'दूनागिरी' का उल्लेख सर्वप्रथम राम कथा में हुआ था, जब मेघनाद के वाण से आहत हो लक्षमण मूर्छित हो गए थे और श्री हनुमान को 'वैद्य सुषेन' ने दूनागिरी के पर्वत से 'संजीवनी बूटी' लाने के लिए कहा था...दूनागिरी उत्तराखंड में स्थित है और दिल्ली से लगभग ४०० किलोमीटर दूर है...
ऐसा भी माना जाता है कि कौरवों और पांडवों के धनुर्विद्या के गुरु द्रोणाचार्य का आश्रम भी दूनागिरी में ही था...द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वश्थामा जिन्हें चिर यौवन का वरदान मिला था आज भी दूनागिरी में ही वास करते हैं...कहा जाता है कुछ भाग्यवान लोगों को वो दर्शन भी दे चुके हैं ..१९४९ में दूनागिरी के पास ही हाट नामक गाँव कि एक ग़रीब महिला लकड़ी काटने जंगल में जा रही थी..रास्ते में उसे एक साधू मिले, स्त्री ने साधू के प्रति बहुत श्रद्धा भाव प्रकट किया...इस पर साधू ने बहुत ऊँचे स्वर में स्त्री को धनवान होने का आशीर्वाद दिया और अंतर्ध्यान हो गए ...तत्क्षण स्त्री ने देखा कि उसकी लोहे की दरांती सोने में बदल गयी...वो ठगी सी रह गयी...उस स्त्री ने उस दरांती को बेच कर अपने परिवार के लिए एक बहुत विशाल भवन का निर्माण किया ...आज भी वह भवन मौजूद है...जो भी उस गाँव में जाता है उसे इस कथा से अवश्य अवगत कराया जाता है...ऐसा माना जाता है कि वो साधू गुरु द्रोण के वरदान प्राप्त पुत्र अश्वश्थामा थे...परन्तु द्रोण पुत्र हमेशा वर ही नहीं देते, अपितु कभी-कभी क्रोधित भी होते हैं, ख़ास करके जब कोई जीव हत्या करता है ..इसलिए दूनागिरी और उसके आस पास वन्य प्राणियों की प्रचुरता है...
१९७२ के दिनों में कुछ लकड़हारों ने एक और अचम्भा देखा...उन्होंने देखा कि, जंगल से प्रतिदिन एक भालू निकलता है और दूनागिरी पर्वत पर स्थित दुर्गा मंदिर की दिशा में दोनों पाँव पर खड़े हो कर नमन करता है...लोगों को यह अद्भुत दृश्य बहुत ही चमत्कारिक लगा...इसलिए गाँववालों ने विमर्श करके एक दुर्गा मंदिर ठीक उसी जगह बना दिया जहाँ से खड़े होकर भालू नमन किया करता था...हैरानी की बात यह है...कि आज भी वह भालू आ कर उस मंदिर में नमन करता है...
दूनागिरी की पहाड़ियों और आस पास में आज भी ऐसे-ऐसे चमत्कारिक औषधीय पौधे हैं जो रात में दमकते हैं..और ये पौधे सिर्फ़ दूनागिरी में ही पाए जाते हैं...इन औषधियों को सिर्फ़ १४ जनवरी के दिन ही तोड़ा जा सकता है..तभी ये कारगर होते हैं...हैं न आश्चर्य की बात...!!
हाँ नहीं तो..!!
(पत्रिका 'भारत संदर्श' से सभार और चित्र गूगल से, सभार ..)
दूनागिरि पर्वत और दूनागिरि मन्दिर जिला अल्मौड़ में द्वाराहाट के पास है!
ReplyDelete--
आपने बढ़िया पोस्ट लगाई है!
कभी गये नहीं..अच्छी जानकारी. आभार.
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया जानकारी, ऐसी ओर भी जाने कितनी जगह हैं जिनके बारे में लोगों को पता ही नहीं है।
ReplyDeleteअगली ब्लॉगर मीट दूनागिरी में...
ReplyDelete(सुन रहे हैं अविनाश वाचस्पति जी, अजय कुमार झा जी)...
जय हिंद...
इसे पढ़िये:
ReplyDeletehttp://sadhviritu.blogspot.com/2010/09/blog-post_06.html
अच्छी पोस्ट !!
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteहंसना ज़रूरी है क्यूंकि …हंसने से सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है।
बड़ी रोचक जानकारी।
ReplyDeleteबहुत ही शानदार जानकारी ..मेरा गावं भी इन्ही पहाड़ियों की तलहटी पर है...सो लगभग २ .३ वर्ष में दर्शन हो ही जाते हैं...आभार !!
ReplyDeleteआप भी ना पता नही कहाँ कहाँ पहुँच जाती हो...mast ..like it :))
अरे ये कहाँ पहुँच गईं आप आज :) यहाँ बचपन में हम पिकनिक पर जाया करते थे :) बहुत मनोरम और पावन स्थान है.
ReplyDeleteअरे ये कहाँ पहुँच गईं आप आज :) यहाँ बचपन में हम पिकनिक पर जाया करते थे :) बहुत मनोरम और पावन स्थान है.
ReplyDeleteअवसर मिला तो दूनागिरी के रहस्यों से हम भी दो-चार होंगे जरूर देखेंगे..... बहुत सुन्दर, चित्रमय जानकारी देने का शुक्रिया.
ReplyDeleteअच्छी जनकारी उपलब्ध कराई आपने।
ReplyDeleteहरीश गुप्त की लघुकथा इज़्ज़त, “मनोज” पर, ... पढिए...ना!
वो औषधिया १४ जनवरी को ही तोड़ी जाती है, इसके पीछे भी कोई धार्मिक या वैज्ञानिक कारण हो तो कृपया उस पर प्रकाश डाले , मनगढ़ंत बाते लिखने से अंध विश्वास फैलने का भय बना रहता है.
ReplyDeleteवाह वाह वाह
ReplyDeleteदीदी,
"ग्रेट पोस्ट"
इस पोस्ट के लिए ..... इस बेहतरीन पोस्ट के लिए इस "भारतीय भाई" की ओर बहुत बहुत बहुत धन्यवाद
आशीष जी.
ReplyDeleteअगर आप आलेख के नीचे देखेंगे तो लिखा हुआ है (पत्रिका 'भारत संदर्श' से सभार और चित्र गूगल से, सभार ..)यह तथ्य उसी आलेख से लिए गए हैं...ये मैं नहीं कह रही हूँ....
धन्यवाद..
@ आशीष जी
ReplyDeleteओह..... पूरा लेख पढ़े बिना कमेन्ट किया जा रहा है ???
गलत बात ... बहुत गलत बात
@ गौरव..
ReplyDelete:)
अच्छी जानकारी |
ReplyDeleteआजकल इधर आना छोड़ दिया है ?
अदा जी मै तो ये सोचता हूँ की किसी से साभार कुछ भी लेते हुए , हम आपने विवेक का इस्तमाल तो करते ही है ना?? की जो हम ले रहे है वो हमारे काम या समाज के हित में है या नहीं?? धन्यवाद आपके उत्तर केलिए.
ReplyDelete@गौरव
पढ़ा तो पूरा ही था लेकिनं मैंने सोचा था साभार लेते हुए अदा जी ने भी कुछ तर्क सम्मत सोचा होगा . लेकिन कोई बात नहीं जवाब तो अभी भी नहीं मिला, इस को हमे हज़म करना ही होगा.
@ आशीष जी ,
ReplyDeleteआपकी बात बिल्कुल सही है...
लेकिन जब लेखक और पत्रिका दोनों ही बहुत प्रतिष्ठित हों तो हम ज्यादा नहीं सोचते हैं...
भारत संदर्श ..भारतीय दूतावास से हमारे पास भेजी जाती है..
और इस आलेख के लेखक हैं...
श्री एच.वी.एस.मनराल जो कि न्यू गिनी में भारत के राजदूत हैं...
यह तथ्य भारत की सरकार ने छाप दिया ..इसलिए हमने भी ज्यादा खोज-बीन नहीं की..
वैसे तो आप अपने विवेक से काम ले ही रहे हैं...
धन्यवाद...
इस संबंध में कई बार पत्रिकाओं में घटनायें आती रहती हैं। कहते तो यह भी हैं कि अश्वथामा के रूप में जो दिखते हैं, उनके माथे में एक घाव भी है(सन्दर्भ, द्रौपदी द्वारा अश्वत्थामा को जीवनदान दिया गया था लेकिन दंड के प्रतीकस्वरूप उसकी मस्तक मणि निकाल ली गई थी।)
ReplyDeleteअच्छी जानकारी देती हुई पोस्ट, चित्र भी बहुत प्यारे हैं।
अदा जी, फिर तो मै उनसे पूछ नहीं सकता ना की उन्होंने कहा से साभार लिया. सही है ," महाजनः येन गछति सः पन्था", मानकर चुप हो जाता हूँ.
ReplyDeleteसाभार
गछति -----गताः
ReplyDeleteमित्र ... मैं आ रहा हूँ ... रुको
ReplyDeleteमित्र ... मैं आ रहा हूँ ... रुको
ReplyDeleteअब वैसे तो मैं लम्बी चौड़ी बातें बता सकता हूँ पर बात फिर वहीं साइंस और किसी साइंटिस्ट के अप्रूवल पर आ टिकेगी [वैसे भी हमारे देश में "विदेशी साइंटिस्ट" की बात में ही श्रद्धा रखी जाती है ] फिर भी
ReplyDeleteये रहा खगोलीय तथ्य : इस दिन सूर्य दक्षिण के स्थान पर उत्तर दिशा {अर्थात कर्क रेखा} की ओर गमन करने लग जाता है। सूर्य के पूर्व दिशा से दक्षिण दिशा की ओर गमन करते समय उसकी किरणों का असर ठीक नहीं माना जाता है , लेकिन पूर्व से उत्तर [अर्थात कर्क रेखा] की ओर गमन करते समय सूर्य की किरणें स्वास्थ्य और शांति में वृद्धि करतीं हैं
ज्योतिष और अध्यात्म के अनुसार देखें तो इस दिन का महत्त्व बहुत अधिक है और भारत का महान इतिहास जिस में शनि देव , श्री कृष्ण, भीष्म पितामह सभी आ जायेंगे, इसी दिन का महत्त्व अपने जीवन में बताते नजर आये हैं , पर फिर वही बात आ जाएगी "सन्दर्भ कहाँ है" ??
ReplyDeleteएक बात और .... मैं सिर्फ इस दिन [१४ जनवरी] का महत्त्व बता रहा हूँ, अभी इस बारे में बहुत कुछ जानने जैसा शेष है.... और वैसे भी मैं इस वक्त जिस ब्लॉग पर हूँ , मुझे पूरा यकीन है यहाँ किसी ठोस सन्दर्भ के बिना कोई लेख नहीं लिखा जाता, अगर ऐसा होता तो मैं यहाँ का रेग्युलर पाठक तो बिलकुल न होता
ReplyDelete@ आशीष जी,
ReplyDeleteकाश मैं पूछ पाती...लेकिन मैं भी लाचार हूँ...मेरी भी पहुँच उन तक नहीं है...
आभार..
@ गौरव..
Thanks a lot for the support...khush raho..
चित्र अच्छे लगे।
ReplyDeleteद्रोणगिरि यही है क्या?
@ गिरिजेश जी..
ReplyDeleteद्रोणगिरी यही नहीं है...लेकिन द्रोणगिरी भी यहीं आस पास है..
अच्छी जानकारी दी है आपने
ReplyDeleteअपने विचार प्रकट करे
(आखिर क्यों मनुष्य प्रभावित होता है सूर्य से ??)
http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_07.html
अदाजी
ReplyDeleteधन्यवाद |
अपने मुझे दी कहा इसलिए अदा आपका आभार |
ओह मेरी टिप्पणी!!!!! लगता है कल प्रेषित नहीं हो पायी जल्दबाजी में वैसे मैंने लिखी तो थी.. फिर हुआ क्या कैसे.. चलिए कोई बात नहीं.. अब तो दूनागिरी जाना ही पड़ेगा.. वैसे भी अपना शैलेश भाई है ना रानीखेत से उसके यहाँ भी जाना ही है दिसंबर में. :)
ReplyDeleteसिर्फ 400 किलोमीटर दूर औऱ हम अब तक नहीं गए ....कोई बात नहीं अगली बार यात्रा की लिस्ट में जोड़ रहे हैं इसे भी। दो साल से यात्रा स्थगित है कतिपय कारणों से। अक्टूबर के बाद फिर से शुरु होगी। जहां तक 14 जनवरी संक्राति की बात है तो उसका वैज्ञानिक आधार है....उसके लिए किसी पाश्चात्य महाश्य की मुहर नहीं चाहिए.....
ReplyDeleteरोचक और अच्छी जानकारी!
ReplyDeleteLagta hai ab Doonagiri jaana hi hoga, padh kar to ab jaane ki iccha ho hi gayi hai.
ReplyDeleteLagta hai ab Doonagiri jaana hi hoga, padh kar to ab jaane ki iccha ho hi gayi hai.
ReplyDeleteमिथकों से जुड़े स्थल अतिरिक्त आकर्षण पैदा करते हैं जो रहस्यात्मक हो जाता है वर्ना शेष तो हमारा प्रकृति प्रेम है !
ReplyDeleteअब तो दूनागिरी जाना ही पड़ेगा..
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