अभी कुछ दिनों पहले हम घर के लिए कुछ सामान लेने गए थे ...जब भी सामान बहुत ज्यादा होता है तो अक्सर हम कार्ट के निचले हिस्से में सामान रख देते हैं..उस दिन भी यही किया...कुछ सामान कार्ट के निचले हिस्से में रख दिए थे...सारा पेमेंट करके बाहर आए और गाड़ी में सामान लादा...लेकिन जल्दी में कार्ट के नीचले हिस्से का सामान कार्ट में ही रह गया और कार्ट पार्किंग लाट में ...जब घर वापिस आए तो देखा ६ सामान कम थे ...फट से याद भी आ गया, भाग कर गए भी लेकिन सामान नहीं मिला..
ख़ैर, हम तो उम्मीद ही छोड़ बैठे थे, लेकिन फिर सोचा, पूछा लेना चाहिए...अन्दर जाकर सारी बात बताई, तो सेल्स गर्ल ने कहा, कोई बात नहीं, जो भी सामान रह गया, आप जाकर उठा लीजिये...हम तो जी बहुत ख़ुश हो गए...सामान उठाया और लाकर काउंटर पर दिखा ही रहे थे कि देखा, बहुत सारे कार्ट्स अन्दर आ रहे हैं..और हमारा छूटा हुआ सामान भी...दिल को एक तसल्ली हुई कि चलो...हम सच कह रहे थे, ये साबित भी हो गया, हालांकि किसी ने भी हमसे, कुछ भी साबित करने को नहीं कहा था, लेकिन अपना तो हिन्दुस्तानी दिमाग है न, ख़ुद भी शक करता है, और सोचता है बाकी भी शक्की हैं....हम ख़ुशी-ख़ुशी...यहाँ के लोगों की भलमानसहत, और ईमानदारी पर बहुत सारी बातें करते हुए चले आए..ये भी सोचा कि अगर यही घटना, हिन्दुस्तान में होती तो क्या इतनी आसानी से बात बन पाती ? शायद नहीं...!
अभी इसी के बारे में मैं सोच रही थी कि कुछ कौंध गया दीमाग में.. और याद आ गई, एक घटना तो तब घटी थी, जब हम कनाडा बस आए ही थे, मेरे पास बहुत अच्छी जॉब थी लेकिन संतोष जी को तब-तक जॉब नहीं मिली थी, हमारे घर का खर्चा एक ही व्यक्ति की कमाई से चलता था...
हमारे घर के पास एक बहुत बड़ी दूकान बंद हो रही थी, चीज़ें सेल पर थीं, ऐसी सेल भी नहीं देखी थी और वो दूकान घर के बहुत करीब थी...इसलिए हम चले ही जाया करते थे...उस दिन भी मैं गई थी उस स्टोर में...बहुत बड़ा डिपार्टमेंटअल स्टोर था...देखा तो, उस दिन एक लेडिज कोट सेल पर था, बहुत ही सुन्दर कोट, मेरे मन लायक, मैं भी शुद्ध नारी की तरह खींची चली गई हैंगर के पास,....देखा तो, एक भारतीय महिला जिसके साथ ४ छोटे-छोटे बच्चे थे, उस कोट को ट्राई कर रही थी, बच्चे आस-पास शोर मचा रहे थे...उस महिला के पास एक बेबी स्ट्रोलर (बच्चों को बिठाने की गाड़ी), जिसमें कोई बच्चा नहीं था, साथ जो बच्चे थे वो इतने छोटे नहीं थे कि उन्हें स्ट्रोलर में बिठाया जाए, स्ट्रोलर के निचले हिस्से में जो सामान रखने की जगह होती है, वहाँ कुछ कपडे थे, लेकिन पुराने थे..
मैं भी कोट देखने लगी जाकर, प्राईस टैग देखा तो, मेरा मन मायूस हो गया, सेल पर होने के बावजूद उसकी कीमत $४९९ थी...मेरे लिए वो कोट महंगा था...जिस गाँव जाना नहीं, उसके कोस क्यों गिनना, इसलिए ट्राई भी करना बेकार था...मैंने उड़ती सी नज़र उस महिला पर डाली, जो अब भी कोट बदल-बदल कर पहन रही थी, मन ने कहा, देखो ये खरीद सकती है, लेकिन मैं नहीं...कोई बात नहीं एक दिन आएगा जब मैं भी खरीद पाऊँगी, और मैं आगे बढ़ गई...
मैं काफ़ी देर तक उस स्टोर में घूमती रही और अपने घर के लिए कुछ-कुछ चुनती रही...अचानक मेरी नज़र उन चारों बच्चों पर पड़ी..उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ रहीं थी...बच्चे बहुत डरे हुए थे., उनके चेहरे के डर ने मुझे, उनकी तरफ तवज्जो पर मजबूर कर दिया, वो दौड़ कर आगे जाते, रुकते ,पीछे मुड़ते और अपनी माँ को देखते...कुछ खुसुर-फुसुर करते, फिर दौड़ते हुए आगे जाते, रुकते और पीछे देखते., बच्चे बहुत डरे हुए थे, ...मैंने देखा, वो महिला बहुत इत्मीनान से स्ट्रोलर चलाती हुई चली आ रही है...चेहरे पर कोई ऐसी बात नहीं थी...मेरी समझ में बच्चों के डर का कारण नहीं आया...अचानक मेरी नज़र स्ट्रोलर के निचले हिस्से पर पड़ी, देखा तो वही कोट वहाँ नज़र आया, छुपाया हुआ तो था, लेकिन नज़र भी आ रहा था...मेरे सामने से वो चलती हुई, बहुत ही आराम से..मुख्यद्वार से बाहर चली गई...बिना पैसे चुकाए....अब मैं समझ गई थी, बच्चे क्यों डरे हुए थे, मैं सब कुछ देख कर भी कुछ नहीं कह पाई...क्या कहती ??
आज सोच रही हूँ...कितना फर्क है हमारी मानसिकता और यहाँ के लोगों की मानसिकता में...यहाँ हर रिश्ता विश्वास से शुरू होता है, यह आप पर है कि आप उसे बनाये रखते हैं या बिगाड़ लेते हैं, जबकि भारत में ज्यादातर रिश्ते अविश्वास से शुरू होते हैं, और विश्वास बनाए रखने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है...
कब आएगा ऐसा दौर भारत में :(
ReplyDeleteबिल्कुल सही,
ReplyDeleteकाश कि हर रिश्ता विश्वास से ही शुरु हो, और जितना सच हम चाहते हैं अपने लिये कम से कम उतना सच तो दूसरे भी आप से चाहेंगे ही।
और अविश्वासी तो हर जगह होते हैं, कई लोग मजबूरी में करते हैं तो कई लोग मजे के लिये करते हैं, मानव प्रवृत्ति है।
hum kabhi nahi sudhrenge sacha kaha aapne.
ReplyDeleteआह वो महिला ...पढकर अच्छा नहीं लगा !
ReplyDeleteहमारी हालत भूखों जैसी है । जिसे रोटी दिखे तो उठाकर खा जाएँ ।
ReplyDeleteकालांतर में यही आदत बन गई है ।
अब तो यह रुग्ण मानसिकता ही बन गई है ।
भारत में ज्यादातर रिश्ते अविश्वास इसीलिये वक़्त से पहले ख़त्म हो जाते हैं..
ReplyDeleteइसीलिये वक़्त से पहले ख़त्म हो जाते हैं..
ReplyDelete...........वाह अति उत्तम
ReplyDeleteउम्दा सीख देती पोस्ट .....आभार !
ReplyDeleteयहाँ हर रिश्ता विश्वास से शुरू होता है, यह आप पर है कि आप उसे बनाये रखते हैं या बिगाड़ लेते हैं.......... बिलकुल सही कहा आपने... वैसे देखा जाये तो यह हमारे और आप पर भी नहीं डिपेंड है... जबकि भारत में ज्यादातर रिश्ते अविश्वास से शुरू होते हैं, और विश्वास बनाए रखने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है... यह तो कहीं भी हो सकता है... विश्वास कभी बनाना नहीं पड़ता... जिनसे हमारे रिश्ते मज़बूत होते हैं... उन रिश्तों में विश्वास अपने आप आ ही जाता है... मेरे ख्याल से विश्वास के लिए कोई मेहनत की ज़रूरत तो नहीं है... यह तो सहज ही पैदा होने वाली चीज़ है...
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी आपकी पोस्ट....
रिगार्ड्स
महफूज़ साहब,
ReplyDeleteआपकी बात बिल्कुल सही है... वो विश्वास ही क्या जिस पर मेहनत करनी पड़े...लेकिन शायद आप आपसी संबंधों के विश्वास की बात कर रहे हैं...उस तरह के विश्वास के आलावा भी ..कुछ विश्वास होते हैं jo बिना किसी संबंधों के होते हैं...कुछ इमान्दारियाँ होतीं हैं जो अच्छे नागरिक होने का प्रमाण होतीं हैं ....मैं उस तरह के विश्वास की बात कर रही हूँ...ख़ास करके आर्थिक माहौल में...विश्वास और ईमानदारी, दुकानदार और ग्राहक के बीच...शायद मैं ठीक से अपनी बात नहीं कह पाई...
साफ सुथरे परिवेश में ऐसी बात दिल को बहुत ठेस पहुँचाती है खास कर जब एक भारतीय के द्वारा हो..मानसिकता का फ़र्क है सुधरने की ज़रूरत है देखिए कब तक सुधरते है ....बढ़िया चर्चा रही..धन्यवाद
ReplyDeleteअदा जी ये जो आपने दो पहलू दिकाये इन्सानी फितरत के अपने आप में एक मिसाल हैं दो अलग अलग तरह की मिसालें । जान कर दुख हुआ कि महिला भारतीय थी ।
ReplyDeleteमेरे हिसाब से विश्वास के लिये "यहाँ" या "वहाँ" से फ़र्क नहीं पडता...जहाँ "हम" हैं वहाँ विश्वास होना चाहिए बस...उम्मीद है "हम" सुधरेंगे...
ReplyDeleteऐसा ही एक वाकया अनुराग शर्मा जी के ब्लॉग पर पढ़ा था। पश्चिम की बहुत सी बातें अनुकरणीय भी हैं, लेकिन हम फ़ॉलो करते हैं सिर्फ़ उनका वीकैन्ड कल्चर।
ReplyDeleteहमें आईना दिखाती पोस्ट।
व्यक्तिगत ईमानदारी हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाये रखती है।
ReplyDelete@अर्चना जी,
ReplyDelete'यहाँ' और 'वहाँ' के सामाजिक जीवन में बहुत बड़ा फर्क है...'ईमानदारी का होना'.और 'ईमानदारी का नहीं होना'...
आपको शायद ही कोई भारत में दूकानदार मिले जो अपनी दूकान से सामान लेने को मना करे और कहे कि आप फलाने दूकान से लीजिये वो आपके बजट में आएगा या आपकी पसंद को होगा...इतना ही नहीं वो आपको उस दूकान तक पहुँचने में मदद भी करेगा....बिना किसी फायदे के....
यहाँ, सबसे बड़ा क्राईम, जो आपकी छवि बिल्कुल ख़राब कर सकती है वो है 'झूठ बोलना' ...लगभग सभी अपना काम ईमानदारी से करते हैं...बेईमानी आम जिंदगी में बहुत कम देखने को मिलती है...लेकिन जब भी मिलती है..उसमें उलझे हुए अपने यहाँ के लोग ही दिखते हैं...तो अफ़सोस होता है...और भी घटनाएं लेकर आऊँगी...बहुत जल्द...
हमारे समस्त क्रिया-कलाप हमारे विचारों के आधार पर होते हैं, विचार बनते हैं संस्कार से तथा संस्कार बनते हैं शिक्षा से। हम जो भी हरकत करते हैं उसके मूल में हमारी शिक्षा ही होती है।
ReplyDeleteमेरे ख़याल से तो सब जगह, सब तरह के लोग होतें है. मेरे अनुभव में तो ज्यादातर लोग सीधे साधे ही आए है. कुछ चतुर किस्म के भी होते है, पर उसका कारण तो ज्यादातर उनके हालत ही होतें है. मैंने कुछ ऐसे लोगों को भी देखा है जो मुझे निहायती घटिया मानसिकता के लगे, पर जब उनको उनके घर में, उनके बच्चों के साथ पेश आतें देखा, तो हैरान रह गया. जो आदमी एक एक पाई के लिए मरने मारने में उतारू हो जाता है, वो अपने बच्चों के लिए ऐसे पैसे खर्च करता दीखता है, जैसे पैसे उसके लिए कोई मायने ही नहीं रखते, या शायद बच्चों से उसका प्रेम पैसों से बहुत ज्यादा मायने रखता है.. तो मुझसे पूछे तो अंततः प्रेम तत्व कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में तो सभी में मौजूद है, और दुनिया इसलिए हमेशा से सलामत रही है ...
ReplyDeleteबाकी रही बेईमानी और इमानदारी की बात, तो मैं खुद ही अपने जीवन में दोनों चीज़ें इतनी बार कर चूका हूँ, की अब दूसरों की क्या कहूं ... मुझे तो overall आदमी में ऐसा कोई अपवाद नहीं लगता, लगभग सभी एक तरह के होतें है ..
आपने बिलकुल सही कहा अदा जी. हर कोई भ्रष्टाचार का रोना रोता है. सरकार के ऊपर ठीकरा फोड़ता है, अफसरों को गलियां देता है. लेकिन यह नहीं सोचता की यह सोच कहीं ना कहीं हमारे समाज के अन्दर तक घर किये हुए है. भ्रष्टाचारी भी कोई एलियन नहीं होते बल्कि हमारे समाज के अन्दर से ही आते हैं.
ReplyDelete@ जबकि भारत में ज्यादातर रिश्ते अविश्वास से शुरू होते हैं, और विश्वास बनाए रखने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है...
ReplyDelete@दीदी,
मैं इसका कारण भारत में हर तरह की [अविश्वसनीय ] संस्कृति के मिश्रण को मानता हूँ
हाँ इस बात से सहमत हूँ की भारत में अब तो रिश्तों की शुरूआत के समय विश्वसनीयता का स्तर संदिग्ध सा ही लगता है
पर मुझे लगता है विश्वास बनाए रखने के लिए कड़ी मेहनत नहीं करनी चाहिए क्योंकि इससे अपेक्षाएं बढ़ सकती है , त्याग का तुलनात्मक अध्ययन जन्म ले सकता है
बिना मेहनत के जो विश्वास बना रहे वही सही लगता है [ये विचार शायद मेरी उम्र के साथ और सही होते जाये ... संभव है ]
पोस्ट बढ़िया लगी और फोटो मनोवैज्ञानिक टाइप के लगे है :)
तभी तो मैं अक्सर कहती हूँ कि बेईमानी इंसान के अन्दर है फिर चाहे वह कनाडा में रहे या भारत में। आपने दोनों ही उदाहरण कनाडा के दिए अर्थात चोरी करने वाली महिला भी वहीं है और आपका सामान वापस करने वाले भी। ऐसा ही भारत में है, लेकिन भारत में हम केवल बेईमान लोगों की ही चर्चा करते हैं।
ReplyDelete@ अदा जी,यहाँ भी ऐसे लोग हैं, जो मदद करते हैं- बिना किसी फ़ायदे के ...
ReplyDeleteajit gupta जी की बात से सहमत हूँ...
मेरे साथ भी इस तरह की घटना मुंबई में हुई थी जब बेटी के लिए कपडे लेने एक ब्रांडेड स्टोर में गई और शायद पैक करते समय कपडे का जैकट छुट गया | पर मै एक दिन बाद वहा गई तो उसने कह दिया की आप जा कर बच्चे के साईज का जैकट ले ले जबकि हमारे पास कोई सबूत नहीं था की हम जैकट नहीं ले गये थे | इसी तरह एक बार सुपर मार्केट में काउंटर पर पेमेंट करने के बाद समान भूल कर चली आई थी दुसरे दिन मेरे जाते ही उसने पहचान लिया और बिना मेरे कहे ही समान दे दिया जबकि वो चाहती तो उसे बड़े आराम से अपने घर ले जा सकती थी क्योकि मैंने उसका पेमेंट कर दिया था | मेरे कई जानने वाले मुंबई और दिल्ली दोनों जगह बिजनेस करते है और बताते है की मुंबई में बिजनेस के मामले में काफी ईमानदारी है आप लोगों पर विश्वास कर सकतेहै जबकि दिल्ली में ये काफी कम है या सीधे कहे तो वहा पर लोग सीधे सीधे आप के साथ बईमानी करते है जबकि हमें आगे भी उनसे बिजनेस करना है | मुझे लगता है कि हर तरह के लोग हर जगह मिलते है फर्क इससे पड़ता है की हमारा पाला किन से पड़ता है |
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ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें
शर्मनाक ....
ReplyDeleteआपको उसी समय रिपोर्ट करनी चाहिए थी !
बिलकुल सही कहा आपने....यही बात तो कचोटती है...
ReplyDeleteये विश्वास ही तो है जो एक पत्थर भगवान की तरह पूजा जाने लगता है...
ReplyDeleteभारतीय क्रिकेट टीम में एक ओपनर हुआ करते थे सुधीर नाइक...क्रिकेट में तो कोई तीर नहीं मारा...लेकिन एक बार इंगलैंड के दौरे पर गए तो एक डिपार्टमेंटल स्टोर से मौजे चुराने का आरोप लग गया...हमेशा के लिए उनका नाम मौजाचोर हो गया...
जय हिंद...