Tuesday, August 31, 2010

तजुर्बों के रास्तों से, उम्र का गुज़रना....


तजुर्बों के रास्तों से 
उम्र का गुज़रना,
फिर
आड़ी-तिरछी पगडंडियों 
का चेहरे पे जमना, 
चाहत, वफ़ा, उल्फत का 
एक-एक कर
उदास होना,
हकीक़त के जिस्म से
हर लिबास का उतरना ,
डरा तो देता है 
लेकिन,
दिल के तन्हा गोशे में,
गौहर-ए-जन्नत
झिलमिलाता है !
जहाँ 
मन का फ़रिश्ता 
मुस्कुराता है !!
और, 
एक और ज़िन्दगी जीने को 
उकसाता है...!

और अब एक गीत ...



गौहर-ए-जन्नत=जन्नत का मोती
गोशे=कोना 
लिबास=कपड़ा

Monday, August 30, 2010

फिर याद तेरी किरकिरी बन बिंदास चुभती रही....


जोड़ कर टुकड़े कई, उस आईने में आज तक
अक्स हाथों में लिए, मैं दरारें भरती रही 

हो सामने ताबूत जैसे, ज़िन्दगी है यूँ खड़ी  
शोर कर रहा ये जिस्म, और रूह उतरती रही 

दोस्ती है हौसले से, है यारी बे-बाकपन से
हर घड़ी हैं साथ मेरे, जाने क्यूँ डरती रही

बह गए सपने हमारे फ़र्ज़ के सैलाब में 
मैं अकेली जाल लेकर इंतज़ार करती रही 

अश्क कुम्हलाये 'अदा' दीद की कोटर में ही 
और याद तेरी किरकिरी सी बिंदास चुभती रही

अब एक गीत ..आपकी नज़र....

Sunday, August 29, 2010

मुशायरे की एक झलक....(पुनर्प्रकाशित)

इसी वर्ष, अर्थात २०१० मार्च महीने के २७ तारीख को एक मुशायरा हुआ था Montreal में....वहीं कुछ पढ़ा था..आज फिर से वही सुन लीजिये...कुछ नया नहीं लिख पाई हूँ....कल रात भी एक कवि सम्मलेन में शिरक़त करने का मौका मिला...उसकी रिपोर्ट विडियो मिलने के बाद पेश करुँगी...
फिलहाल इस मुशायरे की एक झलक..


Saturday, August 28, 2010

हर मौज मगर क्यूँ लगती ज्यूँ, दामन हो साहिल का...!


चल रहा काफ़िला दबे पाँव, धीरे-धीरे दिल का 
और मुझे भी होश कहाँ, रास्तों का मंज़िल का 

किस क़ातिल की छाया है, क्या गज़ब करिश्मा छाया   
गली-गली हर मोड़ पे दिखता, रक्स किसी घाईल का

प्यासे-प्यासे होंठ भी देखे, चिराग़ भी हैं बुझे-बुझे 
रंग अजब सा निकला यारा, आज तेरी महफ़िल का 

दिल थाम के बैठ गए जब घिर आया तूफ़ान,
हर मौज मगर क्यूँ लगती ज्यूँ, दामन हो साहिल का

रक्स=नाच
मौज=लहरें
साहिल=किनारा  
घाईल=घायल 



गीत तो आप सुन चुके हैं लेकिन फिर सुन लीजिये...
चंदा ओ चंदा....
आवाज़ 'अदा'

Get this widget | Track details | eSnips Social DNA

Friday, August 27, 2010

रामायण की चौपाइयाँ....


(यह प्रविष्ठी मैं दोबारा डाल रही हूँ... इस कविता को मैंने उस दिन लिखा था, जिस दिन मेरे बड़े बेटे मयंक शेखर का जन्म हुआ था, याद है मुझे इसे लिखकर जैसे ही मैंने पूरा किया था डाक्टर साहिबा ने मेरे हाथ से मेरी कलम और नोटबुक लगभग छीन ही लिया था, और धमकी दी थी...कोई लिखना पढ़ना नहीं है अभी...बस आराम करो...:):) जैसे उन्होंने कहा और मैं मान गई..:):) हा हा हा .. 
और आज फिर वही दिन आया है, २७ अगस्त, मेरे बड़े बेटे मयंक का जन्मदिन है, उस पल अस्पताल के कमरे में चार पीढियाँ विद्यमान थी, नवजात, मेरी नानी, मेरी माँ और मैं, मेरी नानी के मुखारविंद पर जो ज्योति मैंने देखी थी, उसे शब्द देना मेरे वश की बात न तब थी न अब है, लेकिन मेरा प्रयास ज़रूर है आपका आशीर्वाद चाहिए मयंक के लिए, उसी मयंक के लिए जिसका चित्रांकन आप सब देख चुके हैं...)

खुरदरी हथेलियाँ,
रामायण की चौपाइयाँ,
श्वेत बिखरे कुंतल,
सत्य की आभा लिए हुए
उम्र की डयोड़ियाँ, फलाँगती फलाँगती
क्षीण होती काया
फिर भी,
संघर्ष और अनुभव का स्तंभ बने हुए
तभी !!
नवागत  को,
युवा से लेकर, अधेड़  ने,
बूढ़ी जर्जर पीढ़ी के हाथों में रखा
हाथों के बदलते ही,
पीढ़ियों का अंतराल दिखा 
सुस्त धमनियाँ जाग गयीं,
मानसून के छीटों सी देदीप्यमान हो गयीं
झुर्रियाँ आनन की
बाहर से ही मुझे,
चश्मे के अन्दर का कोहरा नज़र आया था,
शायद, बुझती आँखों में बचपन तैर गया था
नवागत पीढ़ी, निश्चिंत, निडर,
हथेली पर, चौपाइयाँ सोखती रही,
रामायण की !!
और ऊष्मा मातृत्व की लुटाती रहीं,
हम तीनों - नानी, माँ और मैं !

और अब एक गीत...आज का गीत है प्रज्ञा और उसके पापा की आवाज़ में....
प्रज्ञा की तरफ से उसके भईया के लिए...हा हा हा...

मैं जोड़ रहीं हूँ धज्जियां कुछ फटे गिरेह्बानों की....


सुन लो मेरी दास्ताँ कुछ मिटे हुए अरमानों की
मैं जोड़ रहीं हूँ धज्जियां कुछ फटे गिरेह्बानों की

(कहाँ उतरा था चाँद कभी सागर में नहाने को
पर मौजों को थी हड़बड़ी तूफाँ को बात बताने की)

कहाँ उतरा था चाँद कभी सागर में नहाने को 
पर मौजों से हुई गुफ़्तगू कुछ शोहदे तूफानों की 

शमा तो बुझती ही रही हर महफ़िल में सुन 'अदा'
और राख भी उड़ती रही कुछ जले हुए परवानों की 

अब एक गीत ...आप सुन चुके हैं ..दिल करे तो फिर सुन लीजिये...कोई ज़बरदस्ती नहीं है...

Thursday, August 26, 2010

फूलों पर टिक गई है बात ...


एक तो हो रही बरसात 
उसपर इतनी लम्बी रात 

कश्ती मेरी डूब के उबरी 
तूफाँ ने फिर खाई मात 

ज़िक्र किया था पतझड़ का 
फूलों पर टिक गई है बात 

झूठ का उबटन चेहरों पर
ख़ाक कहेंगे सच्ची बात 

बिन मतलब बदनाम हुई मैं  
कोई और लगाए घात

कैसा रंग बसंत ले आया ?
पेड़ों पर न फूल न पात

फिर जा बैठे ग़ैर के शाने 
आख़िर दिखा दी तूने ज़ात

एक गीत ...आपके लिए...शायद ठीक लगे...गारंटी नहीं है...

Wednesday, August 25, 2010

क्यों झाँकना नज़र में ये नक़ाब जैसा है...


जब प्यार से मिला वो तो गुलाब जैसा है
आँखों में जब उतर गया शराब जैसा है

खामोशियाँ उसकी मगर हसीन लग गईं 
कहने पे जब वो आया तो अज़ाब जैसा है

करके नज़ारा चाँद का वो ख़ुश बहुत हुआ 
ख़बर उसे कहाँ वो माहताब जैसा है

करते रहो तुम बस्तियां आबाद हर जगह  
इन्सां यहाँ इक छोटा सा हबाब जैसा है

कुछ दोस्ती कुछ प्यार कुछ वफ़ा छुपा लिया
क्यों झाँकना नज़र में ये नक़ाब जैसा है

अज़ाब=ख़ुदा का क़हर या नाराज़गी
माहताब= चाँद
हबाब=बुलबुला 




Tuesday, August 24, 2010

कितने तो हैं जो मयखानों में रात गुजारा करते हैं...


एक ठो पुरानी कविता .. दू-दू गो बड्डे है न नहीं लिख पाए...हाँ नहीं तो..!

पशे-चिलमन वो बैठे हैं हम यहाँ से नज़ारा करते हैं
गुस्ताख़ हमारी आँखें हैं आँखों से पुकारा करते हैं

कोताही की कोई बात नहीं, इक ठोकर मुश्किल काम नहीं 
मेरी राह के पत्थर तक मेरी ठोकर को पुकारा करते हैं

पीते हैं बस आँखों से और बदनाम हुए हम जाते हैं
कितने तो हैं जो मयखानों में रात गुजारा करते हैं

हम बन्जारों को भी है कभी सायबाँ की दरकार 
नज़रें बचाए जाने क्यों हमसे वो किनारा करते हैं 


जब डूबते हैं पहलू में 'अदा' गोशा-गोशा सकुचाता है
हम हुस्न-ए-मुजसिम लगते हैं वो नज़र उतारा करते हैं

पशे-चिलमन=परदे के पीछे 
सायबाँ=घर
गोशा-गोशा=पोर-पोर
हुस्न-ए-मुजसिम=सुन्दरता की मूर्ति 

मेरी बिटिया...


आज का ही दिन था
मुझे मिली थी ..
मुट्ठी में गुनगुनी धूप,
चाँदनी में नहाई,
सोंधी ख़ुशबू में लिपटी
नूर की नमी लिए
एक नयी आशा,
और एक नया रिश्ता,
मेरे अपने से चेहरे पर,
ठहरी हुई आखों का अहसास,
कितना तिलस्मी था  !
मेरी ही छवि, 
साँझ की बाती
सी लहराती थी,  
मैं मखमली साँसों में 
और 
धीमी नब्जों में खो जाती थी, 
घुप्प अँधेरे में तैरते 
अनगिनत रौशनी के फाहों को...थामता,
वो मेरा सादा सा आँचल,
फ़ाहे समेटने में कितना 
मशगूल था,
पता ही कहाँ चला !
आज....
मेरी रौशनी,
मेरी गोद से उतर कर,
मेरे घर में फ़ैल गई है,
और मेरे घर का आसमान
कितना चटकीला हो गया !
तुम भी देखो न..!!

प्रज्ञा शैल...आज मेरी बिटिया प्रज्ञा का भी जन्मदिन है..आशीर्वाद दीजियेगा...!!

Monday, August 23, 2010

हैं तन्हाँ, तन्हाँ....


हैं !
तन्हाँ, तन्हाँ
कभी हैराँ, हैराँ
इन्सानी जंगल में,
कोई हिन्दू, 
कोई मुसलमाँ,
मंज़िल की तलाश 
सभी को 
मंज़िल लेकिन है कहाँ ?
नज़रों में जब हो वीरानी
फिर कैसा गुलशन ?
कैसा बियाबाँ ?
कौन आएगा  
तुझसे मिलने
जब सन्नाटा
तेरा निगेहबां ?
जाना तो था मुझको भी कहीं 
पर जाऊँगी अब नहीं वहाँ ...!!

एक गीत ...छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए..

Sunday, August 22, 2010

तन्हाई, रात, बिस्तर, चादर और कुछ चेहरे,....

(आज कुछ लिखना संभव नहीं हुआ, कोशिश की लेकिन बात बनी नहीं..इसलिए आज पेश-ए-खिदमत है एक पुरानी कविता...)

तन्हाई, रात, 
बिस्तर, चादर
और कुछ चेहरे,
खींच कर चादर
अपनी आँखों पर
ख़ुद को बुला लेती हूँ
ख़्वाबों से कुट्टी है मेरी 
और ख्यालों से 
दोस्ती 
जिनके हाथ थामते ही 
तैर जाते हैं
कागज़ी पैरहन में 
भीगे हुए से, कुछ रिश्ते
रंग उनके
बिलकुल साफ़ नज़र 
आते हैं,
तब मैं औंधे मुँह 
तकिये पर न जाने कितने 
हर्फ़ उकेर देती हूँ
जो सुबह की 
रौशनी में
धब्बे से बन जाते हैं....


और एक गीत....गाना इसे तीन लोगों को चाहिए था...लेकिन ये काम हम अकेले ही कर गए...
ज़रा सी फुर्सत होगी तो..ब्लाग के अच्छे गायकों को एक मंच पर लाने का इरादा है...संतोष जी, दिलीप साहब, राजेन्द्र जी इत्यादि को...


Saturday, August 21, 2010

अमावस की रात....

  ये लोग सताए हुए हैं,
मत उलझो इनसे
कुछ भी कर जायेंगे,
प्यार की आदत नहीं इनको, 
इतना दोगे तो मर जायेंगे, वो जो कुछ ...
खोल चढ़े हुए चेहरे हैं
उनमें...       अमावस की रात है   जिनको देखते ही
सच्चाई की नदी उतर जाती है
फिर तुम चाहो कि न चाहो
नकाबों के हाथों
इंसानियत मर जाती है... 
और अब एक गीत....ठीक ही है...चलेबुल है ...


आज जा रही हूँ...टोरोंटो, शायद समीर जी से मिलूं ..या  न भी मिलूं....ये सूचना इस लिए दे रही हूँ कि आपकी टिप्पणियाँ ज़रा देर से छपेंगी ..तो कृपा करके बुरा मत मानियेगा....आज मेरा 'डॉ. मृगांक' आ रहा है...और एक ख़ुशी की बात बता दूँ...मृगांक अपने क्लास में टॉप करके आ रहा है...मैं बहुत ख़ुश हूँ..आपलोगों का आशीर्वाद चाहिए...उसके आगे की पढाई के लिए...
धन्यवाद...
'अदा'


आमंत्रण....!!

विदेशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए हमारा एक छोटा सा प्रयास है यह, एक हिंदी मासिक पत्रिका निकालने की योजना है...ओट्टावा कनाडा से...वैसे भी कनाडा में ब्लॉग पढ़ने का चलन कम ही है...हिंदी ब्लॉग जगत, अच्छे लेखन में किसी से भी पीछे नहीं है...ज़रुरत है उनके प्रयासों को दूर-दराज़ बैठे लोगों तक भी पहुँचाना ...उसी दिशा में यह हमारी कोशिश है...
प्रतिदिन हिंदी ब्लॉग जगत में बहुत अच्छा लिखने वाले को हम पढ़ते हैं, परन्तु उन्हें सही पहचान नहीं मिल पा रही है ..इस पत्रिका के माध्यम से उनकी रचनाओं को विदेशों में रहने वाले पाठकों तक भी पहुँचाया जाएगा साथ ही विदेशों में रहने वाले भारतीयों को भी हिंदी के प्रति अनुराग बनाए रखने का एक कारगर मौका दिया जाएगा ..इसी उद्देश्य को सामने रखते हुए, इस मासिक पत्रिका को शुरू करने की योजना बनाई गई है 
पत्रिका अक्टूबर-नवम्बर के महीने से निकलेगी...पत्रिका देखने में 'फिल्म फेयर', 'स्टार डस्ट' के समकक्ष होगी ...इस पत्रिका के लिए रचनाओं की आवश्यकता है...अतः आप आमंत्रित हैं इस सुअवसर का लाभ उठाने के लिए...आपकी रचनाओं को कनाडा और अमेरिका के दुर्लभ पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास हम कर रहे हैं...
पत्रिका निकालने की सारी आर्थिक जिम्मेवारी Shails Communications उठा रही है... लेखकों को हम किसी भी तरह का आर्थिक लाभ नहीं दे पायेंगे...यह सिर्फ़ हिंदी के प्रचार तथा हिंदी लेखन को कनाडा और अमेरिका के पाठकों तक पहुँचाने और इन देशों में रहने वाले भारतीयों को हिंदी के प्रति जागरूक बनाये रखने का प्रयास है...
यदि आप अपनी रचनाएँ इस पत्रिका में छपवाना चाहते हैं तो अपनी अनुमति के साथ अपनी रचनाएँ कृपा करके इस ईमेल पते पर भेजिए 

kavy.manjusha@gmail.com

हम सभी प्रविष्ठियां को छापने का वादा नहीं करते हैं, लेकिन जो भी प्रविष्ठी हमारी टीम को पसंद आएँगी वो अवश्य छपेंगी....क्योंकि पत्रिका का स्तर हमें हर हाल में ऊँचा रखना है...
रचना के साथ आप अपना, परिचय और फोटो, और रचना से सम्बंधित फोटो (अगर मूल फोटो है तो) भी भेजें....रचना देवनागरी में टंकित हो...
यह पत्रिका कनाडा और अमेरिका में वितरित की जायेगी....
पत्रिका के लिए निम्नलिखित प्रकार की रचनाएँ आमंत्रित हैं :
कहानी (धारावाहिक)
लघु कथा 
कविता
ग़ज़ल
दोहा 
यात्रा वृतांत 
संस्कृति सम्बन्धी बातें 
अर्थ सम्बन्धी बातें 
फीचर 
हास्य 
खान-पान
कला सम्बन्धी आलेख
सामयिक विषयों पर लेख 
स्वास्थ्य सम्बन्धी आलेख
समाचार
फैशन
और भी विषय हो सकते हैं.....आपके विचार आमंत्रित हैं...
(Shails Communications एक अंग्रेजी पत्रिका भी निकाल रही है...उसका डिजाईन बनाया गया है...हिंदी की पत्रिका भी लगभग ऐसी ही होगी...
फिलहाल अंग्रेजी पत्रिका का डिजाइन प्रस्तुत है...जिससे आपको अनुमान हो सकेगा कि यह पत्रिका देखने में कैसी लगेगी...)

धन्यवाद...
विनीत..
'अदा'

Front Spread


Back Spread

Pages 3 & 4

Pages 2 & 5

Friday, August 20, 2010

मेरे अपनों ने कब का किनारा किया, मुझसे ज़्यादा कशिश बेगानों में थी....

मैं कल रात उन दीवानों में थी
मेरी नज़रें गुजरे ज़मानों में थी

ये दिल घबराया ऊँचे मकाँ में बड़ा
फिर सोयी मैं कच्चे मकानों में थी

यूँ तो दिखती हूँ मैं भी शमा की तरहां 
पर गिनती मेरी परवानों में थी

उसकी बातों पे मैंने यकीं कर लिया 
कितनी सच्चाई उसके बयानों में थी

मेरे अपनों ने कब का किनारा किया 
मुझसे ज़्यादा कशिश बेगानों में थी

क्या ढूंढें 'अदा' वो तो सब बिक गया
तेरे सपनों की डब्बी दुकानों में थी

एक गीत आपकी नज़र....

Thursday, August 19, 2010

'मकाँ', 'घर' नहीं बनेगा....!!




हर मकान की,
हर ईंट,
मूक साक्षी है,
प्यार, तिरस्कार
लगाव, अलगाव
करुणा, क्रूरता
सम्मान, अपमान
विश्वास, अविश्वास
जैसी अनगिनत 
संवेदनाओं की,
दर्ज हो जाते हैं
प्रत्यक्ष, परोक्ष
रिश्तों के अनगिनत रंग
और
बाशिंदों के मनोभाव
इन्हीं पत्थरों में
जो काल में उतरने लगते हैं,
अफ़सोस !
बेमौसम...
जगमग होते मकानों में
विश्वास के दीये
कितने बुझे होते हैं,
जब तक...
विश्वास का
एक दीया नहीं जगेगा
'मकाँ', 'घर' नहीं बनेगा....!!

अब एक गीत ...अरे सुन भी लीजिये...इतना भी बुरा नहीं है...!

Wednesday, August 18, 2010

हर साँस की हिफाज़त से मैं थक सी गई हूँ ....


हर साँस की हिफाज़त से मैं थक सी गई हूँ 
ज़िन्दगी की इस हालत से मैं थक सी गई हूँ

मिलता है सुकूँ मुझको तेरे शाने पे आके
दिन भर की ज़लालत से मैं थक सी गई हूँ

हैं दोस्त भी, दुश्मन भी मेरे मन के जहाँ में 
इस फ़रेब इस बनावट से मैं थक सी गई हूँ

कब तक उठाऊं पलकों पर मैं बोझ इसका 
इस अश्के-नदामत से मैं थक सी गई हूँ

करना है ग़र तुमको तो बस कर लो यकीं 
कह के हूँ तेरी अमानत मैं थक सी गई हूँ

अश्के-नदामत=पश्चताप के आँसू 

और अब एक गीत ...एक बार फिर मेरी ही आवाज़ है जी...



     Get this widget |     Track details  |         eSnips Social DNA   

Tuesday, August 17, 2010

परेशान कर दिया है इस वकील के सवालों ने....



शुमार थे कभी उनके, रानाई-ए-ख़यालों में
अब देखते हैं ख़ुद को हम, तारीख़ के हवालों में

गुज़री बड़ी मुश्किल से, कल रात जो गुज़र गई 
और टीस भी थी इंतहाँ, तेरे दिए हुए छालों में 

बातों का सिलसिला था, निकली बहस की एक बात 
फिर उलझते चले गए हम, कुछ बेतुके सवालों में

सागर का दोष कैसा, वो चुपचाप ही पड़ा था
डुबो दिया था उसको, चंद मौज के उछालो ने 

मैं गूंगी हुई तो क्या हुआ, इल्ज़ाम गाली का है 
परेशान कर दिया है, इस वकील के सवालों ने

कुछ सूखे से होंठ थे, और कुछ प्यासे से हलक 
पर गुम गईं कई ज़िंदगियाँ, साक़ी तेरे हालों में

रानाई-ए-ख़यालों=कोमल अहसास
साक़ी=शराब बाँटने वाली
हाला=शराब की प्याली

अब एक गीत भी सुन लीजिये हमारी आवाज़ में ...

Monday, August 16, 2010

जीवन के रंग...(एक कहानी)


हे भगवान् !..आज फिर देर हो जायेगी ..ओ भईया ज़रा जल्दी करना ...मैंने रिक्शे वाले से कहा ..वो भी बुदबुदाया ..रिक्शा  है मैडम हवाई जहाज नहीं...और मैं मन ही मन सोचे जा रही थी...ये भी न ! एक कप चाय भी नहीं बना सकते सुबह, रोज मुझे देर हो जाती है  और डॉ.चन्द्र प्रकाश ठाकुर  की विद्रूप हंसी के बारे में सोचती जाती...ठाकुर साहब को तो बस मौका चाहिए, मेरी तरफ ऐसे देखते हैं जैसे अगर आँख में जीभ होती तो निगल ही जाते, फिर बुलायेंगे मुझे अपने ऑफिस में और देंगे भाषण...हे भगवान् ! ये मेरे साथ ही क्यूँ होता है....

अब एक इत्मीनान मुझ पर हावी होने लगा था ...शुक्र है पहुँच गई  ..मैंने पर्स से बीस का नोट निकाला,  रिक्शे वाले के हाथ में ठूंसा और लगभग छलांग मारती हूँ ऑफिस की सीढियां चढ़ने लगी., ओ माला ...! माला ..! मुझे उस वक्त अपना नाम दुनिया में सबसे बेकार लगा था, अब ये कौन है...कमसे कम रजिस्टर में साईन तो कर लेने दो यार, ये बोलते हुए मैं मुड़ी...सामने थी एक बड़ी दीन-हीन सी महिला, मेरे चेहरे पर हजारों भाव ऐसे आए, जो उसे बता गए ...तुम कौन हो मैडम ? मुझे ऐसे आँखें सिकोड़ते देख उसने कहा अरे मैं हूँ रीना...हम एक साथ थे सेंट जेविएर्स में...मेरा मुँह ऐसे खुल गया जैसे ए.टी.एम्. का होल हो, वह मेरे आश्चर्य को पहचान गई ..और कहा..तू कैसे पहचानेगी..जब मैं ही ख़ुद को नहीं पहचानती...

लेकिन तब तक मेरी याददाश्त ने मेरा साथ दे दिया , अरे रीना ! तू SSSSSSS ! मैंने झट से उसे गले लगा लिया, और झेपते हुए कहा ..अरे नहीं री !...इतने सालों बाद तुम्हें देखा न...इसलिए., लेकिन देख ५ सेकेंड से ज्यादा नहीं लगाया...और बता तू कैसी है.? तू तो बिल्कुल ही ॰गायब हो गई...मैं बोलती जाती और उसको ऊपर से नीचे तक देखती भी जाती....हमदोनों वहीं बैठ गई , बाहर बेंच पर, अब जो होगा देखा जाएगा...सुन लेंगे ठाकुर सर का भाषण और झेल लेंगे उनकी ऐसी वैसी नज़रें ..हाँ नहीं तो...:)
मैं उसका मुआयना करती जाती थी और सोचती जाती थी क्या इन्सान इतना बदल सकता है...इतनानानाना  ????

रीना हमारे कॉलेज की बेहद्द खूबसूरत लड़कियों में से एक थी...जितनी खूबसूरत थी वो , उतनी ही घमंडी भी थी, नाक पर मक्खी भी बैठने नहीं देती थी, किसी का भी अपमान कर देना उसके लिए बायें हाथ का खेल था...मैं उससे थोड़ी कम खूबसूरत थी शायद, लेकिन गाना बहुत अच्छा गाती थी..इसलिए उससे ज्यादा पोपुलर थी...और रीना को यह बिल्कुल भी गंवारा नहीं था...उसने मुझसे कभी भी सीधे मुँह बात नहीं की थी...हमारे कॉलेज में सौन्दर्य प्रतियोगिता हुई ..मुझे तो ख़ैर घर से ही आज्ञा नहीं थी ऐसी प्रतियोगिता में भाग लेने का...लेती भी तो हार जाती ..रीना बाज़ी मार ले गई ...और उसके बाद वो बस सातवें आसमान में पहुँच गई....इसी प्रतियोगिता में किसी बहुत अमीर लड़के ने उसे देखा था...और फर्स्ट इयर में ही उसकी शादी हो गई...उसके बाद, वो एक दिन आई थी कॉलिज अपने पति के साथ और फिर हमारी कभी उससे मुलाक़ात नहीं हुई ...

एक ज़माने के बाद, मैं आज देख रही हूँ रीना को...मुझे याद है शादी के बाद, जिस दिन वो आई थी कॉलेज अपने पति के साथ ..कितनी सुन्दर जोड़ी लग रही थी...कार के उतरी थी वो, उसका हसबैंड स्मार्ट , खूबसूरत, ऊंचा...रीना तो बस रीना राय ही लग रही थी..मेंहदी भरे हाथ, चूड़ा , गहने, कीमती साड़ी और गर्वीली चाल, ऊँची एडी में, 
कॉलेज में कितनों के दिल पर साँप लोट गया था उस दिन, मैं भी कहीं से जल ही गई थी,  लेकिन इस समय मेरी नज़र उसके हाथों से नहीं हट पा रही थी, हाथ कुछ टेढ़े से लग रहे थे मुझे, उसने भी मेरी नज़र का पीछा किया और अपने हाथ साडी में छुपा गई...

मेरी चोरी पकड़ी गई थी, उसके हाथों को देखते हुए, झेंप मिटाने के लिए, मैंने पूछ लिया,  कैसा चल रहा है सब कुछ ? बोलते हुए मेरी नज़र उसकी माँग पर गई, माँग में कोई सिन्दूर नहीं था, लेकिन आज कल किसी के बारे में इससे कहाँ पता चलता है...कि वो शादी-शुदा है या नहीं, मैं नज़रों से उसे टटोलते हुए बोल रही थी...बोलो न, कितने बच्चे हैं ? वो फुसफुसाई....एक बेटा है ..मानू!  और फिर तो जैसे अल्फाजों, भावों का बाँध टूट गया हो....माला..शादी के दो साल बाद ही मैं विधवा हो गई, जीवन के सारे रंग मिट गए...मैं कितनी ख़ुश थी माला...भगवान् ने मुझे क्या नहीं दिया था, खूबसूरत पति, बड़ा घर, गाड़ी, रुपैया-पैसा, नौकर-चाकर, एक बेटा...लेकिन एक ही झटके में सब कुछ चला गया... वो थोड़ा  रुकी...फिर कहने लगी...

मैं, मेरे पति और मेरा बेटा हम तीनों शिमला गए थे घूमने, वापसी में एक्सीडेंट हो गया, इस एक्सीडेंट में मेरे पति चल बसे, मुझे बहुत चोट आई..मेरे हाथ पाँव,रिब्स टूट गए थे...बच्चा सुरक्षित था ...मुझे ठीक होने में महीनों लग गए अस्पताल में...जब मैं वापिस ससुराल आई तो मेरा सब कुछ जा चुका था ..मेरे ससुराल वालों ने मुझे घर से निकाल दिया, अपने बच्चे के साथ मैं सड़क पर ही आ गई थी, इतना  कहते-कहते उसका गला रुंध गया था ..मैंने उसकी पीठ पर हाथ फेरना शुरू कर दिया था, वो बोलती जा रही थी...माँ-बाप भी रिटायर्ड हैं, तुझे पता ही है मैंने पढाई पूरी नहीं की थी, उन्होंने ही मुझे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया, अब नर्स बन गई हूँ, यहीं जो सदर हॉस्पिटल है ,वहाँ  दो दिन पहले ही ट्रान्सफर लेकर आई हूँ, अचानक तुझे देखा तो कितनी ख़ुशी हुई मुझे, बता नहीं सकती माला , तू तो बिल्कुल नहीं बदली रे, बिल्कुल वैसी ही लगती है तू...सच.!

अरे नहीं रे ...देख न मेरे भी दो-चार बाल अब सफ़ेद हो रहे हैं...हा हा हा,  चल, ये तो बहुत अच्छा है..तू  यहाँ पास में ही है ..अब तो रोज़ मिला करेंगे लंच में ...सुन तेरे को देर हो रही होगी, उसने जैसे मुझे सोते से जगाया हो, मेरी आँखों के सामने फट से ठाकुर साहब आ गए , और उनकी वही कुटिल मुस्कान ! मैंने झट से उनके ख्याल को झटक दिया , चल फिर कल मिलते हैं लंच में ...तू यहीं आ जाना मैंने उसे हिदायत दी, पक्का आ जाऊँगी बोल कर वो फिर मुझसे लिपट गई , आँखें मेरी भी नम हो गईं, और वो ख़ुद को समेटती अपना पर्स सम्हालती चल पड़ी..

मैं खड़ी होकर पीछे से उसे जाती देखती रही ...नर्स !! अपने अभिमान के चूर-चूर होने का तमाशा देखने के बाद ..इससे बेहतर पेशा और क्या हो सकता था उसके लिए ..!

हाँ नहीं तो...!!

हम हैं इंडियन ...डोंट माइंड ...


हम !
उम्र में अब क़ैद हो रहे हैं
देखो 
हमारे बाल अब सफैद हो रहे हैं
कौन जाने
मियाद क्या है इस जिस्म की
अब तो 
खून भी रगों में सफैद हो रहे हैं
देखती हूँ
हर तरफ बर्फ सी गिरी हुई
सारे ही 
रंग अब सफैद हो रहे हैं
मेरी सोच 
को तो अब लग गए हज़ारो पर
पर
अलफ़ाज़ मेरे फिर क़ैद हो रहे हैं.....

हम हैं इंडियन ...डोंट माइंड ...

Sunday, August 15, 2010

मैं और मेरी परेशानियाँ अक्सर ये बातें करते हैं कि....


सामने खड़ी हो जातीं कभी 
और कभी घेरे हुए
कभी उलझ जातीं हैं 
और कभी उलझा गईं 
सकपका जाती हूँ मैं 
जब भी ये आ जातीं हैं 
फिर ज़िन्दगी को और थोड़ी
मुश्किल बना जातीं हैं
इनसे दामन बचाना 
वो कहाँ आसान है
ज़िन्दगी को कहीं भी 
बस रुला जातीं हैं ये
लेकिन अब.. 
मैं भी इनके 
संग डग भरने लगी हूँ 
अब नहीं डरती हूँ इनसे 
मैं भी अब भिड़ने लगी हूँ 
सुख हमेशा झाड पल्ला 
दूर खड़ा हो जाता है 
और वहीं से ही मुँह बना 
ठेंगा हमें दिखाता है
सुख से है काहे की दोस्ती 
जब साथ देता है नहीं 
और परेशानियाँ हैं कि 
बस संग छोड़ती ही नहीं
फिर भी...
मैं और मेरी परेशानियाँ 
अक्सर ये बातें करते हैं कि अगर सुख होता तो... ऐसा होता ..सुख होता तो ..वैसा होता ....blah blah blah blah ... 




Saturday, August 14, 2010

एक घर तो आज उजड़ना ही है...एक लघु-कथा ..

उसने अपनी दोनों बेटियों की शादी बड़ी धूम धाम से और अपनी हैसियत के अनुसार कर दी थी...बेटियाँ ससुराल चली गईं और अपनी गृहस्थी सम्हालने लगीं...
कई साल बीत गए ...पत्नी की बहुत इच्छा थी, अपनी बेटियों का कुशल-क्षेम जानने की...पत्नी के बार-बार आग्रह करने पर वो चल पड़ा बेटियों से मिलने...

बड़ी बेटी कृषक के घर ब्याही गई थी...वो उसके घर पहुँचा...सारा हाल समाचार जानने के बाद जब वो चलने को हुआ तो, बेटी ने कहा..पिता जी आज हमलोगों में खेतों में धान की बोवाई की है...बादल तो घिर आए हैं, आसमान में ..ईश्वर से प्रार्थना कीजिये कि बरसात हो जाए...वर्ना बहुत मुसीबत हो जायेगी...पानी न मिले तो फसल बर्बाद हो जायेगी...और फिर हमलोग कहीं के नहीं रहेंगे..उसने कहा बेटी ईश्वर भला करेगा...


अब वो दूसरी बेटी के घर पहुँचा...उसका विवाह एक कुम्हार से हुआ था ..कुशलक्षेम जान कर जब वो चलने को हुआ, दूसरी बेटी ने कहा पिता जी ..बाकी तो सब ठीक है..लेकिन आज हमलोगों ने बहुत मेहनत से मिटटी के बर्तनों का आवा लगाया है..और देख रही हूँ आसमान में बदल घिर आए हैं...अगर ये बरसात हो गई तो, बहुत नुकसान हो जायेगा... आप ईश्वर से प्रार्थना कीजिये कि आज बरसात न हो...पिता ने कहा ..ईश्वर की जैसी इच्छा...

जब वो घर आया तो पत्नी ने पूछा.. मेरी बेटियाँ कैसी हैं ? व्यक्ति ने कहा ..वैसे तो अब तक सब ठीक ठाक है...लेकिन किसी एक का घर आज तो उजड़ना ही है..! 

आधी रात का सवेरा ...


दिल्ली ने !
अतीत के 
अनगिनत उत्सव देखे हैं,
चक्रवर्ती सम्राटों के राजतिलक देखे हैं,
शत्रुओं की पराजय देखी,
विजय का विलास देखा,
अपूर्व उल्लास देखा,
परन्तु...
ऐसी एक घड़ी आई 
जब...
सूर्योदय और सूर्यास्त का 
अंतर मिटते देखा,
बड़े-बड़े महोत्सवों 
और महान पर्वों को 
फीका पड़ते देखा,
उस रात... 
मतवारे, दिल्ली की सड़कों पर झूम रहे थे,
कितने ही सपने, 
लाखों रंग लिए
बूढी आँखों में घूम रहे थे,
दिल्ली की धमनियों में 
स्वतंत्रता
यूँ अवतरित हुई थी,
जैसे...
धरती पर 
स्वर्ग से गंगोत्री उतर आई हो,
आधी रात को तीन लाख ने
सुर मिलाया था,
'जन-गण-मन', 'वन्दे मातरम्' 
का जयघोष लगाया था,
पहली बार...
'शस्य-श्यामला'
'बहुबल-धारिणी'
'रिपुदल-वारिणी'
शब्दों ने...
स्वयं ही पुकार कर
अपना सही अर्थ
इस दुनिया को बताया था,
ललित लय में 
हिलते हुए वो अनगिनत सिर,
क्या सोच रहे थे 
ये इतिहास में नहीं लिखा गया, 
मगर वो तारीख़ 
दर्ज हो गयी आने वाली 
अनगिनत शताब्दियों के लिए,
जब...
आधी रात के सवेरे ने
१५ अगस्त १९४७ को,
आँख खुलते ही
सलामी दी थी
नवीन, अभूतपूर्व 
तिरंगे को,
जयघोष के नाद से 
जनसमूह की नाड़ियाँ,
युद्धगान से धमक उठीं,
माँ भारती ने अपनी बाहें फैला दी
अपने बच्चों के लिए, 
क्योंकि अब !
कोई बंधन नहीं था...!
जय हिंद...!!



सभी चित्र गूगल से साभार...