Saturday, July 31, 2010

ओ मेरे दिल के चैन .....

शुक्र है !
मेरे घर की दीवारें
विश्वास के फौलाद से बनीं हैं,
वर्ना ये कल के बच्चे
बतकही के पत्थर फेंकने से बाज़ नहीं आते
कितने मासूम हैं ये !
इतना भी नहीं समझते !
मेरा घर शीशे का नहीं है
जो टूट जाएगा....!!

Friday, July 30, 2010

मुझे मेरी नींदें मेरा चैन दे दो....


ये तब की बात है जब हम दिल्ली में रहा करते थे ...sidhhartha extesion , pocket -c , आस-पड़ोस बहुत अच्छा, सबसे मिलना जुलना होता ही रहता था...अब भी कहते हैं लोग, तुम जब थी तो बात ही कुछ और थी...और हम ख़ुश हो जाते हैं , सोच कर कि  हमरा भी असर था, लोगों पर ...

ground floor में, रहते थे पाण्डे जी (असली नाम नहीं है ) चन्द्रशेखर जी, जो तात्कालिक प्रधान मंत्री थे ( उनके पी.ए. थे और आई .ए .एस भी ) और हम रहते थे टॉप फ्लोर में....हम नए-नए दिल्ली आए थे... हम भी बड़े ख़ुश होते थे, सोच कर कि हमारे पडोसी प्रधान मंत्री के पी.ए. हैं ...मुझे छोटी बहन कहते थे वो....उनकी पत्नी बस यूँ समझिये कि गऊ थीं....इतनी सीधी कि बस पूछिए मत....

अब जो मैं कहने जा रही हूँ उसे आप मज़ाक मत समझिएगा ..ये बिल्कुल सच है...
पिछले कई दिनों से देखते थे ... पाण्डे जी की गाड़ी खड़ी ही रहती थी और...श्रीमती पाण्डे गेट पर...हम ऑफिस जाते वक्त, उनको खड़ी पाकर नमस्ते करते और चले जाते... जब लगातार ३ दिन, उनको सुबह ऐसे ही गेट पर खड़ी पाया, तो हमने तीसरे दिन पूछ ही लिया...क्या बात है भाभी...भईया नहीं हैं क्या घर पर...उनकी गाड़ी भी यहीं खड़ी रहती है...कहने लगीं...अरे का बताएं...उन्खा तो भायेरलेस हो गया है..येही वास्ते एकली खड़ी रहती है....अब बारी हमरी थी हठात खड़े होने कि....हम बात बिल्कुल समझ नहीं पाए...हम फिर पूछे  क्या हुआ है उनको ?
कहने लगीं...भायेरलेस हो गया है ...चार दिन से बिछौना में पड़े हैं....देहिया तोड़ देता है ई ससुरा भायेरलेस.....बोखारवा है कि उतरता ही नहीं है...अब हमरी बारी थी आसमान से गिर कर देहिया तोडाने की...हम एकदम से ऐसे चीख पड़े जैसे कारू का खज़ाना मिल गया हो...अच्छा अच्छा...वायरल हो गया है....इस ज्ञान की प्राप्ति का सुख जो हमको ऊ दिन मिला था ..ऊ वर्णनातीत है....भाभीजी के कहने और हमरे समझने के बीच का जो समय था ...हमरी मनोदशा क्या हुई थी उसको बयान करना बहुते टेढ़ी खीर है ...जब तक उनकी बात नहीं समझे थे...जल बिन मछरी नृत्य बिन बिजली बने हुए थे ....जैसे ही समझे ...अहहहा ...लगा जैसे 'समीर....ठंडी हवा का झोंका''.....ऊ बैचैनी को इज़हार चचा ग़ालिब भी का कर पाते....अब न हम समझे हैं आर्कमिडीज काहे 'ऐसे ही' दौड़ गया था....सड़क पर...यूरेका-यूरेका कहता हुआ ....

हाँ नहीं तो...!!!

और अब एक ठो गीत है.... हम कहते हैं आप कैसे पसंद नहीं कीजियेगा हम भी देखते हैं....

     Get this widget |     Track details  |         eSnips Social DNA   

Thursday, July 29, 2010

यहाँ मैं अजनबी हूँ.....

अँधेरे में मेरी खुशियाँ 
दोहरी हुई बैठी थीं,
चिर अविदित सी,
जाने कहाँ से 
तुम चले आए,
प्रज्ञं, ज्ञानी, धीमान की तरह, 
यति बन कर 
अनुसन्धान करते रहे तुम,
मेरा स्वर्ग
मेरे हाथों में देकर
तुमने त्याग-पत्र दे दिया है, 
मैंने भी तब से ख़ुश रहने का
व्रत ले लिया है.....!!


और अब, एक गीत..मेरी पसंद का....
यहाँ मैं अजनबी हूँ.....

Wednesday, July 28, 2010

ब्राह्मण में भी कौन ब्राह्मण ...?


ब्रह्म जानाति ब्राह्मण: -- ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म अर्थात ईश्वर या परम सत्य  को जानता है,  अतः ब्राह्मण का अर्थ है - "ईश्वर को जानने वाला " और जो वेद-पुराणों तथा अन्य महान पुस्तकों का ज्ञाता, पूजा-पाठ, विधि-विधान, मंत्रोचारण, यज्ञं, तथा अन्य संस्कारों जैसे विवाह, यज्ञोपवित इत्यादि ,को करने में दक्ष हो उसे 'पंडित' कहते हैं...इसलिए 'ब्राह्मण' और 'पंडित' में काफी फर्क है...जो 'ब्राह्मण' है कोई ज़रूरी नहीं वो 'पंडित' भी है...
मैं स्वयं ब्राह्मण हूँ लेकिन मैं 'पंडित' नहीं हूँ....
कई प्रश्न मेरे हृदय में उमड़ते रहते हैं...और सबसे बड़ा प्रश्न जो मुझे सालता है वह है 'गोत्र' का...
हम ब्राह्मणों के अपने गोत्र भी होते हैं...जैसे मेरा गोत्र है 'कश्यप'.....और भी कई गोत्र हैं, विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप, अगस्त  इत्यादि.....और इन गोत्रों में भी कोई गोत्र सर्वश्रेष्ठ होता है और कोई उससे कम ....

जहाँ तक मुझे पता है ये गोत्र ऋषियों के 'गुरुकुल' से आए हैं...इन गुरुकुलों ने एक तरह से अपनी वंशावली की स्थापना की, अर्थात जिस ऋषि के गुरुकुल में जिन-जिन ब्रह्मण विद्यार्थियों ने शिक्षा प्राप्त की थी ..उन विद्यार्थियों को उन ऋषि राज का नाम धारण करना पड़ता था .... जैसे कश्यप ऋषि के गुरुकुल में पढ़ने वाले समस्त विद्यार्थी को 'कश्यप' नाम धारण करना पड़ा जिसे 'गोत्र' कहा गया ....इसे आप एक तरह से alumni वाली बात कह सकते हैं.... उदाहरणार्थ,  St . Xavier's कॉलेज से पढ़ कर निकलने वालों को 'जेवेरियन' कहा जाता है ...:)

मेरी समस्या यहीं पर आती है... उस ज़माने में भी कुछ 'गुरुकुल' ज्यादा विख्यात या ज्यादा पोपुलर रहे होंगे...और ख़ुद को बड़ा मानते होंगे....और यह कारण भी होगा कि उस गुरुकुल से  से पढ़ कर निकलने वाले विद्यार्थियों को दूसरे विद्यार्थियों  से श्रेष्ठ माना जाता होगा...तो वह 'गोत्र' भी श्रेष्ठ माना जाने लगा जैसे आज के सन्दर्भ में कह सकती हूँ....Harvard University और वहाँ  पढ़ने वाले विद्यार्थियों की अपनी ही बात है .....भारत की बात करते हैं,  IIT Delhi और IIT Khadakpur के दो विद्यार्थी पास होकर बाहर आते हैं... हो सकता है IIT Delhi से पढ़कर निकलने वाले स्टुडेंट को ज्यादा बेहतर माना जाता है....क्यूंकि IIT Delhi ज्यादा पोपुलर है ....यहाँ तक तो बात ठीक भी मानी जायेगी....लेकिन यह बात गले नहीं उतरती कि पिता IIT graduate है तो उसके बच्चों को भी वही दर्ज़ा मिले...और उससे बच्चो के बच्चों को भी मिलता ही जाए....यह बात उचित नहीं है...  और उससे भी बड़ी बात यह है कि...जिस  बात में 'रक्त' का कोई लेना-देना नहीं है...फिर भी इसे 'रक्त' से जोड़ दिया जाता है ....जो सर्वथा अनुचित है...

हाँ, एक ही गोत्र में विवाह नहीं होने का कारण आध्यात्मिक कहा जा सकता है...या फिर एक अच्छी सोच कही जा सकती है....लेकिन इसमें रक्त सम्बन्ध वाली कोई बात नहीं है...एक ही गुरुकुल में पढ़ने वाले सभी विद्यार्थी आपस  में 'गुरुभाई' माने जाते थे...इस कारण उनके परिवारों में भी यही सम्बन्ध माना जाता था...और यही कारण था कि उनमें आपस में विवाह वर्जित था....

अब से कुछ समय पहले तक भी ..एक ही मोहल्ले या एक ही गाँव के लड़के-लड़की की शादी से लोग कतराते थे...यहाँ तक कि जिस गाँव में एक गाँव की लड़की व्याही जाती थी ...उसी गाँव से लड़की अपने गाँव में लाना भी लोग स्वीकार नहीं करते थे लोग ....ख़ैर यह तो कुछ पहले की बात है...

मैं आज की बात करती हूँ...'ब्राह्मण' तो कई देखती हूँ ..लेकिन ब्रह्म को जानने वाला एक भी नहीं....उस ब्राह्मण की आज भी खोज है मुझे,  जो अपने 'ब्राह्मण' नाम को चरितार्थ करते हुए 'ब्रह्म' को जान पाया हो ...सच पूछा जाय तो कभी-कभी यह भी लगता है कि क्या सचमुच इस नाम का आज के सन्दर्भ में कोई अवचित्य रह गया है ? 'पंडित' बनना फिर भी आसन है 'ब्राह्मण' बनना बहुत कठिन... 
हाँ नहीं तो...!!!

Tuesday, July 27, 2010

आओ न आँधियों कहीं और उड़ा लो मुझे ...


निगाहों में रख लो या दिल में बसा लो मुझे
हाथों की लकीरों में लिल्लाह सजा लो मुझे

मैं डूबती जाती हूँ इक कुंद सी आवाज़ हूँ 
थामो तो मेरा हाथ बाहर तो निकालो मुझे 

वो धूल का ज़र्रा हूँ मैं बस यूँ ही पड़ी हुई हूँ
आओ न आँधियों कहीं और उड़ा लो मुझे  

सबने यही कहा, अगर दो शेर और जोड़ सकूँ तो कोई बात बने.....
तो ये रहे तीन अशआर...उम्मीद है पसंद आयेंगे....

बैठे हो लेके हाथों में तुम आज मेरा चेहरा
तेरी ही ज़िन्दगी हूँ किसी शक्ल में ढालो मुझे

मुझे क्या गरज है अब जो होना है हो जाए 
बहका दिया है तुमने, अब तुम्हीं सम्हालो मुझे

हमने कब पिया है, और कैसे हम बहक गए ?
अब सुराही थाम ली, पैमानों से न टालो मुझे    




Monday, July 26, 2010

इस्लाम में चार शादियाँ.....


इस्लाम में चार शादियाँ.....क्या यह सचमुच धर्म के लिए ज़रूरी था या यह पुरुष वर्ग का अपने पुरुषार्थ सिद्ध करने का तरीका था या फिर यह एक सामजिक विवशता थी ...
यह एक ऐसी बात है जो अकसर हमें सोचने को बाध्य करती है ..आख़िर ऐसा क्यूँ है ?  यूँ तो इसपर हम चाहे कितनी भी बातें कर लें...लेकिन एक बात तय है, जिन बातों को धार्मिक चोला पहना दिया जाता है ...उसपर बहस की गुंजाइश कम होती है...
आइये ज़रा इस बात पर गौर करें कि आख़िर वो कौन से हालात थे, जिन्होंने पूरे समाज पर इस तरह के धार्मिक कानून लाद दिए...
अगर आप साउदी अरेबिया जैसे देश की भौगोलिक स्थिति पर गौर करेंगे तो पायेंगे कि पूरा देश ही रेगिस्तान है...जिस ज़माने की बात हम कर रहे हैं..उस परिवेश में अगर हम अपने अक्ल के घोड़े दौडाएं तो पायेंगे कि समस्याएं अनेक थीं...
जैसे :

  • लोग क़बीले बना कर रहते थे ...

  • यातायात की सुविधा नहीं के बराबर थी...एक स्थान से दूसरे स्थान तक की यात्रा दुरूह थी...इसलिए शादी विवाह के लिये इधर-उधर जाना संभव ही नहीं था...नतीजा क़बीले के अन्दर ही आपस में विवाह.....

  • क़बीले की स्त्री को जहाँ तक हो सके क़बीले में रखना क़बीले  की प्रतिष्ठा की बात थी..और इसके लिए हर क़ीमत कम होती थी...


  • क़बीले क़बीलों में आपसी प्रतिस्पर्धा हमेशा होती रहती थी...परिणाम स्वरुप ...लड़ाईयां, मुटभेड़....ज़ाहिर सी बात है खून-ख़राबा होना ही था..और इस तरह की मुटभेड़ों में अधिकतर पुरुष वर्ग ही हताहत होता था, फलस्वरूप, पुरुषों की मृत्यु दर अधिक थी...


जैसा कि कोई भी अनुमान लगा सकता है इस तरह के हादसों का परिणाम कालांतर में दिखाई देने लगा ...और वह था ..समाज में पुरुषों की संख्या में कमी...
ऊपर लिखित कारण काफ़ी हद तक इस तरह की धार्मिक व्यवस्था को लागू करने के कारण बने ...
क्योंकि समाज में स्त्रियों की संख्या पुरुषों की अपेक्षा अधिक थी ...जिनमें कुछ लड़ाइयों में मारे गए मृतकों की विधवाएं, अनाथ युवतियां भी शामिल थी...जिनके सम्मान और सुरक्षा का मुद्दा भी सामने आया और तब, इस तरह की समस्याओं के निदान के रूप में,  बहू-पत्नी प्रथा का प्रचलन हुआ...इस प्रथा का मुख्य उद्देश्य था..निराश्रित महिलाओं को आश्रय देना, जिसके लिए कुछ नियम कानून भी बनाये गए .. अगर पुरुष सक्षम है और उसकी पहली पत्नी इस बात की आज्ञा देती है तो वह दूसरा विवाह कर सकता है, वह किसी निराश्रिता को सहारा दे सकता है,  ...तब इसे पुण्य का काम माना जाएगा ..इसे धर्म के साथ जोड़ देने से व्यक्ति विशेष को ग्लानी या दोषी महसूस करने से बच जाने का रास्ता मिल गया ...

इस तरह  यह प्रथा प्रचलित होती गई....यह प्रथा शायद उस समय और उस  सन्दर्भ में सही रही होगी, लेकिन क्या आज के सन्दर्भ में ये बात सही लगती है....? आज इस प्रथा का दुरूपयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है...अक्सर सुनने में आता है कि किसी शेख़ ने हिन्दुस्तान में आकर किसी नाबालिग़ से विवाह किया...जबकि उसके हरम में अलबत्ता ५१ बीवियां मौजूद हैं...
यही नहीं, कई ऐसे भी उदाहरण मिलेंगे, जिसमें व्यक्ति विशेष  ख़ुद अपना खर्चा चलाने की औक़ात नहीं रखता ...लेकिन उसके घर में चार बीवियां हैं...और वो बीवियां काम करके उसका और उसके बच्चों का भी पेट भरती हैं...(ये मेरी आँखों देखी बात है), एक कमरे के एक छोटे से घर में...चार बीवियां और ८ बच्चे,  ख़ास करके भारत जैसे देश में जहाँ आबादी अपने चरम सीमा को भी पार कर चुकी है...यह दृश्य बड़ा अटपटा लगता है...जब एक विवाह और उससे उत्पन्न बच्चों की जिम्मेवारी ही इन्सान सही तरीके से नहीं निभा पता है ...इस तरह की प्रथा कहाँ तक उचित है...यह न सिर्फ़ अपनी पत्नियों के साथ धोखा है, अपितु उन बच्चों के साथ भी सरासर अन्याय है...

उनदिनों  की बात जुदा  थी क्यूँकि औरतें स्वावलंबी नहीं थीं...पढ़ी लिखी नहीं थी....आर्थिक रूप से अपना भरण-पोषण नहीं कर सकतीं थीं ...लेकिन अब तो बात बिल्कुल अलग है...मुस्लिम औरतों ने दुनिया के हर क्षेत्र में अपने हाथ आजमायें हैं ...और बहुत सफल हुई हैं, हमने उन्हें डाक्टर, इंजिनियर, यहाँ तक कि पाइलट तक बनते देखा है ....क्या अब भी उनको सेकंड क्लास  जीवन जीना चाहिए....?

स्त्री चाहे किसी भी रंग, जाति, धर्म, समुदाय की क्यों न हो उसे अपने जीवन को ख़ुशी-ख़ुशी बिना किसी बोझ के जीने का पूरा अधिकार है ...सौतन का बोझ किसी स्त्री को किसी भी हाल में बर्दाश्त नहीं हो सकता...फिर चाहे उसने धर्म के हिसाब से कितनी भी बड़ी आज्ञा क्यों न दे दी हो....

हाँ नहीं तो ..!!


Sunday, July 25, 2010

तिमिर में लिप्त भविष्य की चाह कोई नहीं करता ...!!


ब्लॉग जगत में हिंदी और देवनागरी लिपि अपने कंप्यूटर पर साक्षात् देखकर जो ख़ुशी होती है, जो सुख मिलता है, जो गौरव प्राप्त होता है यह बताना असंभव है, अंतरजाल ने हिंदी की गरिमा में चार चाँद लगाये हैं, लोग लिख रहे हैं और दिल खोल कर लिख रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है मानो भावाभिव्यक्ति का बाँध टूट गया है और यह सुधा, मार्ग ढूंढ-ढूंढ कर वर्षों की हमारी साहित्य तृष्णा को आकंठ तक सराबोर कर रही है, इसमें कोई शक नहीं कि यह सब कुछ बहुत जल्दी हो रहा है, और क्यों न हो जब अवसर अब मिला है | 

इन सबके होते हुए भी यह प्रश्न यक्ष प्रश्न है ...क्या हिंदी का भविष्य उज्जवल है ?  विशेष कर , आनेवाली पीढी हिंदी को सुरक्षित रखने में कितना और क्या योगदान करेगी ? वैसे तो इस प्रश्न का उत्तर सीधे-सीधे देना ही कठिन है ...और यह कठिन जिम्मेवारी भी हमारी पीढी के कन्धों को वहाँ करना है | पश्चिम का ग्लैमर इतना सर चढ़ कर बोल रहा है कि सभी उसी धुन में नाच रहे हैं, आज से ५०-१०० वर्षों के बाद, मुझे ऐसा लगता है 'संस्कृति' सिर्फ किताबों (digital format) में ही मिलेगी | 

जिस तरह गंगा के ह्रास में हमारी पीढी और हमसे पहले की पीढियों ने जम कर योगदान किया उसी तरह भारतीय संस्कृति को गतालखाता, में सबसे ज्यादा हमारी पीढी ने धकेला है | हमारे बच्चे तो फिर भी हिंदी फिल्में देख-देख कर कुछ सीख ले रहे हैं लेकिन उनके बच्चे क्या करेंगे?
ऐसा प्रतीत होता है, जैसे एक समय ऐसा भी आने वाला है जब सिर्फ एक भाषा और एक संस्कृति रह जायेगी, जिसमें 'संस्कृति' नाम की कोई चीज़ होगी ही नहीं |

यह बहुत अच्छी बात है कि, इस समय लोग हिंदी या देवनागरी में लिख पा रहे हैं, वर्ना हम जैसे, जो विज्ञान के छात्र थे, कहाँ मिला हमें अवसर हिंदी लिखने का, एक पेपर पढ़ा था हमने हिंदी का MIL(माडर्न इंडियन लैंग्वेज), न तो B.Sc में हिंदी थी, न M.Sc. में | सही मायने में तो , हिंदी लिखने का मौका हमें अब मिला है, युवा वर्ग को भी हिंदी में लिखते देखती हूँ तो बहुत ख़ुशी होती है, लगता है कि भावी कर्णधारों ने अपने कंधे आगे किये हैं...हिंदी को सहारा देने के लिए, जो बच्चे विदेशों में हैं उनसे हिंदी की प्रगति में योगदान की अपेक्षा करना ठीक नहीं होगा

आज के सन्दर्भ में...हिंदी की सबसे बड़ी समस्या है उसकी उपयोगिता, आज हिंदी का उपयोग कहाँ हो रहा है ? उत्तर, शायद 'बॉलीवुड' के अलावा और कहीं नहीं, 'बॉलीवुड' ने भी अब हाथ खड़े करने शुरू कर दिए है, संगीत, स्थिति, सभी कुछ पाश्चात्य सभ्यता को आत्मसात करता हुआ दिखाई देता है, अब सोचने वाली बात यह है कि 'बॉलीवुड' समाज को उनका चेहरा दिखा रहा है या कि  लोग फिल्में देख कर अपना चेहरा बदल रहे हैं, वजह चाहे कुछ भी हो सब कुछ बदल रहा है, और बदल रही है हिंदी, सरकारी दफ्तरों में भी सिर्फ अंग्रेजी का ही उपयोग होता है, मल्टी नेशनल्स में तो अंग्रेजी का ही आधिपत्य है, बाकी रही-सही कसर पूरी कर दी इन 'कॉल सेंटर्स' ने, अब जो व्यक्ति दिन या रात के ८ घंटे अंग्रेजी बोलेगा, तो अंग्रेजी और अंग्रेजियत समा ही जायेगी उसके रगों में अन्दर तक, इस लिए हिंदी का भविष्य क्या होगा, यह प्रश्न चिंतित करनेवाला है ....

भारत में मेरे घर जो बर्तन मांजने आती है उसके बच्चे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं, और क्यों न पढ़े ? जब हिंदी पढ़ कर कुछ होना नहीं है..तो लोग हिंदी के प्रति अनुराग क्यों रखेंगे ? तो हिंदी पढने वाला है कौन, और पढ़ कर होगा क्या? इस दिशा में सरकार ही कुछ कर सकती है...क्योंकि हिंदी से प्रेम करने वालों कि संख्या कम नहीं है...बस उन्हें कोई भविष्य नज़र नहीं आता है...इसलिए सरकार के पास ऐसी योजना होनी चाहिए जिससे हिंदी पढने वालों को कुछ प्रोत्साहन मिले, आर्थिक एवं सामाजिक लाभ हो ...तभी बात बनेगी...सिर्फ़ एक दिन 'हिंदी दिवस' मना कर या फिर हफ्ते में एक दिन हिंदी में दफ़्तर में काम करने का बोर्ड लगाने से काम नहीं चलने वाला...हिंदी को , जहाँ भी संभव हो एवं आवश्यकतानुसार, अधिकतर कार्यक्षेत्रों में समुचित आदर और सम्मान मिलना चाहिए...हिंदी को अपनी उपयोगिता साबित करने का अवसर मिलना चाहिए ...अगर ऐसा हुआ तो ज्यादा से ज्यादा लोग हिंदी की ओर अग्रसर होंगे....

सभी को जीवन में उत्थान चाहिए..और इसके लिए उसी पथ का चुनाव किया जाता है जिसमें चल कर संतुष्टि और सुख मिलता हो...हिंदी को अपनाने वालों को अपना भविष्य उज्जवल नज़र आना चाहिए, तिमिर में लिप्त भविष्य की चाह कोई नहीं करता ...!!

आगे भी जाने न तू.....

Get this widget | Track details | eSnips Social DNA

Saturday, July 24, 2010

इस्तेमाल खारों का किया रफ़ू के लिए......आओ हुज़ूर तुमको सितारों में ले चलूँ.....


ग़नीमत है के फिर से बहार आ गई है   
चमन तरस गया था रंग-ओ-बू के लिए

लिए चाक गिरेबाँ कहाँ तक फ़िरते हम 
इस्तेमाल ख़ारों का किया रफ़ू के लिए

क्या शाख़, कली, गुँचे, बूटे, फूल डाल के
हँस दिए गुलिस्ताँ की आबरू के लिए 

चाक=फटा हुआ
ख़ारों= काँटे
रफ़ू=सिलाई की एक किस्म जो फटे हुए कपड़ों पर की जाती है
गुँचे=फूलों का गुच्छा
 

     Get this widget |     Track details  |         eSnips Social DNA   

Friday, July 23, 2010

Inferiority Complex .....Superiority Complex


पिछले हफ्ते ही मेरी सहेली भारत से कनाडा आई, रात उसका फ़ोन आया वेंकुवर से ..मैं हैरान थी कि मुझे बताया तक नहीं कि वो आने वाली हैं....कहने लगी पिछली बार तुम्हें बहुत परेशान किया था इसलिए नहीं बताया....सोचा अब वहाँ पहुंच कर ही फ़ोन करुँगी...उनसे बात करने के बाद पिछली बार का सारा मंजर आँखों के सामने घूमने लगा...

आजसे दो साल पहले जब मैं भारत गई थी तो वापसी में मेरी सहेली ...जिन्हें मैं दीदी कहती हूँ..ने भी कनाडा घूमने की इच्छा जताई ...वैसे उनका बेटा रहता है वेंकुवर में...लेकिन वो मेरे पास ही रहना चाहती थी...मैंने भी कहा इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है...उनको लेकर में ओट्टावा चली आई...लेकिन बेटा कहाँ मानने वाला था, उसने कहा आप तो बस मम्मी को मेरे पास भेज दो...मुझे भी ये उचित ही लगा माँ इतनी दूर आए और बेटे से न मिले, बात जमती नहीं थी....मैंने भी उनको भेज दिया वेंकुवर...दूसरे दिन ही फ़ोन आ गया कि सपना मुझे यहाँ से ले जाओ ,मैं नहीं रहूँगी यहाँ...मैं बहुत अचंभित थी..आख़िर क्या बात है ! बेटे के पास दीदी क्यों नहीं रहना चाहती है...जाहिर है उनका फूट-फूट कर रोना मुझे परेशान कर रहा था...मैंने फ्लाईट ली और पहुंच गई दीदी को लेने...उनको लेकर वापिस ओट्टावा आ गई...

मेरे घर आने के बाद उन्हें थोड़ी तसल्ली तो हुई ,लेकिन उनका मन नहीं लग रहा था...वो भीड़-भाड़, वो रौनक वो शोर....यहाँ  कहाँ ...वो सब कुछ बहुत मिस कर रहीं थीं ...हम उनको ख़ुश रखने की जी तोड़ कोशिश करते रहे....ख़ैर जैसे-तैसे उन्होंने दो महीने काटे और यहाँ से चली गईं...

उनके दिल्ली पहुँचने के बाद भी उनसे बातें होती ही रहीं .... और उन्होंने स्वीकार करना शुरू किया कि उन्हें थोड़े और दिन रहना चाहिए था...

कल उनके फ़ोन के आने से वो सब कुछ एक बार फिर याद आ गया ...हैरानी इस बात कि थी कि अब वो यहाँ आकर बहुत ख़ुश थी...उनमें इस बदलाव ने मुझे कुछ सोचने को मजबूर कर दिया....और एक पोस्ट का सामान मिल गया...

कनाडा में  लोग हिन्दुस्तान से आते ही रहते हैं...जो भी भारत से पहली बार आता है कनाडा या अमेरिका..एक बात सब में common है  'Inferiority Complex ' , आप मुझे ग़लत मत समझिएगा....मेरे साथ भी यही हुआ था...जैसे ही हम विदेश की  धरती पर पाँव रखते हैं..जाने क्या है ..एक चुभन, एक चिढन सी होती है..मन यह मानने को तैयार नहीं होता की यह देश हमारे देश से बेहतर है...बहुत से मामलों में...यहाँ की हर चीज़ को ज़बरदस्ती नीचा दिखाने की कोशिश शुरू हो जाती है...
अक्सर सुनती हूँ... जो भी नया आया होता है यहाँ कनाडा में....कहता हुआ मिलेगा .....अरे इसमें कौन सी बड़ी बात है...ऐसी गाड़ियां तो दिल्ली में लाखों मिलेंगी,  इससे भी खूबसूरत मकान हमारे हिन्दुस्तान  में है...ये तो कुछ भी नहीं ...हमारे वहाँ तो ये है ...हमारे वहाँ तो वो है....मतलब शुरू का सारा समय बस इसी तुलना और ख़ुद को तथा भारत को बेहतर  साबित करने की जी तोड़ और नाक़ामयाब कोशिश में बीत जाता है..... नातीज़ा....इस अवसर का आनंद नहीं उठा पाते हैं....सारा समय एक खीझ , एक कुढ़न में बीत जाता है....बस एक ही धुन लगी रहती है कि कैसे भी यहाँ से चले जाएँ...और लोग चले जाते हैं....

फोटो गूगल से साभार ...
अब बताती हूँ हिन्दुस्तान में क्या होता है ...हिन्दुस्तान पहुँचने के साथ ही उस व्यक्ति पर  'Superiority Complex ' हावी हो जाता है...कोई बात हो कि न हो ..यह ज़रूर बताना है कि मैं विदेश से होकर आया हूँ....और फिर देखिये कैसे विदेश की तारीफ़ के कसीदे पढ़े जायेंगे.... हमारे अमेरिका में ये है ...हमारे कनाडा में वो है... पुरजोर कोशिश ये होती है कि बस विदेश की बात हो और हम अपनी विशेष टिप्पणी से सामने वाले को नवाजें...यहाँ तक कि अपने suitcase या पर्स से एरलाईन्स का टैग तक महीनों लगाए रखेंगे....सिर से पाँव तक वो अमेरिकामय या कनाडामय हुए पड़े होंगे ....

तो ये हैं जी हम भारतीय ...न घर के न घाट के...
हाँ नहीं तो...!


आत्ममुग्धता हमारी हार का कारण है....


कल अजित जी की एक पोस्ट पढ़ी थी ...http://ajit09.blogspot.com/2010/07/blog-post_21.html ..जिसमें उन्होंने चिंता व्यक्त की थी कि 'अपने देश भारत से क्यों लोग नफ़रत करते हैं....'
तो सबसे पहले तो मैं अजित जी से हाथ जोड़ कर माफ़ी माँग रही हूँ ...आपकी बात काटने का मेरा मंतव्य बिल्कुल नहीं है ..बस अपनी छोटी सी समझ को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ..आपसे ये कहना चाहूंगी..शीर्षक में प्रयुक्त शब्द 'नफ़रत' ज़रा तीखा है...हम 'नाराज़' कह सकते हैं...'गुस्सा' भी कह सकते हैं...लेकिन 'नफ़रत' नहीं...

कहते हैं किसी भी देश की मानसिकता का पता उस देश की ट्राफिक से चलता है...अब आप सोचिये कि हमारे देश की कैसी मानसकिता झलकती होगी जब बाहर से लोग आते हैं....जब सड़क जैसी जगह में हम एक दूसरे का साथ नहीं दे सकते तो फिर जीवन में क्या साथ देते होंगे....

फिर भी भारत हमारा देश है...माँ कितनी भी कुरूप हो माँ ही होती है ...और उसे उसका उचित सम्मान मिलना ही चाहिए....सबसे पहली बात, कोई भी भारतीय चाहे वो भारत  में हो या विदेश में भारत से नफ़रत नहीं कर सकता ...कभी भी नहीं...हाँ हम चिढ जाते हैं, नाराज़ हो जाते हैं, गुस्सा हो जाते हैं, लेकिन छोड़ नहीं सकते...बिल्कुल वैसे ही जैसे..कोई इन्सान अपनी नौकरी को सुबह-शाम गाली देगा लेकिन छोड़ेगा नहीं....

इस स्थिति से निकला जा सकता है लेकिन मेहनत करनी होगी ...और बहुत मेहनत करनी होगी....सबसे ज्यादा ज़रूरी है, हमें अपनी कमियों को पहचानना, उन्हें स्वीकार करना और उन्हें सुधारने की कोशिश करना....

हम भारतीय हमेशा ..दूसरों को ख़ुद के कम ही समझते रहते हैं...और यह हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है....ऐसा करके हम अपनी कमअकली ही साबित करते हैं और कुछ नहीं....दुनिया में इतने देश हैं इतनी सभ्यताएं हैं ...जिनकी हमें जानकारी तक नहीं है...फिर भी हम यही मानते हैं कि हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति सर्वोपरि है...हो सकता है इसमें सच्चाई भी हो..लेकिन दूसरों को भी थोड़ा प्रश्रय देना भी अच्छा रहता है... यही आत्ममुग्धता हमारी हार का कारण है...

उससे भी बड़ी बात है....हमारे समाज की बड़ी से बड़ी बुराई को दरकिनार करते हुए हम अपने भूत के साथ चिपके हुए हैं...झूठ, चोरी, भ्रष्टाचार, घूस, समय का दुरूपयोग, बिना मतलब का काम्पिटिशन, अनैतिकता और न जाने किसी-किस दुर्गुणों को हम देख कर भी..या तो किनारे खड़े हो जाते हैं या फिर उसका हिस्सा बन जाते हैं...कई बार तो हमें पता भी नहीं चलता कि यह अनैतिक काम है.,  ..या फिर यह गैरकानूनी है...हमें इतनी ज्यादा ऐसी बातों की आदत हो गई है, कि अनजाने में हम करते ही चले जाते हैं. ...मसलन स्कूल में बच्चे के एडमिशन के लिए डोनेशन देना ....या फिर पंसारी से सामान लाना और सेल्स टैक्स नहीं देना....कहाँ सोचते हैं हम...या फिर सब्जीवाली से सब्जी खरीदना और रसीद नहीं लेना....लेकिन जब आप विदेश में रहते हैं तो आप इनसे नहीं बच सकते ...ऐसा माहौल आपको मिलेगा ही नहीं...यहाँ इसे गैरकानूनी माना जाएगा...क्या आप कभी यह सोचते हैं कि आप सुबह-शाम जो थैला लेकर सब्जी खरीद कर लाते हैं बिना रसीद के वो ग़लत है....हा हा हा ..

भारत में विदेशियों अथवा आप्रवासियों के लिए निवेश करना बहुत कठिन है...ऐसा नहीं है कि लोग भारत में पैसा नहीं लगाना चाहते हैं...लगाना चाहते हैं लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक की नीतियाँ हमेशा आड़े आतीं हैं...

फिर भी जहाँ चाह वहाँ राह...भारतीय रिजर्व बैंक की नीतियों का फायदा..हम भारतीय तो नहीं उठा सकते परन्तु विदेशों की बहुत बड़ी-बड़ी बिजिनेस कम्युनिटी जी भर कर उठाती है...और रिजर्व बैंक कभी गुरेज़ नहीं करता उनका साथ देने में...उसे तकलीफ हम जैसे छोटे लोगों से ही होती है...
भारतीय रिजर्व बैंक तभी आपको भारत में निवेश करने देती है जब आप कोई Infrastructure बनाते हैं....अब जैसे मेरी कम्पनी ...हम infrastructure नहीं ...फिल्में बनाते हैं .. जाहिर सी बात है ..फिल्में एक हाथ में आ जाती हैं...या फिर इलेक्ट्रोनिक form में होती हैं...इसे रिजर्व बैंक मान्यता नहीं देता है...लेकिन यहाँ के बड़े-बड़े चेन stores जैसे , Walmart , Bay , Zellers , Ikea इत्यादि वहाँ अपनी फैक्ट्री लगा सकते हैं...इस तरह की फैक्ट्री लगाना Infrastructure के अंतर्गत आता है...फिर इन फैक्ट्रियों में स्थानीय लोगों को काम भी दिया जाता है और उत्पादन के लिए  raw material भी सस्ते दामों में वहीं से खरीदा जाता है.....आप कहेंगे ये तो बहुत अच्छी बात है....लेकिन scale of economy में ये अच्छी बात सिर्फ़ इन विदेशी कम्पनियों के लिए है....इस तरह के arrangement से इन कम्पनियों को १०००% से भी अधिक का लाभ हो जाता है...बताती हूँ कैसे...

पश्चिमी देशों में एक चीज़ बहुत महँगी है, वो है  ..लेबर कॉस्ट...जब भी ये कम्पनियां भारत में अपनी लगाई गई फैक्टरी में production करतीं हैं ...उन्हें सस्ती लेबर और सस्ता raw material मिलता है... और क्योंकि यह फैक्टरी इन्ही कम्पनियों की होती हैं इसलिए कोई मझौलिया नहीं होता, उत्पादित सामान के निर्यात के लिए ...ख़ुद ही दुकानदार और ख़ुद ही खरीदार.....सारा फायदा इनका अपना होता है...इस तरह से उत्पादित सामानों  की लागत  बहुत कम होती है...जैसे जिस कमीज को ये कम्पनी रीटेल में $३० में बेचती है...उसकी लागत उसे RS ३० की पड़ती है....अब आप हिसाब कर लीजिये कितने प्रतिशत का फायदा है...(३०*४८=१४४०-३०= १४१० रुपये या $२९.३७ का फायदा प्रति कमीज़) और किसे है...

अब आप कहेंगे कि लेकिन इसमें विदेशों में निर्यात तो हो ही रहा है...तो हम कहेंगे ..निर्यात कर कौन रहा है...विदेशी कम्पनी ही न...तो पैसे भी उन्हें मिल रहे हैं...न कि किसी भारतीय कम्पनी को...इसलिए कुलमिला कर फायदा सिर्फ़ विदेशी कम्पनियों को ही होता है और किसी को नहीं...

पता नहीं क्यों भारत की सरकार ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया है और अब समय आ गया है कि सरकार  इस तरफ ध्यान दे ...हमलोग बस विदेशियों को भला-बुरा कहने में ही समय गँवाते जा रहे हैं...सही अर्थों में भारत के उत्थान के लिए कोई प्रयत्नशील नहीं दिखता है...यहाँ तक कि सरकार भी नहीं....

भारत का भला तभी हो सकता है जब...एक क्रांति की लहर आएगी...
विदेशियों के कुछ अच्छे गुणों को अपनाया जाए...जैसे ईमानदारी, समय का सदुपयोग,  नेतागन  स्वयं को जनता के  सही मायने में सेवक समझें और अपना काम नौकरी की तरह, तनखा पर करें ( मैं सपना देख रही हूँ) जैसे यहाँ के नेता करते हैं और सच में यही होता है....
दूसरी बात ...विदेशी सामान का बहिष्कार, विदेशी कम्पनियों को विदेशी दरों पर काम लेने की आज्ञा....और इन कम्पनियों पर अंकुश लगाया जाय जो ख़ुद ही सामान बनाती हैं और ख़ुद को ही बेचती हैं... तभी कुछ हो सकता है..वर्ना भगवान् मालिक...समय की कमी है फिर आऊँगी कुछ और बातें लेकर ..फिलहाल इसी से काम चलाइये...

हाँ नहीं तो...!!

Thursday, July 22, 2010

उफ़क से ये ज़मीन क्यूँ रूबरू नज़र आए ....


तेरा जमाल मुझे क्यूँ हर सू नज़र आए
इन बंद आँखों में भी बस तू नज़र आए

सजदा करूँ मैं तेरी कलम को बार-बार
हर हर्फ़ से लिपटी मेरी आरज़ू नज़र आए

गुज़र रही हूँ देखो इक ऐसी कैफ़ियत से
ख़ामोशियों का मौसम, गुफ़्तगू नज़र आए

फासलों में क़ैद हो गए ये दो बदन हमारे 
उफ़क से ये ज़मीन क्यूँ रूबरू नज़र आए

उफ़क= क्षितिज
जमाल=खूबसूरती
कैफ़ियत= मानसिक दशा
गुफ़्तगू=बातचीत
रूबरू=आमने-सामने

Wednesday, July 21, 2010

GPS vs JPS ....


आजकल कहीं भी कार से यात्रा करनी हो तो GPS यानी Global Positioning System के बिना बाहर निकलना ही मुश्किल है... यह एक यंत्र है जिसमें आपको जहाँ भी जाना है, उस स्थान का पता फीड कर दें और ..सेटेलाईट से दिशा और दूरी का हिसाब-किताब करते हुए यह यंत्र आपको गंतव्य तक पहुँचा ही देता है...ख़ुश होने वाली बात यह है कि एक मधुर आवाज़ आपका दिशा निर्देश करती  रहेगी...Drive 3 kilometers , keep left, at 300 meters turn right वगैरह-वगैरह .... अब अगर इतनी मीठी आवाज़ इतने प्यार से कुछ भी कहेगी तो भला आप क्यूँ नहीं मानेंगे...अच्छी बात ये है कि ये बालिका ऐसे ही मधुर-मधुर बोलती हुई, अपनी और आपकी गलतियाँ को रिकैल्कुलेट करती हुई आपको, आपके पते तक पहुँचा देती हैं....

हमारे भारत में भी एक सिस्टम है...JPS का, ...है ये बहुत पुराना....और यही सिस्टम काम ही करता है...पूरे देश की सडकें इतनी बेतरतीब हैं कि और किसी सिस्टम के काम करने की सम्भावना ज़रा कम लगती है, आप कहीं भी जा रहे हैं, JPS आपका साथी है, अगर आपको उस जगह की जानकारी नहीं है और आप JPS की मदद के बिना पहुँच गए तो फिर हम मान जायेंगे आपको... लगी शर्त, इसके बिना आप कहीं पहुँच ही नहीं सकते,
चाहे वो चांदनी चौक हो या चार मीनार, बड़कल लेक हो या झुमरी तलैय्या....बड़े शहर, छोटे शहर या फिर कोई क़स्बा या गाँव, JPS से आप हर पते का पता लगा सकते हैं....ख़ास करके बीवियां तो इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल करतीं हैं...आप ज़रा राह भटके नहीं कि बस ..फट से 'JPS '  इस्तेमाल करने की सलाह दे ही देतीं हैं...'अजी ! ज़रा JPS '..... बड़े काम की चीज़ है ये...इसे न चार्ज करने की ज़रुरत, न ही एड्रेस फीड करने की ज़रुरत ..ज़रुरत है तो बस किसी पान की दूकान , किसी परचून की दूकान, किसी राह चलते राहगीर या थ्री व्हीलर या कहीं भी अपनी गाड़ी रोकिये और फिर JPS 'ज़रा पूछिए तो सही' ..:):) पता मिल जाएगा...
हाँ नहीं तो...!!


Tuesday, July 20, 2010

खुशियाँ मुकर जातीं हैं हरेक हादसे के बाद....




खुशियाँ मुकर जातीं हैं हरेक हादसे के बाद
हम जी भर के रोते हैं घर लौटने के बाद


नज़ारे कब बदलते हैं जब खुलतीं हैं खिड़कियाँ 
हाँ मौसम कुछ बदलता है पट जोड़ने के बाद 


Monday, July 19, 2010

है निग़ाह मेरी झुकी-झुकी, ये ग़ुरूर मेरा हिज़ाब है ...


ये थका-थका सा है जोश मेरा, ये ढला-ढला सा शबाब है 
तेरे होश फिर भी उड़ गए, मेरा हुस्न क़ामयाब है 

ये शहर, ये दश्त, ये ज़मीन तेरी, हवा सरीखी मैं बह चली 
तू ग़ुरेज न कर मुझे छूने की, मेरा मन महकता गुलाब है 

ये कूचे, दरीचे, ये आशियाँ, सब खुले हुए तेरे सामने 
है निग़ाह मेरी झुकी-झुकी, ये ग़ुरूर मेरा हिज़ाब है
 


Saturday, July 17, 2010

मेक-अप की ताकत पहचान ...

ऊपर की तसवीरें उन्हीं महिलाओं की हैं जो नीचे खड़ी हैं...दोनों तस्वीरों में फर्क आप देख सकते हैं .....

मेक-अप की ताकत पहचान ...
कितना बदल गया इन्सान...!!


नज़र अपनी अपनी....


सत्य के लिए किसी से भी नहीं डरना...गुरु से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं.....
......हजारी प्रसाद द्विवेदी , वाण भट्ट की आत्मकथा

इंतज़ार शत्रु है , उस पर यकीन मत करो
......सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ...जंगल का दर्द

जो गुलाम है उसका न कोई व्यक्तित्व है न जीवन, उसका समस्त ज्ञान व्यंग्य है, उसकी भावनाएं कुंठाग्रस्त हैं..
.....भगवती चरण  वर्मा...सीधी सच्ची बातें

समाज को मानवीय और मनुष्य को सामाजिक बनाना ही मुक्ति का एकमात्र पंथ है
.....फणीश्वर नाथ रेणु ...परती परिकथा

उम्र के साथ जैसे चेहरा बदलता है, वैसे ही शायद मन की दुनिया का बाहर की दुनिया के साथ सम्बन्ध भी बदल जाता है
.....मोहन राकेश .....अँधेरे बंद कमरे

इन्सान रास्ता चुनता ही कहाँ है, वह तो केवल चलता ही जाता है, जो लोग रास्ता सुझाते हैं वो दम्भी, छिद्रान्वेषी लोग हैं, वे अक्सर चलते ही कहाँ है ?
......भीष्म साहनी....पटरियां

ऐसे भी लम्हे होते हैं, जब हम बहुत थक जाते हैं...स्मृतियों से भी और तब खाली आँखों से बीच का गुजरता हुआ रास्ता देखना ही भला लगता है
......निर्मल वर्मा....चीड़ों की चांदनी

Friday, July 16, 2010

दर्द विछोह पर्याय हैं मेरे....

दूर जाना यूँ माँ से है
जाँ का जाना जानो
झुकते हैं कभी बिछते हैं
मानो या न मानो
याद की कलसी
फिर छलकी है  
आँख का आँचल भीगा है
ये दुनिया क्या समझेगी
तुम धैर्य की चादर तानो
मैं बेटी
किस्मत मेरी है 
दूरी की ही जाई
दर्द विछोह पर्याय हैं मेरे
मान सको तो मानो....!!




Thursday, July 15, 2010

आपकी कसम हम बिहार में ताजमहल बना देंगे.....


शादी से पहले.....

पतिः देर किस बात की है।


पत्नीः क्या तुम चाहते हो मैं चली जाऊँ?

पतिः नहीं, ऐसा तो मैं सोच भी नहीं सकता।

पत्नीः क्या तुम मुझे प्यार करते हो?

पतिः अवश्य! एक नहीं अनेकों बार!!

पत्नीः क्या तुमने मुझे कभी धोखा दिया है?

पतिः कभी नहीं! तुम अच्छी तरह से जानती हो, फिर क्यों पूछ रही हो?

पत्नीः अब क्या तुम मेरा मुख चूमोगे?

पतिः इसके लिये तो मैं तो कोई भी अवसर नहीं छोड़ने वाला।

पत्नीः क्या तुम मुझे मारोगे?

पतिः मुझे क्या पागल कुत्ते ने काटा है जो मैं ऐसा करूँगा?

पत्नीः क्या तुम मुझ पर विश्वास करते हो?

पतिः हाँ!

पत्नीः डार्लिंग!

शादी से बाद के लिये कृपया नीचे से ऊपर पढ़ें

पति चुपचाप बैठा हुआ है और दीवार कि ओर टकटकी लगा कर बैठा है, आँसू उसके गालों पर बह रहे हैं...

पति- तुम्हें याद है आज से २० साल पहले , मेरी तुमसे मुलाकात हुई थी..
पत्नी-  हाँ मुझे याद है
पति - तुम्हें याद है तुम्हारे पिता ने हमदोनो को एक साथ पकड़ लिया था 
पत्नी - हाँ मुझे याद है
पति - तुम्हें याद है किस तरह तुम्हारे पिता ने बन्दूक निकाल लिया था और मुझपर तान कर कहा था मेरी बेटी से शादी करो वर्ना २० साल के लिए जेल जाने को तैयार हो जाओ...
पति - (रोते हुए) हाँ हाँ मुझे सब याद है..
पति - पता है.... आज मैं जेल से छूट जाता

हम ऐसे आशिक हैं गुलाब को कमल बना देंगे
उसकी  हर अदा पर ग़ज़ल बना देंगे
अगर  वो आ गईं हमारी ज़िन्दगी में
आपकी  कसम हम बिहार में ताजमहल बना देंगे.....



Wednesday, July 14, 2010

'ऐ बेटा, तनी डोरवा तो बंद कर दो'......'तनी राइस्वा तो लीजिये'

संस्कृति, संवेदना, शिष्टाचार, सभ्यता ...ये मानवीय मूल्य हैं ...किसी एक देश की थाती नहीं है...
ऐसा नहीं है कि सिर्फ हमारा देश ही इसमें अग्रणी है...बहुत से देश है....ज़रुरत है अपने सामान्य ज्ञान को पजाने की ....

हम बस  इसी ठसक में जीते रहते हैं कि हम सोने की चिड़िया वाले देश के हैं....हमारी संस्कृति के आगे किसी की संस्कृति नहीं है.....लेकिन पारिवारिक मूल्य बहुत से देशों में, बहुत मज़बूत है...मसलन  कनाडा, इटली, फ़्रांस, मक्सिको, ethiopia वैगेरह वैगेरह ...दरअसल इन मूल्यों को दरकिनार किया ही नहीं जा सकता ..कारण स्पष्ट है 'मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है'...

कहा जाता है कि फिल्में अक्सर समाज का दर्पण होती हैं..और सच पूछिए तो कितनी ही बातों को उजागर कर जातीं हैं...बहुत पहले एक फिल्म देखी थी 'father of the bride ' उसे देख कर लगा था.. ये सब कुछ तो हमारे देश के जैसा ही तो है...ठीक उसी तरह लड़की का पिता खर्चे से परेशान, ठीक उसी तरह फरमाईश की फेहरिश्त....ठीक वैसा ही पिता का खुद पर कम से कम खर्च करने की कोशिश करना...कहने का मतलब ये है कि बेटी का बाप...जहाँ का भी हो बिलकुल वैसा ही होता है...जैसा होना चाहिए...

इन देशों में भी अपने बच्चों के प्रति माता-पिता का बहुत प्रेम देखने को मिलता है ...हाँ हमलोगों की  तरह अँधा प्रेम नहीं होता है...आखिर हर किसी को अपना जीवन जीना ही पड़ता है तो फिर समय से उसे जीवन की  सच्चाई से दो-चार करा देने में बुराई क्या है...और यही यहाँ के माँ-बाप करते हैं...१८ वर्ष का जब बच्चा हो जाता है, उसे दुनिया में संघर्ष करने के लिए प्रेरित करते हैं..

संस्कृति का ह्रास भारत में जितनी तेज़ी से हो रहा है शायद अन्य किसी भी देशों में नहीं हो रहा है ....आप खुद अपने आस-पास देख लीजिये....पाश्चात्य सभ्यता को गाली देने वाले लोगों के ही घरों में देखिये ...क्या वो सभी उसी के ग्लैमर में नहीं चौन्धियाये हुए हैं....कहने को तो सभी बढ़-चढ़ कर विदेशों और विदेशी सभ्यता को गाली देते हैं, लेकिन पहला मौका मिलते ही ..विदेशी बन जाते हैं....घर बाहर, अन्दर भीतर सब जगह पश्चिमी लबादा ओढ़े ही लोग मिलेंगे....बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढाना,  अंग्रेजी पहनावा, अंग्रेजी स्टाइल में रहना......ये जिम, ये McDonald, ये फास्ट फ़ूड...हज़ारों बातें....ये माल, ये flyover ...नक़ल करने में हमारा देश सबसे आगे है....लेकिन पलट कर गाली देने में भी कम नहीं है.... शुक्र मानिए कि विदेशों के दर्शन की वजह से कुछ अच्छी बातें हो रहीं हैं...मसलन रेलवे stations अब बहुत साफ़ हैं...लोगों में civic sense में बढ़ोतरी हुई है... विदेशी कम्पनियों के कारण काम करने के माहौल में फर्क आ रहा है...लोग समय के पाबन्द हो रहे हैं...याद कीजिये जब  बैंको से  अपना पैसा निकालने के लिए घंटों लाइन में खड़े होना पड़ता था......शुक्र हैं विदेशी बैंकों का जिन्होंने ...ऐसे ऐसे timings और facilities दी कि भारतीय बैंकों को नाकों चने चबवा दिए...अब उनके कॉम्पिटिशन की वजह से ये भी सुधर रहे हैं....

हमलोग कितने अजीब हैं...अपने बच्चों को अंग्रेजी बोलते देख ख़ुश होते हैं.....घर में अंग्रेजी बहू आ जाए तो ...गर्व से सीना चौड़ा कर लेते हैं .....विदेश का वीजा मिल जावे तो फट से हवाई जहाज में बैठ जावें, भारत में,  बेशक उनके बच्चे सारा दिन अंग्रेजी में गिटिर-पिटिर करते रहें....और अंजेलिना जोली-ब्रैड पिट बने घूम रहे हों...लेकिन गाली ज़रूर देंगे...अंग्रेजी सभ्यता को ...

क्यों नहीं हम इनकी सिर्फ़ अच्छाईयों को अपनाते हैं, मसलन  ईमानदारी, समय की पाबन्दी, कानून को मानना...सोचने वाली बात ये हैं कि वैसे ही हमारे समाज में भ्रष्टाचार, चोरी, घूसखोरी, पाखण्ड जैसी बीमारियाँ तो हैं ही, इनके भी दुर्गुण अगर हम अपना लेवेंगे तो क्या हाल होगा हमारा और हमारे समाज का..

हम तो हैरान थे देख कर...जब निपट देहात में लोग कहते हैं....'ऐ बेटा, तनी डोरवा तो बंद कर दो'  या फिर 'तनी राइस्वा तो लीजिये'   
शायद भारतीयता का अर्थ अब 'दोहरापन' हो गया है...हाँ नहीं तो...!!



डरते हो क्या मुझसे ??


पता नहीं ये मेरा दिल है
या कोई सच
जो
मुझे कुछ बता रहा है
एक पुल नाज़ुक से दिल का
बेरहमी से जला कर आई हूँ
तुम्हारे पास...
मगर यहाँ कुछ पराये
से साए क्यूँ नज़र आते हैं
जिन्हें तुम
अपना नहीं कहते हो....
किससे डरते हो तुम,
इनसे या मुझसे ???




Tuesday, July 13, 2010

हाल क्या है दिलों का न पूछो सनम...

हम तो कुछ लिख ही नहीं पा रहे हैं..
समय ही नहीं है...
लेकिन अपनी पसंद का गीत तो सुनवा ही सकते हैं ...
बात ये है कि... ये दोनों गीत किशोर साहब और रफ़ी साहब की आवाज़ में हमें बहुत-बहुत पसंद ...
तो सोचा क्यूँ न आप लोगों को भी याद दिलवा दें इन सदाबहार गानों की..





Monday, July 12, 2010

ये शहर है क़ामयाब यहाँ क़ामयाब हैं लोग............ये ज़नाब तो बस कमाल ही कर रहे हैं



ये शहर है क़ामयाब यहाँ क़ामयाब हैं लोग
उठ गई ग़र उंगलियाँ तो बस अज़ाब हैं लोग

हुए हम नाक़ाम तो नाक़ाम ही सही
सुनो नाकामियाँ मेरी बेहिसाब हैं लोग

मुझे टटोलती रही क्यूँ हरेक वो नज़र
तहरीर अधूरी सी हूँ मैं किताब हैं लोग

ये तो थीं मेरी चंद पंक्तियाँ...
और अब ज़रा इधर निग़ाह डालिए...ये ज़नाब तो बस कमाल ही कर रहे हैं...सच में...!!
हा हा हा हा .....

Sunday, July 11, 2010

अपने राष्ट्रीय गान को सम्मान दें...



बात तब की है जब यहाँ ओट्टावा में फिल्म 'कभी ख़ुशी कभी ग़म' आई थी....मैंने कहा है न हम हमेशा पूरे परिवार के साथ फिल्म देखने जाते हैं....इस फिल्म को भी हम सभी देखने गए, यहाँ के फिल्म हॉल में...ऐसी फिल्मों को हॉल में देखने का अपना ही आनंद होता है...मैं, मेरे तीनो बच्चे (मृगांक, मयंक और प्रज्ञा ) और संतोष जी गए थे देखने...
इस फिल्म में एक दृश्य है जहाँ शाहरुख़ और काजोल का बेटा stage पर भारत का राष्ट्रीय गीत प्रस्तुत करता  है...मुझे याद है..जैसे ही यह गीत शुरू हुआ..मेरे बगल में बैठा हुआ मृगांक उठ कर खड़ा हो गया ....पीछे से आवाज़ आई अरे बैठो भाई...उसे खड़ा देख मैं भी खड़ी हो गई, फिर मेरे साथ मेरा पूरा परिवार...हमें देख कर हमारे आस-पास के अधिकतर लोग खड़े हो गए और फिर शायद पूरा हाल खड़ा रहा जब तक कि राष्ट्रीय गान समाप्त नहीं हो गया.. मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे...मन में कैसा भाव आया की शायद कह नहीं पाऊँगी....गर्व, अभिमान और न जाने क्या-क्या...गीत के समाप्त होने के बाद पूरा हाल तालियों की गड़गडाहट से गूँज उठा था...विदेश की धरती पर अपने राष्ट्रीय गीत के लिए सिनेमा हॉल में खड़े होने की पहल मेरे बेटे ने की थी...आज भी लोग इस बात को याद करते हैं...

बचपन से मेरी माँ ने यह आदत डाली हुई है, हम सबको ...हम कहीं भी हों, किसी भी हाल में हों अगर राष्ट्रीय गान बज रहा है तो वो ख़ुद सावधान की मुद्रा में खड़ी हो जातीं हैं और हमें भी ऐसा ही करने को कहती रहीं हैं...मृगांक नानी की बात अब तक नहीं भूला है... ऐसा है मेरा मृगांक...

मुझे इतना मालूम है अगर हम अपने राष्ट्रीय ध्वज या राष्ट्रीय गान को सम्मान देंगे तो दूसरों को देना ही पड़ेगा...इसलिए कटिवद्ध हो जाइए ऐसा करने के लिए...प्रण कर लीजिये, अपने तिरंगे और राष्ट्रगान को सम्मान देंगे चाहे कुछ भी हो जाए...

हो सके तो आप हमारे राष्ट्रीय गान के समापन तक सावधान की अवस्था में खड़े रहें... . 
जय हिंद..!!

Saturday, July 10, 2010

तुम्हारा बलिदान निरर्थक नहीं जाएगा....

इस धरा पर
जो अँधेरा है,
वो
रात्रि है, अज्ञानता की
इस
तिमिर की चुनौती
स्वीकार करनी होगी,
और
पार करना ही होगा,
यह बीहड़, 
लेकर हाथों में ज्ञानदीप,
अगर  
स्वयं बुझ भी गए तो क्या !
दे दो न
ज्योति
आगत के हाथों में,
एक न एक दिन
सवेरा हो ही जाएगा
और 
तुम्हारा बलिदान
निरर्थक नहीं जाएगा....


Friday, July 9, 2010

क्या मौसम है....

Current Weather Updated: Thursday, July 8, 2010, 16:00 EDT - Ottawa Airport

A
 few clouds
35 °C
    A few clouds
      किसी से अगर हम कहें कि कनाडा में भी गर्मी पड़ती है तो लोग कहेंगे ...मेरा दीमाग ठिकाने पर नहीं है....जी हाँ ये तापमान है हमारे शहर, ओट्टावा का ...आज तो वास्तव में ४४-४५ डिग्री सा ही महसूस हो रहा है....सोचा आप लोगों को भी बता देना ही चाहिए...ऐसा नहीं है सिर्फ़ आप ही गर्मी झेल रहे हैं...कम दिनों के लिए ही सही, लेकिन गर्मी यहाँ भी पड़ती है ....
      अब आप सोचिये कि तापमान का रेंज क्या है   !!!   रेंज है गर्मी में +४५ से जाड़े में लगभग -४५....यह बहुत बड़ा रेंज है....लेकिन ऐसा ही है....

      हमारे शहर ओट्टावा में दुनिया की सबसे लम्बी कैनाल या नहर बहती है  जिसे 'रीदो कैनाल' कहते हैं...आपको चंद तसवीरें दिखाती हूँ...

      ऊपरवाली तसवीरें लीं गईं हैं,  गर्मी के मौसम में ....इस समय इस कैनाल और इसके आस-पास की खूबसूरती बस देखते ही बनती है ...यह कैनाल रंग बिरंगी नवकाओं से भरी रहती है,  रात में भी रौशनी से चमकती नावें  थिरकती हुई चलती रहती हैं और अक्सर आगे जाकर 'डाउस झील ' में खड़ी मिलती हैं ...उस समय उनकी ख़ूबसूरती को बयाँ करना असंभव सा ही लगता है... झील की गोद में ये रौशनी से नहाये बोट यूँ लगते हैं जैसे...रात के अँधेरे में कोई सजी संवरी दुल्हन ...अपने मन में लाखों सपने और अनगिनत खुशियाँ समेटे मुस्कुरा रही हो...रात की चांदनी में झील की लहरों पर  ये बोट बहुत ही आकर्षक लगतीं हैं......बहुत ही खूबसूरत नज़ारा होता है ...


      नीचे की तसवीरें उसी कैनाल  की हैं ....जाड़े के दिनों में ली गईं हैं ..उस समय यही कैनाल पूरी तरह जम जाती है और लोग इसपर स्केटिंग करते हैं...बर्फ की मोटाई २ मीटर होती है...और इसके टूटने का कोई खतरा नहीं होता...२ मीटर बर्फ के नीचे बहुत गहरी नहर बहती रहती है...लोगों को इसपर स्केटिंग करने की इजाज़त देने से पहले पूरी तरह से इसे जांचा-परखा जाता है...इस कैनाल के ऊपर से बड़े बड़े ट्रकों को गुज़ार कर पूरी तरह तसल्ली कर ली जाती है कि कोई ख़तरा नहीं है ...फिर लाखों कि तादाद में लोग इस पर स्केटिंग करते हैं है...बिल्कुल सुरक्षित...

      ये देखिये ऊपर वाली नहर जिसकी छाती पर बोट दनादन चल रहे हैं... जाड़े में कैसी हो जाती है....और कितने लोगों को सम्हाल रही है...जबकि इस बर्फ के नीचे बहुत गहरा पानी है..


      तो ये है कनाडा के मौसम का विवरण...आशा है आपको पसंद आया होगा होगा ...