ख़ुशबू सी उड़ रही है, दिल के बहुत करीं था
कोई ख़बर दो उसकी, कोई तो पता दो
वो जो मेरा हमसफ़र था, वो मेरा हमनशीं था
वो खफ़ा-खफ़ा था मुझसे, कुछ बदगुमान था वो
यूँ बिछड़ गया वो मुझसे, मुझको गुमा नहीं था
ये हवाएँ मुझको क्यूँ कर, यूँ बींधने लगीं हैं
थीं रंगीनियाँ बहाराँ, मौसम-ए-खिज़ा नहीं था
पोशीदा हुस्न परदे में, और कैफ़-असर कर बैठा
नज़रों में ही शायद, हिजाबे निशाँ नहीं था
जब आई थी क़यामत, हम सामने खड़े थे
थी लताफत बस तारी, मेरी जीस्त में कुछ नहीं था
करीं=क़रीब
पोशीदा=छुपा हुआ
पोशीदा=छुपा हुआ
कैफ़-असर=मादक/नशे का असर
मौसम-ए-खिज़ा=पतझड़ का मौसम
लताफत=लालित्य / माधुर्य
जीस्त=जीवन
वो ग़ज़ल याद आ गयी, 'तेरे बारें में जब सोचा नहीं था, मैं तन्हा था मगर, इतना नहीं था.. !
ReplyDeleteलिखते रहिये ...
वो खफ़ा-खफ़ा था मुझसे, कुछ बदगुमान था वो
ReplyDeleteयूँ बिछड़ गया वो मुझसे, इसका गुमा नहीं था
खूबसूरत गज़ल
Kya kahun...aajbhi nishabd laut rahee hun.
ReplyDeleteबहुत सुंदर गजल, धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत गज़ल ...धन्यवाद !
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत गजल.....
ReplyDeleteएक एक अकेला शेर पूरी पूरी गज़ल पर भारी है। ऊपर के कमेंट्स में भी सभी ने इसे गज़ल कहा है और आप कभी ये कह बैठी थीं कि आप को गज़ल कहना नहीं आता। ऐसी रचना और साथ में ऐसा चित्र संयोजन, बिना आपके नाम के भी पहचान जायेंगे पढ़ने वाले कि अदा जी की लिखी गज़ल है।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है आपने, आभार स्वीकार करें।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ReplyDeleteअलाउद्दीन के शासनकाल में सस्ता भारत-2, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
बहुत खूब।
ReplyDeleteआज मजाल की तर्ज पर मुझे भी कुछ याद आ गया ...
ReplyDeleteशायद कोई फिल्मी गीत था ...
यूं ज़िन्दगी की राह में मज़बूर हो गये !
इतने हुए क़रीब कि हम दूर हो गये !!
बहरहाल आपका लिखा हमेशा की तरह बेहतरीन !
बहुत बोलती हैं तुम्हारी ये आंखें,
ReplyDeleteज़रा अपनी आंखों पर पलकें गिरा लो,
मुझे छू रही हैं...
जय हिंद...
बहुत ही खूबसूरत गजल कही हैँ आपने। गजल का प्रत्येक मिश्रा बजनदार। आभार! -: VISIT MY BLOG :- ऐ-चाँद बता तू , तेरा हाल क्या हैँ।..........कविता आपका इंतजार कर रही हैँ ये कविता।
ReplyDeleteबहुत खूब जनाब....बहुत सुंदर
ReplyDelete‘यूँ बिछड़ गया वो मुझसे, मुझको गुमा नहीं था’
ReplyDeleteपर मैंने अभी देखा, वो यहीं कहीं था :)
क्या बात है ... लाजवाब शेर ..... बहुत खूबसूरत ग़ज़ल ....... मज़ा आ गया पढ़ कर ...
ReplyDeleteदीदी,
ReplyDeleteओहो ये फोटो तो गजब लग रहा है .. वाह
और रचना का क्या कहूँ ये तो महा शानदार है :)
बस एक कन्फ्यूजन है
ये हवाएँ मुझको क्यूँ कर, यूँ बींधने लगीं हैं
या
ये हवाएँ मुझको छू कर, यूँ बींधने लगीं हैं
दीदी,
ReplyDeleteबस एक कन्फ्यूजन है :(
गौरव....
ReplyDeleteमेरी पंक्तियों में मैंने कहना चाहा है ...
ये हवाएँ मुझे 'क्यूँ' इस तरह आहत कर रहीं हैं...जब कि इस समय बहार का मौसम है, पतझड़ का मौसम तो नहीं है...
उम्मीद है अब तुम समझ गए होगे...
दीदी उफ्फ्फ .... मैं कित्ता बड़ा वाला बेवकूफ हूँ !!!
ReplyDeleteएक सिम्पल सी बात नहीं समझ पाया !!!
अफ़सोस :( (ये तो मुझे मेरी आई क्यू प्रोब्लम लग रही है ??)
मैं शर्मिंदा हूँ ... मेरी वजह से आपको इतनी सिम्पल सी बात को स्पष्ट करना पड़ा
पर थोड़ी सी छूट ... "अबोध पाठक मान कर" अवश्य मिलनी चाहिए
ऐसा पहली बार हुआ है :(
दीदी,
ReplyDeleteउफ्फ्फ .... मैं कित्ता बड़ा वाला बेवकूफ हूँ !!!
एक सिम्पल सी बात नहीं समझ पाया !!!
अफ़सोस :( (ये तो मुझे मेरी आई क्यू प्रोब्लम लग रही है ??)
मैं शर्मिंदा हूँ ... मेरी वजह से आपको इतनी सिम्पल सी बात को स्पष्ट करना पड़ा
पर थोड़ी सी छूट ... "अबोध पाठक मान कर" अवश्य मिलनी चाहिए
ऐसा पहली बार हुआ है :(
गौरव....ऐसा कुछ नहीं है...तुम एक बहुत ही संवेदनशील व्यक्ति हो..
ReplyDeleteइसमें आईक्यू की कोई बात है ही नहीं...