Friday, September 17, 2010

अरे दिल्ली जाना है तो दिल्ली की गाड़ी में बैठो न....


मुझे इस बात से बहुत ज्यादा कोफ़्त होती है, जब बिना प्रयास किये हुए यह मान लिया जाता है कि यह काम तो हो ही नहीं सकता है....

आज का प्रश्न यह है  " क्या हमारा देश सुधर सकता है ?"
बिलकुल सुधर सकता है, क्यों नहीं सुधर सकता है, समाज एक कपड़े की तरह है और हम धागों की  तरह, धागे मजबूत तो, कपडा भी मजबूत, लोकतंत्र का अर्थ ही है जनता का, जनता  के लिए और जनता द्वारा और जनता को अपनी शक्ति का भान होना चाहिए ...मुट्ठी भर भ्रष्ट नेताओं की दुहाई देने वाले या तो डरपोक है या निकम्मे, जब समाज को बदलना है तो भिड़ ही जाना होगा, अगर हम सोच लें पहले ख़ुद को बदलने की, फिर अपने आस-पास के परिवेश को बदलने की कोशिश करने की, तो क्यों भला यह संभव नहीं होगा, गाँधी जी सत्याग्रह और असहयोग के बल पर अजेय अंग्रेजी हुकूमत को घुटने पर ले आये थे और हम गाँधी के देश में अपने ही लोगों की गुंडागर्दी से डर कर बैठे हुए हैं...आज पोलिटिक्स मात्र गुंडों का खेल होकर रह गया है...और इसके लिए जिम्मेवार हमारा तथाकथित मध्यमवर्गीय समाज है....

बचपन से एक बात हमेशा देखी है, समस्याओं से बचके निकलना, बाद में वही समस्याएं विकराल रूप ले लेतीं है...फिर हम आराम से कहते हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता है, वही हाल राजनीति का रहा है, राजनीति में जाना बुरी बात है, राजनीति बुरे लोगों का काम है, भले लोग राजनीति में नहीं जाते हैं, यही तो सुनते-सुनते कान पक गए हैं, और हमेशा हैरानी होती रही है मुझे कि, देश के लिए  काम करना कैसे बुरा हो सकता है ?  लोगों ने राजनीति और राजनीतिज्ञों की गलत छवि बना दी और हमने यक़ीन कर लिया....सच पूछिए तो राजनीति बुरी चीज़ नहीं है...शायद यह सबसे अहम् चीज़ है...क्योंकि हम दुनिया के किसी भी कोने में रहें इसके प्रभाव से नहीं बच सकते, और जब यह हमारे जीवन का अभिन्न अंग है तो क्यों नहीं इसके लिए कुछ अच्छा सोचें, इसके प्रति जागरूक रहें और इसका प्रारूप बदलने की कोशिश करें....क्यों नहीं इसे स्वस्थ बनाने में अपना योगदान करें....

राजनीति के प्रति पढ़े-लिखे लोगों की उदासीनता के कारण ही आज पोलिटिक्स पर गुंडों का आधिपत्य है, हमलोग ये क्यों नहीं सोचते राजनीति भी एक कैरियर है...बच्चों को उसमें जाने के लिए हमें प्रोत्साहित करना चाहिए...हर नौकरी की तरह यह भी एक नौकरी है...इसके लिए भी पाठ्क्रम होना चाहिए....नयी पीढ़ी को  ट्रेनिंग मिलनी  चाहिए, कैसे कोई राजनीति में प्रवेश पाए इसका मार्गदर्शन होना चाहिए, एक जरूरी शैक्षणिक योग्यता का निर्धारण होना चाहिए, 

कितनी अजीब बात है एक पार्क तो खूबसूरत बनाने की  ट्रेनिंग है, बिल्डिंग को सजाने की ट्रेनिंग है, और अपने देश को व्यवस्थित करने की कोई ट्रेंनिग नहीं ....लानत है जी...

आज दुनिया की बड़ी से बड़ी कंपनी को देखिये ..उसके टॉप की position किसी न किसी भारतीय के पास है, इनलोगों ने अपने बुद्धि-विवेक से अपनी योग्यता साबित कर दिखाई है ....क्या वो अपने देश में इस काबिल नहीं थे....?? जब हम अपने देश के विदेश मंत्रालय के Spokesperson को देखते हैं और सुनते हैं तो आत्महत्या कर लेने का दिल करता है...लगभग २ अरब आबादी वाले देश में एक ढंग का प्रवक्ता नहीं मिलता जो अपने देश की गिरती साख को विदेशों में सम्हाल सके, जो ढंग से बात कर सके, जो भी आता है शिफारिशी जोकर होता है, इन जोकरों से तो लाख दर्जे बेहतर Spokesperson पाकिस्तान के होते हैं...कम से कम वो अपनी बात तरीके से लोगों के सामने रखते हैं, और लोग सुनते भी हैं, हमारे प्रधान मंत्री जी को ही देखिये, वो क्या कहते हैं, उसे या तो अल्ला मियाँ सुन पाते हैं या वो ख़ुद या फिर मैडम जी....देश का प्रधानमंत्री ऐसा होना चाहिए जिसे देख कर लोगों में उत्साहवर्धन हो, न कि अच्छा खासा उत्साह ग़श खाने लगे...हमारे प्रधानमंत्री जी जब बोलते हैं तो लगता है, परमिट  ले लेकर बोल रहे हैं... बेशक वो लोग कांग्रेस के थे लेकिन उनके व्यक्तित्व का प्रभाव विदेशों में बहुत सही पड़ता था, जैसे श्रीमती इंदिरा गाँधी जी, श्री राजीव गाँधी जी..

अब समय आ गया है कि जनता जागे और अपनी ताकत को पहचाने, उसका उपयोग करें,  तो फिर देश को सुधरने से कोई नहीं रोक सकता है, संसद में बैठे हुए जो लोग हैं उन्हें हमने चुना है....उन्हें वही करना होगा जो, हम चाहेंगे, और जनता हमेशा सही ही चाहेगी, लोग कहेंगे 'अदा' सपने देखती है....ये नहीं हो सकता, तो उनसे मैं कहूँगी कि जब उस दिशा में कोई काम किया ही नहीं तो उसकी सफलता पर पहले से संदेह क्यूँ करना ??  अरे दिल्ली जाना है तो दिल्ली की गाड़ी में बैठो, घर में बैठ कर भगवान् से मानना कि हमें दिल्ली पहुंचा दो...बेवकूफी है...या फिर बिना गाड़ी में बैठने का प्रयास किये हुए मान लेना कि हम तो दिल्ली जा ही नहीं सकते....सरासर गलत होगा.....
हाँ नहीं तो...!!



29 comments:

  1. बहुत ही उम्दा प्रस्तुती ...वास्तव में आज इन कुकर्मियों से लड़ने-भिरने की ही जरूरत है इसके बिना बदलाव संभव नहीं है ...

    ReplyDelete
  2. सही कहा आपने, अगर अब भी नहीं जागे तो सोते ही रह जाएँगे!

    ReplyDelete
  3. बहुत ही विचारोत्तेजक लेख| आप बिल्कुल सही फरमा रही है...सम्यक चिंतन और सम्यक कदम उठने से ही पतित राजनीति का भला हो सकता है|
    ब्रह्माण्ड

    ReplyDelete
  4. लो जी हम तो आज ही टिकेट के लिये एप्लाई किये देते हैं अब खुश?

    ReplyDelete
  5. बहुत ही सकारात्‍मक पोस्‍ट। लोगों ने राजनीतिज्ञों को गाली देकर स्‍वयं के कर्तव्‍य से छुट्टी पा ली है। हमारे पास अच्‍छे प्रवक्‍ता नहीं है इसी कारण युद्ध में सेना जीतती है और टेबल पर हम हार जाते हैं। इस पोस्‍ट का एक-एक शब्‍द विचारणीय है। बधाई।

    ReplyDelete
  6. कितनी अजीब बात है एक पार्क तो खूबसूरत बनाने की ट्रेनिंग है, बिल्डिंग को सजाने की ट्रेनिंग है, और अपने देश को व्यवस्थित करने की कोई ट्रेंनिग नहीं ....लानत है जी...

    BILKUL LANAT HAI.....

    PRANAM

    ReplyDelete
  7. .@जब हम अपने देश के विदेश मंत्रालयों के Spokespersons को देखते हैं और सुनते हैं तो आत्महत्या कर लेने का दिल-------

    मुझे लगता है कुछ गड़बड़ है , शायद देश में एक ही विदेश मंत्रालय है , और उसका एक ही प्रवक्ता, शायद आपका इशारा कही और हो. बाकी बातो से सहमत.

    ReplyDelete
  8. @ आशीष जी,
    मेरा मतलब उन्ही प्रवक्ता से है...
    आज तक जितने भी आये और जितनों को भी सुना..सब के साथ यही समस्या रही है...उनकी बातों से यही लगा कि उन्हें खुद ही नहीं पता वो क्या कह रहे हैं...
    confidence कि बहुत कमी नज़र आयी है...या तो उनको अपने विषय का ज्ञान नहीं या फिर वो खुद ही sure नहीं हैं अपनी दलील में...

    ReplyDelete
  9. यह ट्रेन तो बड़ी मजेदार है...इत्ते लोग.
    ____________________
    नन्हीं 'पाखी की दुनिया' में भी आयें.

    ReplyDelete
  10. इस महादेश को सच्चे लोकतंत्र और अच्छे नागरिकों की दरकार है !

    ReplyDelete
  11. ‘ " क्या हमारा देश सुधर सकता है ?"

    यह काम तो हो ही नहीं सकता :)

    ReplyDelete
  12. इस आलेख पर तो एक लोकगीत का मुखड़ा याद आ गया!
    --
    जब दिल्ली जाना साँवरिया.
    साड़ी लाना बसन्ती!

    ReplyDelete
  13. आज तो लगता है कि सुपर रिन की धुलाई चलाई है आपने।
    विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता\ओं वाली बात पर मेरे विचार भी आपसे कुछ अलग हैं। जैसा आपने देखा है वो ठीक होगा, लेकिन जहाँ तक मैं जानता हूँ इन spokesperon\s के पास सरकार की पालिसी पर चलने के अलावा कोई चारा ही नहीं होता। प्रेस ब्रीफ़िंग में जो कुछ भी कहा जाता है वो शब्द दर शब्द सिर्फ़ पढ़ा जाता है। और चाहे किसी भी पार्टी की सरकार रही हो, भारत की विदेश नीति लगभग अपरिवर्तित ही रही है। कुछ हो जाने पर कड़ाई की बातें और कुछ समय बीत जाने के बाद वही घिसे पिटे लेकिन वोट दिलाऊ डायलाग कि ’समस्या का हल वार्ता से ही निकल सकता है।’ ऐसी स्थिति में मैं श्योर हूँ कि आप जैसी धुरंधर वाचिका भी, एक प्रवक्ता के रूप में ’मन में कुछ और जुबान पर कुछ और’ की दुविधा में वैसा ही व्यवहार करती दिखेंगी। मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि इन ब्यूरोक्रेट्स की बजाय जिम्मेदार सरकार की नीतियां हैं। शांति सबको चाहिये, लेकिन इतनी ताकत होनी और दिखनी भी चाहिये कि सामने वाला कुछ करने से पहले सौ बार सोचे। अपने देश में एक इंसीडेंट बता दीजिये जिसके बाद यही ड्रामा न रिपीट हुआ हो? अक्षरधाम हमला, संसद हमला, मुंबई बम विस्फ़ोट कांड, दिल्ली विस्फ़ोट कांड, विमान अपहरण कांड, ताज होटल पर हमला या कोई और घटना, हो जाने पर आतंकवाद को सख्ती से कुचलने की बात, कड़ाई दिखाने की बात, दोषियों को न छोड़ने की बात और छ: महीने-साल बीतते न बीतते फ़िर वही झुक झुक कर वार्ता की पेशकश और फ़िर वही नजारे, जिस पर आपको गुस्सा आता है। लेकिन इस सबमें प्रवक्ता मुझे निर्दोष लगते हैं, बल्कि बलि का बकरा बनते हैं ये, आलोचना इनकी होती है और क्रेडिट सरकार लेती है कि हमने पडौसी के साथ वार्ता शुरू की। पाकिस्तान के प्रवक्ता क्यूं न आक्रामक और कान्फ़ीडेंट दिखें?
    हमारे जैसे पड़ौसी तो सबको मिलें।
    आपने मुद्दा अच्छा उठाया, लेकिन वही काम किया कि हरिद्वार का रास्ता बता दिया और टिकट लेकर नहीं दी। जनता को क्या करना चाहिये, as an individual हम क्या कर सकते हैं? मशहूर मैनेजमेंट गुरू और लेखक शिव खेड़ा दक्षिणी दिल्ली जैसे पोश इलाके से चुनाव लड़े थे, और जहाँ तक मुझे लगता है उनकी जमानत भी नहीं बची होगी। यही वो किसी स्लम एरिया से लड़ते तो क्या जीत जाते? सच्चे और इमानदार आदमी को हमारी जनता ही नहीं पसंद करेगी।
    असहमति अपनी जगह, आभार बरकरार कि कुछ सोचने लायक विषय भी दिया आपने नहीं तो बस वाह वाह करने के अलावा और शब्द नहीं मिलते थे यहाँ।

    ReplyDelete
  14. सच में रोने से कुछ नहीं होगा, दिल्ली की गाड़ी में बैठना होगा।

    ReplyDelete
  15. ओह ! मैं फिर ये कहाँ आ पंहुचा....अरे फिर से वही scent of a beautiful writer........शकुनी .... शकुनी....
    अरे कहाँ हो तुम..........

    ReplyDelete
  16. बात बिलकुल सही है दी ....ध्यान तो देना ही होगा
    यहाँ भी पधारें ...
    विरक्ति पथ

    ReplyDelete
  17. अच्छा है आपका सुझाव पर आज कौन पढ़ा लिखा आदमी राजनीति में जाना चाहता है बाते सभी करते है और करते रहेंगे पर करता कोई नही है . ऐसे में कोई जब तक कर के नही दिखाएगा तब तक कुछ नही होगा.

    शिव खेड़ा जी की कोशिश सराहनिया है कम से कम बाते करने के बजाय उसे करके दिखाने की कोशिश तो की.

    ReplyDelete
  18. @ संजय जी...
    बड़ा दुःख हुआ जान कर कि मेरी पोस्ट पर आपको...
    "बस वाह वाह करने के अलावा और शब्द नहीं मिलते थे यहाँ" :)
    चलिए कम से कम आज तो कुछ ढंग की बात आपको नज़र आई हैं..हमारे ब्लॉग पर...
    अब ज़रा बात करें हम 'spokespersons ' की, ये मान लिया कि ये लोग काठ के उल्लू होते हैं जो सामने होता है वही पढ़ लेते हैं...लेकिन कम से कम ढंग से पढ़ने की ट्रेनिंग ही दे दी जाए इनको, आख़िर पाकिस्तान के प्रवक्ता भी तो पढ़ कर ही बोलते होंगे...उनको कैसे इतनी अच्छी प्रक्टिस है भला...
    बात यहाँ पढ़ने की नहीं है..बात है खुद की पालिसी पर यकीन होने की...अगर आपको खुद अपने सामन पर यकीन नहीं है तो आप उसे दूसरों को कैसे बेच सकते हैं...?? बताइए तो...
    भारत के अधिकतर मंत्री ब्यूरोक्रेट्स के कठमुल्ले ही होते हैं..सारा हिन्दुस्तान मंत्रियों के बल पर नहीं ब्युरोक्रसी के बल पर चल रही है...वही है कर्ता-धर्ता ..वर्ना मंत्री तो आते हैं और जाते हैं...
    आइन्दा कोशिश करुँगी...आपको वाह-वाह का मौका कम दूँ...
    हाँ नहीं तो..!!

    ReplyDelete
  19. खुद सपरिवार कनाडा में बैठ कर दूसरों को दिल्ली जाने की बात कहना ...भेरी बैड ...एक बार आप दिल्ली पहुँचिये , देखिये तो आपकी पीछे जाने वालों की लाईन लग जायेगी .....:):)
    खैर , मजाक को छोड़ दें तो ..
    गंभीरता से विवेचन किया है आपने ...

    @ राजनीति बुरी चीज नहीं है ...कितनी बुरी है , कितनी अवसरवादिता है , इसका आकलन वहां नहीं किया जा सकता ...यहाँ छोटे -मोटे कर्मचारी संगठनों तक के चुनाव में कितने जोड़- तोड़ होते हैं , कितने जातिगत समीकरण बैठते हैं , कितना लेन-देन होता है , आपको पता है ..?
    जब इतने छोटे स्तर के चुनावों में भी लोंग जातिगत व्यामोह और क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठकर नहीं सोच सकते , ईमानदार व्यक्ति को जीतने नहीं देने के लिए भ्रष्टाचारियों की लामबंदी होती है , तो बड़े स्तर के चुनावों पर कितना घपला होता है , भारत में बसने वाले भी केवल अंदाजा ही लगा पाते हैं हैं ...

    @ इसके लिए जिम्मेवार हमारा तथाकथित मध्यमवर्गीय समाज है....
    इसपर मुझे ऐतराज़ है ...देश की जो थोड़ी बहुत साख बची हुई है , वह इसी माध्यमवर्ग की बदौलत ही है, अपनी सीमित पूंजी के द्वारा भी देश की अर्थव्यवस्था के चलायमान होने में भी इसी वर्ग का हाथ है ...
    नैतिकता , मर्यादा , पारिवारिक प्रेम के जो नामलेवा बचे हैं , वे भी इसी वर्ग के हैं ...
    देश की जो दुर्दशा है , वह चंद अमीरों के हाथ में इकट्ठा पूंजी है ...जिसके दम पर वे सरकारों तक को नचाते हैं ...देश के लिए जो सोचते हैं , करते हैं ...वे सभी माध्यम वर्ग के हैं , उच्च वर्ग को तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा , विदेशों में ठिकाने बने हुए हैं , नाव डूबती दिखेगी तो बोरियाबिस्तर लेकर निकल लेंगे ....
    सेना , पुलिस आदि में भरती होकर बेमौत मरने वाले लोंग भी इसी पृष्ठभूमि के हैं , बम विस्फोटों या किसी भी तरह की हिंसा , उपद्रव आदि में मरने वाले , नुकसान उठाने वाले और फिर से अपने पैरों पर उठ खड़े होकर हौंसला दिलाने वाले सभी मध्यमवर्ग या निम्नवर्ग के हैं ...
    क्या अमीरों की कोई जवाबदेही नहीं है इस देश के प्रति ...??????

    सोचने- समझने और विमर्श करने लायक वातावरण बनाने वाली एक बहुत अच्छी पोस्ट...आप जितनी आचे गीत , ग़ज़लें लिखती हैं उतने ही अच्छे आपके आलेख भी होते हैं ..... बधाई ...!

    ReplyDelete
  20. गंभीर लताड़...एकदम सही.

    ReplyDelete
  21. अदा जी,
    मैंने तो अपनी तरफ़ से आपकी तारीफ़ ही की थी, लेकिन शायद मैं सही से कह नहीं पाया या आप समझना नहीं चाहतीं। वाह-वाह तो ढंग की चीज के लिये ही की जाती है।
    @ spokesperson: कहा तो मैंने भी यही है कि पालिसी पर यकीन नहीं और कहना पड़ता है कुछ और, इसीलिये ’दबंग’ नहीं दिखते हमारे लोग। मैंने अगर ब्यूरोक्रैट्स को क्लीनचिट दी है तो आपने भी मंत्रियों और जनता का बचाव किया है। मंत्री तो आते हैं, जाते हैं - आदमी मुसाफ़िर है, निशान(बदनुमा) तो छोड़ ही जाते होंगे ये।
    मेरे लिखे से आपको ठेस पहुँची, मुझे भी दुख हुआ। आज लगता है कि agree to disagre की जगह disagree to agree का सिद्धांत प्रचलन में आ गया है।
    आप खुद को न बदलें, हमें वाह वाह के लायक लगेगा तो जरूर करेंगे। आप अपने विचार रखें, हम अपने विचार रखते हैं,फ़िर से खेद प्रकट करता हूँ कि आपको बुरा लगा।
    आभारी।

    ReplyDelete
  22. बैठनाहीं पड़ेगा दिल्ली वाली गाड़ी में
    --------------
    इसे भी पढ़े :- मजदूर

    http://coralsapphire.blogspot.com/2010/09/blog-post_17.html

    ReplyDelete
  23. कितनी अजीब बात है एक पार्क तो खूबसूरत बनाने की ट्रेनिंग है, बिल्डिंग को सजाने की ट्रेनिंग है, और अपने देश को व्यवस्थित करने की कोई ट्रेंनिग नहीं ... सब से ज़रूरी बात तो यही है .. इसमें इतना और जोड़ा जा सकता है कि कम से कम किसी विभाग विशेष के मंत्री पद के लिए उस विषय में ट्रेंड होना आवश्यक कर देना चाहिए .

    @मो सम कौन- इनका आशय ये समझ में आया कि आपकी बाकी पोस्टों पर वाह वाह करने के अलावा कोई चारा ही नहीं होता था ... आज कम से कम किसी मुद्दे पर अपनी बात तो रख सके :)

    ReplyDelete
  24. @ padmsingh ji:
    ठाकुर साहब, चलिये, आप तो समझ गये मेरी बात। वैसे आपको भी नाराज करूँ? "आपकी बाकी पोस्टों" में (आपकी) की जगह (आपको या आपके पास) होना चाहिये। हा हा हा।

    ReplyDelete
  25. आज का प्रश्न यह है " क्या हमारा देश सुधर सकता है ?"

    ज़रा आप ही बताइए की इतने सुधरे हुए लोग आपको और किस देश में मिल सकते है जो अपने सीमित संसाधनों का इतनी बेहतरी से इस्तेमाल कर रहे है ?

    ReplyDelete
  26. हमारी नेता कैसी हो,
    अदा जी जैसी हों...

    अदा जी आप संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं (डंडे नहीं सिर्फ सत्ता की मलाई खाने के लिए)

    जय हिंद...

    ReplyDelete
  27. हमारी नेता कैसी हो,
    अदा दीदी जैसी हों...

    हाँ ये बात तो सही है :))


    दीदी,

    आपके इस लेख ने मन के हर कोने को टच किया है

    इस लेख के लिए आभार

    question :

    क्या हमारा देश सुधर सकता है ?

    answer :
    मैं देश तो नहीं सुधार सकता [हाँ ये एक नेगेटिव सेंटेंस है पर अभी पूरा नहीं हुआ :) ] ... अपने आस पास का हिस्सा [देश का ] सुधारने की कोशिश करूंगा
    अगर सब ये छोटी सी जिम्मेदारी लें तो देश तो सुधरेगा ही

    कुल मिला कर वही बात .....
    @समाज एक कपड़े की तरह है और हम धागों की तरह, धागे मजबूत तो, कपडा भी मजबूत

    ReplyDelete
  28. सही कहा आपने पर हम जब अपने एक राजनैतिक जिम्मेदारी वोट को ढंग से नहीं दे सकते तो कुछ और क्या खाक करेंगे |

    @लोगों ने राजनीति और राजनीतिज्ञों की गलत छवि बना दी और हमने यक़ीन कर लिया..

    अरे राजनीति की छवि भले गलत हो पर राजनीतिज्ञों की छवि बिल्कूल सही बनी है भ्रष्ट और चोर की इसके अलावा भी वो कुछ और है |

    ReplyDelete
  29. लेकिन देश के अधिकांश लोगों के लिए अभी भी " दिल्ली दूर है "

    ReplyDelete