कुछ बुलबुले
बुलबुले,
बेतुके से देख कर
बेतुके से देख कर
ख़ुश हो जाती हैं
ज़िन्दगानियाँ,
ज़िन्दगानियाँ,
भूल जातीं हैं
जब ये फूटेंगे तो
क्या होगा !
जब ये फूटेंगे तो
क्या होगा !
हाथ रिक्त,
आसमाँ रिक्त,
रिक्त सा जहाँ होगा...
देवता
कहते हैं !
तुम काम क्रोध छोड़ दोगे तो,
देवता बन जाओगे,
काम क्रोध छोड़े हुए
कोई देवता नहीं देखा !
पीर पीर
पोर पोर में पीर है,
और पोर पोर में पीर,
पीर, पोर पोर की जाई प्रभु,
और पीर, पोर पोर बसी जाई....
Namaskar di
ReplyDeleteBeautiful as always.
It is pleasure reading your poems.
EK SE BADHKAR EK......
ReplyDeleteबहुत नयी सी लगी बुलबुलों का अस्तित्व स्थापित कविता।
ReplyDeleteकाम क्रोध छोड़े हुए
ReplyDeleteकोई देवता नहीं देखा
देवत्व कौन चाहता ही है
बहुत सुंदर, धन्यवाद
ReplyDeleteजब ये फूटेंगे तो
ReplyDeleteक्या होगा !
जिंदगी के फलसफे को
भली-भांति बयान करते हुए
चंद अलफ़ाज़ .....
बिलकुल ज़िन्दगी के करीब से हो कर
गुज़रते हुए.... वाह !
बहुत अच्छी लगीं यह छोटी छोटी कवितायें
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteआभार, आंच पर विशेष प्रस्तुति, आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पधारिए!
अलाउद्दीन के शासनकाल में सस्ता भारत-2, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
हर एक क्षणिका बहुत बेहतरीन है दी गहरा अर्थ निहित है
ReplyDeleteलेकिन ये क्या ??
पोर पोर में पीर है,
और पोर पोर में पीर,
पीर, पोर पोर की जाई प्रभु,
और पीर, पोर पोर बसी जाई....
क्या हाल बना रक्खा है !!! कुछ लेते क्यों नहीं :D
आप की रचना 24 सितम्बर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
पोर पोर में पीर ...
ReplyDeleteजहाँ हाथ रखा वहां दर्द था
हाथ वही रखा जहाँ दर्द था ...
बुलबुले फूटते हैं तो कुछ शेष नहीं रहता ...वाह !
देवता भी कहाँ मिले काम क्रोध बिना ...सच है..!
एक नज़रिया ये कि - पोर पोर में 'पीर' बस जायें तो इंसान देवता हो जायेगा ! और तब बुलबुले होने का भय कहां :)
ReplyDelete[ तीनो कविताएं बहुत पसंद आईं उन पर टिप्पणी को हास्य बतौर स्वीकारियेगा ]
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ReplyDeleteमशीन अनुवाद का विस्तार!, “राजभाषा हिन्दी” पर रेखा श्रीवास्तव की प्रस्तुति, पधारें
कहते हैं !
ReplyDeleteतुम काम क्रोध छोड़ दोगे तो,
देवता बन जाओगे,
काम क्रोध छोड़े हुए
कोई देवता नहीं देखा !
मैने भी नही देखा। तीनो कवितायें दिल को छू गयी। बधाई।
बुलबुले हवा ही तो होते हैं और हवा का अस्तित्व हो कर भी नहीं होता ।
ReplyDeletepichle hfte ki sari post ak sath pdhi .
ReplyDeleteAksilent .lajvab
mdhur geet sunane ke liye abhar
बहुत खूब
ReplyDeleteछोटी छोटी रचनाओं के जरिये बहुत बड़ी बड़ी बातों की तरफ़ इशारा कर गईं आप। कबीर ने मानव जीवन को बुलबुला ऐसे ही नहीं कहा, पल भर नहीं लगता और अस्तित्व घुल जाता है।
ReplyDeleteमैं आजतक नहीं समझ पाया कि एक तरफ़ हम यह भी पढ़ते हैं कि देवता भी मानव जीवन के लिये तरसते हैं, फ़िर हमारा ध्यान देवता बनने पर ही क्यों जाता है? क्यों न पहले इंसान ही बनें।
पोर पोर में पीर - इतना दर्द? हद से गुजर जाये तो दर्द ही दवा बन जाता है।
तीनों लघु कवितायें बहुत अच्छी लगीं।
गज़ल को तरन्नुम में सुनना, और वो भी आपकी आवाज में एक आलौकिक अनुभव रहा, कितनी ही बार सुन चुके हैं।
आभार स्वीकार करें।