Tuesday, May 29, 2012
Sunday, May 27, 2012
Kenny Rogers — Lucille...संतोष शैल की आवाज़ में...
Kenny Rogers — Lucille
Songwriters: Bowling, Roger;Bynum, Hal
गाना यहाँ है....संतोष शैल की आवाज़ में...
On a bar stool she took off her ring
I thought I'd get closer so I walked on over
I sat down and asked her name
When the drinks finally hit her
She said I'm no quitter
but I finally quit livin on dreams
I'm hungry for laughter and here ever after
I'm after whatever the other life brings
टोलेडो (जगह का नाम ) में डिपो के सामने वाले बार में
वो स्टूल पर बैठी थी और उसने वहीँ अपनी अंगूठी उतार दी..
मैंने उसे ऐसा करते हुए देखा और सोचा थोड़ा उसके करीब आ जाऊं
मैं उठ कर उसके पास चला गया, फिर उससे उसका नाम पूछा..
हम दोनों में जाम का एक दौर चला..और जब उसे शराब थोड़ी चढ़ गयी
उसने कहा ..यूँ तो मैं हारने वालों में से नहीं हूँ, लेकिन मैं सिर्फ सपनो के साथ अब नहीं जी सकती
मैं हंसी की भूखी हूँ और आज के बाद ज़िन्दगी से जो भी मुझे मिलेगा वो मंज़ूर होगा..
In the mirror I saw him and I closely watched him
I thought how he looked out of place
He came to the woman who sat there be-side me
He had a strange look on his face
The big hands were calloused he looked like a mountain
For a minute I thought I was dead
But he started shaking his big heart was breaking
He turned to the woman and said
तभी मैंने आईने में उसे देखा और मैंने गौर किया
मैंने देखा वो उस माहौल से परे था.
वो उस औरत के पास आया जो मेरे पास बैठी थी
उसके चेहरे पर अजीब से भाव थे
उसके हाथ खुरदुरे थे और शरीर पर्वत सा विशाल था
एक पल के लिए मुझे लगा की वो मुझे मार ही डालेगा
पर वो कांपने लगा उसका दिल टूट रहा था
और उसने उस महिला से कहा
You picked a fine time to leave me Lucille
With four hungry children and a crop in the field
I've had some bad times lived through some sad times
this time your hurting won't heal
You picked a fine time to leave me Lucille.
लुसिल तुमने मुझे छोड़ने का अच्छा समय चुना
चार भूखे बच्चों और खेत में खड़ी फसल के साथ
मैंने बुरे दिन देखे हैं, दुःख भरे दिन भी गुज़ारे हैं
लेकिन इस बार का दर्द नहीं झेला जाएगा
लुसिल तुमने मुझे छोड़ने का अच्छा समय चुना
After he left us I ordered more whisky
I thought how she'd made him look small
From the lights of the bar room
To a rented hotel room
We walked without talking at all
She was a beauty but when she came to me
She must have thought I'd lost my mind
I could'nt hold her 'cos the words that told her
Kept coming back time after time
उसके जाने के बाद मैंने और विस्की आर्डर किया
मैंने सोचा उस महिला ने उस आदमी को कितना छोटा महसूस करा दिया
बार रूम की रौशनी से किराए के कमरे तक
हम दोनों बिना बात किये चलते गए
वो खूबसूरत थी और जब वो मेरे पास आई
तो उसने सोचा होगा की मैंने अपना होशो हवास खो दिया होगा
मैं उसे थाम न सका क्यूंकि
उस आदमी की बातें बारबार मुझे याद आतें रहीं
You picked a fine time to leave me Lucille
With four hungry children and a crop in the field
I've had some bad times lived through some sad times
this time your hurting won't heal
You picked a fine time to leave me Lucille.
लुसिल तुमने मुझे छोड़ने का अच्छा समय चुना
चार भूखे बच्चों और खेत में खड़ी फसल के साथ
मैंने बुरे दिन देखे हैं, दुःख भरे दिन भी गुज़ारे हैं
लेकिन इस बार का दर्द नहीं झेला जाएगा
लुसिल तुमने मुझे छोड़ने का अच्छा समय चुना
You picked a fine time to leave me Lucille
With four hungry children and a crop in the field
I've had some bad times lived through some sad times
But this time your hurting won't heal
You picked a fine time to leave me Lucille.
लुसिल तुमने मुझे छोड़ने का अच्छा समय चुना
चार भूखे बच्चों और खेत में खड़ी फसल के साथ
मैंने बुरे दिन देखे हैं, दुःख भरे दिन भी गुज़ारे हैं
लेकिन इस बार का दर्द नहीं झेला जाएगा
लुसिल तुमने मुझे छोड़ने का अच्छा समय चुना
You picked a fine time to leave me Lucille
लुसिल तुमने मुझे छोड़ने का अच्छा समय चुना
You picked a fine time to leave me Lucille
लुसिल तुमने मुझे छोड़ने का अच्छा समय चुना
Friday, May 25, 2012
अंग्रेजी मईया की किरपा....
इस
बात में दो राय नहीं कि हिंदी की दुर्दशा दिखाई देती है, कारण सिर्फ
बाजारवाद नहीं, अंग्रेजी की चमक इतनी तेज़ है कि लोग उससे बच नहीं
पाते...और हमारी सरकार भी छीछा-लेदर करने से बाज़ नहीं आती, हिंदी के
उत्थान की आवश्यकता, उतनी नहीं है जितनी उसे दिल से अपनाने की है, हिंदी आज शक़ के घेरे में है, हिंदी पर अब लोगों को विश्वास नहीं है, अपनी
बात हिंदी में कहने में लोग कतराते हैं....उन्हें ये लगता है कि सामने
वाले पर धौंस ज़माना हो, तो बात हिंदी में नहीं, अंग्रेजी में करो...और
सच्चाई भी यही है...जो बात आप हिंदी में कहते हैं, वो कम असर करती, और
जैसे ही आपने अंग्रेजी में बात करनी शुरू की, आपका स्तर सामने वाले की नज़र
में एकदम से उछाल मारता है ...बेशक आपने अंग्रेजी की टांग ही तोड़ कर रख दी
हो....ब्लॉग जगत में भी अंग्रेजी के वड्डे-वड्डे तीर चलते हुए देखा है, और
लोगों को चारों खाने चित्त होते हुए भी...हाँ, तो हम बात कर रहे थे, इसी
फार्मूले की...ये मेरा आजमाया हुआ फ़ॉर्मूला है...कसम से हम कहते हैं, एकदम सुपट काम करता है..
पेशे ख़िदमत है एक आपबीती ...
मैं
रांची में थी और मुझे इन्टनेट कनेक्शन चाहिए था ...उसके लिए जाने
क्या-क्या कार्ड्स चाहिए थे और मेरे पास वो कार्ड्स नहीं हैं, ख़ैर मेरी
दोस्त उर्सुला ने मेरा उद्धार करने की सोची ...उसने आवेदन दिया, हमलोगों ने
टाटा का फ्लैश ड्राइव खरीदा और कनेक्शन के लिए हमलोगों से ये वादा किया
गया कि दूसरे दिन तक हो जाएगा ...मैं अपना लैपटॉप लेकर तैयार बैठी
थी...दूसरे दिन दोपहर तक कनेक्शन का नाम-ओ-निशाँ नहीं था...मैंने फ़ोन
लगाया उसी जगह जहाँ से इन्टरनेट कनेक्शन लिया था ...उनका कहना था कि आपको
कनेक्शन इसलिए नहीं मिला, क्योंकि हम पता का सत्यापन अर्थात एड्रेस
वेरिफिकेशन के लिए गए थे लेकिन वहाँ कोई नहीं था...मेरा अगला सवाल था आप कब
गए थे वेरिफिकेशन के लिए ...उन्होंने जवाब दिया जी ११ बजे के क़रीब गए
थे....मैंने तपाक एक और सवाल दागा..आप इस वक्त कहाँ हैं ...उनका जवाब था जी
हम तो ऑफिस में हैं...मैंने कहा अभी कितने बज रहे हैं ...उन्होंने कहा जी
१२.३० ...मैंने कहा आप ऑफिस में क्यों हैं...आपको तो घर पर होना चाहिए
था...वो बन्दा कुछ उलझा-उलझा सा हो गया...कहने लगा क्यों मैम घर पर क्यों,
मैंने कहा कि मुझे लगा आप भी वेले ही बैठे हो.. तो घर में रहो...क्योंकि
अगर आप ११ बजे एड्रेस वेरिफिकेशन के लिए किसी के घर जाते हो...और ये उम्मीद
करते हो कि वो घर में ही पलंग पर बैठा हो...तो बंदा तो वेल्ला ही होगा
न...वर्ना शरीफ लोग जो नौकरी-चाकरी करते हैं, वो तो ९ बजे ही दफ़्तर पहुँच
जाते हैं न ! बन्दा समझदार था...समझ गया था कि ग़लत जगह पंगा ले रहा
है...कहने लगा मैम आपकी बात सही है...लेकिन मैं तो बस एक मुलाजिम हूँ...आप
क्यों नहीं हमारे मैनेजर से बात करती हैं...मैंने कहा, बच्चे, अब मैं मनेजर
नहीं मैनेजिंग डाइरेक्टर से बात करुँगी...अब मुझे उनका फ़ोन नम्बर
दो...ख़ैर उसने मुझे एम्.डी. का नंबर दिया, मैंने फ़ोन किया और जब तक मैं
हिंदी में बात करती रही, एम्. डी. साहेब मुझे टहलाते रहे, उनकी बन्दर
गुलाटी देख मैंने भी अपना रंग बदलने की सोची....और जैसे ही मैंने अपना रंग
बदला, वो मुझे सिरिअसली लेने लगे, फिर मैंने वो अंग्रेजी झाड़ी कि उन्हें
भी लगने लगा ...I can leave angrej behind ...मेरा इन्टरनेट कनेक्शन १५
मिनट में लगा ..बिना तथाकथित एड्रेस वेरिफिकेशन के, यही नहीं एम्.डी. साहब
ने पूरे समय मेरा इंतज़ार किया फ़ोन पर, जब तक मेरा इंटरनेट कनेक्शन...ऊ
का कहते हैं कि कनेक्टेड नहीं हो गया....और तो और दूसरे दिन, फिर तीसरे दिन
भी फ़ोन करके पूछा कि सब ठीक-ठाक चल रहा है न...!
तो ई है जी अंग्रेजी मईया की किरपा....
हाँ नहीं तो..!
आगे भी जाने न तू.. आवाज़ हमरी ही है और किसकी होगी हीयाँ ??
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Thursday, May 24, 2012
कुछ तो बात है.... बिहार के पानी में...!
कल
हमारे घर हमारे एक मित्र, जो सरदार हैं, आये...बहुत ही खूबसूरत शख्शियत
के मालिक हैं वो...रंग ज़रा सा दबा हुआ है उनका, बाकी, कद-काठी, डील-डौल
तो बस माशाल्लाह, सर पर करीने से बनी हुई लाल पगड़ी , उतने ही करीने से
सजी दाढ़ी और मूंछ कुल मिलाकर रौबदार चेहरा....चाय की टेबल पर, बात चीत की
नईया ...ओसामा बिन लादेन को वाट लगाती हुई..अमेरिका के बे-सर पैर की
विदेश नीति को टक्कर मारती हुई पहुँच गयी...हिन्दुस्तान की आबो हवा तक...
हिन्दुस्तान की गर्मी की जब बात चली तो...हम भी का जाने क्यूँ पगड़ी की लम्बाई-चौडाई में उलझ गए...पूछ ही लिया.. विज साहब..! गर्मी में पगड़ी तो बड़ी दुःखदाई होती होगी...कहने लगे.. परेशानी तो होती है...लेकिन अब हमें भी इसकी लत लग चुकी है ...मैंने कहा, वैसे ये पगड़ी है बड़े काम की चीज़ ...बहुत सारे ऐब छुपा देती है...अब देखिये ना...हमने कभी कोई गंजा सरदार नहीं देखा...जबकि हम भी जानते हैं कि सरदार भी गंजे होते हैं...अब इस पगड़ी की महिमा देखिये ...सरदारों की पगड़ी के नीचे, घने-काले रेशमी बालों की आस लगाये बैठे हम जैसे लोग, अगर अपने अड़ोस-पड़ोस में जरा सी ताका-झांकी करें , तो किसी अटरिया पर किसी सरदार जी को, धूप में अपनी ज़ुल्फ़ सुखाते देख, गश खा जाते हैं....गाय, जमके खेती चर गयी है, ऐसा ही कुछ नज़ारा नज़र आया है......लेकिन किसी पर्दानशीं के मुहासों वाले चेहरे की तरह, आपलोग भी अपनी जुल्फों को पग-नशीं कर लेते हैं...और हम गंजे सरदारों के दर्शन से महरूम रह जाते हैं..
हिन्दुस्तान की गर्मी की जब बात चली तो...हम भी का जाने क्यूँ पगड़ी की लम्बाई-चौडाई में उलझ गए...पूछ ही लिया.. विज साहब..! गर्मी में पगड़ी तो बड़ी दुःखदाई होती होगी...कहने लगे.. परेशानी तो होती है...लेकिन अब हमें भी इसकी लत लग चुकी है ...मैंने कहा, वैसे ये पगड़ी है बड़े काम की चीज़ ...बहुत सारे ऐब छुपा देती है...अब देखिये ना...हमने कभी कोई गंजा सरदार नहीं देखा...जबकि हम भी जानते हैं कि सरदार भी गंजे होते हैं...अब इस पगड़ी की महिमा देखिये ...सरदारों की पगड़ी के नीचे, घने-काले रेशमी बालों की आस लगाये बैठे हम जैसे लोग, अगर अपने अड़ोस-पड़ोस में जरा सी ताका-झांकी करें , तो किसी अटरिया पर किसी सरदार जी को, धूप में अपनी ज़ुल्फ़ सुखाते देख, गश खा जाते हैं....गाय, जमके खेती चर गयी है, ऐसा ही कुछ नज़ारा नज़र आया है......लेकिन किसी पर्दानशीं के मुहासों वाले चेहरे की तरह, आपलोग भी अपनी जुल्फों को पग-नशीं कर लेते हैं...और हम गंजे सरदारों के दर्शन से महरूम रह जाते हैं..
विज
साहब ! आप समझ सकते हैं, बिन पगड़ीवालों के साथ ये कितनी बड़ी नाइंसाफी
है, .....ये सुनते ही वो ठहाका मार कर हंस पड़े...कहने लगे, ये बात आपने
सही कही है...
अब वो पगड़ी की महत्ता की बात करने लगे थे...कहने लगे हमारे दसवें गुरु, 'गुरु गोविन्द सिंह जी ' चाहते थे कि हम सरदार बिलकुल राजाओं की तरह लगे...इसलिए उन्होंने हमें पगड़ी पहनने का आदेश दे दिया...इस पगड़ी की वजह से ही तो हम सरदार राजा की तरह लगते हैं..सच पूछिए तो, ये हमारे सिर का ताज है...
अब हम ठहरे बिहारिन... एक बिहारिन दूसरे बिहारी के मन की बात न जाने... ई भला कैसे हो सकता था...! हमने कहा...विज साहब 'गुरु गोविन्द सिंह जी' थे तो बिहारी ...और ई पक्की बात है, ऊ 'राजा' 'प्रजा' की खातिर ई काम नहीं किये थे...बिहारी लोग बहुत प्रैक्टिकल होते हैं...माजरा कुछ और रहा होगा...
और तब हम लग गए व्याख्या करने में...
हमारा तर्क बड़ा ही सीधा-सरल था...हम बोले....जहाँ तक हम जानते हैं 'सिख' का अर्थ होता है 'शिष्य', श्री गुरु गोविन्द सिंह जी..उस दिनों औरंगजेब के पाँव उखाड़ने में लगे हुए थे...और इसके लिए उन्होंने एक सैन्य-टुकड़ी की स्थापना की...ज़ाहिर सी बात थी, हर आर्मी की तरह इस टुकड़ी को भी एक ड्रेस कोड दिया गया...और ये ड्रेस कोड बने ...केश, कंघा, कड़ा, कच्छा और कृपाण....
केश :
सेना के बहादुर नौजवान हमेशा जंगलों में ही छुपे रहते थे...उनका जीवन
छुपने-भागने में ही बीतता था..इसलिए उनके पास हजामत बनाने जैसी बातों के
लिए फुर्सत ही कहाँ थी...बढ़ी हुई दाढ़ी के कई फायदे थे, वो आसानी से मुग़ल सैनिकों में मिल जाते थे, बढ़ी हुई दाढ़ी उनके लिए
नकाब का भी काम करती थी, जिससे वो मुग़ल सैनिकों को चकमा देकर भाग सकते
थे....सिर के लम्बे बाल उसकी खोपड़ी की सुरक्षा के लिए भी उपयुक्त थे..और
कभी कभी किसी महिला का रूप धारने में भी सहूलियत होती थी...पगड़ी की
आवश्यकता भी इन्ही लम्बे बालों की वजह से आन पड़ी...पगड़ी शायद ६ गज लम्बा
मलमल के कपड़े से बनती है...यह कपड़ा हर तरह से उपयोगी था...पतला मलमल
जल्दी सूख जाता था, हल्का इतना कि ये बोझ भी नहीं था और मजबूत ऐसा कि
रस्सी के काम आ जाए... सर पर बाँधने से सिर की बचाईश भी हो जाती थी...जब
दिल किया पहन लिया, जहाँ दिल किया बिछा लिया और जरूरत पड़ने पर ओढ़ लिया...
कंघा :
लम्बे बाल और लम्बी दाढ़ी...जंगल का जीवन और भागा-दौड़ी....जब खाना-पीना
ही मुहाल था तो केश-विन्यास की बात ही कौन सोचे भला...! और जब हजामत नहीं
हो पाती थी तो बालों को तरतीब से रखने के लिए इससे उपयुक्त उपकरण और भला
क्या हो सकता था...! इसलिए हर सैनिक अपने पास कंघा रखता था..
कड़ा :
कड़ा, धातु का बना हुआ मजबूत छल्ला होता है, इसका उपयोग कई तरह से किया
जा सकता था ..रस्सी बाँधने के लिए, रस्सी पर सरकने के लिए, पेड़ों पर चढ़ने
के लिए, और ज़रुरत पड़ने पर हथियार की तरह भी इसका इस्तेमाल बहुत आराम से
किया जा सकता था...
कच्छा : यह पुरुषों के लिए एक ढीला-ढाला अंतरवस्त्र (underwear) होता था, आराम दायक और सुविधाजनक..
कृपाण :
कृपाण, एक तलवारनुमा घातक हथियार होता है...जो आकार में तलवार से छोटा
होता है...जिसे आसानी से पहने हुए वस्त्रों के अन्दर छुपाया जा सकता था..और
ज़रुरत पड़ने पर बाहर निकाला भी जा सकता था ...आकार छोटा होने के कारण यह
दूर से दिखाई भी नहीं पड़ता था, लेकिन काम यह तलवार की तरह ही करता
है...इसे बहुत ही उपयोगी हथियार माना जा सकता है...बिना शक-ओ-शुबहा इसे
लेकर सिख सैनिक कहीं भी आया-जाया करते थे...
मेरी
अधिकतर बातों से विज साहब को कोई परहेज़ नहीं हुआ ...बस मेरा गुरु
गोविन्द सिंह जी को 'बिहारी' कहना उनको रास नहीं आया...परन्तु इतिहास को
झुठलाया भी तो नहीं जा सकता ...श्री गोविन्द सिंह जी का जन्म 'पटना साहब'
में हुआ था, यह उतना ही सच है जितना सूरज हर रोज़ निकालता है...उनकी इस
कामयाबी में बिहार के पानी का असर भी हुआ ही होगा....और इस बात को झुठलाया
भी नहीं जा सकता है...
सिर्फ
गुरु गोविन्द सिंह जी ही क्यूँ...बिहार में तो बड़े-बड़ों को ज्ञान की
प्राप्ति हुई है...जैसे गौतम बुद्ध, अगर वो 'बोध गया' नहीं जाते तो क्या
वो बुद्ध कहाते ? और महावीर जी...? जैन धर्म के प्रवर्तक श्री महावीर जी
का भी जन्म बिहार में ही हुआ था...
सच
कहें तो...गुप्त वंश, मौर्य वंश इत्यादि महान साम्राज्यों की राजधानी
बनने का गौरव, पाटलिपुत्र अर्थात पटना को ही प्राप्त हुआ है...दुनिया भर
में प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय भी बिहार में ही है...मेगास्थनीज, जैसा
यूनानी राजदूत जिसे सेल्यूकस ने यूनान से भेजा था... फाहियान और हुएनसांग
जैसे यात्री, भारत दर्शन करने के लिए बिहार ही आये थे... संक्षेप में
कहूँ तो ..भारत का प्राचीन इतिहास का अर्थ ही है बिहार का इतिहास....
इन सारी बातों से एक बात तो सिद्ध हो ही रही थी...कुछ तो बात है.... बिहार के पानी में...!
हाँ नहीं तो..!
छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए..आवाज़ 'अदा' की...
छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए..आवाज़ 'अदा' की...
Wednesday, May 23, 2012
मेरी नज़रें गुजरे ज़मानों में थी...
मैं कल रात उन दीवानों में थी
मेरी नज़रें गुजरे ज़मानों में थी
ये दिल घबराया ऊँचे मकाँ में बड़ा
फिर सोयी मैं कच्चे मकानों में थी
यूँ तो दिखती हूँ मैं भी शमा की तरहां
पर गिनती मेरी परवानों में थी
उसकी बातों पे मैंने यकीं कर लिया
कितनी सच्चाई उसके बयानों में थी
मेरे अपनों ने कब का किनारा किया
मुझसे ज़्यादा कशिश बेगानों में थी
क्या ढूंढें 'अदा' वो तो सब बिक गया
तेरे सपनों की डब्बी दुकानों में थी
दिल लगा लिया मैंने तुमसे प्यार करके ...आवाज़ संतोष शैल और 'अदा' की...
Tuesday, May 22, 2012
वो आँचल.. ! (संस्मरण )
हमारे पड़ोस में रहते थे धनपति रामसिंहासन पाण्डेय ...दो बेटियाँ ..एक बेटा....संजय...
बेटियों की शादी हो चुकी थी बड़े-बड़े घरों में....कभी कभार आती थी वो
दोनों...उनकी पत्नी का भी स्वर्गवास हुए कुछ वर्ष हो चुके थे...
बात
हम करते हैं संजय की....संजय हमसे उम्र में बहुत बड़े थे हमलोग भईया कहते
थे उन्हें...उनकी शादी हो चुकी थी शीला भाभी से और उनका भी एक बेटा था
विशाल.....शीला भाभी को मैंने कभी भी जोर से बोलते नहीं सुना था...हर वक्त
उनके सर पर आँचल हुआ करता था...हम लोग दौड़ कर उनसे लिपट जाते, तो अपने हाथ
से हमेशा मेरे बाल सहलाया करती थी....वो शाही टुकड़ा बहुत अच्छा बनाती
थी....जिस दिन भी उनके घर बनता था, एक कटोरी में मेरे लिए ज़रूर भेज देतीं
थीं....
संजय भईया..अच्छे खासी पर्सनालिटी के मालिक थे ..६ फीट
उंचाई, गोरा रंग, भूरी आँखें और रोबदार चेहरा.... एक तो अकेले बेटे उसपर
से अपार संपत्ति....कभी न पढ़े-लिखे, न ही कभी...कुछ काम
किया...ज़रुरत ही नहीं पड़ी.....बस दिन भर दारू पीना और और महफ़िल सजाये रखना,
घर पर दोस्तों की या फिर टनडेली करना....
कहते हैं न, शुरू में आप
शराब पीते हैं, फिर शराब आपको पीती है...संजय भईया भी कहाँ अपवाद
थे....होते-होते शराब ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया...उनको लीवर सिरोसिस
हो गया और ६ फीट का आदमी ४ फीट का कैसे हो जाता है, यह मैंने तभी देखा
था....खूबसूरत बदन हड्डियों का ठठरी हो गया था.....शीला भाभी ने अपनी
आँखों की नींद को, अपने पास महीनों नहीं फटकने दिया....आँचल पसार-पसार कर
सारे व्रत कर गयी थी वो....लेकिन भगवान् को तो अपना काम करना था .....सो एक
दिन संजय भईया को इस दुनिया से जाना ही पड़ा...शीला भाभी और विशाल को छोड़
कर....अब घर में मात्र शीला भाभी, विशाल जिसकी उम्र २-३ वर्ष कि थी और
पाण्डेय जी रह गए.....
एक दिन की बात है, शीला भाभी हमारे घर, सर पर
आँचल रख कर धड-फड करतीं हुई आई और भण्डार घर में छिप गयीं...मैं बहुत छोटी
थी, मुझे बात समझ नहीं आई.....मैंने सिर्फ इतना देखा कि वो बहुत रो रहीं थीं,
और मेरी माँ से कहती जातीं थीं, कि हम नहीं जायेगे ..आपलोग हमको कैसे भी करके, यहीं
से मेरे मायके भेज दीजिये.....बाहर पाण्डेय जी ने हाहाकार मचाया हुआ था, कि
उसको भेजो बाहर.....पाण्डेय जी का वर्चस्व और यह उनकी बहु की बात...कौन
भला इसमें टांग अडाता.....आखिर, शीला भाभी को जाना ही पड़ा ...कोई कुछ
भी नहीं कर पाया ....
इस बात को गुजरे शायद २५-२६ साल भी हो गए
होंगे....और मुझे इस बात को समझने में इतने ही वर्ष लग गए .. मैं जब भी
भारत जाती हूँ ..ज्यादा से ज्यादा ५ हफ्ते ही रह पाती हूँ...समय इतना कम होता इसलिए कभी भी शीला
भाभी से मिलना नहीं हुआ....पिछले वर्ष किसी कारणवश मुझे पूरे ६ महीने रहना
पड़ा....
एक दिन, मैं किसी होटल से माँ-बाबा के लिए कुछ खाना बंधवा
रही थी..काउंटर पर खड़ी थी कि अचानक किसी ने मेरे पाँव छुए....खूबसूरत सा
नौजवान था...कहने लगा बुआ आप हमको नहीं पहचान रहे हैं लेकिन हम आपको पहचान
गए....मैंने वास्तव में उसे नहीं पहचाना ....कहने लगा हम विशाल हैं
बुआ...संजय पाण्डेय के बेटे.....मुझे फिर भी वक्त लगा.....आपकी शीला
भाभी...वो मेरे दादा रामसिंहासन पाण्डेय....एकबारगी मैं ख़ुशी के अतिरेक
में चिल्लाने लगी...ज्यादा परेशानी नहीं हुई क्यूंकि लगभग सब मुझे वहां
जानते ही थे....मैंने कहा अरे विशाल !! तुम इतना बड़ा और इतना हैंडसम हो
गया है......माँ कैसी है तुम्हारी ?? अच्छी है बुआ ...आपके बारे में अक्सर
बात करती है....चलिए न बुआ घर...माँ से मिल लीजिये.... बहुत खुश हो
जायेगी.....मेरा मन भी एकदम से शीला भाभी से मिलने को हो गया.....अरे विशाल
घर पर माँ-बाबा को इ खाना पहुँचाना है...आज उलोगों को बाहर का खाना खाने
का मन हुआ है.....उ लोग आसरा में बैठे होंगे.....वो बोला ..हाँ तो कोई बात
नहीं बुआ....चलिए उनको खाना खिला देते हैं, फिर हम आपके साथ अपने घर चलेंगे
...हम भी मिल लेंगे दादा-दादी से.....चलो ठीक है.....उसके पास मोटर साईकिल
थी, उसी पर बैठ कर हम अपने घर आ गये...माँ-बाबा को खाना खिलाते खिलाते, ये भी
पता चल चल गया, कि अब रामसिंहासन पाण्डेय जी भी नहीं रहे.....विशाल ने MBA
किया है और किसी अच्छी सी कंपनी में अब नौकरी भी कर रहा है...माँ के हर सुख
का ख्याल रखता है...
माँ-बाबा को खाना खिला कर हम विशाल के साथ,
शीला भाभी से मिलने उनके घर गए.....घर बिलकुल साफ़ सुथरा...हर चीज़ करीने से
लगी हुई...संजय भईया की तस्वीर टंगी हुई थी दीवार पर ...चन्दन की माला से
सजी हुई....देख कर मन अनायास ही बचपन में कूद गया...माँ !! माँ !! देखो न
कौन आया है..?? देखो न !! अरे कौन आया है ?? बोलती हुई एक गरिमा की
प्रतिमा बाहर आई...मेरी शीला भाभी बाहर आयीं ...सफ़ेद साडी में लिपटी....सर
पर आँचल लिए हुए शीला भाभी ...उम्र की हर छाप को खुद में समेटे हुए ...शीला
भाभी खड़ी थी मेरे सामने....मुझे देखते ही...थरथराते हुए होंठों से
कहा...मुना बउवा अभी याद आया अपना भाभी का...?? .मैं भाग कर उनसे यूँ लिपटी
जैसे ...दो युग आपस में मिल रहे हों....आँखों से अश्रु की अविरल धारा रुक
ही नहीं पा रही थी...मैं उनसे ऐसे चिपकी थी जैसे उनका सारा दर्द सोख लेना
चाहती थी.....सामने दीवार पर टंगी तस्वीर में से, संजय भईया की आँखें मुझे देख रहीं थीं और मेरी आँखें उनसे
बस यही कह रहीं थीं....भईया कुछ आँचल तार-तार हो जाते हैं लेकिन मैला कभी
नहीं होते ..कभी नहीं !!!.
तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे....आवाज़ संतोष शैल और 'अदा' की...
Monday, May 21, 2012
जीवन के रंग ....(संस्मरण )
हे भगवान् !..आज फिर देर हो जायेगी ..ओ भईया ज़रा जल्दी करना ...मैंने रिक्शे वाले से कहा ..वो भी बुदबुदाया ..रिक्शा है मैडम हवाई जहाज नहीं...और मैं मन ही मन सोचे जा रही थी...ये भी न ! एक कप चाय भी नहीं बना सकते सुबह, रोज मुझे देर हो जाती है और डॉ.चन्द्र प्रकाश ठाकुर की विद्रूप हंसी के बारे में सोचती जाती...ठाकुर साहब को तो बस मौका चाहिए, मेरी तरफ ऐसे देखते हैं जैसे अगर आँख में जीभ होती तो निगल ही जाते, फिर बुलायेंगे मुझे अपने ऑफिस में और देंगे भाषण...हे भगवान् ! ये मेरे साथ ही क्यूँ होता है....
अब एक इत्मीनान मुझ पर हावी होने लगा था ...शुक्र है पहुँच गई ..मैंने पर्स से बीस का नोट निकाला, रिक्शे वाले के हाथ में ठूंसा और लगभग छलांग मारती हूँ ऑफिस की सीढियां चढ़ने लगी., ओ माला ...! माला ..! मुझे उस वक्त अपना नाम दुनिया में सबसे बेकार लगा था, अब ये कौन है...कमसे कम रजिस्टर में साईन तो कर लेने दो यार, ये बोलते हुए मैं मुड़ी...सामने थी एक बड़ी दीन-हीन सी महिला, मेरे चेहरे पर हजारों भाव ऐसे आए, जो उसे बता गए ...तुम कौन हो मैडम ? मुझे ऐसे आँखें सिकोड़ते देख उसने कहा अरे मैं हूँ रीना...हम एक साथ थे सेंट जेविएर्स में...मेरा मुँह ऐसे खुल गया जैसे ए.टी.एम्. का होल हो, वह मेरे आश्चर्य को पहचान गई ..और कहा..तू कैसे पहचानेगी..जब मैं ही ख़ुद को नहीं पहचानती...
लेकिन तब तक मेरी याददाश्त ने मेरा साथ दे दिया , अरे रीना ! तू SSSSSSS ! मैंने झट से उसे गले लगा लिया, और झेंपते हुए कहा ..अरे नहीं री !...इतने सालों बाद तुम्हें देखा न...इसलिए, लेकिन देख ५ सेकेंड से ज्यादा नहीं लगाया...और बता तू कैसी है.? तू तो बिल्कुल ही ॰गायब हो गई...मैं बोलती जाती और उसको ऊपर से नीचे तक देखती भी जाती....हमदोनों वहीं बैठ गयीं , बाहर बेंच पर, अब जो होगा देखा जाएगा...सुन लेंगे ठाकुर सर का भाषण और झेल लेंगे उनकी ऐसी वैसी नज़रें ..हाँ नहीं तो...:)
मैं उसका मुआयना करती जाती थी और सोचती जाती थी क्या इन्सान इतना बदल सकता है...इतनानानाना ????
रीना हमारे कॉलेज की बेहद्द खूबसूरत लड़कियों में से एक थी...जितनी खूबसूरत थी वो , उतनी ही घमंडी भी थी, नाक पर मक्खी भी बैठने नहीं देती थी, किसी का भी अपमान कर देना उसके लिए बायें हाथ का खेल था...मैं उससे थोड़ी कम खूबसूरत थी शायद, लेकिन गाना बहुत अच्छा गाती थी..इसलिए उससे ज्यादा पोपुलर थी...और रीना को यह बिल्कुल भी गंवारा नहीं था...उसने मुझसे कभी भी सीधे मुँह बात नहीं की थी...हमारे कॉलेज में सौन्दर्य प्रतियोगिता हुई ..मुझे तो ख़ैर घर से ही आज्ञा नहीं थी ऐसी प्रतियोगिता में भाग लेने की...लेती भी तो हार जाती ..रीना बाज़ी मार ले गई ...और उसके बाद वो बस सातवें आसमान में पहुँच गई....इसी प्रतियोगिता में किसी बहुत अमीर लड़के ने उसे देखा था...और फर्स्ट इयर में ही उसकी शादी हो गई...उसके बाद, वो एक दिन आई थी कॉलिज अपने पति के साथ और फिर हमारी कभी उससे मुलाक़ात नहीं हुई ...
एक ज़माने के बाद, मैं आज देख रही हूँ रीना को...मुझे याद है शादी के बाद, जिस दिन वो आई थी कॉलेज अपने पति के साथ ..कितनी सुन्दर जोड़ी लग रही थी...कार के उतरी थी वो, उसका पति हैंडसम, स्मार्ट, खूबसूरत, ऊंचा...रीना तो बस रीना राय ही लग रही थी..मेंहदी भरे हाथ, चूड़ा , गहने, कीमती साड़ी और गर्वीली चाल, ऊँची एड़ी में,
कॉलेज में कितनों के दिल पर साँप लोट गया था उस दिन, मैं भी कहीं से जल ही गई थी, लेकिन इस समय मेरी नज़र उसके हाथों से नहीं हट पा रही थी, हाथ कुछ टेढ़े से लग रहे थे मुझे, उसने भी मेरी नज़र का पीछा किया और अपने हाथ साड़ी में छुपा गई...
मेरी चोरी पकड़ी गई थी, उसके हाथों को देखते हुए, झेंप मिटाने के लिए, मैंने पूछ लिया, कैसा चल रहा है सब कुछ ? बोलते हुए मेरी नज़र उसकी माँग पर गई, माँग में कोई सिन्दूर नहीं था, लेकिन आज कल किसी के बारे में इससे कहाँ पता चलता है...कि वो शादी-शुदा है या नहीं, मैं नज़रों से उसे टटोलते हुए बोल रही थी...बोलो न, कितने बच्चे हैं ? वो फुसफुसाई....एक बेटा है ..मानू! और फिर तो जैसे अल्फ़ाज़ों, भावों का बाँध टूट गया हो....माला..शादी के दो साल बाद ही मैं विधवा हो गई, जीवन के सारे रंग मिट गए...मैं कितनी ख़ुश थी माला...भगवान् ने मुझे क्या नहीं दिया था, खूबसूरत पति, बड़ा घर, गाड़ी, रुपैया-पैसा, नौकर-चाकर, एक बेटा...लेकिन एक ही झटके में सब कुछ चला गया... वो थोड़ा रुकी...फिर कहने लगी...
मैं, मेरे पति और मेरा बेटा हम तीनों शिमला गए थे घूमने, वापसी में एक्सीडेंट हो गया, इस एक्सीडेंट में मेरे पति चल बसे, मुझे बहुत चोट आई..मेरे हाथ-पाँव,रिब्स टूट गए थे...बच्चा सुरक्षित था ...मुझे ठीक होने में महीनों लग गए अस्पताल में...जब मैं वापिस ससुराल आई तो मेरा सब कुछ जा चुका था ..मेरे ससुराल वालों ने मुझे घर से निकाल दिया, अपने बच्चे के साथ मैं सड़क पर ही आ गई थी, इतना कहते-कहते उसका गला रुंध गया था ..मैंने उसकी पीठ पर हाथ फेरना शुरू कर दिया था, वो बोलती जा रही थी...माँ-बाप भी रिटायर्ड हैं, तुझे पता ही है मैंने पढाई पूरी नहीं की थी, उन्होंने ही मुझे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया, अब नर्स बन गई हूँ, यहीं जो सदर हॉस्पिटल है ,वहाँ दो दिन पहले ही ट्रान्सफर लेकर आई हूँ, अचानक तुझे देखा तो कितनी ख़ुशी हुई मुझे, बता नहीं सकती माला , तू तो बिल्कुल नहीं बदली रे, बिल्कुल वैसी ही लगती है तू...सच.!
अरे नहीं रे ...देख न मेरे भी दो-चार बाल अब सफ़ेद हो रहे हैं...हा हा हा, चल, ये तो बहुत अच्छा है..तू यहाँ पास में ही है ..अब तो रोज़ मिला करेंगे लंच में ...सुन तेरे को देर हो रही होगी, उसने जैसे मुझे सोते से जगाया हो, मेरी आँखों के सामने फट से ठाकुर साहब आ गए , और उनकी वही कुटिल मुस्कान ! मैंने झट से उनके ख्याल को झटक दिया , चल फिर कल मिलते हैं लंच में ...तू यहीं आ जाना मैंने उसे हिदायत दी, पक्का आ जाऊँगी बोल कर वो फिर मुझसे लिपट गई , आँखें मेरी भी नम हो गईं, और वो ख़ुद को समेटती अपना पर्स सम्हालती चल पड़ी..
मैं खड़ी होकर पीछे से उसे जाती देखती रही ...नर्स !! सेवा और त्याग का पर्याय..अपने अभिमान के चूर-चूर होने का तमाशा देखने के बाद ..इससे बेहतर पेशा और क्या हो सकता था उसके लिए ..!
हाँ नहीं तो...!!
हे मैंने कसम ली ..आवाज़ संतोष शैल और 'अदा' की...
Sunday, May 20, 2012
कोई आज बता ही देवे हमको ....कहाँ है हमरा घर ??????
लड़की !
यही तो नाम है हमरा....
पूरे
२० बरस तक माँ-पिता जी के साथ रहे...सबसे ज्यादा काम, सहायता, दुःख-सुख
में भागी हमहीं रहे, कोई भी झंझट पहिले हमसे टकराता था, फिर हमरे
माँ-बाउजी से...भाई लोग तो सब आराम फरमाते होते थे.....बाबू जी सुबह से
चीत्कार करते रहते थे, उठ जाओ, उठ जाओ...कहाँ उठता था कोई....लेकिन हम
बाबूजी के उठने से पहिले उठ जाते थे...आंगन बुहारना ..पानी भरना....माँ का
पूजा का बर्तन मलना...मंदिर साफ़ करना....माँ-बाबूजी के नहाने का इन्तेजाम
करना...नाश्ता बनाना ...सबको खिलाना.....पहलवान भाइयों के लिए सोयाबीन का
दूध निकालना...कपडा धोना..पसारना..खाना बनाना ..खिलाना ...फिर कॉलेज
जाना....
और कोई कुछ तो बोल जावे हमरे माँ-बाबूजी या भाई लोग को.आइसे भिड जाते कि लोग त्राहि-त्राहि करे लगते.....
हरदम बस एक ही ख्याल रहे मन में कि माँ-बाबूजी खुश रहें...उनकी एक हांक पर हम हाज़िर हो जाते ....हमरे भगवान् हैं दुनो ...
फिर हमरी शादी हुई....शादी में सब कुछ सबसे कम दाम का ही लिए ...हमरे बाबूजी टीचर थे न.....यही सोचते रहे इनका खर्चा कम से कम हो.....खैर ...शादी के बाद हम ससुराल गए ...सबकुछ बदल गया रातों रात, टेबुलकुर्सी, जूता-छाता, लोटा, ब्रश-पेस्ट, लोग-बाग, हम बहुत घबराए.....एकदम नया जगह...नया लोग....हम कुछ नहीं जानते थे ...भूख लगे तो खाना कैसे खाएं, बाथरूम कहाँ जाएँ.....किसी से कुछ भी बोलते नहीं बने.....
जब
'इ' आये तो इनसे भी कैसे कहें कि बाथरूम जाना है, इ अपना प्यार-मनुहार
जताने लगे और हम रोने लगे, इ समझे हमको माँ-बाबूजी की याद आरही है...लगे
समझाने.....बड़ी मुश्किल से हम बोले बाथरूम जाना है....उ रास्ता बता दिए
हम गए तो लौटती बेर रास्ता गडबडा गए थे ...याद है हमको....
हाँ
तो....हम बता रहे थे कि शादी हुई थी, बड़ी असमंजस में रहे हम .....ऐसे
लगे जैसे हॉस्टल में आ गए हैं....सब प्यार दुलार कर रहा था लेकिन कुछ भी
अपना नहीं लग रहा था.....
दू दिन बाद हमरा भाई आया ले जाने हमको घर......कूद के तैयार हो गए जाने के लिए...हमरी फुर्ती तो देखने लायक रही...मार जल्दी-जल्दी पैकिंग किये, बस ऐसे लग रहा था जैसे उम्र कैद से छुट्टी मिली हो.....झट से गाडी में बैठ गए, और बस भगवान् से कहने लगे जल्दी निकालो इहाँ से प्रभु.......घर पहुँचते ही धाड़ मार कर रोना शुरू कर दिए, माँ-बाबूजी भी रोने लगे ...एलान कर दिए कि हम अब नहीं जायेंगे .....यही रहेंगे .....का ज़रूरी है कि हम उहाँ रहें.....रोते-रोते जब माँ-बाबूजी को देखे तो ....उ लोग बहुत दूर दिखे, माँ-बाबूजी का चेहरा देखे ....तो परेसान हो गए ...बहुत अजीब लगा......ऐसा लगा उनका चेहरा कुछ बदल गया है, थोडा अजनबीपन आ गया है.....रसोईघर में गए तो सब बर्तन पराये लग रहे थे, सिलोट-लोढ़ा, बाल्टी....पूरे घर में जो हवा रही....उ भी परायी लगी ...अपने आप एक संकोच आने लगा, जोन घर में सबकुछ हमरा था ....अब एक तिनका उठाने में डरने लगे.... लगा इ हमारा घर है कि नही !..........ऐसा काहे ??? कैसे ??? हम आज तक नहीं समझे....
यह कैसी नियति ??......कोई आज बता ही देवे हमको ....कहाँ है हमरा घर ??????
रिमझिम गिरे सावन...आवाज़ 'अदा' की...
Saturday, May 19, 2012
आवाज़ की दुनिया भी कितनी पारदर्शी होती है...है ना !!! (संस्मरण)
बात आज से ४ साल पहले की होगी...तब मैं रेडियो जॉकी थी, जो मेरा बहुत प्रिय
पार्ट टाईम शौक़ भी है, और बहुत प्यारा काम भी.... कनाडा, में ९७.९ FM, पर
'आरोही' मेरा और मेरे सुनने वालों का अपना प्रोग्राम हर दिन शाम ८ बजे
से १० बजे तक, सोमवार से शनिवार तक हुआ करता था, मेरी और मेरे सुनने वालों
की, सारी की सारी अभिव्यक्ति का बहुत ही प्यारा माध्यम था...हर तरह के
प्रोग्राम पेश करके, मैंने ख़ुद को रेडियो की दुनिया में बहुत अच्छी तरह
स्थापित कर लिया था...जो आज तक लोग भूल नहीं पाए हैं, श्रोताओं का प्यार आज
भी कम नहीं हुआ है, जब भी उनसे मिलती हूँ, एक ही बात वो कहते हैं, सपना जी
आप वापिस कब आ रही हैं आवाज़ की दुनिया में...हम आपको बहुत मिस करते
हैं...सुनकर सचमुच बहुत अच्छा लगता है...शायद किसी दिन फिर चली भी
जाऊं...मेरा क्या भरोसा.. :)
ख़ैर..रेडियो प्रोग्राम करते वक्त मैं हमेशा अपने श्रोताओं को शामिल करना
आवश्यक समझती हूँ, इस काम में सिर्फ़ रेडियो का माईक आपके वश में नहीं होता,
आपकी आवाज़ के वश में अनगिनत कान होते हैं..और कानों से उतर कर अनगिनत
दिलों पर भी आप राज करने लगते हैं...
मेरे श्रोता हर उम्र और हर तबके के लोग थे, मुझे याद है, एकाकी जीवन जीते
हुए बुजुर्ग दंपत्ति, हॉस्पिटल में ३ साल से आपाहिज पड़ी महिला, फैक्टरी में
रात की ड्यूटी करती हुई हिन्दुस्तानी महिलाएं, और अकेला टोरोंटो से रोज़
ओट्टावा आता हुआ ट्रक ड्राईवर, रात को बर्फ में टैक्सी चलाते टैक्सी
ड्राईवर, और घर में नितांत अकेले रहने वाले हमारे बुजुर्ग...जब भी उनके
फ़ोन आते थे, और उनको जब भी रेडियो पर मैं लेकर आती थी, उन्हें मैं उनकी
अपनी नज़र में ऊँचा उठते देखती थी...उनकी आवाज़ में जो ख़ुशी मैं महसूस करती
थी, उसको बयाँ करने की ताब मेरी लेखनी में नहीं है...
मुझे याद है, मेरी आवाज़ ने ३ साल से हॉस्पिटल में बिल्कुल पंगु पड़ी हुई
महिला को बहुत बल दिया...रोजाना उन्होंने मेरा प्रोग्राम सुनना शुरू
किया...मैं उनसे रोज़ बात करती थी, ये महिला (नाम लेना उचित नहीं होगा)
पिछले ३ साल से अपने बिस्तर पर पड़ी थीं, वो हिल नहीं पातीं थी...प्रोग्राम
का वो असर हुआ कि वो उठ कर बैठने लगीं, फिर एक दिन उन्होंने रेडियो पर ही
मुझसे कहा, क्या आप मुझसे मिलने आ सकतीं हैं सपना जी...मैंने रेडियो पर ही
उनसे वादा कर दिया...२ दिन बाद मैं हॉस्पिटल पहुँच गई...उन्होंने इतने
फ़ोन घुमा दिए कि बता नहीं सकती, भारत में अपने घर के हर सदस्य से मेरी बात
करवा दी...उनका उत्साह देखते बनता था, डॉक्टर, नर्स सभी अचम्भित
थे...कितनी ख़ुश थीं वो, उस दिन के बाद मैं उनसे हर दिन बाकायदा रेडियो पर
बात करने लगी, उनको यह अहसास दिलाया, वो अपने परिवार के लिए कितनी अहम्
हैं..और आप यकीन कीजिये...वो अब व्हील चेयर में चल-फिर लेतीं
हैं....शुक्रिया और आशीर्वाद के ना जाने कितने बोल उनके परिवार के एक-एक
सदस्य ने कहा मुझसे, जिसकी मैं हक़दार भी नहीं थी...मैं तो सिर्फ़ एक माध्यम
का सही उपयोग कर रही थी...
एक बुजुर्ग हैं, जिनको उनके अपने बच्चे नहीं पूछते, वो नितांत अकेले रहते
हैं, सरकार से उनको पेंशन मिलती है, लेकिन उतनी ही मिलती है, जितनी से वो
बस अपना गुजारा कर सकते हैं...उन्होंने एक दिन रेडियो पर ही कहा, सपना जी
आप ये प्रोग्राम अपने पैसों से चलातीं हैं, कोई विज्ञापन नहीं देतीं, आपका
बहुत खर्चा होता होगा, मैं कुछ योगदान करना चाहता हूँ..मैंने कहा भी था
उनसे, वर्मा जी जबतक कर सकतीं हूँ करुँगी, आप इसकी चिंता मत कीजिये, लेकिन
उन्होंने मेरे प्रोग्राम के लिए पैसे भेज ही दिए...मैंने उतना ध्यान भी
नहीं दिया..लेकिन उनका फ़ोन आ गया, सपना जी आपको पैसे मिले या नहीं..आख़िर
मैंने पूछ ही लिया वर्मा जी आपने कितने पैसे भेजे हैं...उन्होंने कहा $२०,
मैं सकपका कर रह गई...उनकी बातों से मुझे इतना तो महसूस हो ही गया था, कि
बेशक मेरे लिए वो रकम बहुत छोटी थी लेकिन उनके लिए बहुत बड़ी थी...उन्होंने
जो कहा था,वो हू-ब-हू लिख रही हूँ ..सपना बिटिया मैं जानता हूँ $२० से
आपका कुछ नहीं होने वाला है..लेकिन आपका यह रेडियो प्रोग्राम मेरे लिए बहुत
ज़रूरी है...मैं बहुत ग़रीब इन्सान हूँ, जो पैसे मैंने आपको भेजे हैं वो
मेरी दवा के पैसे हैं...मेरा कलेजा एकदम से मुँह को आ गया, मैं ने बोल ही
दिया वर्मा जी आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था... लेकिन उन्होंने कहा था सपना
बिटिया तुम्हारा ये प्रोग्राम मेरी दवा से ज्यादा ज़रूरी है मेरे
लिए...इसलिए इसे अपने पिता की तरफ से आशीर्वाद समझो...आज भी वर्मा जी हर
दो-तीन दिन में फ़ोन कर ही देते हैं...कहते हैं मैं हर सुबह तुम्हारे लिए
प्रार्थना करना नहीं भूलता हूँ बिटिया....भूल नहीं पाती हूँ ये सारी
बातें...
एक बुजुर्ग दंपत्ति, हर दिन ५ बजे शाम से ही रेडियो के सामने बैठ जाते थे,
जब कि मेरा प्रोग्राम ८ बजे शुरू होता था...बार-बार घड़ी को देखते जाते और
पूछते जाते एक-दूसरे से 'हल्ले नई होया' ..उनकी देखभाल करने के लिए जो
सोशल वर्कर आतीं थीं..वो हर दिन मुझे बतातीं थीं..सपना जी इनकी आखों में
इंतज़ार और बेताबी आप अगर देख लें तो अपने प्रोग्राम की टाईमिंग आप बदल देंगीं..
क्या-क्या और कितनी बातें बताऊँ...सैकड़ों बातें हैं...वो ट्रक ड्राईवर जो
टोरोंटो से ओट्टावा हर दिन आता था...कहता था मेरा सफ़र ४ घंटे का होता है
सपना जी, आपके प्रोग्राम को सुनने के लिए मैं ठीक ८ बजे चलता हूँ टोरोंटो
से, आपकी आवाज़ के साथ मेरे २ घंटे, कैसे बीत जाते हैं पाता ही नहीं
चलता....या फिर उस दंपत्ति का जिनका तलाक़ होने वाला था और मेरे रेडियो
प्रोग्राम ने वो होने नहीं दिया...या फिर उनलोगों का ज़िक्र करूँ, जो अपने
बुड्ढ़े माँ-बाप को गराज में रखते थे, और हर सुबह गुरुद्वारे छोड़ आते थे,
ताकि उनके खाने का खर्चा बच जाए..(इसके बारे में तफसील से लिखूंगी ), जिनको
मैंने इतना लताड़ा, कि वो सुधर ही गए और, उनके माता-पिता की दुआओं ने मेरी
झोली भर दी...
ऐसी ही एक शाम थी, मैं रेडियो पर अपने श्रोताओं के साथ मशगूल थी...मेरे पास
७ फ़ोन लाईन्स थे..श्रोता कॉल करते, और मैं एक-एक श्रोता से बात करती
जाती, और गाने सुनाती जाती, या फिर किसी ज्वलंत विषय पर चर्चा करती
जाती..सारे लाईन हमेशा बिजी ही रहते थे...मुझे सुनने वाले कहीं से भी फ़ोन
करते थे....जब कनाडा में रात के आठ बजते तो भारत में सुबह के ५-३० बजता
है...उस दिन भी मैंने फ़ोन उठाया था...दूसरी तरफ से आवाज़ आई..सपना मैं
प्राण नाथ पंडित बोल रहा हूँ...जीSSSSS !!!! माफ़ कीजिये कौन बोल रहे
हैं...??? कॉलर ने दोबारा कहा...मैं प्राण नाथ पंडित बोल रहा हूँ, इंडिया
से...सुनते ही मैं खड़ी हो गई थी कुर्सी से...सर आप ?? हाँ मैं....मैं तो
बस हकलाने लगी थी...
श्री प्राण नाथ पंडित मेरे अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर
हैं...अपने गुरु की आवाज़ सुन कर मैं कुर्सी से फट खड़ी हो गई, बैठ ही नहीं
पाई...मेरा साउंड इंजिनीयर, जो दूसरी तरफ बैठा था...वो भी घबरा गया...वो
बार-बार इशारा करने लगा..क्या हुआ...?? लेकिन मारे घबराहट मैं उसकी बात भी
समझ नहीं पा रही थी...ख़ैर, था वो गोरा लेकिन मेरी आवाज़ से समझ गया, डरने की
बात नहीं है....मेरे श्रधेय गुरु जी ने कहना शुरू किया..अरे तुम्हारा
प्रोग्राम मैं रोज़ इन्टनेट पर सुनता हूँ, बहुत ही अच्छा लगता
है...सुबह-सुबह तुम्हारी आवाज़ सुन कर, मन प्रसन्न हो जाता है...और जाने वो
क्या-क्या कहते जा रहे थे..और मैं तो बस जी जी करती जा रही थी...मैं पूरी
तरह वही छात्रा बन गई थी, जैसी मैं कॉलेज में थी...मेरी हिम्मत ही जवाब
देने लगी थी...लग रहा था, जैसे मेरे गुरु मेरे सामने खड़े हैं, बिल्कुल वही
घबराहट, वही डर मैंने महसूस किया था, मेरे लिए यह कितने सम्मान की बात थी,
कि उनको मेरा प्रोग्राम पसंद आता है, इतना ही नहीं, उन्होंने अपना कीमती वक्त निकाल कर,
मुझे फ़ोन करके न सिर्फ़ यह बताया, अपना आशीर्वाद भी दिया...यह कितना बड़ा
सौभाग्य था मेरा, न जाने कितने हज़ार स्टुडेंट्स उनके जीवन में आए होंगे, लेकिन
उन्होंने मुझे याद रखा, मेरे लिए इससे बड़ी खुशकिस्मती की और क्या बात हो सकती है
भला !!.....कुछ देर बात करने के बाद, फ़ोन काटना पड़ा मुझे...इस बीच मैं
एक भी फ़ोन नहीं ले पाई, डर के मारे मेरी आवाज़ काँप रही थी...कुछ संयत होकर
जब मैंने फ़ोन काल्स लेना शुरू किया...मेरे सुनने वालों ने साफ़-साफ़ बता
दिया...सपना जी, आपने जितनी देर अपने गुरु से बात की आप खड़ी थीं , हमें
पता चल गया था...आपकी आवाज़ में वो घबराहट, वो आस्था, वो सम्मान था, जिसे
हम न सिर्फ़ सुन रहे थे, महसूस भी कर रहे थे...और मैं हैराँ थी, आवाज़ की
दुनिया भी कितनी पारदर्शी होती है...है ना !!!
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रेडियो जॉकी
Friday, May 18, 2012
यहाँ ये कैसी दुनिया है जिसे आभासी कहते हैं....अगर पत्थर वो झूठे हैं, क्यूँ सच्चे चोट खाते हैं ?
हमारी जिंदगी में भी कई बे-नाम रिश्ते हैं
उन्हें हम इतनी शिद्दत से न जाने क्यूँ निभाते हैं तुम्हारी हर दगाबाज़ी हमें जी भर रुलाती है
सबेरा जब भी होता है तो हम सब भूल जाते हैं
यहाँ ये कैसी दुनिया है जिसे आभासी कहते हैं
अगर पत्थर वो झूठे हैं, क्यूँ सच्चे चोट खाते हैं ?
ये दिल इस दर्द के जज़्बात से जब भी लरजता है
पकड़ कर डाल हम ख़ामोशियों के झूल जाते हैं
बड़ा है कौन यां ग़र तुम, कभी इस बात को सोचो
हरिजन के छुए पर ये बिरहमन क्यूँ नहाते हैं..?
हरिजन के छुए पर ये बिरहमन क्यूँ नहाते हैं..?
सभी देवर से क्यूँ बनकर के भाभी जाँ बुलाते हैं ?
नैनों में बदरा छाये...आवाज़ 'अदा' की...
Wednesday, May 16, 2012
चेहरे....
ताल्लुक़ से खिलवाड़ न कर, रिश्ते बिगड़ जाते हैं
आँख में होकर भी चेहरे, दिल से उतर जाते हैं
कुछ चेहरों को सँवरने की, ज़रुरत कहाँ पड़ती है
अक्स उनका देख के कितने, आईने सँवर जाते हैं
इस ज़मीं से फ़लक तक की, दूरी नापने वालो
तेरे वज़ूद से तेरे फ़ासले, तुझको क्या बताते हैं ?
मैं तेज़ धूप में रहना चाहूँ, संग मेरे मेरा साया है
छाँह में मेरे खुद के साए, मुझसे मुँह छुपाते हैं
आँधी के सीने में 'अदा', महबूब की चाहत होती है
रेत पे उसकी साँसों से, कई अक्स उभर कर आते हैं
आपके हसीन रुख़ पे...आवाज़ 'अदा' की
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चंदा ओ चंदा....आवाज़ 'अदा' की
Monday, May 14, 2012
Najam Sethi on force conversion of Hindu girls in Pakistan..
Najam Sethi on force conversion of Hindu girls in Pakistan....
Saturday, May 12, 2012
इस विडियो के बारे में क्या कहना है, जिसमें पूरे हिन्दुस्तान को ज़बरदस्ती इस्लाम कबूलवाने की बात कही जा रही है ...ये जो भी बन्दा है मुसलमान है या नहीं ????????????????????
रिंकल ने इस्लाम कबूल किया था या उसे करवाया गया था, और पाकिस्तान की हिमायत के तौर पर कुछ जवाब आये हैं...
इस विडियो के बारे में क्या कहना है, जिसमें पूरे हिन्दुस्तान को ज़बरदस्ती इस्लाम कबूलवाने की बात कही जा रही है ...ये जो भी बन्दा है मुसलमान है या नहीं ????????????????????
हमारी दोस्ती हमेशा के लिए..!!
चेहरों की किताब है,
दोस्ती का सैलाब है,
जमघट लगे चेहरों का,
अजीब सा अज़ाब है,
'दोस्ती' की नहीं
'दोस्तों' का हिसाब है,
शुक्र है मैंने इस नदी में
पाँव नहीं डाला
वरना जाने कहाँ बह जाती
हज़ारों दोस्त बनाती
फिर...
इतनों से भला कैसे निभाती ?
अब...
बाक़ी कैनवस ख़ाली है
सिर्फ़ एक शक्ल लगा ली है
तुम और मैं
और हमारी दोस्ती
हमेशा के लिए..!!
सुहानी चांदनी रातें हमें सोने नहीं देतीं।..आवाज़ 'अदा' की
Friday, May 11, 2012
कन्या भ्रूण की हत्या करके बहुत बड़ा उपकार कर रहे हैं, माँ-बाप उस अजन्मी कन्याओं पर....उनका अहसान मानना चाहिए हमें...हम तो उनसे कहेंगे ...कीप ईट अप..!
आज कल कन्या भ्रूण हत्या का बाज़ार गर्म है, लोग इसके विरोध में
अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं, जो बहुत अच्छी बात है,
लेकिन क्या कन्या भ्रूण हत्या पर रोक लग जाने से लडकियां, महिलाएं सुरक्षित
हो जायेंगी ? दहेज़ एक कारण हो सकता है, भ्रूण हत्या का लेकिन सिर्फ वही
कारण नहीं हो सकता....आये दिन अखबारों में टी.वी पर बलात्कार, अपहरण, दहेज़
उत्पीडन ये सब कुछ देखने के बाद किसी भी भावी माता-पिता को यह ज़रूर लगता
होगा...लड़की का होना ही एक मुसीबत है...कौन इस झंझट में पड़े....और यही सबसे
बड़ा कारण है कि इस मुसीबत से बचने के लिए कन्या भ्रूण की हत्या हो रही
है...सोचनेवाली बात ये है
क्या सचमुच भारत इस योग्य है कि वहां लडकियां पैदा हों ?
क्या वास्तव में भारत जैसे देश में लडकियां,
महिलाएं सुरक्षित हैं....जब वहां का administration ही सुरक्षा देने
की बात पर sure नहीं है तो फिर कोई क्या
कह सकता है...शीला दीक्षित का यह कहना कि क्या ज़रुरत है लड़कियों को रात
में बाहर निकलने की, या फिर एक डी.आई. जी का यह कहना कि अगर उसकी बेटी भाग
जाए तो उसे जान से मार कर खुद ख़ुदकुशी कर लेना उसे मंज़ूर होगा...ये सब भारत
की लचर सामजिक संरचना का भांडा फोड़ रहे हैं...
हम चाहे कितना भी नारा लगा लें 'भारत महान का' ...दिल में हर भारतीय इस बात को अच्छी तरह जानता है, भारत में लडकियां सुरक्षित नहीं हैं...बौद्धिक एवं आर्थिक रूप से अगर लडकियां सबल भी हो जाएँ, तब भी क्या समाज में रहने वाले भेड़ियों से वो बच सकतीं हैं...उसपर से तुर्रा है आज का फैशन जिसने लड़कियों को और भी वेल्नेरेब्ल बना दिया है...भारत चाहे कितना भी संस्कारों की ढोल पीटता रहे...इस तरह के हादसों के आंकड़े उनके संस्कारों की पोल-पट्टी खोल दे रहे हैं...जब रक्षक ही भक्षक बन जाते हैं, तो फिर संस्कार जैसी बात और संस्कृति की दुहाई क्या मायने रखती है ???...भारत का ऐसा कोई पुलिस स्टेशन नहीं जहाँ रेप नहीं हुआ है, भारत के अधिकतर मंत्री रेप या अवैध सम्बन्ध से जुड़े हैं..यहाँ तक कि राहुल गाँधी भी रेप केस का मुजरिम है...और ये बनेंगे भारत की नारियों के प्रणेता...
संस्कारी कितने हैं भारतीय, इसका किस्सा ये हैं कि बीच सड़क पर लड़की को गुंडे नंगा करते हैं, ऐसा नहीं कि सब भाग कर छुप गए, या डर गए...नहीं जी, पूरी भीड़ इकट्ठी होकर आखें फाड़-फाड़ कर देखती है ये सबकुछ लेकिन कोई आगे नहीं आता उसे बचाने...नपुंसकता की पराकाष्ठा ये कि पुलिस वाले भी इस रियालिटी शो का आनंद उठा रहे थे...हुनंह संस्कार की बात करते हैं...!!!!
बोलीवुड ने कोई कमी नहीं छोड़ रखी है...शीला की जवानी हो या चिकनी चमेली..भारत आज कल उत्तेजना का बाज़ार बना हुआ है....कोई चैनल, कोई गाना, कोई प्रोग्राम ऐसा नहीं है जिसमें जिस्म की नुमाईश या भोंडे हास्य नहीं हैं...इन चिकनी चमेली के लिए तो बॉडी गार्ड्स हैं, उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता..लेकिन अपना जिस्म दिखा-दिखा कर वो जो उत्तेजित भीड़ खड़ी करतीं हैं उनका कहर बरपता है, समाज से सबसे कमजोर वर्ग की नारियों या बच्चियों पर...जिनमें से ज्यादतर चुप रह जातीं हैं, और जो बोलतीं हैं, उनका बलात्कार सिस्टम बार-बार करता है....
भारत के टी.वी.प्रोग्राम्स अब देखने लायक ही नहीं रहे.... इतने बड़े माध्यम का उपयोग लोग सिर्फ व्यक्तिगत आर्थिक लाभ और गलत बातों को मॉस तक पहुंचाने के लिए कर रहे हैं....मैंने एक भी साईंस का प्रोग्राम, या एडुकेशन के प्रोग्राम्स, बाल सुलभ प्रोग्राम नहीं देखा है...हर बात फिल्म या क्रिकेट से शुरू होती है और उनमें ही ख़तम हो जाती है...जैसे माहौल आज कल बना हुआ है, ऐसे माहौल में लड़की तो क्या लड़कों की भी क्या ज़रुरत है...आखिर वो बड़े होकर क्या बनने वाले हैं...????
पिछले साल मैं अपनी बेटी को लेकर भारत गयी थी, भारत वो पहली बार गयी थी, लेकिन जिस तरह से लोग उसे देख रहे थे...उसके लिए बड़ा अजीब अनुभव था, वो बार-बार पूछती थी यहाँ लोग इतना घूरते क्यों हैं..क्या बताती उससे क्यों घूरते हैं...!!
कितनी भी रैलियाँ निकाल लीजिये, कितना भी शोर मचा लीजिये...एक बात बिलकुल सच है...भारतीय समाज कन्या, स्त्री, महिला जो भी आप कह लें इनके लायक नहीं है..इसलिए अच्छा ही हो रहा है, जो बेटियाँ पैदा होने से पहले ही मार दी जा रहीं हैं, वैसे भी वो किसी बलात्कार का शिकार होकर रोज़-रोज़ मरतीं, पुलिस स्टेशन जातीं तो पुलिस वाले बलात्कार करते, वकील के पास जाती तो वकील फायदा उठता , मंत्री के पास गुहार लगाती तो मंत्री बलात्कार करता, माँ-बाप की मर्ज़ी से शादी करती तो ससुराल वाले मार देते, अपनी मर्ज़ी से करती तो माँ-बाप मार देते...इतना सबकुछ झेलने से बेहतर है पैदा ही नहीं होना...कन्या भ्रूण की हत्या करके बहुत बड़ा उपकार कर रहे हैं, माँ-बाप उस अजन्मी कन्याओं पर....उनका अहसान मानना चाहिए हमें...हम तो उनसे कहेंगे ...कीप ईट अप..!
Thursday, May 10, 2012
जिन्हें मंदिर की पहचान नहीं, वो रंग महल कह देते हैं....
रुख़ को कभी फूल कहा, आँखों को कवँल कह देते हैं
जब जब भी दीदार किया, हम यूँ ही ग़ज़ल कह देते हैं
वो परवाना लगता है, और कभी दीवाना सा
जल कर जब भी ख़ाक हुआ, शम्मा की चुहल कह देते हैं
जब आकर खड़े हो जाते हैं वो, सादगी लिए उन आँखों में
वो पाक़ मुजस्सिम लगते हैं, हम ताजमहल कह देते हैं
लगता तो था आज नहीं, हम तो अब उठ पायेंगे
सीने में जो दर्द उठा, चलो उसको अजल कह देते हैं
कितने ही पत्थर क्या जाने हम पर बरसे आज 'अदा'
जिन्हें मंदिर की पहचान नहीं, वो रंग महल कह देते हैं
अजल=मौत
पिया ऐसो जीया में समाय गयो रे...आवाज़ 'अदा' की...
Wednesday, May 9, 2012
चाँद बनना मेरी किस्मत, है मुक़द्दर चाँदनी.....
दिल के बाहर चाँदनी, दिल के अन्दर चाँदनी
चाँद बनना मेरी किस्मत, मेरा मुक़द्दर चाँदनी
बिखरे हुए गुल-बूटे हर सू, फ़ैल गए टीले कई
दश्त में अब कैसे बिछाए, नर्म बिस्तर चाँदनी
बंद कमरों में अँधेरा, सीलन भी घुटती हुई
ऊब कर सोने लगी है, घर के छत पर चाँदनी
हमलावर हैं तेरी यादें, बचना ज़रा मुश्किल मेरा
तभी तो लेकर है उतरी, फ़लक से खंजर चांदनी
दश्त=जंगल
गुल-बूटे=फूल, कलियाँ
फ़लक=आकाश
और अब एक गीत....
Monday, May 7, 2012
गहवारा-ए -अदब , कनाडा में मुशायरे का आयोजन...
गहवारा-ए -अदब , कनाडा ने मुशायरे का आयोजन
कल, मई ६, २०१२ को, ओट्टावा में किया गया था...इस आयोजन में हिन्दुस्तान के
नामचीन और मशहूर शायरों ने शिरक़त की, जिनमें जनाब वसीम वरेल्वी, जनाब
मंज़र भोपाली और जनाब इकबाल अशर ख़ास थे...जिन्हें सुनने का हमें मौका
मिला...शाम ६ बजे से रात १ बजे तक लोग अपनी-अपनी जगह से हिल नहीं
पाए...मुझे भी इन मशहूर हस्तियों के साथ मंच साझा करने का न सिर्फ मौक़ा
मिला, बल्कि उनकी दाद भी भरपूर मिली...जो मेरी ख़ुशकिस्मती थी...और उपरवाले
का करम..कुछ तसवीरें साझा कर रही हूँ...
जनाब वसीम बारेल्वी |
जनाब मंज़र भोपाली |
जनाब इकबाल अशर |
और ये मैं हूँ.... (जब हम तस्वीर लेती हूँ तो सब ठीक रहता है लेकिन जब हमरी ली जाती है तो कैमरा घबरा जाता है....:):)) |
गुमशुदा.....
क्या तुमने देखा है ?
एक श्वेतवसना तरुणी को,
जो असंख्य वर्षों की है,
पर लगती है षोडशी
इस रूपबाला को देखे हुए
बहुत दिन हो गए,
मेरे नयन पथराने को आये
परन्तु दर्शन नहीं हो पाए
मैंने सुना है,
उस बाला को कुछ भौतिकवादियों ने
सरेआम ज़लील किया था
अनैतिकता ने भी,
अभद्रता की थी उसके साथ
बाद में भ्रष्टाचार ने उसका चीरहरण
कर लिया था
और ये भी सुना है,
कि कोई बौद्धिकवादी,
कोई विदूषक नहीं आया था
उसे बचाने
सभी सभ्यता की सड़क पर
भ्रष्टाचार का यह अत्याचार
देख रहे थे
कुछ तो इस जघन्य कृत्य पर खुश थे,
और कुछ मूक दर्शक बने खड़े रहे
बहुतों ने तो आँखें ही फेर ले उधर से
और कुछ ने तो इन्कार ही कर दिया
कि ऐसा भी कुछ हुआ था
तब से,
ना मालूम वो युवती कहाँ चली गयी
शायद उसने अपना मुँह
कहीं छुपा लिया है,
या कर ली है आत्महत्या,
कौन जाने ?
अगर तुम्हें कहीं वो मिले,
तो उसे उसके घर छोड़ आना
उसका पता है :
सभ्यता वाली गली,
वो नैतिकता नाम के मकान में रहती है
और उस युवती को हम
"मानवता" कहते हैं
आज फिर एक गीत आपकी नज़र..बेकरार दिल तू गाये जा...आवाज़ 'अदा' की...
Sunday, May 6, 2012
तजुर्बों के रास्तों से, उम्र का गुज़रना....
तजुर्बों के रास्तों से
उम्र का गुज़रना,
फिर
आड़ी-तिरछी पगडंडियों
का चेहरे पे जमना,
चाहत, वफ़ा, उल्फत का
एक-एक कर
उदास होना,
उदास होना,
हकीक़त के जिस्म से
हर लिबास का उतरना ,
डरा तो देता है
लेकिन,
दिल के तन्हा गोशे में,
गौहर-ए-जन्नत
झिलमिलाता है !
जहाँ
मन का फ़रिश्ता
मुस्कुराता है !!और,
एक और ज़िन्दगी जीने को
उकसाता है...!
और अब एक गीत ...हर दिल जो प्यार करेगा...'आवाज़ 'अदा' की...
गौहर-ए-जन्नत=जन्नत का मोती
गोशे=कोना
लिबास=कपड़ा
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