Saturday, September 25, 2010

ऐसे हैं मेरे बाबा...!!


बात उन दिनों की है जब मेरी उम्र शायद १४-१५ साल की होगी, मेरे पिता जी को हमलोगों को घुमाने का बहुत शौक़ था, हर छुट्टी में कहीं न कहीं हमारा परिवार घूमने जाया करता था....उनदिनों भी गर्मियों की छुट्टियां थी...राँची के पास ही डाल्टेनगंज से १० किलोमीटर पहले बेतला में 'बेतला नेशनल पार्क' है, जहाँ वन्य प्राणियों की भरमार थी तब, जैसे, हाथी, बाघ, भालू, बईसान, कई प्रकार के हरिण, और भी तरह-तरह के जानवर.. पिताजी की बड़ी इच्छा थी कि हमलोग जू में जानवर देखने की जगह , प्राकृत रूप से रहते हुए जानवर देखें...

फिर क्या था गर्मी की छुट्टियां आईं और हम सभी तैयार होकर, सफ़ेद अम्बेसेडर गाड़ी में चल पड़े, जंगली जानवर देखने...हमलोग मुँह अँधेरे ही निकल गए थे वहाँ के लिए, और पहली बेला में ही पहुँच गए..

मेरे एक फूफाजी बेतला नेशनल पार्क के रेंजर थे...कोई दिक्कत नहीं हुई...उनको पहले ही पता था कि हमारा परिवार आ रहा है, मुझे याद है हमलोगों को गेस्ट हाउस में ठहराया गया, फूफा जी का भी क्वाटर वहीँ था, दिन का खाना तैयार था, खाना गेस्ट हाउस के खानसामा ने बनाया था, खाने में हिरण का मीट  दिया गया था, मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं आया था, मैं तो खा ही नहीं पाई...पहला कारण,  गेस्ट हाउस के पीछे ही जाने कितने सुन्दर-सुन्दर हिरण घूम रहे थे, दौड़ो और छू लो उनको, उनकी सुन्दरता देखते बन रही थी...इतने सुन्दर प्राणी को खाना !..मेरे बालमन को नहीं भाया था...दूसरी बात उसका मीट ही अजीब था...लगता था जैसे रबड़ खा रहे हैं....

ख़ैर, खाना खा कर हम लगभग २ बजे खुली जीप में निकल गए वन्य प्राणी देखने ...लेकिन वो समय तो जानवारों के लिए भी खा-पीकर आराम करने का होता है...इसलिए वन्य प्राणी नज़र तो आए लेकिन कुछ कम नज़र आए...

हमलोग घूम कर वापिस आ गए ...फूफा जी ने बताया कि रात में जाना और अच्छा होगा, जानवार  रात में ज्यादा निकलते हैं, हमलोग रात में चलेंगे....वैसे ११ बजे के बाद जंगल में जाने की इजाज़त नहीं है लेकिन हमारे साथ तो जंगल के मालिक ही थे....सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का...

तो जी हम सभी लगभग ११ बजे तैयार होकर, पीछे से खुली जीप में चल पड़े...जीप के पिछले हिस्से में हम सभी खड़े थे, मैं मेरे तीनों भाई, माँ और एक अर्दली..क्योंकि वहाँ से देखने में आसानी होती...गर्मी के दिन, ऊपर खुला आसमान, और आगे घना जंगल...बड़ा ही रोमांचकारी था सबकुछ, बीच-बीच में किसी जानवर की बोली या फिर झींगुर की आवाज़... 

सामने की सीट पर, ड्राइवर, बीच में फूफा जी और किनारे खिड़की के पास पिता जी यानी मेरे बाबा बैठे थे...पीछे खुली जीप में,  सबसे किनारे मैं खड़ी थी...गाड़ी जगह-जगह रूकती अँधेरे में पशुओं की चमकती आँखें नज़र आती, गाड़ी का इंजिन बंद कर दिया जाता, कुछ दूर तक गाड़ी लुढ़कती, और सर्चलाईट की रौशनी से हमें जानवर दिखाया जाता, हमलोग साँस रोके देखते....बाघ, चीतल, साम्भर, बड़े बड़े सींघ वाला बाईसन और न जाने क्या-क्या....यही होता जा रहा था...जानवरों की आँखें चमकती, गाड़ी रूकती, ड्राइवर इंजिन बंद कर देता,  सर्चलाईट का निशाना पशुओं पर पड़ता और हम देखते....

थोड़ी देर बाद बहुत जोर से रटरटरट... रटरटरट.... रटरटरट की आवाज़ आने लगी, जैसे कोई कुछ तोड़ रहा हो...देखा तो बड़े-बड़े जंगली हाथियों का झुण्ड था....जो बांस के पेड़ों को तोड़ता हुआ ,आ रहा था, गाड़ी रुकी, इंजिन बंद हुआ, सर्चलाईट का प्रकाश उनपर पड़ा तो उनका भी ध्यान हमारी तरफ हुआ....वो कुछ दूरी पर थे...लेकिन ऐसे विशाल जानवर, वो भी झुण्ड में ...हमने पहली बार देखा था....गाड़ी रुकी हुई थी...जब हमने देख लिया और चलना चाहा तो, गाड़ी ने स्टार्ट होने से ही मना कर दिया, ड्राइवर गाड़ी स्टार्ट करता, इंजिन घों घों करता और रुक जाता, जंगली हाथियों का झुण्ड अब भी हमारी तरफ बढ़ता चला आ रहा था... इंजिन फिर स्टार्ट किया गया..वो स्टार्ट नहीं हुआ...ड्राइवर पसीने से तर-बतर हो रहा था...फूफा जी के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं थी...जाने क्या बात थी, सर्चलाईट या इंजिन की आवाज़ ..जंगली हाथी नाराज़ लग रहे थे...अब वो हमारी तरफ दौड़ने लगे थे, बाँस के झुरमुट अब ज्यादा आवाज़ से टूटने लगे थे....तड़-तड़ाक की तेज़ आवाजें आने लगीं थी, और  बड़े-बड़े काले साए गुस्से में चिंघाड़ने लगे थे, ड्राइवर जुम्मन अब भी गाड़ी स्टार्ट कर रहा था...वो पूरा हिला हुआ था, वो बार-बार कभी हाथियों को देखता कभी गाड़ी को कोसता...फूफाजी की हालत बहुत खराब हो रही थी....और हमलोग सभी अपनी जगह पर ख़ामोश खड़े थे...इतने में बाबा ने अपनी साइड का दरवाज़ा खोला...फूफा जी कहने लगे अरे आप क्या कर रहे हैं...मत जाइए...लेकिन वो उतर गए ..वो चलते हुए पीछे आए..पीछे आकर जीप पर ऊपर चढ़ गए, मुझे पीछे कर दिया और सामने खड़े हो गए...बिल्कुल ऐसे खड़े हो गए, जैसे कह रहे हों...मेरे बच्चों से पहले मुझसे होकर तुम्हें गुजरना होगा 'गणेश जी', वो बिल्कुल शांत थे...उनके चेहरे पर ज़रा भी उद्विग्नता नहीं थी...न ही वो परेशान थे, एक भी शब्द उन्होंने नहीं कहा था, बस हम सबको पीछे करके सामने, जीप की रेलिंग पकड़ कर खड़े हो गए...

हाथियों का झुण्ड अब भी दौड़ता चला आ रहा था....मौत बिल्कुल सामने थी बस कुछ ही मीटर की दूरी पर,  ड्राइवर और फूफा जी गाड़ी स्टार्ट करने में लगे हुए थे, हमारे और मौत के बीच का फासला बस १०-११ मीटर का रह गया था, कि अचानक गाड़ी स्टार्ट हो गई...हमें तो जैसे भगवान् ने अपने हाथों में ले लिया हो ऐसा लगा, ड्राइवर ने तो और कुछ देखा ही नहीं बस गाड़ी दौडानी शुरू कर दी...हमें तो ऐसा  लग रहा था जैसे, किसी मरने वाले से कहा गया हो, अगर बचना है तो जितनी दूर ,जितनी जल्दी भाग सकते हो भागो, और वो बस भागना शुरू कर देता है,  शायद  जुम्मन ने ज़िन्दगी में कभी भी इतनी तेज़ गाड़ी न चलाई होगी, जितनी तेज़ उसने उस दिन चलाई थी.....मगर हाथियों का झुण्ड अब भी हमारी जीप के पीछे भाग रहा था...और ड्राइवर की स्पीड बढ़ती ही जा रही थी..फूफा जी चीखते जाते, जुम्मन स्पीड बढाओ....वो मुड़-मुड़ कर हाथियों से जीप की दूरी का मुआयना करते जाते ...और मेरे बाबा चट्टान की तरह जीप की रेलिंग पकड़े ..शांत भाव से हाथियों की आँखों में आँखें डाले उनकी तरफ देखते रहे...हम सभी जीप की रफ़्तार से अपने शरीर का ताल बनाये रखने की कोशिश में जुटे रहे... अब हाथियों के झुण्ड और जीप के बीच की दूरी बढ़ती जा रही थी...हाथी अब भी पीछे थे...

कुछ दूर जाने के बाद उनके झुण्ड को वापिस मुड़ते देखा था मैंने ...जीप ने भी गेस्ट हाउस आकर ही दम लिया था...फूफा जी बार-बार भगवान् का शुक्र अदा कर रहे थे, हम सब एक दूसरे को बस देख रहे थे, माँ ने हम सब को समेट लिया था..उस दिन लगा कि मारने वाले से बचाने वाले के हाथ ज्यादा लम्बे  होते हैं...मैं बस अपने बाबा को देख रही थी, मेरे लिए तो मेरे भगवान् मेरे बाबा ही थे, हैं और रहेंगे...मैं अपने बाबा से लिपट गई थी...वो मंजर मैं कभी नहीं भूलती, आज भी जब वो साथ होते हैं..तो मुसीबतें, पास आने की हिम्मत नहीं करतीं हैं...क्योंकि हम सबके जीवन की इस ढाल से टकराने की हिम्मत किसी मुसीबत में नहीं है...ऐसे हैं मेरे बाबा...!! 

18 comments:

  1. ईश्वर की कृपा...संस्मरण पढ़ना अच्छा रहा.

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  2. रोंगटे खड़े हो गए.. बहुत रोमांचक वर्णन किया आपने.. वास्तव में आपको गर्व होना चाहिए उनपर. ये लाइंस भी याद आ रही हैं - 'जब जानवर कोई इंसान को मारे, कहते हैं दुनिया में वहशी उसे सारे....'

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  3. गेस्ट हाउस के पीछे ही जाने कितने सुन्दर-सुन्दर हिरण घूम रहे थे, दौड़ो और छू लो उनको, उनकी सुन्दरता देखते बन रही थी...इतने सुन्दर प्राणी को खाना !..मेरे बालमन को नहीं भाया था...

    किसी निरीह को कटते हुए देखता हूँ तो मुझे बहुत ग्लानि होती है ... आपकी संवेदना समझ सकता हूँ
    बड़ी रोचक दास्तान पढ़ने को मिली ... बाबा से तो अपने बच्चों के लिए यही अपेक्षित था ...
    सुंदर अंदाज़े बयाँ और रोचक वाकया .......

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  4. पिता ऐसे ही होते हैं ...
    कहाँ कहाँ ले गयी आप यादों के गलियारों में ...
    रोमांचक संस्मरण ...!

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  5. दिल दहलानें वाला संस्मरण !

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  6. बहुत ही रोमांचकारी। तभी तो पिता संरक्षक होते हैं, उन्‍हीं के भरोसे पर परिवार चला कर‍ते हैं। आपके पिताजी को हमारा प्रणाम। बहादुर पिता की बहादुर बेटी को भी नमन।

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  7. अपनों के लिए जोखिम उठाना तो बनता है, आखिर उनके बिना रह भी तो नहीं सकते है.. एक जान तो वो भी होतें है हमारी ...
    लिखते रहिये ...

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  8. बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
    साहित्यकार-बाबा नागार्जुन, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

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  9. रोमांचकारी संस्मरण है
    "पिता" इस शब्द में कितनी सुरक्षा छिपी हुई है ना

    प्रणाम स्वीकार करें

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  10. दीदी,
    ये पढ़ते हुए मुझे "द लोस्ट वर्ल्ड" की याद आ गयी
    मानवीय साहस सचमुच अद्भुद होता है , इसे कोई वैज्ञानिक यंत्र नाप तोल नहीं सकता
    और जब इश्वर के प्रति विश्वास इसमें मिल जाये तो तो कहना ही क्या , इस साहस को मेरा नमन
    "अपने तो अपने होते हैं" गाना भी याद आया था
    बेहद रोमांचकारी यात्रा करवाने हेतु आभार
    ये ट्रेलर भी देखा जाये
    http://www.youtube.com/watch?v=yQAlekjcw98
    आभार

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  11. bahoot khoob...thora darwana...leking romanchak..

    pranam

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  12. "jako rakhe saiyan, maar sake na koi"
    aapke blog ko bhi to padhna tha...........:D

    lekin yaadgaar sansmaran........ekdum sajeev chitran!!

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  13. एक सच्चे पिता को ऐसा ही होना चाहिए. आपके पिता सच में बहादुर हैं.

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  14. आपने व आपके परिवार ने उस रात हाथियों के झुंड के रूप में साक्षात मौत से ही साक्षात्कार किया। सिर्फ़ १०-१२ मीटर के फ़ासले पर गरजते चिंघाड़ते गजराज, उस एक पल में जीप स्टार्ट न होती तो?
    आपके पापा ने उस समय वही किया जो एक पिता, पति और मजबूत व्यस्क से अपेक्षित था। मुसीबत के समय धैर्य बनाये रखकर ही विपत्ति से भली प्रकार निपटा जा सकता है। हम सब की तरफ़ से भी आपके बाबा को धन्यवाद। उन्होंने पिता होने का फ़र्ज बखूबी निभाया है। ऐसी बातों के कारण ही तो प्राय: पिता हर बच्चे का रोल माडल होते हैं। बड़ी से बड़ी मुसीबत के समय बच्चे को यह विश्वास होता है कि पिता ने उसका हाथ थाम रखा है।
    अपने पाठकों के साथ अपने बचपन की याद सांझी की, आभार स्वीकार करें।

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  15. इसे ही तो कहते हैं अड्वेन्चर :)

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  16. संस्मरण जीवन में आत्मीयता का एक और पक्ष लेकर उपस्थित हुआ।

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  17. ओह ओह ! क्या याद दिला दिया .... exactly येही हमारे साथ कान्हा, छत्तीसगढ़ में हुआ था .... फर्क बस ये था की सामने बाघ था .... झुण्ड नहीं .. एक ही था लेकिन वही काफ़ी था हम सभी दोस्तों के लिए तो.. हमारे भी ड्राईवर की ठीक वोही हालत हो गयी थी ... आज से शायद २० साल पहले की बात है ... लेकिन ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी.

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  18. रोमांचक संस्मरण.

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