Wednesday, November 21, 2012

क्या हम औरतें ऐसी ही होतीं हैं ???????

कल, एक बहुत ही खूबसूरत फिल्म आ रही थी टी वी पर, 'पिंजर' । यूँ तो कई बार देखा है इस फिल्म को, लेकिन हर बार यह फिल्म, मुझे बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर देती है । नायिका पूरो की कहानी ...एक स्त्री की, स्त्रियोचित संवेदनाओं की उथल-पुथल का इन्द्रधनुषी शाहकार । रिश्तों, भावनाओं का निहायत खूबसूरती से संजोया हुआ, एक मार्मिक दस्तावेज़ है, ये फिल्म। पाप-पुण्य, इंसानियत- हैवानियत, आबरू-बेआबरू, असंतोष, अविश्वास, छल-कपट, धर्मान्धता, बदला और बँटवारे की राजनीति के बीहड़ में रिश्तों का मुरझाना, पनपना और हर विसंगति को अपनाते, दरकिनार करते हुए, एक स्त्री के मन में, अपने ही घाती के लिए प्रेम का फूटना, अपने आप में, एक करिश्मा तो है, लेकिन एक सवाल खड़ा कर, सोचने को मजबूर कर ही देता है,  आखिर क्यूँ और कैसे, प्रेम संभव हो जाता है, उसी से जिसने उसे कहीं का नहीं छोड़ा होता है ?

एलिजाबेथ स्मार्ट का अपहरण 2002 में हुआ था, 9 महीनों बाद वो मिली। पुलिस ने उसे ढूंढ निकाला और साथ ही उसका अपहरणकर्ता भी गिरफ्तार हुआ। हैरानी इस बात से हुई, कि एलिज़ाबेथ को, अपनों के पास और अपने घर सुरक्षित पहुँच जाने के बाद भी, अपने अपहरणकर्ता की सलामती की फ़िक्र थी। ये क्या है ? इसे आप प्रेम कहेंगे, या आदत या फिर असुरक्षा में सुरक्षा का अहसास ? या फिर इसे आप स्त्रियोचित गुण ही कहेंगे ?

ऐसी ही एक घटना याद आ रही है, मेरे बचपन में घटी थी । 'आशामणि' नाम था उसका, लेकिन हमलोग, 'आसामनी' ही कहते थे। मोहल्ले की ही लड़की थी, बराबर ही उम्र रही होगी हमारी। तब 14-15 वर्ष रही होगी उसकी उम्र, जिस दिन, आसामनी गायब हो गयी थी । मोहल्ले में ये चर्चा, बहुत दिनों चलती रही, आख़िर आसामनी गयी कहाँ ? 

मोहल्ले वालों ने, बहुत ढूँढा उसे, उसे नहीं मिलना था, वो नहीं मिली। वैसे भी, गरीब की बेटी गायब हो जाए तो,  'बोझ उतरने' जैसा ही अहसास होता है, परिवार को। परिवार वालों के चेहरों से तो, ये भी लगता था कभी-कभी, कहीं आसामनी मिल ही न जाए, फिर जो ग्रह कटा है वो फिर झेलना पड़ेगा। कुछ दिनों तक ये चर्चा मोहल्ले में, सिर्फ 'अटकल' लगाने के लिए होती रही, बाद में जब सारे 'अटकली विकल्प' ख़त्म  हो गए, तो चर्चा भी समाप्त हो गयी।  धीरे-धीरे, इस घटना की जगह दूसरी घटनाओं ने ले लिए, और आसामनी का गायब होना, अनगिनत घटनाओं की गर्द में दब कर 'कोल्ड केस' बन गयी। लेकिन, मेरे मन में ये घटना घर कर गयी थी, कारण शायद ये भी हो, हमउम्र होने की वजह से, रास्ते में आते-जाते, एक दूसरे से नज़रों का रिश्ता तो था ही, उसका इस तरह गायब हो जाना, मेरी नज़रों को खाली कर गया था, किसी एक फ्रेम में ...

आज से तीन साल पहले, मैं भारत गयी थी। माँ से मालूम हुआ कि, आसामनी आई हुई है। ये सुनते ही जाने क्यूँ, नज़रों का खाली फ्रेम भरता हुआ लगा था,  उसका नाम, बिलकुल भी अनजाना नहीं लगा। उसका एकदम से वापिस आना, मुझे कहीं अन्दर एक संतुष्टि का ठहराव दे गया, लेकिन उत्सुकता का उफ़ान भी थमा गया । मैं इतनी बेचैन हो गयी उससे मिलने को, कि नहीं रोक पायी खुद को, और चल ही पड़ी मैं उससे मिलने। 

उसके घर के पास जब पहुंची, तो आस-पास कौतुकता भरी नज़रें, मुझ पर टिकी ही रहीं, मानों पूछ रहीं हों, आज कैसे इधर का रास्ता भूल गयी तुम ? ऐसे तो कभी नहीं आती ...पूछा तो किसी ने नहीं, लेकिन मैंने ही कह दिया, आसामनी से मिलने आये हैं हम। उसके घर के लोग, भाग-भाग का कुर्सी ला रहे थे, और मेरी आँखें, आसामनी को ढूंढ रहीं थीं। कहाँ थी वो इतने दिन ? कैसी दिखती होगी ? क्या हुआ उसके साथ ? दिल में सवालों का भूचाल आया हुआ था। और कलेजा ऐसे धक्-धक् कर रहा था, जैसे सदियों बाद, मैं ही वापिस आई हूँ। मेरा इंतज़ार, बस कुछ पलों का ही था और वो सामने आ ही गयी। देखा तो, कहीं से भी ये, वो आसामनी थी ही नहीं, न पहनावे से, न बोल-चाल से। ठेठ हरियाणवी बोली और ठेठ हरियाणवी परिधान। लेकिन आँखों में, वही पुरानी पहचान थी। मैंने उसका हाथ थाम लिया, हाथ थाम कर यूँ लगा था, जैसे मैंने खुद को पा लिया हो। एक बहुत लम्बे, अनकहे, अनबूझे, इंतज़ार का अंत हुआ था, उस दिन। 

मेरे पूछने पर जो उसने बताया था, वो कुछ इस तरह था ... वो उस शाम, दूकान गयी थी कुछ लेने, उसकी माँ ने भेजा था। वापसी में अंधेरा, थोडा और घना हो गया था। रास्ते में एक औरत मिली थी, उससे बातें करती रही वो ... कुछ खाने को दिया था उसने। ग़रीब की आशाएँ, हमेशा पेट पर ही ख़त्म होतीं हैं। बस वही खाना, उसके लिए मुहाल हो गया, उसके बाद जब, उसकी आँखें खुली, तो ख़ुद को ट्रेन में पाया उसने। जीवन में पहली बार ट्रेन में भी बैठी थी वो। वो औरत उसके साथ ही थी, कुछ कह नहीं पायी वो, न उस औरत से, न ही सहयात्रियों से। बचपन से, डर कर जो रहने को बताया गया था उसे। उसे बोलना तो  सिखाया ही नहीं गया था। उसे तो बस यही बताया गया था, लडकियां ज्यादा नहीं बोलतीं, बस वो नहीं बोली।

पता नहीं किन-किन रास्तों से, कहाँ-कहाँ होती हुई, उसकी ज़िन्दगी, कहाँ पहुँच रही थी, उसे कुछ भी मालूम नहीं था। कठपुतली की डोर की तरह, उसके जीवन की डोरी भी, एक हाथ से दुसरे हाथ में, आ-जा रही थी। 

अंततोगत्वा , उसे हरियाणा में, एक किसान परिवार को बेच दिया गया, उसकी क़ीमत क्या लगी, ये उसे नहीं मालूम। परिवार में चार भाई थे, और एक पिता भी। माँ नाम की 'चीज़' भी थीं वहाँ, लेकिन बस 'चीज़' ही थी वो। खरीद कर या जीत कर लाई गयी 'चीज़' पर तो, सबका अधिकार होता ही है। आसामनी पर भी, अपने-अपने अधिकार का प्रयोग सबने किया। और बस उसकी ज़िन्दगी की सुबह-शाम उस घर में बदल गयी। दिन भर खेतों में हाड-तोड़ मेहनत, घर का भी काम और फिर रात को .....। खेत से घर और घर से खेत तक की दूरी तय करती हुई, उसकी ज़िन्दगी कटने लगी।

सोचती हूँ, कैसे एक बच्ची का अल्हड़पन, रातों-रात 'प्रोमोशन' पाकर उसे औरत बना देता है ? बचपन उम्र के दायरे में नहीं होता, वो तो शरीर के दायरे में होता है, बस एक बार शरीर, उस दायरे से बाहर आ जाए, फिर चाहे उम्र कुछ भी हो, बचपन खो जाता है।   

ख़ैर, एक ज़िन्दगी की शुरुआत, खरीद-फ़रोख्त से शुरू हुई, फिर वासना की धरातल पर, वर्षों घिसटने के बाद , रिश्तों के बीज धीरे-धीरे पनपने लगे, और देखते ही देखते आसामनी, उस परिवार के वंशज जनने लगी। उसके चार बच्चे हुए। उस परिवार के सबसे छोटे बेटे की, अब वो पत्नी कहाती है। और वही उसे, उसके परिवार से मिलाने, रांची ले आया था। मिली मैं, आसामनी के 'पति' से भी, अपनी गर्दन वो उठा नहीं पाया, मेरे सामने, न ही नज़रें मिला पाया वो। लेकिन उसकी झुकी हुई नज़रें भी, मुझे ठेंगा दिखा रहीं थीं। ये बिलकुल वैसा ही था, जैसे किसी ने, किसी निर्दोष का बलात्कार किया हो, और फिर उसी लड़की से शादी करके, महान बन गया हो। उस आदमी से मिलकर मन खिन्न हो गया था। लेकिन मन में, यह भी आया, विश्वास की कोंपलें कहीं तो फूटीं थीं, जो ये ले आया आसामनी को उसके माँ-बाप से मिलाने। मैं घर तो लौट आई, लेकिन मन शान्ति और अशांति की जंग में मशगूल था । ये मन भी न, बहुत अजीब है।

दो-चार दिन बाद ही, आसामनी बदहवास सी मेरे घर आई, पता चला उसके पति की तबियत ख़राब है, मेरी जानकारी में कोई, अच्छा सा डॉक्टर है तो बता दूँ। उसके आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे, मैं फ़ोन में उलझी, उसे हर तरह से ढाढस बंधाने की कोशिश कर रही थी। उससे बार-बार मैं कह रही थी, सब ठीक हो जाएगा। और वो मुझसे कहती जाती थी, 'अगर मेरे आदमी को कुछ हो गया तो, मैं जी नहीं पाऊँगी ??? और मैं आवाक़, उसका मुंह देख रही थी और  सोच रही थी ......क्या सोच रही थी ??? पता नहीं मैं क्या सोच रही ...सच कहूँ तो, कुछ सोच ही नहीं पा रही थी ...

क्या है ये ? प्यार, प्रेम, मुट्ठी भर आसमान या धूप का एक टुकड़ाअसुरक्षा में सुरक्षा का अहसास, या फिर पिंजरे में आज़ादी की साँस, .... या फिर, शायद हम औरतें ऐसी ही होतीं हैं  ???????

Tuesday, November 20, 2012

ऐसा भी होता है, इंडिया में .....:):):)

ऐसा भी होता है इंडिया में  .....
 :

और ये भी एक तस्वीर है, इसी दुनिया की ....

Monday, November 19, 2012

इक कली, जिस गली में बलि चढ़ गयी, वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे....

ज़िन्दगी के लिए कुछ नए रास्ते, हम बनाते रहे, फिर मिटाते रहे 
थी वहीँ वो खड़ी इक हंसीं ज़िन्दगी, हम उससे मगर दूर जाते रहे 

रात रोई थी मिल के गले चाँद से, और अँधेरे, अँधेरा बढ़ाते रहे 
आँखें बुझने लगीं हैं चकोरी की अब, दूर तारे खड़े मुस्कुराते रहे 

बिखरे-बिखरे थे मेरे, वो सब फासले, हम करीने से उनको सजाते रहे 
अब समेटेंगे हम अपनी नज़दीकियाँ, दूरियों को गले से लगाते रहे 

वो पेड़ों के झुरमुट से अहसास थे, और ख्वाबों की बेलें लिपटती रहीं 
हम हक़ीक़त के हाथों यूँ मरते रहे, बढ़ के पेड़ों से बेलें हटाते रहे

कोई भूखा मरा मंदिर के द्वार पर, लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
इक कली, जिस गली में बलि चढ़ गयी, वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे


और अब एक गीत ...इसे गाया है किशोर कुमार ने...लेकिन फिलहाल मैं गा रही हूँ...हाँ नहीं तो...!!
अजनबी तुम जाने पहचाने से लगते हो (थोड़ा सा अलग करने की कोशिश की है...लगता है मिस फायर हो गया है :):) )

Saturday, November 17, 2012

हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू .....आवाज़ 'अदा' की ....

आज सुबह जब आँख खुली, तो ये गाना बहुत याद आया ...
सोचा लगे हाथों गा ही दूँ ...आशा है आपको उतना बुरा नहीं लगेगा।
गुलज़ार के बेमिसाल बोल हैं ....हमने देखी  है उन आँखों की महकती खुशबू .....फिल्म का नाम 'ख़ामोशी'..
यहाँ आवाज़ 'अदा' की ....

Thursday, November 15, 2012

यहाँ मर्ज़ क्या था और मरीज़ कौन ..?


मंजू दी, बस देख रहीं थीं, अपने सामने, अस्पताल के बेड पर पड़े, रमेश जीजा जी के निर्जीव शरीर को। छह फीट का इंसान, चार फीट का कैसे हो जाता है ?  वो चेहरा जो कभी, मन मंदिर का देवता था ..आज ....!!! मंजू दी की आँखों में, अजीब सा धुँवा समाने लगा था। पुरानी संदूक से निकले, फटे चीथड़ों सी यादें , आँखों के सामने, लहराने लगीं, पर एक मुट्ठी लम्हा भी वो, समेट नहीं पायीं, जो उनका अपना होता। उनकी आँखों में सूखे सपनों की चुभन, हमेशा की तरह, आज भी उन्हें महसूस हो रही थी। 

मंजू दी को आज, नियमतः रोना चाहिए था, क्योंकि आज वो विधवा हो गयीं हैं,  और यह विधान भी है, लेकिन वो चाह कर भी रो नहीं पा रही थी। अन्दर ही अन्दर वो, आधी कीचड़ में डूब गईं थीं, अगर जो, कहीं वो रो पड़ीं, तो शायद भरभरा कर ढह जायेंगी। कमरे में डॉक्टर, नर्स,  मशीनों को और जाने क्या-क्या, अगड़म-बगड़म समेटने में लगे हुए थे। सबके चेहरों पर, वही रटी-रटाई ख़ामोशी की चादर, चढ़ी हुई थी। कुछ इस्पाती नज़रें, मंजू दी पर, इस आस से टिकी हुई थीं, कि अब उन्हें बुक्का फाड़ के रोना चाहिए। लेकिन उनकी आशा के विपरीत, मंजू दी ने अपना पर्स उठाया, डॉक्टर से कहा कि, बोडी मेरा छोटा भाई ले जाएगा। डॉक्टर ने अपनी तरफ से, उन्हें याद भी दिलाया, मिसेज पाण्डेय आई एम रीअली सॉरी फ़ॉर योर लोस...वी डिड आवर बे ... बीच में ही मंजू दी ने बात काट दी, इट्स ओ . के ....रीअली ...और वो इत्मीनान से बाहर निकल आयीं।

मंजू दी की 30 साल की गृहस्थी में से, 25 साल की गृहस्थी की, कुल जमा पूँजी थी, अविश्वास और धोखा। रमेश पाण्डे, अपने आप में, एक बड़ा ही मशहूर नाम था, उस ज़माने में, ख़ास करके रांची जैसी छोटी जगह के लिए। हैंडसम इतना कि, ग्रीक गॉड पानी भरते नज़र आते थे, उसपर से उनका डॉक्टर होना, मतलब ये कि, एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा। अगर जे डॉक्टर नहीं बनते, तो हीरो बन ही जाते, धर्मेन्द्र भी उनसे उन्नीस ही पड़ते। 

मंजू दी मेरी मौसेरी बहन थीं। मेरी मौसी ने, एक चाईनीज डेंटिस्ट से शादी की थी। रांची में पहले सारे डेंटिस्ट चाईनीज ही हुआ करते थे। खैर, मेरे चाईनीज मौसा का क्लिनिक, रांची के बहुत ही मेन इलाके में था/है, और उनका नाम भी बहुत था, इसलिए मेरी मौसी का घर, रांची के गिने-चुने अमीरों में माना जाता था। कालान्तर में मौसी के, दो बच्चे हुए , मंजू दी और प्रदीप भैया। पैसा, पावर, पोजीशन ने, हमेशा ही, हमारे परिवार के बीच एक फासला रखा। ऐसा नहीं था, कि हमारे परिवार के बीच, प्रेम नहीं था, था बिलकुल था, लेकिन कहीं, कोई एक अनकहा सा फासला तो था ही। 

मंजू दी, उन दिनों मास्टर्स कर रहीं थीं। पता नहीं क्यूँ, अचानक उनके बाल बहुत गिरने लगे। सारे घरेलू नुस्खे आजमा लिए गए, लेकिन कुछ कारगर नहीं हुआ। हार कर उन्होंने डॉक्टर के पास जाना ही, उचित समझा। खैर, किसी ने नाम बता दिया, डॉक्टर रमेश पाण्डे, बहुत अच्छे हैं ऐसी बातों के लिए। बस मंजू दी पहुँच गई उनको दिखाने। डॉक्टर रमेश की दवा का असर हुआ या नहीं, ये तो मालूम नहीं, लेकिन, डॉक्टर रमेश का असर ज़रूर हुआ था। फिर, जैसा कि होता है, ख्वाहिशों, सपनों ने, हकीक़त के मुखौटे पहन लिए। शिद्दत ने, मुद्दत की मियाद कम कर दी और एक दिन, मंजू दी, मिसेज पाण्डे बन गयीं। मैं छोटी थी, लेकिन गयी थी उनकी शादी में, बाल मंजू दी के, कम ही दिखे थे मुझे, लेकिन चेहरे पर खुशियों का अम्बार लगा हुआ था। मौसी भी फूली नहीं समा रही थी, सबकुछ पिक्चर परफेक्ट लग रहा था।

थोड़े ही दिनों में, डॉ. रमेश, जो अब मेरे जीजा जी भी थे, ने अपना क्लिनिक, मौसी के क्लिनिक में शिफ्ट कर लिया, जगह के बदलते और एक नामी क्लिनिक में जगह मिलते ही, रमेश जीजाजी की प्रैक्टिस चमचमा गई। मंजू दी, की ज़िन्दगी बड़े सुकून से बीतने लगी, और इसी बीच उनकी, 2 बेटियाँ भी हो गयीं। 

अब, प्रदीप भैया (मंजू दी के छोटे भाई) की भी शादी हो गयी। घर में जब, नयी बहु आई, तो हिस्से की बात भी हुई, वो क्लिनिक जिस में, रमेश जीजाजी ने, अपनी प्रैक्टिस चला रखी थी, अब प्रदीप भैया को भी चाहिए थी, क्योंकि प्रदीप भैया भी डेंटिस्ट थे। यहीं से खटराग शुरू हो गया।  रमेश जीजाजी, जगह छोड़ने को तैयार नहीं थे और प्रदीप भैया उनको देने को तैयार नहीं थे । मंजू दी, इनदोनो के बीच पिस रही थी। आखिर दीदी ने, जीजाजी से कह ही दिया, मेरे छोटे भाई का हक मैं नहीं मार सकती, आपको ये जगह छोडनी होगी। फ़ोकट की जगह छोड़ना, नयी जगह ढूंढना, फिर से क्लाएंट बनाना, उतना आसान नहीं था। फिर जीवन का स्तर भी तो बहुत ऊंचा था, वहाँ से नीचे उतरना भी कब किसे मंज़ूर होता है ! लेकिन, उसे मेंटेन करना भी मुश्किल था। 

खैर, रमेश जीजाजी ने, दूसरी जगह अपना क्लिनिक खोला, लेकिन वो बात नहीं बनी, वजह अब क्या थी, ये नहीं मालूम। किस्मत ने साथ नहीं दिया, या वो मेहनत से क़तरा  गए, पता नहीं, लेकिन, कुल मिला कर बात ये हुई, कि उनकी प्रैक्टिस लगभग ठप्प हो गयी। किसी के पास कुछ न हो, तो उसे उतना बुरा नहीं लगता है, संतोष कर लेता है इंसान, कि चलो जी, हमारे पास तो है ही नहीं। लेकिन अगर किसी को, सब कुछ मिल जाए और फिर छिन जाए, तो उसे झेल पाना उतना आसान नहीं होता। कुछ ऐसी ही हालत, रमेश जीजाजी की भी हो गयी थी, और इसी बात के लिए, एक तरह से उन्होंने दीदी को, सज़ा देना शुरू कर दिया। वो अपने क्लिनिक जाते ही नहीं, घर का ख़र्चा चलाना मुहाल हो गया, दीदी को हार कर नौकरी करनी पड़ी। ख़ैर, जैसे-तैसे मंजू दी ने सब सम्हाल लिया। देखते-देखते पांच साल बीत गए। रमेश जीजाजी ने, घर के लिए कुछ भी सोचना बंद कर दिया था, उनको हमेशा यही लगता कि, उनको, उनका हक नहीं मिला। 

ख़रामा-खरामा ज़िन्दगी, मुट्ठी से रेत की तरह फिसलती जा रही थी, और मंजू दी अपने स्याह-सफ़ेद बेजान रिश्ते में रंग भरने की भरपूर कोशिश करती रही।  ये कोशिश शायद रंग भी ले आती, अगर उस दिन अप्रत्याशित रिश्तों का बम, अपने रिश्तों पर न फूटता। 

वो एक आम सी सुबह थी, मंजू दी हर दिन की तरह, सारे घर के काम निपटाने में लगी हुई थी, उसे ऑफिस भी तो भागना था। सुबह के आठ बजे थे, कॉल बेल  बजने की आवाज़ से ही, मंजू दी झुंझला गयी, कौन है ... का जवाब, जब नहीं ही मिला तो, उन्होंने दरवाज़ा खोल ही दिया। सामने एक औरत और उसके साथ 3 जवान लडकियां खड़ीं थीं, उन्हें लगा शायद कुछ बेचने, या चंदा माँगने आयीं हैं, झट से मना करके वो वापिस मुड़ी। जी हमें डॉ . रमेश पाण्डे जी से  मिलना है, एक लड़की ने कहा। अच्छा ! क्या काम है उनसे ? आपलोग क्लिनिक में क्यूँ नहीं जातीं, वो घर पर मरीजों को नहीं देखते हैं। जी हम मरीज नहीं हैं, ये मेरी माँ  हैं, थोड़ी अधेड़ उम्र की महिला की तरफ उस लड़की ने इशारा किया और हम तीनों बहनें हैं। डॉ . रमेश हमारे पिता हैं। क्याआआ ??? मंजू दी इतने जोर से चीखी, कि वो चारों भी एक बार को सहम गयीं। अब मंजू दी, आपे से बाहर हो गयीं, क्या समझती हो तुमलोग खुद को, किसी के घर पर आकर, कुछ भी अनाप-शनाप बक जाओगी। मंजू दी की आवाज़, बहुत तेज़ होती जा रही थी। शोर सुन कर रमेश जीजाजी भी आ गए, चारों स्त्रियों को देख कर, वो सकते में आ गए, उनकी चोर नज़रों ने,  इस बात की पुष्टि कर दी, कि वो चारों सच कह रहीं थीं। जीजाजी ने उनका सामान, जो उस दिन घर के अन्दर पहुँचाया, फिर कभी वो सामान बाहर नहीं आया । 

पथराना किसे कहते हैं, वो हमने तब ही देखा था। उस दिन दरवाज़े से कुछ, अनजाने, अनचाहे, अनबूझे रिश्ते अन्दर आये और, भरोसा, विश्वास, यकीन, जैसे भाव बाहर चले गए और साथ में चली गयी मंजू दी के होंठों की मुस्कान। रिश्तों की गर्माहट अब पूरी तरह ठंडी हो गयी थी। उसकी जगह शुरू हो गया, नित नए तजुर्बों का घाल-मेल, और नए ढर्रे से, पुराने रिश्तों को घसीटती हुई ज़िन्दगी। इत्ता बड़ा धोखा दिया था, रमेश जीजाजी ने। अपनी पहली शादी की बात, उन्होंने कभी नहीं बताई थी मंजू दी को, उसपर से 3 जवान लडकियां ? 

अब शुरू हो गयी, कभी न ख़त्म होने वाली, जिम्मेदारियों की दौड़। मंजू दी पर, अपनी दो बेटियों की जिम्मेदारी के अलावे, रमेश जीजाजी की 3 और बेटियों की जिम्मेदारी भी आ गयी। जद्दो-जहद की हर आंधी को चीरती हुई, मंजू दी आगे बढ़तीं गयीं, उन्होंने रमेश जीजाजी की, लड़कियों की शादी की, अपनी बच्चियों का पढाया-लिखाया, उनको अपने पैरों पर खड़ा किया। इसी बीच रमेश जीजा जी बीमार हो गए, उनकी तीमारदारी में भी, कभी कोई कमी नहीं की, मंजू दी ने। 

आज जीजाजी अपने जीवन की, आखरी घड़ियाँ गिन रहे थे अस्पताल में, और मंजू दी बैठीं थीं उनके सामने, उनकी आँखों में आँखें डाल कर, पूछ रहीं थीं उनसे, मैंने तो तुमसे माँगा था, हंसी-ख़ुशी का एक छोटा सा घोंसला, और तुमने मुझे थमा दिए, काले-पीले रंगों में लिथड़े कई अनचाहे रिश्ते । आखिर क्यों किया तुमने ऐसा ?   क्या जवाब देते जीजाजी, खैरात की ज़िन्दगी की मियाद पूरी हो चुकी थी और पाबन्दियाँ ख़त्म। और मैं सोचती रह गयी, यहाँ मर्ज़ क्या था और मरीज़ कौन ???

(पात्रों के नाम बदल दिए हैं ...)

Sunday, November 11, 2012

जन जन के धूमिल प्राणों में, मंगल दीप जले...(दीपावली की हार्दिक शुभकामना !!!)

(ये मेरी पुरानी कविता है लेकिन हर दीपावली में उपयुक्त लगती है मुझे )

जन जन के धूमिल प्राणों में
मंगल दीप जले -2

तन का मंगल, मन का मंगल
विकल प्राण जीवन का मंगल
आकुल जन-तन के अंतर में
जीवन ज्योत जले
मंगल दीप जले

विष का पंक हृदय से धो ले
मानव पहले मानव हो ले
दर्प की छाया मानवता को
और व्यर्थ छले
मंगल दीप जले

आज अहम् तू तज दे प्राणी
झूठा मान तेरा अभिमानी
आत्मा तेरी अमर हो जाए
काया धूल मिले
मंगल दीप जले

सुर में यहाँ सुने ....आवाज़ 'अदा' की, स्वबद्ध 'अदा' द्वारा (थोडा इंतज़ार करना पड़ता है :))

Friday, November 9, 2012

तीन बातें ..

ये तीन बातें  कभी न भूलें : प्रतिज्ञा करके, क़र्ज़ लेकर और विश्वास देकर 

ये तीन कभी वापिस नहीं आते : कमान से निकला हुआ तीर, ज़ुबान से निकली हुई बात और शरीर से निकला हुआ प्राण ।

ये तीन किसी का इंतज़ार नहीं करते : समय, मौत और ग्राहक 

इन तीनों को कभी छोटा न समझें : कर्ज़, शत्रु और बीमारी 

इन तीन चीज़ों में मन लगाए उन्नति होगी : ईश्वर, परिश्रम और विद्या 

इन बातों से आपका जीवन सुखी होगा : अतीत की चिंता न करें, भविष्य पर भरोसा मत करें और वर्तमान को व्यर्थ मत जाने दें 


Wednesday, November 7, 2012

सौदर्य की पीड़ा....

सौन्दर्य के प्रति सहज आसक्ति मानवीय गुण है। लेकिन सौन्दर्य प्राप्ति के लिए बर्बरता ही हद तक जाना अमानवीय प्रवृति। इसी जगत में ऐसी कितनी ही परम्पराओं ने सिर्फ सौन्दर्य प्राप्ति के लिए जन्म लिया है, जो न सिर्फ अप्राकृतिक हैं, बल्कि नृशंस और बर्बर भी हैं।
ध्यान रहे, ये सारे अमानवीय प्रयोग महिलाओं पर ही किये गए हैं।

फुटबाइंडिंग या पैर बंधन परंपरा:

चीनी मान्यताओं में महिलाओं के छोटे पैर सौन्दर्य के प्रतिमान माने जाते थे। चीन में पैर बंधन की बर्बर प्रथा का आरम्भ तांग राजवंश (618-907) के दौरान 10 वीं सदी में शुरू हुआ और यह प्रयोग एक हजार से अधिक वर्षों तक चला. फुटबाइंडिंग या पैर बंधन का अभ्यास आमतौर पर छह साल या उससे छोटी बालिकाओं पर किया जाता था। इस अनुष्ठान से पहले बालिका के दोनों पैरों को जानवरों के रक्त तथा जड़ी बूटी के गरम मिश्रण में डुबोया जाता था। तत्पश्चात, पैरों के नाखूनों को ज्यादा से ज्यादा काटा जाता था। फिर पाँव के अँगूठे को छोड़ कर बाकी की चार उँगलियों को निर्दयता पूर्वक तोड़ कर, उसे एड़ी की तरफ मोड़ दिया जाता था ताकि उनका विकास आगे की ओर न हो, फिर उसी मिश्रण में भिगोई एक इंच चौड़ी और दस फीट लंबी रस्सी से उनके पैरों को बांध दिया जाता था, जिससे किसी भी कीमत पर पैर का सही विकास न हो।  ऐसा करने से महिला के पाँव 4-5 इंच ही बढ़ पाते थे। यह अमानुषिक परंपरा, प्रतिष्ठा और सौंदर्य, का बोधक था।










कांस्य के छल्ले और गर्दन की लम्बाई :


बर्मा में एक जनजाति पायी जाती है जिसका नाम है 'कायन'. यूँ तो यह भी अन्य जनजातियों की तरह ही है, लेकिन इस जनजाति की महिलाओं के विशेष परिधान ने लोगों को आकर्षित किया है। यह रूचि इसलिए हुई है, क्योंकि कायन महिलाएं अपनी नाजुक गर्दन में भारी-भारी कांस्य के छल्ले पहनती हैं। जिनकी संख्या उम्र के साथ-साथ बढ़ती ही जाती है। कांस्य छल्ला धारण का अनुष्ठान बालिकाओं के पांच वर्ष की आयु में ही शुरू हो जाता है और यह ता-उम्र चलता ही रहता है। उम्र के साथ, महिला की गर्दन में छल्लों की संख्या बढती है, उनका बोझ बढ़ता है और उनकी गर्दन भी लम्बी होती जाती है, जो उन्हें अधिक सुन्दर और आकर्षक बनाता है, ऐसा माना जाता है। 

सदियों से यह परंपरा कायन जाति की महिलाओं की पहचान रही है। इस प्रथा को अपनाने का मुख्य कारण गर्दन की लंबाई को बढ़ाना है, और लम्बी गर्दन खूबसूरती का साक्षात प्रतिमान माना जाता है। 

इस परम्परा को निभाने में कितने कष्ट है, एक बार इसे भी सोचना चाहिए।  एक बार कांस्य के छल्ले पहन लिए जाएँ तो इन्हें उतारना लगभग असंभव है| जीवन भर गर्दन पर बोझ लादे रहना, जो लगभग 5 किलो होता है, गर्दन की त्वचा को कभी भी प्राकृतिक हवा-पानी नहीं मिलता, फलतः उसका रंग ही बदल जाता है, गर्दन हमेशा छल्लों पर टिकी रहती है, इसलिए गर्दन की हड्डी बहुत कमजोर हो जाती है, जिसके कारण, अगर छल्ले हटा दिए जाएँ, तो गर्दन के टूटने का भी भय रहता है।

इतनी पीड़ा महिलाओं की अपनी पसंद है, सौन्दर्य के लिए है, या पुरुषवर्ग का अपना वर्चस्व जताने का तरीका ???  


Tuesday, November 6, 2012

मृत्यु के बाद क्या होता है ?



क्यों आत्मा पृथ्वी पर जन्म लेती है, और क्यों वह इतने कष्ट झेलती है ? मृत्यु के बाद क्या होता है, और भाग्य क्या है? क्यों दो व्यक्तियों के जीवन में इतनी असामनता है ? हिंदू धर्म के अनुसार, मृत्यु के उपरान्त भी आत्मा का विनाश नहीं होता, जो  ब्रह्मांड की अन्य अवधारणाओं के साथ असंगत है,  जो साधारनतया यह बताती हैं कि मृत्यु के साथ ही सबकुछ समाप्त हो जाता है, और उसके बाद के जीवन का कोई अर्थ नहीं। परन्तु ये अवधारणायें, दृश्य लोगों के बीच की स्पष्ट असामनताओं की व्याख्या नहीं कर पाती। सब बराबर पैदा नहीं होते, कुछ बुरी प्रवृत्तियों के साथ जन्म लेते हैं, तो कुछ अच्छी प्रवृतियों के साथ , कुछ मजबूत हैं और कुछ कमजोर, कुछ भाग्यशाली हैं, और कुछ दुर्भाग्यपूर्ण हैं।  इसके अलावा, यह भी अक्सर देखने को मिलता है पुण्य  करनेवाले पीड़ित हैं और शातिर समृद्ध। क्या इसे हम परमेश्वर का अन्याय या उसके द्वारा किया गया भेद-भाव कहेंगे ?


हिंदू धर्म का कहना है, कि जीवन के दुख और असमानताओं का निदान मृत्यु के पश्चात नहीं बल्कि जन्म से पहले ही हो जाना चाहिए। पुनर्जन्म, आत्मा के अमरत्व का परिणाम और मृत्यु आने वाले अनेक जीवन की श्रृंखला  को जारी रखने के लिए विश्राम स्थली। और यही वो समय होता है, जहाँ अगले जन्म के निर्णय, कर्मों का लेखा-जोखा, योनी निर्धारण इत्यादि होता होगा शायद।

हिन्दू दर्शन में पुनर्जन्म पूरी तरह से मनुष्य के 'कर्म' द्वारा शासित होता है। इस सिद्धांत के अनुसार मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है,और वह अपने 'कर्म' द्वारा पुनर्जन्म को बनाए रखता है .... 

दूसरी तरफ अगर , हम कुछ लोगों के जीवन का अवलोकन करें , जैसे सद्दाम, हिटलर, मुसोलोनी, बिन लादीन, गद्दाफी, इदी अमीन इत्यादि, ने जो इस जन्म में वैभवपूर्ण जीवन जिया, क्या वह सब उनके पिछले जन्म के कर्मों का परिणाम था ? जबकि इनमें से किसी को भी न पूर्वजन्म पर विश्वास था, न ही पुनर्जन्म पर यकीन। क्या उनके इस जन्म के कर्मों का उनकी आज की सफलता (??) में कोई हाथ नहीं था ? उन्होंने जो राजनीति, कूटनीति इस जन्म में खेली, उससे उनको ये सफलता नहीं मिली ?

कुछ लोगों को बिना मेहनत के ही सबकुछ मिल जाता है जबकि, कुछ अथक मेहनत करते हैं, फिर भी कुछ हासिल नहीं कर पाते... आखिर वजह क्या है ? क्या यह पूर्वजन्म के कर्मों के फल हैं ? कभी यह भी देखा है, लोग असफल होते हैं, फिर बार-बार कोशिश करते हैं, और सफल भी हो जाते हैं ...इसे क्या कहा जाएगा, आज की मेहनत या पिछले जन्म के कर्मों का परिणाम ...? 


आप अपने ऑफिस में सबसे काबिल माने जाते हैं, इसलिए नहीं कि आपने पिछले  जनम में बड़े पुण्य किये थे , बल्कि इसलिए माने जाते हैं, क्योंकि आज हर दिन आप, अपना काम पूरी निष्ठा से करते हैं। कोई व्यक्ति बहुत ईमानदार और सच्चा या बेईमान, धोखेबाज़, उसके आज के व्यवहार से माना जाता है, पिछले जन्म के व्यवहार से नहीं ...

ऐसे कई प्रश्न आये मन में जब मैंने ये पोस्ट पढ़ी :

http://mosamkaun.blogspot.ca/2012/11/blog-post.html?showComment=1352086662933#c9143398798382510055


भारतीय दार्शनिक पुनर्जन्म और कर्मफल को मानते ही रहे हैं और अब वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करने लगे हैं। विज्ञान ने अनुसार ही देखा जाए तो ऊर्जा का विनाश नहीं होता, उसकी सिर्फ अवस्था बदल जाती है। हमारी चेतना, ऊर्जा का शुद्धतम रूप है। 

सद्कर्म का फल हमेशा अच्छा होता है, इस जन्म में भी, अगले जन्म में भी और पिछले जन्म में भी, (अगर जो ये सब होता है तो) ...इत्ती तो हिंदी फिलम हैं, देखा नहीं है, हर बार धर्मेन्द्र, मीनाकुमारी, राजेश खन्ना, प्राण को हरा देते हैं।


मेरे पति हमेशा कहते हैं, तुमसे मेरा नाता सात जन्मों का है, और मैं जी भर के उनको सता लेती हूँ, क्योंकि मेरे हिसाब से 'ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा ' और मौका भी न मिलेगा दोबारा । 



हाँ नहीं तो ..!



Thursday, November 1, 2012

करवा चौथ की बहुत सारी बधाई आपको ...!

करवा चौथ की बहुत सारी बधाई आपको ...! 
तुम्हीं मेरे मंदिर .....आवाज़ 'अदा ' की