७०००० करोड़ की मेहमाननवाजी ...
अरे वाह वाह वाह वाह वाह जी !!
जो इस तरह के खर्चे को सही होने की दलील दे रहे हैं उनसे एक सवाल पूछना चाहूंगी....क्या इससे वास्तव में देश की छवि सुधर जायेगी....क्या सचमुच सभी समस्याएं ख़त्म हो गईं हैं देश की...देश की तो मारो गोली..क्या दिल्ली की समस्याएं ख़त्म हो गईं हैं...अब तो सबको भरपूर पानी, बिजली मिल ही जायेगी न....अगले जन्म तक....छुछुंदर के सिर पर चमेली का तेल लगा कर ..उसकी दुर्गन्ध नहीं हटाई जा सकती है...टैक्स पेयेर्स का इतना पैसा कितनी बेरहमी से लुटाया गया है...और लुटने वाले को पता भी नहीं चला कि वो लुट गया है....
दिल्ली ही देश है क्या ...दिल्ली से आगे कुछ नहीं है...क्या होगा जब ये खेल ख़त्म होगा उसके बाद....खजाने से इतना रुपैया जो निकला है...अब हो जाओ तैयार देश वासियों उसकी भारपाई के लिए ...क्योंकि...ये पैसे फिर आपको ही वापिस खज़ाने में जामा करने होंगे....भारत की सरकार उनके मंत्रियों से नहीं लेने वाली ये पैसा वापिस....आप ही देंगे...मंहगाई के नाम से...और आप पूछ भी नहीं पायेंगे क्यूँ ? क्योंकि ये डेमोक्रेसी है जी...दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी....जहाँ सिर्फ़ ग़रीब मारा जाता है...अनिल अम्बानी तो बच जाएगा..क्योंकि अगर उसने ये पैसे दिए तो फिर वो अनिल अम्बानी कहाँ रह पायेगा ..?
इस खेल में कितने ग़रीब गरीबी रेखा से ऊपर आए हैं जरा ये सोचिये...और आप अगली बार अपने बजट में क्या और कितना कटौती करेंगे ये भी सोचिये....
खेल के बाद वो गाँव जो बसा है...उसके अन्दर पाँव रखने की औक़ात कितनो को होगी ये भी सोचियेगा...वो सारे मकान किसके हत्थे चढ़ने वाले हैं ये भी सोचियेगा...हम-आप तो हरी बत्ती और हरे घास का मज़ा लेंगे...क्योंकि हमारी आपकी औक़ात बस इतनी ही है...और फिर इंतज़ार करेंगे हमेशा की तरह, उस बिजली का और पानी का जिसके दर्शन कभी-कभी हो जाया करेंगे....!
तेरी तो...
हाँ नहीं तो...!
हालात इतने बुरे भी नहीं हैं अदा जी ।
ReplyDeleteदिल्ली का उद्धार १९८२ में हुआ था जब दिल्ली हरित दिल्ली बनी थी ।
अब फिर एक बार --दिल्ली की किस्मत चमकी है।
कम से कम एक शहर तो विकसित देशों के मुकाबले का बन रहा है ।
अब अगर अन्धकार है तो उजाला भी दिख रहा है ।
bhn ji aapne bilkul shi or stik likhaa he bs yhi duniyaa men mere is desh ki tsvir he lekin is maahol ko bdlne ke liyen hmen kuch to krnaa hi hoga. akhtar khan akela kota rajsthan
ReplyDeleteसमसामयिक और विचारोत्तेजक आलेख। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteशौख!, सत्येन्द्र झा की लघुकथा, “मनोज” पर, पढिए!
@ दराल साहब ..
ReplyDeleteexactly my point ..
बार बार दिल्ली की किस्मत तो चमक रही है...लेकिन क्या सचमुच चमक रही है...१९८२ में दिल्ली की किस्मत चमकी थी...लेकिन कितनी ? पानी की किल्लत, बिजली का आभाव..कुछ ही दिनों बाद देखने को मिल गया था...ये बार बार कीमती बैंड ऐड कब तक लागायेंगे लोग....मेरा यही कहना है जब ऐसा मौका आया ही था तो फिर समस्या की तह तक क्यों नहीं जाया जाया...ऊपर की लीपा पोती से कब तक देश चलेगा..और कब तक आम नागरिक भुगतेगा....आप तो डॉक्टर हैं...आप बेहतर जानते हैं रोग की जद तक जाना चाहिए...ऊपर का मरहम कोई काम नहीं करेगा....
जद = जड़
ReplyDeleteडॉ दाराल साहेब ठीक कह रहे हैं, दिल्ली बदल रही है उसकी किस्मत चमक रही है ........चलो, अच्छा लगा ये जानकर , लेकिन अदा जी, आपके आलेख में जो बात है, उससे भी विमुख नहीं हुआ जा सकता ...........
ReplyDeleteसामयिक स्तर पर तो बहुत ही उम्दा पोस्ट,,,,,,
धन्यवाद.....
www.albelakhatri.com पर पंजीकरण चालू है,
आपको अनुरोध सहित सादर आमन्त्रण है
-अलबेला खत्री
अलबेला जी..
ReplyDeleteआपका हृदय से धन्यवाद...
मेरा दूसरा प्रश्न ये हैं कि सिर्फ दिल्ली की किस्मत क्यों चमक रही है...?
बाकियों ने क्या गुनाह किया है...एक दिल्ली कि किस्मत चमक जाने से हिन्दुस्तान कि किस्मत नहीं चमक रही है...
मैं कनाडा कि राजधानी ओट्टावा में रहती हूँ...राजधानी होते हुए भी ..यह बहुत सारे शहरों से हर हाल में सादा है...यहाँ भी इसे राजधानी के नाम से चकाया जा सकता है...लेकिन इस देश के हर शहर में सामान opportunity हैं और एक ही तरह ही सहूलियतें भी...ये दोहरा व्यवहार क्यों ??
दिल्ली हिन्दुस्तान नहीं...जब भी मैका मिलता है दिल्ली कि किस्मत चमका देते हैं लोग और बाकी को भेज देते हैं तेल लेने...
हाँ नहीं तो..!
EK KAHAWAT HAI KI GADHON KE SAR PAR SEENGH NAHI HOTI.
ReplyDeleteHAMARE NETA DESH BHI BECH KE KHA JAYENEGE AUR YE SAMJHENEGE HAMARA UDDHAR HO RAHA HAI.....
दीदी ,
ReplyDeleteउफ्फफ्फ्फ़ .... पंद्रह मिनट हो गए सोचते सोचते क्या कहूँ ??... की पोस्ट से सहमति भी जाहिर हो जाये और देश की [झूठी] इज्जत भी बच जाये
छोडो सबकुछ ......
वो विकास नहीं जो मेंगो पीपल [आम आदमी ] के काम ना आये , या आम आदमी उसे यूज न कर पाए
[अब एक बात कह दूँ मैं बिना दिल्ली देखे परखे, यानी केवल अखबार पढ़ के ... न्यूज देख कर ... ये कमेन्ट नहीं कर रहा हूँ]
सार गर्भित टिपण्णी है इस पर तो पंगा नहीं हो सकता :)
फिर से गन्दा फोटो :( पर पोस्ट और देश के अनुरूप :(
अदा जी आप सही कह रही हैं । दिल्ली ही क्यों ? लेकिन पहले दिल्ली तो । आखिर देश की राजधानी है । उसके बाद बाकि शहर भी ।
ReplyDeleteलेकिन ज़रा इन बातों पर भी गौर फरमाएं ----
राष्ट्रीय राजमार्ग २४ अब दोगुना चौड़ाई का बन गया है ।
खिचड़ीपुर /गाजीपुर चौराहा अब सिग्नल फ्री है ।
गाजीपुर /पतपरगंज तिराहा --फ्लाई ओवर बनने से बड़ी रहत मिली है ।
आनंद विहार रेलवे लाइन पर पुल को डबल कर दिया गया है ।
सूर्य नगर वाली सारी सड़क डबल चौड़ाई की हो गई है ।
जी टी रोड बोर्डर पर फ्लाई ओवर बनने से बहुत सहूलियत हो गई है ।
श्याम लाल कॉलिज के सामने फ्लाई ओवर बन कर तैयार हो चुका है । कुछ काम बाकि है ।
इन सबके होने से पूर्वी दिल्ली में रहने वाले ५० लाख लोगों को बड़ी राहत मिली है ।
अब और देखिये ---
प्रगति मैदान के किनारे बने भैरों मंदिर से प्रसाद में मिली शराब पीकर भैरों मार्ग पर पड़े शराबियों और कोढियों को हटाकर क्या गलत किया है ?
चौराहों पर सपरिवार भीख मांगते भिखारियों को हटाना क्या गलत है ?
चौराहों पर हर तरह की चीज़ें बेचते सेल्समेन , जो गैर कानूनी भी है --क्या उन्हें हटाकर गलत किया है ?
सड़कों पर ७० लाख वाहनों के बीच जुगाली करते गाय , भैंसों को हटाना गलत है ?
आज हमारा दवाओं का एक तिहाई बज़ट एंटी रेबीज इलाज पर खर्च होता है । स्ट्रे डॉग्स को हटाना एक समाधान है ।
ये सभी विकास का ही हिस्सा हैं । बस फर्क इतना है-- खेलों के बहाने ये काम हो गए ।
वैसे मैं इस विषय पर ज्यादा बात करना बेकार ही समझता हूँ पर जो लोग ये कह रहे हैं कि दिल्ली कि किस्मत चमक गयी है मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि ये सारी के सारी चमक धमक एक आद महीने से ज्यादा कि मेहमान नहीं है. और इसके नजारे मैं जरुर प्रस्तुत करूँगा. जो कुछ भी निर्माण कार्य हुआ है वो बेहद घटिया स्तर का है. बाकि जो हो चुका है या जो हो रहा है उस पर हम लोगों का कुछ भी नियंत्रण तो है नहीं खाली चिल्लाने से क्या होगा.
ReplyDeleteada ji 70 nahi ab 1 lac crore paar karne ki ummeed hai @ 60% ghapla ke saath...Gareeb raatonraat sadak kinare se gayab ho gaye... Shine India ka feel good factor feel kijiye...Poster se gandgi dhank di gayi...Jai ho Sheelaji...Jai ho kalmaadiji...
ReplyDelete@ यही तो हम कहते हैं दराल साहब ...
ReplyDeleteऐसे कामों के लिए बहानों की ज़रुरत नहीं है...ये काम हमारे देश की ज़रुरत हैं...बहनों के बहाने नहीं होना चाहए...इनको हटाने और बसाने का काम अनवरत होना चाहिए...कितनी अजीब बात है...क्या अब कुछ और विकास के काम के लिए हम बहाने का इंतज़ार करेंगे...
नहीं दराल साहब...जो काम बहानों पर होते हैं वो जल्दी में होते हैं..वो पुख्ता नहीं होते हैं...देख लीजियेगा...ये सब ऊपरी लिपा-पोती है..बहुत जल्द इनकी भी असलियत सामने आ ही जायेगी...
अदा जी!
ReplyDeleteआपका सवाल गम्भीर है और उसका जवाब जो मैं देना चाहता हूँ वह और भी ज़्यादा गम्भीर तथा तल्ख़ है, परन्तु तल्खियाँ इतनी बढ़ गई हैं कि अब और अधिक इनमें फंसने का मन नहीं करता .......
मन इसलिए नहीं करता क्योंकि हम कितना भी विवेचन कर लें, नतीजा 'ठन ठन गोपाल' ही रहेगा, ये हम जानते हैं और आप भी.........
बहरहाल दिल्ली की किस्मत कितनी चमकी है ये तो दिल्ली वाले ही बेहतर जानते हैं
इस विकास के गुण गाना वैसा ही है जैसे लड्डू के टूटने पर मिलने वाली चूर को लेकर हम खुश हों। सत्तर हजार करोड़ खर्च करके दिल्ली का थोड़ा सा और टैंपरेरी फ़ेसलिफ़्ट हो गया, बहुत है।
ReplyDeleteऔर इसे एक बहुत बड़ी उपलब्धि माना जायेगा और हमें पूरी आशा है कि अब ओलंपिक खेलों का आयोजन पाने की कोशिश की जायेगी, बल्कि कहना चाहिये कि जुगाड़ किया जायेगा।
पुरानी कहावत है- 'चार दिन की चांदनी, फिर अँधेरी रात'
ReplyDeleteइस पर तो आपकी ही स्टाईल में कहना पड़ेगा...हाँ नहीं तो. :)
ReplyDeleteये अदा? तौबा तौबा मै तो चलती हूँ--- दराल साहिब की बात मे भी दम है । मगर मुझ मे दम नही कि तुम्हारी बात भी काट सकूं।
ReplyDeleteबस जरा इधर नज़र डाल लेना
www.veerbahuti.blogspot.com
dhanyavaad|
@ अलबेला जी ..
ReplyDeleteआपका धन्यवाद, समझ सकती हूँ..जैसी काँव काँव हो रही है, और जैसी सोच है, कुछ कहने में दुविधा तो होती है...
@ निर्मला जी...
ReplyDeleteआपकी भी दुविधा समझती हूँ..
आप आयीं, हृदय से धन्यवाद...
जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम के पास फुटब्रिज बनाने के लिए चंडीगढ़ की एक कंपनी को साढ़े दस करोड़ में ठेका दिया गया...कॉमनवेल्थ गेम्स शुरू होने से बारह दिन पहले पुल ढह गया...जांच का आदेश दिया गया...काम खत्म
ReplyDeleteसेना को पांच दिन में बेली ब्रिज बनाने का ज़िम्मा सौंपा गया...तीन दिन में नब्बे फीसदी पुल पूरा...सेना ने सिर्फ बीस लाख रुपया सरकार से लिया...
दिल्ली की असली चमक पहले पुल में है या दूसरे पुल में, आप ही तय करें, मैं कुछ नहीं बोलूंगा...
जय हिंद...
गंभीर चिंतन है आपका.... सोचने पर मजबूर कर देता है.
ReplyDeleteज़रा यहाँ भी नज़र घुमाएं!
राष्ट्रमंडल खेल
अतिथि देवो भव, देवताओं सा सम्मान।
ReplyDeleteहम तो यही कहते हैं कि 70000 करोड खर्च करके 7 करोड का काम तो किया। वरना इतने की भी क्या उम्मीद थी। सारा ही डकार जाते, फिर भी हम ऐसे ही मँहगाई का रोना रोते और टैक्स भरते रहते।
ReplyDeleteप्रणाम
और चलो कॉमनवैल्थ के बहाने से ही सही
ReplyDeleteइसी तरह बहानों से भी होता रहे और इस विकास/चमक को बनाये रखा जाये, यह भी बहुत है हम जैसों के लिये।
प्रणाम
दिल्ली की किस्मत कितनी चमकी है ये तो दिल्ली वाले ही बेहतर जानते हैं
ReplyDeleteआपने भी आखिर सच को आइना दिखा ही दिया ! बहुत खूब अदा जी !
ReplyDeleteऐसा कौन सा इंसान होगा जो यह न चाहे की उसके देश का नाम रोशन हो मगर मेरे सिर्फ दो पॉइंट थे
क्या इन खेलों में धन की कमी रहने दी गई थी ? वो बात और है की ७०००० करोड़ में से ४०००० करोड़ आप सीधे स्विस बैंक में ले जावोगे तो कमी तो होगी ही !
क्या इन खेलों के लिए बनने वाले निर्माण के लिए देश में कारीगरों मजदूरों अथवा इन्जिनीरों की कमी थी ?
यदि नहीं तो आखिर में किसी दुश्मन देश या लोगो के लिए इस देश का उपहास उड़ाने का मौक़ा क्यों दिया गया ? किसने दिया, जो ये हमारा बुद्धिजीवी वर्ग आज कह रहा है कि खेलों तक सबको चुप रहना चाहिए था, क्या खेलों के बाद ये इस सरकार को उखाड़ फेंकेगे ? नहीं कोई जांच आयोग बैठेगा,१००-५० करोड़ रूपये वह आयोग भी खायेगा और जब २० साल बाद रिपोर्ट आयेगी तक ये सारे भ्रष्ट मर चुके होंगे ! बस यही इस देश का न्याय है !और भुगतता कौन है , हम, आम आदमी !
ReplyDeleteचमगादड़ों के खोह में, फ़्लडलाइट की रोशनी ।!
कुछ दिन तक सभी की आँखों में चौंध बनी रहे,
वतन को और क्या चाहिये.. चकाचौंध चकाचौंध !
मॉर्डरेशन है, तो क्या टिप्पणी तो फिसल ही गयी !