादा ही शोर मचा रही थी...थोड़ी देर तक तो हम सुनते रहे...फिर चिल्ला कर उनको ख़ामोश रहने का आदेश दे ही दिए...रूबी पर हमरा  शक क्यों हुआ है इसकी एक लम्बी सी फेहरिस्त हम उन दोनों को बता दिए जो कुछ इस तरह थी...

१. कोई लम्बा सा आदमी हमारे घर के गेट के सामने ६ बजे सुबह...इंतज़ार में खड़ा रहे, और मोहल्ले वाले या घर में काम करने वाले ना देखे ये संभव नहीं था..
२. अगर उस व्यक्ति को चिट्ठी ही देनी थी तो वो किसी को भी दे सकता था ...मसलन, पंडित जी, लौउदा...फिर रूबी ही क्यों ? क्योंकि ये सारे लोग उस समय वहाँ मौज़ूद थे...अगर सचमुच कोई ऐसा व्यक्ति था तो ये भी हो सकता है रूबी उससे मिली हुई हो...
3. उस व्यक्ति से बात करने के बावजूद रूबी का ये कहना कि वो उसे नहीं पहचान सकती...
४. जिसे धमकी भरा पत्र देना हो..वो इंतज़ार नहीं करता...वो चिठ्ठी गेट के अन्दर फेंक कर भाग जाएगा...
५. ऐसी चिट्ठी देने वाला अपनी पहचान छुपायेगा...वो किसी को बुला कर बात करके अपनी पहचान और जता कर नहीं जाएगा...
६. उसे कैसे पता था कि..रूबी ठीक उसी वक्त बाहर निकलेगी जिसे वो ये पत्र दे सकता है..
७. सबसे अहम् बात...५००० रुपये...ये रक़म बहुत छोटी है और रिस्क बहुत बड़ा...

अब मेरी दलीलों से रूबी के हाथ पाँव फूलने लगे थे....घबराहट उसके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी...मैंने उससे कहा कि देखो मैं अभी पुलिस बुला सकती हूँ और वो खुद ही पता लगा लेगी...लेकिन इस बात से हमें कोई नुक्सान नहीं होगा...तुम्हें एक बड़ा नुक्सान ये होगा कि लपेटे में तुम ही आओगी ये पक्की बात है...तुम्हारे भविष्य के साथ क्या होगा ये तो भगवान् ही जाने...हाँ अगर अपनी गलती मान लो तो...बात यहीं ख़तम हो सकती है...बस हमारा घर खाली कर दो जो तुम्हें वैसे भी करना है...बिना गलती स्वीकार किये हुए मैं तुम्हें जाने नहीं दूंगी...और पुलिस का लफड़ा अलग होगा....

इतना सुनते ही रूबी ने मेरे पाँव पकड़ लिए...मुझसे भूल हो गयी....मुझे माफ़ कर दीजिये...वो पत्र मैंने ही लिखा था...हम फट से पूछे...बायें हाथ से लिखा था ना..उसने स्वीकार में सर हिला दिया...बाद में उसके पास से कई रफ़ किये हुए पत्र मिले...हम उसके माँ-बाप से कहे...अपने बच्चों की गारंटी लेने वाले माँ-बाप बेवकूफ होते हैं...कभी ये काम मत कीजियेगा...और दूसरी बात रूबी का जासूसी उपन्यास पढना बंद करवाइए...अगर हो सके तो इसकी शादी करवा दीजिये...क्योंकि क्राइम की दुनिया में इसके कदम बढ़ चुके हैं...किसी दिन कोई बड़ा कदम अगर इसने उठा लिया....तो फिर आप कहीं के नहीं रहेंगे...
रूबी की माँ तो अब भी आयें-बायें की जा रही थी..लेकिन रूबी के पिता की आँखें झुकी हुई थीं...और हाथ बँधे हुए थे...मेरे बाबा के सामने...!!

हाँ नहीं तो..!!