Thursday, September 30, 2010

इक ज़रा मेरी भी नज़र, भर जाए तो अच्छा है....




आज मेरी आँख से तू, उतर जाए तो अच्छा है
इस दिल से निकल अपने घर, जाए तो अच्छा है

नाज़ुक है बड़ा ख्वाब जो, मैंने छुपा रखा है
छूटे वो हाथों से, बिखर जाए तो अच्छा है

माना ग़ज़लगोई, पेचीदगियों का मसला है
इक शेर हमसे भी, अब सँवर जाए तो अच्छा है

बिठाया है दरबान, इस दिल के दरोदाम पर
तू इनकी नज़र बचा, गुज़र जाए तो अच्छा है

घटाएँ घटाटोप 'अदा', रेत की घिर आई हैं
इक ज़रा मेरी भी नज़र, भर जाए तो अच्छा है

Wednesday, September 29, 2010

लोलीपोप के दिन अब गए.....



काश इतनी नकारात्मकता से हम अपना दिल भी टटोलें कि हम खुद कितने गंदे हैं ...कितना आसान है किसी अच्छे कार्य में बुराई निकलना अगर यह देखना हो इस समय ब्लाग जगत की काँव काँव देखिये ! अपने नाम को चमकाने में लगे यह तथाकथित लेखक किस प्रकार देश को नंगा करने में लगे हुए हैं !

क्या बात कही गई है ...आपको नहीं लगता कि उद्धृत पंक्ति उनपर भी लागू हो सकती...जो ऐसा लिख रहे हैं...क्या ये नहीं हो सकता कि अपना नाम चमकाने की फ़िक्र उन्हें भी है ....

ऐसा क्यों कहा जा रहा है कि ब्लॉग में सब कुछ अच्छा-अच्छा ही लिखना वाजिब है ....जो ग़लत हम देख रहे हैं, वो हम नहीं लिखें क्या...हम भी बीबीसी की रिपोर्टिंग देख रहे हैं...अपनी कमियों से इतना डर क्यों, क्या सारे विदेशी खिलाड़ी हमारे ही ब्लोग्स को पढ़ने के लिए आ रहे हैं... जो हमने यहाँ लिख दिया है उसे सारे विदेशी खिलाड़ी पढेंगे आज ही बोरिया बिस्तर बाँध कर रवानगी की राय लेंगे ....

विदेशों में हम रहते हैं ..इसका अर्थ यह नहीं कि हम भारतीय नहीं है...और भारत की बिगड़ी छवि देख कर हमें दुःख नहीं होता है...न तो हमने कभी सोचा है कि 'देखों भारतीयों तुम कितने गन्‍दे हो। हम बड़े अच्‍छे हैं कि देश छोड़कर चले आए न‍हीं तो हमें भी इसी नरक में रहना पड़ता'(एक कमेन्ट ऐसा भी है)...अगर ऐसा होता तो हम कुछ नहीं कहते ...आराम से ज़िन्दगी बीत ही रही है...कोई कमी नहीं है...लेकिन मन से हम सच्चे भारतीय है...हर हिन्दुस्तानी की तरह हम भी रोजी-रोटी ही कमाने आए हैं...पहले बिहार से दिल्ली गए और अब दिल्ली से यहाँ....हम यहाँ रहते हैं तो क्या हुआ, हमारे प्रियजन वहीँ रहते हैं...और भारत की सरकार को पूरा टैक्स देते हैं...इसलिए उनकी सुविधा पर हमारा हक़ है और ये जानने का अधिकार भी कि आख़िर उनके टैक्स के पैसे कहाँ खर्च हो रहे हैं...

पुल गिरने के बारे में कह दिया गया कि हर देश में ऐसा होता है.... तो सिर्फ बुरी बातों में तुलना क्यों ..अच्छी बातों में भी तुलना की जानी चाहिए ...दूसरे देशों की ईमानदारी, समय की पाबंदी ..मंत्रियों की सच्ची देश भक्ति ....इनकी भी बात की जानी चाहिए...

भ्रष्टाचार के बारे में कहा गया कि निर्ममता से चोट करनी चाहिए...तो कब करनी चाहिए ये भी बताया जाए ...आपको नहीं लगता ६३ साल कुछ ज्यादा हैं ,चोट  के बारे में सोचते हुए....और फिर ऐसा भी नहीं है कि विदेशियों को मालूम नहीं भारत के बारे ...बहुत ही अच्छे तरीके से मालूम है...आज दुनिया बहुत छोटी हो चुकी है...कहीं कुछ भी बात नहीं छुपती...

अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बनना बहुत आसन है...हिम्मत तो तब है जब अपनी कमियों को स्वीकार करें....ऐसी वाह वाही की पोस्ट लिखने में कितनी देर लगेगी किसी को भी....ब्लाग पढ़े-लिखे लोगों का समूह है, एक स्वस्थ परिचर्चा होनी चाहिए....सिर्फ़ यह कह देना की १५ दिनों तक चुप रहें क्योंकि मेहमान आए हुए हैं...बहुत बचपने की बात है....हमारे मेहमान खेलने आए हैं..ब्लॉग पढ़ने नहीं आए हैं..और फिर १५ दिनों बाद कोई हादसा होता है तो क्या वो सही होगा ? मेहमानों की जान, जान है और हमारे लोगों की जान नहीं है क्या ?

फिर ये क्या बात हुई कि मेहमान आयें हैं तो उनको दिखाने के लिए अपने घर के कूड़े पर चादर ढँक दें...कि बाद में देखा जाएगा...वो 'बाद' कभी न आया है न आएगा....दिखावे में रहना हम हिन्दुस्तानियों की फ़ितरत है....इतना ही नहीं जो कमियाँ बताये उनके लिए ही ग़लत बात कही जाए...अगर पढ़े-लिखे सक्षम लोगों की सोच ये है जो फिर अनपढ़ों के क्या शिकायत....पीतल पर सोने का पानी बहुत दिनों तक नहीं चलता है...बहुत चढ़ा लिए पानी...अब कुछ सकारात्मक बात होनी चाहिए, लोलीपोप के दिन अब गए..अपने विवेक से काम लेने का दिन है....नींद से जागिये, और सोचिये....ऐसी ही सोच सबसे बड़ा कारण है देश में भ्रष्टाचार का, जब भी किसी ने कुछ कहने की कोशिश की है लोगों ने मुँह बंद करने की उससे ज्यादा कोशिश की है...आत्ममुग्धता की पराकाष्ठा इसे ही कहते हैं....

होना यह चाहिए कि जो भी खर्च हुआ है उसका सारा लेखा जोखा पब्लिक किया जाए....कहाँ कितना और कैसे खर्चा हुआ है...पूरी बैलेंस शीट...जनता के सामने रखी जाए, ये पैसा जनता का है, जनता को पूरा हक़ है इसके बारे में जानने का...

हाँ नहीं तो...!!
 

वो तो राम के भरोसे है न ...!!


संभावनाएं...
दिखाई नहीं देतीं
कभी-कभी 
निराशावादी अवधारणाओं में,
और 
कुछ असाधारण परिस्थितियाँ 
आ जाती हैं,
जिनका कोई विकल्प 
नज़र नहीं आता, 
पर जाने क्यों
ऐसा लगता है,
परिस्थितियाँ कैसी भी क्यों न हों 
कुछ न कुछ
व्यवहारिक लाभ प्रदान करती ही हैं 
हाँ..
भविष्य के विषय में 
कोई भी, कुछ नहीं कह सकता
वो तो राम के भरोसे है न ...!!


Tuesday, September 28, 2010

ये है दिल्ली मेरी जाँ....


७०००० करोड़ की मेहमाननवाजी ...
अरे वाह वाह वाह वाह वाह जी !!
जो इस तरह के खर्चे को सही होने की दलील दे रहे हैं उनसे एक सवाल पूछना चाहूंगी....क्या इससे वास्तव में देश की छवि सुधर जायेगी....क्या सचमुच सभी समस्याएं ख़त्म हो गईं हैं देश की...देश की तो मारो गोली..क्या दिल्ली की समस्याएं ख़त्म हो गईं हैं...अब तो सबको भरपूर पानी, बिजली मिल ही जायेगी न....अगले जन्म तक....छुछुंदर के सिर पर चमेली का तेल लगा कर ..उसकी दुर्गन्ध नहीं हटाई जा सकती है...टैक्स पेयेर्स का इतना पैसा कितनी बेरहमी से लुटाया गया है...और लुटने वाले को पता भी नहीं चला कि वो लुट गया है....

दिल्ली ही देश है क्या ...दिल्ली से आगे कुछ नहीं है...क्या होगा जब ये खेल ख़त्म होगा उसके बाद....खजाने से इतना रुपैया जो निकला है...अब हो जाओ तैयार देश वासियों उसकी भारपाई के लिए ...क्योंकि...ये पैसे फिर आपको ही वापिस खज़ाने में जामा करने होंगे....भारत की सरकार उनके मंत्रियों से नहीं लेने वाली ये पैसा वापिस....आप ही देंगे...मंहगाई के नाम से...और आप पूछ भी नहीं पायेंगे क्यूँ ? क्योंकि ये डेमोक्रेसी है जी...दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी....जहाँ सिर्फ़ ग़रीब मारा जाता है...अनिल अम्बानी तो बच जाएगा..क्योंकि अगर उसने ये पैसे दिए तो फिर वो अनिल अम्बानी कहाँ रह पायेगा ..?

इस खेल  में कितने ग़रीब गरीबी रेखा से ऊपर आए हैं जरा ये सोचिये...और आप अगली बार अपने बजट में क्या और कितना कटौती करेंगे ये भी सोचिये....
खेल के बाद वो गाँव जो बसा है...उसके अन्दर पाँव रखने की औक़ात कितनो को होगी ये भी सोचियेगा...वो सारे मकान किसके हत्थे चढ़ने वाले हैं ये भी सोचियेगा...हम-आप तो हरी बत्ती और हरे घास का मज़ा लेंगे...क्योंकि हमारी आपकी औक़ात बस इतनी ही है...और फिर इंतज़ार करेंगे हमेशा की तरह,  उस बिजली का और पानी का जिसके दर्शन कभी-कभी हो जाया करेंगे....!
तेरी तो...
हाँ नहीं तो...!

ये सोचने की आपको, दरकार भी नहीं .....






 

श्री कृष्ण 
इससे पहले कि आप मेरी रचना पढ़ें सोचा ...ये चित्रकला दिखा दूँ आपलोगों को ...मेरे बेटे मयंक ने बनाया है बताइयेगा आप क्या सोचते हैं... 





ऐ ज़िन्दगी तू सुन ले, मैं तेरा यार तो नहीं
पर तेरे जलवों से मैं, बेज़ार भी नहीं
 

बाज़ार में बिक रही है, मेरी खुलूसे मोहब्बत  
इसका यहाँ कोई, मगर खरीददार भी नहीं

क्या जाने
कल यहाँ हम, होंगे या न होंगे
ये सोचने की आपको, दरकार भी नहीं

बदनाम हो गया है, मेरा नाम हर जगह
अब कहाँ मुँह छुपाऊं, दीवार भी नहीं

महरूमियों की धूप थी, सपने ही जल गए
पर उम्मीद जग गई है, मन बेज़ार भी नहीं 

 
खुलूसे =  पवित्र, निष्कपट
महरूमियों = वंचित 

Monday, September 27, 2010

निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय, बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय....



कल मैंने एक पोस्ट लिखी थी 'हम नहीं सुधरेंगे'.. 'यहाँ' और 'वहाँ' के परिवेश में जो फर्क है लिख कर बताना मुझे जैसे कलमकार के वश की  बात नहीं है...फिर भी कोशिश करना मेरा कर्तव्य है...फर्क  बुनियादी सोच की है...'यहाँ' अधिकतर जगहों में जो, सोच देखने को मिलती है वो 'वहाँ' बिरले ही नज़र आता है,   ख़ैर आज फिर कुछ घटनाओं का ज़िक्र करती हूँ....मेरी इन बातों का ग़लत अर्थ न लिया जाए, हमारे यहाँ ही कहा गया है...

निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय 
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय

हालांकि में निंदा नहीं कर रही हूँ, जो अच्छी बात है वो अच्छी बात है और उसे अपनाने में हिचक नहीं होनी चाहिए...भारत और यहाँ के जीवन में कुछ बुनियादी फर्क है...'वहाँ' की आम ज़िन्दगी और सोच से बहुत ही अलग है 'यहाँ' की आम ज़िन्दगी और सोच... 'वहाँ' अर्थात भारत में जीवन हर वक्त एक स्पर्धा में बीतता है..हर इंसान एक होड़ में लगा हुआ है...'यहाँ' ऐसी बात नहीं है...
शायद यह जीतने  की इच्छा ही हमलोगों को 'यहाँ के लोगों' से अलग करती है...और हम यहाँ आकर बहुत आगे निकल जाते हैं, जो एक अच्छी बात है..लेकिन जीतने के लिए कुछ भी कर गुज़रना ग़लत बात है...
यहाँ अनुशासन, ईमानदारी, सिविक सेन्स लोगों के खून में ही है....

रोड ट्रैफिक : कहते है किसी देश की अगर आपको मानसिकता देखनी है तो उस देश के ट्रैफिक को देखिये...टैफिक वहाँ के बाशिंदों की मानसिकता बता देता है...हमारे देश का ट्रैफिक कैसा है ...ये मुझे कहने की ज़रुरत नहीं है...लेकिन 'यहाँ' आम इंसान की गाड़ी, कोई सामने हो या न हो ट्रैफिक के नियमों का पालन करती है...यहाँ होर्न आपको सुनने को नहीं मिलेगा...होर्न दो ही वक्त बजाते हैं लोग...

१. जब किसी को ताक़ीद करनी हो या फिर उसे उसकी ग़लती बतानी हो
२. जब कोई ख़ुशी की बात हो, जैसे किसी की शादी हो या फिर किसी टीम ने कोई मैच जीता हो
लेकिन 'वहाँ', शादी किसी के घर और शामियाने के लिए सड़क तक खुद जाती है...जबकि सडकें बहुत मुश्किल से बनतीं हैं...

बुरा लगता है सुनना अपने देश के बारे में ऐसी बातें, है न !...हमें भी बुरा लगता है, जब समाचारों में भारत की धज्जी उड़ते हुए देखते हैं, जब 'शाइनिंग इंडिया' के साथ-साथ 'क्रिप्लिंग इंडिया' भी दिखाई देता हैं, लेकिन उसे सुधारेंगे हम-आप ही...इसलिए जो कमी है वो बता रही हूँ...मैं भी अपने देश का गुणगान करने वाली पोस्ट लिख सकती हूँ...और बिना मतलब की वाह वाही ले सकती हूँ...लेकिन आज कल जो समाचारों में देख रही हूँ..कॉमन वेल्थ गेम के नाम पर जो थू-थू हो रही है, जो खेल गाँव के कमरों की तसवीरें दिखाई जा रही हैं, जहाँ बिस्तर पर, बेसिन में मल-मूत्र और दीवारों पर पान की पीक दिखाई जा रही है..खेल शुरू होने के कुछ दिन पहले..जो पुल गिर रहे हैं, वह असहनीय है...इसलिए सोचा कि ज़रा हमारी अपनी कमियों की तरफ उंगली उठा ही दूँ...भ्रष्टाचार झेलने और करने की आदत से बाहर आना ही होगा...अच्छाई हर इंसान में होती है ज़रुरत होती है उसे उंगली करने की...अपनी जद में रह कर अगर कुछ भी हम ख़ुद को सुधार सकते हैं तो क्यों नहीं ये काम करें...बड़े मकसद छोटी कोशिशों से ही पूरे होते हैं...
 
 




एक घटना बताना चाहूंगी...
ये हमारे सामने ही घटित हुई है...हम एक भारतीय ग्रोसरी शॉप में, दाल चावल लेने गए हुए थे...अभी हम अपना सामान ले ही रहे थे, देखा एक अंग्रेज आया और उसने समोसा माँगा, समोसे की कीमत १ डोल्लर में २ थी, उसने २ समोसे लिए...और पूछा कितने पैसे हुए..भारतीय दूकानदार ने कहा १ डोल्लर, अंग्रेज ने पूछा और टैक्स ? दूकानदार ने कहा टैक्स नहीं लूँगा...१ डोल्लर दे दो...लेकिन ग्राहक से साफ़-साफ़ कहा मैं टैक्स देना चाहता हूँ..और आप टैक्स लेंगे...
अलबत्ता ऐसी सोच वाले लोग आपको यहाँ बहुत बड़ी तादाद में मिलेंगे...जो टैक्स देना अपना धर्म समझते हैं...

घटना नम्बर २...
बात उन दिनों कि है जब गुजरात में भूकंप आया था...मैंने अपने ऑफिस में कुछ चंदा इकठ्ठा करना शुरू किया और एक एम्बुलेंस  खरीद कर भेजने का प्लान किया...इस घटना की विभीषिका ने बहुतों को छूवा था...मुझे मेरे ऑफिस वालों ने २५००० डोल्लर जमा करके दिया...जब सबके टैक्स की रसीद मैं देने लगी तो देखा, ५ लोग ऐसे थे जिन्होंने १०००-१००० डोल्लर दिए थे..मेरे साथ ही काम करने वाले आम लोग थे...ऐसा भी नहीं था कि बहुत पैसेवाले लोग थे...मैंने उनसे कहा कि इतना पैसा देने की ज़रुरत नहीं है...कुछ कम ही दे दो...लेकिन उनका ये कहना था...कि ये पैसे उनके पास 'सरप्लस' है फिलहाल उनकी ऐसी कोई ज़रुरत नहीं है...जिसमें वो इस पैसे का इस्तेमाल करें...मैं हैरान हो गई...क्या हम भारतीयों के पास करोड़ों आने के बाद भी ऐसा लगेगा कि हमारे पास पैसा 'सरप्लस' है ...सोचियेगा ज़रा..

तीसरी घटना.....
हमारी कंपनी..ने कुछ काम करवाया था एक सब्जेक्ट मैटर एक्सपर्ट से ..हमारा contract उनके साथ ५००० डोल्लर का था, उन्होंने अपना काम किया और हमने उनको ५००० का चेक दे दिया...कुछ दिनों के बाद हमारे पास ३००० डोल्लर का चेक वापिस आ गया...साथ ही उनका एक नोट भी..कि काम मैंने सिर्फ़ २००० डोल्लर का ही किया था..इसलिए ये ३००० डोल्लर वापिस कर रह हूँ...क्या ये भारत में संभव है...?
बताइयेगा ज़रा..

क्लासिक घटना...
अब जिस घटना का मैं ज़िक्र करने वाली हूँ वो एक क्लासिक घटना है...
हमारा घर नदी के पास में है और आस पास बहुत सारे फार्म हाउस हैं...जहाँ चेरी और स्ट्राबेरी, मौसम में कुछ दिनों तक आप  मुफ्त में तोड़ कर खा सकते हैं...वहीं एक फार्म में बहुत सारी लगभग ५० गायें हैं...जाहिर सी बात है, इतनी गायें हैं तो दूध इफ़रात होता है...हर गाय एक बार में १५-२० लीटर दूध देती है...एक दिन बहुत अच्छा मौसम था हम बस यूँ ही पहुँच गए...जब हम पहुँचे तो देखा ...सामने दूध  से भरा हुआ बहुत बड़ा कंटेनर था, और Mr. Fredrik उस बर्तन को पलटने कि कोशिश कर रहे थे...उस टब में २०० लीटर दूध था, और वो उसे फेंकने का प्रयास कर रहे थे...हमलोग परेशान हो गए कि ऐसा क्यों कर रहे हैं....पूछने पर बताया कि...उनका कुत्ता, उस टब में मुँह लगा गया है..और अब वो इस दूध को नहीं बेच सकते हैं...ये अब किसी भी काम का नहीं है....याद रखिये, वहाँ कोई था भी नहीं जिसने इस बात को होते हुए देखा था....ये तो उनकी अपनी ईमानदारी थी न...देखते ही देखते उन्होंने २०० लीटर दूध हमारे सामने ही पलट दिया...और उनके चेहरे पर एक शिकन तक नहीं आई...मैं तो बस सोचती रह गई की हमारे यहाँ तो दूध के नाम पर लोग बहुत आराम से 'सिंथेटिक दूध' बेच कर चले जाते हैं...उनको तो उन दूधमुंहे बच्चों तक का ख्याल नहीं आता..जो इस दूध को पीने वाले हैं...

मैं ऐसी ही ईमानदारी, और विश्वास की बात कर रही हूँ...ऐसी मानसिकता हमारे लोगों में कब आएगी...? आएगी भी या नहीं आएगी ? मेरी इन पोस्ट्स का मकसद है..यहाँ की कुछ अच्छाइयों को आप सबके सामने लाना...घटनाएं छोटी हैं सभी लेकिन सोचने को मजबूर करती हैं...



Sunday, September 26, 2010

हम नहीं सुधरेंगे....



अभी कुछ दिनों पहले हम घर के लिए कुछ सामान लेने गए थे ...जब भी सामान बहुत ज्यादा होता है तो अक्सर हम कार्ट के निचले हिस्से में सामान रख देते हैं..उस दिन भी यही किया...कुछ सामान कार्ट के  निचले हिस्से में रख दिए थे...सारा पेमेंट करके बाहर आए और गाड़ी में सामान लादा...लेकिन जल्दी में कार्ट के नीचले हिस्से का सामान कार्ट में ही रह गया और कार्ट पार्किंग लाट में ...जब घर वापिस आए तो देखा ६ सामान कम थे ...फट से याद भी आ गया, भाग कर गए भी लेकिन सामान नहीं मिला..

ख़ैर, हम तो उम्मीद ही छोड़ बैठे थे, लेकिन फिर सोचा, पूछा लेना चाहिए...अन्दर जाकर सारी बात बताई, तो सेल्स गर्ल ने कहा, कोई बात नहीं, जो भी सामान रह गया, आप जाकर उठा लीजिये...हम तो जी बहुत ख़ुश हो गए...सामान उठाया और लाकर काउंटर पर दिखा ही रहे थे कि देखा, बहुत सारे कार्ट्स अन्दर आ रहे हैं..और हमारा छूटा हुआ सामान भी...दिल को एक तसल्ली हुई कि चलो...हम सच कह रहे थे, ये साबित भी हो गया, हालांकि किसी ने भी हमसे, कुछ भी साबित करने को नहीं कहा था, लेकिन अपना तो हिन्दुस्तानी दिमाग है न, ख़ुद भी शक करता है, और सोचता है बाकी भी शक्की हैं....हम ख़ुशी-ख़ुशी...यहाँ के लोगों की भलमानसहत, और ईमानदारी पर बहुत सारी बातें करते हुए चले आए..ये भी सोचा कि अगर यही घटना, हिन्दुस्तान में होती तो क्या इतनी आसानी से बात बन पाती ? शायद नहीं...!


अभी इसी के बारे में मैं सोच रही थी कि कुछ कौंध गया दीमाग में.. और याद आ गई, एक घटना  तो तब घटी थी, जब हम कनाडा बस आए ही थे, मेरे पास बहुत अच्छी जॉब थी लेकिन संतोष जी को तब-तक जॉब नहीं मिली थी, हमारे घर का खर्चा एक ही व्यक्ति की कमाई से चलता था...

हमारे घर के पास एक बहुत बड़ी दूकान बंद हो रही थी, चीज़ें सेल पर थीं, ऐसी सेल भी नहीं देखी थी और वो दूकान घर के बहुत करीब थी...इसलिए हम चले ही जाया करते थे...उस दिन भी मैं गई थी उस स्टोर  में...बहुत बड़ा डिपार्टमेंटअल स्टोर था...देखा तो, उस दिन एक लेडिज कोट सेल पर था, बहुत ही सुन्दर कोट, मेरे मन लायक, मैं भी शुद्ध नारी की तरह खींची चली गई हैंगर के पास,....देखा तो, एक भारतीय महिला जिसके साथ ४ छोटे-छोटे बच्चे थे, उस कोट को ट्राई कर रही थी, बच्चे आस-पास शोर मचा रहे थे...उस महिला के पास एक बेबी स्ट्रोलर (बच्चों को बिठाने की गाड़ी), जिसमें कोई बच्चा नहीं था, साथ जो बच्चे थे वो इतने छोटे नहीं थे कि उन्हें स्ट्रोलर में बिठाया जाए, स्ट्रोलर के निचले हिस्से में जो सामान रखने की जगह होती है, वहाँ कुछ कपडे थे, लेकिन पुराने थे.. 

मैं भी कोट देखने लगी जाकर, प्राईस टैग देखा तो, मेरा मन मायूस हो गया, सेल पर होने के बावजूद उसकी कीमत $४९९ थी...मेरे लिए वो कोट महंगा था...जिस गाँव जाना नहीं, उसके कोस क्यों गिनना, इसलिए ट्राई भी करना बेकार था...मैंने उड़ती सी नज़र उस महिला पर डाली, जो अब भी कोट बदल-बदल कर पहन रही थी, मन ने कहा, देखो ये खरीद सकती है, लेकिन मैं नहीं...कोई बात नहीं एक दिन आएगा जब मैं भी खरीद पाऊँगी, और मैं आगे बढ़ गई...

मैं काफ़ी देर तक उस स्टोर में घूमती रही और अपने घर के लिए कुछ-कुछ चुनती रही...अचानक मेरी नज़र उन चारों बच्चों पर पड़ी..उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ रहीं थी...बच्चे बहुत डरे हुए थे., उनके चेहरे के डर ने मुझे, उनकी तरफ तवज्जो पर मजबूर कर दिया, वो दौड़ कर आगे जाते, रुकते ,पीछे मुड़ते और अपनी माँ को देखते...कुछ खुसुर-फुसुर करते, फिर दौड़ते हुए आगे जाते, रुकते और पीछे देखते., बच्चे बहुत डरे हुए थे, ...मैंने देखा, वो महिला बहुत इत्मीनान से स्ट्रोलर चलाती हुई चली आ रही है...चेहरे पर कोई ऐसी बात नहीं थी...मेरी समझ में बच्चों के डर का कारण नहीं आया...अचानक मेरी नज़र स्ट्रोलर के निचले हिस्से पर पड़ी, देखा तो वही कोट वहाँ नज़र आया, छुपाया हुआ तो था, लेकिन नज़र भी आ रहा था...मेरे सामने से वो चलती हुई, बहुत ही आराम से..मुख्यद्वार से बाहर चली गई...बिना पैसे चुकाए....अब मैं समझ गई थी, बच्चे क्यों डरे हुए थे, मैं सब कुछ देख कर भी कुछ नहीं कह पाई...क्या कहती ??

आज सोच रही हूँ...कितना फर्क है हमारी मानसिकता और यहाँ के लोगों की मानसिकता में...यहाँ हर रिश्ता विश्वास से शुरू होता है, यह आप पर है कि आप उसे बनाये रखते हैं या बिगाड़ लेते हैं, जबकि भारत में ज्यादातर रिश्ते अविश्वास से शुरू होते हैं, और विश्वास बनाए रखने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है...



ख़ुद को खड़ा हम पाते हैं ....


चाल लहू की नसों में, जब धीमे से पड़ जाते हैं
मन आँगन के पोर पोर में, सपने ज्यादा चिल्लाते हैं

धुंधली आँखों के ऊपर जब, मोटे ऐनक चढ़ जाते हैं
तब अपने बिगड़े भविष्य के, साफ़ दर्शन हो जाते हैं

हर सुबह झुर्रियों के झुरमुट, और अधिक गहराते हैं
हर रोज़ लटों में, श्वेत दायरे और बड़े हो जाते हैं

कुछ देर तो बेटी-बेटे जम कर शोर मचाते हैं
फिर एकापन जी भर कर, आपसे चिपट ही जाते हैं

हमसे पहले की पीढी अब, विदा लेती ही जाती है
उनके पीछे अब कतार में, ख़ुद को खड़ा हम पाते हैं

Saturday, September 25, 2010

ऐसे हैं मेरे बाबा...!!


बात उन दिनों की है जब मेरी उम्र शायद १४-१५ साल की होगी, मेरे पिता जी को हमलोगों को घुमाने का बहुत शौक़ था, हर छुट्टी में कहीं न कहीं हमारा परिवार घूमने जाया करता था....उनदिनों भी गर्मियों की छुट्टियां थी...राँची के पास ही डाल्टेनगंज से १० किलोमीटर पहले बेतला में 'बेतला नेशनल पार्क' है, जहाँ वन्य प्राणियों की भरमार थी तब, जैसे, हाथी, बाघ, भालू, बईसान, कई प्रकार के हरिण, और भी तरह-तरह के जानवर.. पिताजी की बड़ी इच्छा थी कि हमलोग जू में जानवर देखने की जगह , प्राकृत रूप से रहते हुए जानवर देखें...

फिर क्या था गर्मी की छुट्टियां आईं और हम सभी तैयार होकर, सफ़ेद अम्बेसेडर गाड़ी में चल पड़े, जंगली जानवर देखने...हमलोग मुँह अँधेरे ही निकल गए थे वहाँ के लिए, और पहली बेला में ही पहुँच गए..

मेरे एक फूफाजी बेतला नेशनल पार्क के रेंजर थे...कोई दिक्कत नहीं हुई...उनको पहले ही पता था कि हमारा परिवार आ रहा है, मुझे याद है हमलोगों को गेस्ट हाउस में ठहराया गया, फूफा जी का भी क्वाटर वहीँ था, दिन का खाना तैयार था, खाना गेस्ट हाउस के खानसामा ने बनाया था, खाने में हिरण का मीट  दिया गया था, मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं आया था, मैं तो खा ही नहीं पाई...पहला कारण,  गेस्ट हाउस के पीछे ही जाने कितने सुन्दर-सुन्दर हिरण घूम रहे थे, दौड़ो और छू लो उनको, उनकी सुन्दरता देखते बन रही थी...इतने सुन्दर प्राणी को खाना !..मेरे बालमन को नहीं भाया था...दूसरी बात उसका मीट ही अजीब था...लगता था जैसे रबड़ खा रहे हैं....

ख़ैर, खाना खा कर हम लगभग २ बजे खुली जीप में निकल गए वन्य प्राणी देखने ...लेकिन वो समय तो जानवारों के लिए भी खा-पीकर आराम करने का होता है...इसलिए वन्य प्राणी नज़र तो आए लेकिन कुछ कम नज़र आए...

हमलोग घूम कर वापिस आ गए ...फूफा जी ने बताया कि रात में जाना और अच्छा होगा, जानवार  रात में ज्यादा निकलते हैं, हमलोग रात में चलेंगे....वैसे ११ बजे के बाद जंगल में जाने की इजाज़त नहीं है लेकिन हमारे साथ तो जंगल के मालिक ही थे....सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का...

तो जी हम सभी लगभग ११ बजे तैयार होकर, पीछे से खुली जीप में चल पड़े...जीप के पिछले हिस्से में हम सभी खड़े थे, मैं मेरे तीनों भाई, माँ और एक अर्दली..क्योंकि वहाँ से देखने में आसानी होती...गर्मी के दिन, ऊपर खुला आसमान, और आगे घना जंगल...बड़ा ही रोमांचकारी था सबकुछ, बीच-बीच में किसी जानवर की बोली या फिर झींगुर की आवाज़... 

सामने की सीट पर, ड्राइवर, बीच में फूफा जी और किनारे खिड़की के पास पिता जी यानी मेरे बाबा बैठे थे...पीछे खुली जीप में,  सबसे किनारे मैं खड़ी थी...गाड़ी जगह-जगह रूकती अँधेरे में पशुओं की चमकती आँखें नज़र आती, गाड़ी का इंजिन बंद कर दिया जाता, कुछ दूर तक गाड़ी लुढ़कती, और सर्चलाईट की रौशनी से हमें जानवर दिखाया जाता, हमलोग साँस रोके देखते....बाघ, चीतल, साम्भर, बड़े बड़े सींघ वाला बाईसन और न जाने क्या-क्या....यही होता जा रहा था...जानवरों की आँखें चमकती, गाड़ी रूकती, ड्राइवर इंजिन बंद कर देता,  सर्चलाईट का निशाना पशुओं पर पड़ता और हम देखते....

थोड़ी देर बाद बहुत जोर से रटरटरट... रटरटरट.... रटरटरट की आवाज़ आने लगी, जैसे कोई कुछ तोड़ रहा हो...देखा तो बड़े-बड़े जंगली हाथियों का झुण्ड था....जो बांस के पेड़ों को तोड़ता हुआ ,आ रहा था, गाड़ी रुकी, इंजिन बंद हुआ, सर्चलाईट का प्रकाश उनपर पड़ा तो उनका भी ध्यान हमारी तरफ हुआ....वो कुछ दूरी पर थे...लेकिन ऐसे विशाल जानवर, वो भी झुण्ड में ...हमने पहली बार देखा था....गाड़ी रुकी हुई थी...जब हमने देख लिया और चलना चाहा तो, गाड़ी ने स्टार्ट होने से ही मना कर दिया, ड्राइवर गाड़ी स्टार्ट करता, इंजिन घों घों करता और रुक जाता, जंगली हाथियों का झुण्ड अब भी हमारी तरफ बढ़ता चला आ रहा था... इंजिन फिर स्टार्ट किया गया..वो स्टार्ट नहीं हुआ...ड्राइवर पसीने से तर-बतर हो रहा था...फूफा जी के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं थी...जाने क्या बात थी, सर्चलाईट या इंजिन की आवाज़ ..जंगली हाथी नाराज़ लग रहे थे...अब वो हमारी तरफ दौड़ने लगे थे, बाँस के झुरमुट अब ज्यादा आवाज़ से टूटने लगे थे....तड़-तड़ाक की तेज़ आवाजें आने लगीं थी, और  बड़े-बड़े काले साए गुस्से में चिंघाड़ने लगे थे, ड्राइवर जुम्मन अब भी गाड़ी स्टार्ट कर रहा था...वो पूरा हिला हुआ था, वो बार-बार कभी हाथियों को देखता कभी गाड़ी को कोसता...फूफाजी की हालत बहुत खराब हो रही थी....और हमलोग सभी अपनी जगह पर ख़ामोश खड़े थे...इतने में बाबा ने अपनी साइड का दरवाज़ा खोला...फूफा जी कहने लगे अरे आप क्या कर रहे हैं...मत जाइए...लेकिन वो उतर गए ..वो चलते हुए पीछे आए..पीछे आकर जीप पर ऊपर चढ़ गए, मुझे पीछे कर दिया और सामने खड़े हो गए...बिल्कुल ऐसे खड़े हो गए, जैसे कह रहे हों...मेरे बच्चों से पहले मुझसे होकर तुम्हें गुजरना होगा 'गणेश जी', वो बिल्कुल शांत थे...उनके चेहरे पर ज़रा भी उद्विग्नता नहीं थी...न ही वो परेशान थे, एक भी शब्द उन्होंने नहीं कहा था, बस हम सबको पीछे करके सामने, जीप की रेलिंग पकड़ कर खड़े हो गए...

हाथियों का झुण्ड अब भी दौड़ता चला आ रहा था....मौत बिल्कुल सामने थी बस कुछ ही मीटर की दूरी पर,  ड्राइवर और फूफा जी गाड़ी स्टार्ट करने में लगे हुए थे, हमारे और मौत के बीच का फासला बस १०-११ मीटर का रह गया था, कि अचानक गाड़ी स्टार्ट हो गई...हमें तो जैसे भगवान् ने अपने हाथों में ले लिया हो ऐसा लगा, ड्राइवर ने तो और कुछ देखा ही नहीं बस गाड़ी दौडानी शुरू कर दी...हमें तो ऐसा  लग रहा था जैसे, किसी मरने वाले से कहा गया हो, अगर बचना है तो जितनी दूर ,जितनी जल्दी भाग सकते हो भागो, और वो बस भागना शुरू कर देता है,  शायद  जुम्मन ने ज़िन्दगी में कभी भी इतनी तेज़ गाड़ी न चलाई होगी, जितनी तेज़ उसने उस दिन चलाई थी.....मगर हाथियों का झुण्ड अब भी हमारी जीप के पीछे भाग रहा था...और ड्राइवर की स्पीड बढ़ती ही जा रही थी..फूफा जी चीखते जाते, जुम्मन स्पीड बढाओ....वो मुड़-मुड़ कर हाथियों से जीप की दूरी का मुआयना करते जाते ...और मेरे बाबा चट्टान की तरह जीप की रेलिंग पकड़े ..शांत भाव से हाथियों की आँखों में आँखें डाले उनकी तरफ देखते रहे...हम सभी जीप की रफ़्तार से अपने शरीर का ताल बनाये रखने की कोशिश में जुटे रहे... अब हाथियों के झुण्ड और जीप के बीच की दूरी बढ़ती जा रही थी...हाथी अब भी पीछे थे...

कुछ दूर जाने के बाद उनके झुण्ड को वापिस मुड़ते देखा था मैंने ...जीप ने भी गेस्ट हाउस आकर ही दम लिया था...फूफा जी बार-बार भगवान् का शुक्र अदा कर रहे थे, हम सब एक दूसरे को बस देख रहे थे, माँ ने हम सब को समेट लिया था..उस दिन लगा कि मारने वाले से बचाने वाले के हाथ ज्यादा लम्बे  होते हैं...मैं बस अपने बाबा को देख रही थी, मेरे लिए तो मेरे भगवान् मेरे बाबा ही थे, हैं और रहेंगे...मैं अपने बाबा से लिपट गई थी...वो मंजर मैं कभी नहीं भूलती, आज भी जब वो साथ होते हैं..तो मुसीबतें, पास आने की हिम्मत नहीं करतीं हैं...क्योंकि हम सबके जीवन की इस ढाल से टकराने की हिम्मत किसी मुसीबत में नहीं है...ऐसे हैं मेरे बाबा...!! 

Friday, September 24, 2010

बंदिशें जाने कितनी, हम विरासत में ले आये हैं ....


बंदिशें जाने कितनी, हम विरासत में ले आये हैं
अपने दिल की बातें हम, कहाँ कभी कह पाए हैं

हुकुमरानों की शर्तों पर, कब तक कोई जीता है 
मेरी हसरतों ने अपने, इन्कलाबी सर उठाएं हैं

जुस्तजूओं को हम अपनी, वहीँ दबा कर के आये थे 
जहाँ तेरे अरमानों ने, नए पैर बनवाये हैं

है मुश्किल, दिल की ज़मी पर, दबे पाँव यूँ चलना
जाने किस जगह पर तुमने, कितने रक़ीब छुपाये हैं

सबने मिलकर मुझको बस, बे-बहरी ही कह डाला
'अदा' तू बे-बहर सही,  पर सुर में तो तू गाये है

Thursday, September 23, 2010

कुछ बुलबुले....




कुछ बुलबुले
बुलबुले, 
बेतुके से देख कर
ख़ुश हो जाती हैं
ज़िन्दगानियाँ,
भूल जातीं हैं
जब ये फूटेंगे तो
क्या होगा !
हाथ रिक्त,
आसमाँ रिक्त,
रिक्त सा जहाँ होगा...

देवता
कहते हैं !
तुम काम क्रोध छोड़ दोगे तो,
देवता बन जाओगे,
काम क्रोध छोड़े हुए
कोई देवता नहीं देखा !

पीर पीर
पोर पोर में पीर है,
और पोर पोर में पीर,
पीर, पोर पोर की जाई प्रभु,
और पीर, पोर पोर बसी जाई....

किसने कहा के हुज़ूर के तेवर बदल गए...आवाज़ 'अदा' की...

Wednesday, September 22, 2010

थीं रंगीनियाँ बहाराँ, मौसम-ए-खिज़ा नहीं था .....


जिसे ढूँढतीं हैं आँखें, वो अभी यहीं कहीं था 
ख़ुशबू सी उड़ रही है, दिल के बहुत करीं था

कोई ख़बर दो उसकी, कोई तो पता दो
वो जो मेरा हमसफ़र था, वो मेरा हमनशीं था  

वो खफ़ा-खफ़ा था मुझसे, कुछ बदगुमान था वो
यूँ बिछड़ गया वो मुझसे, मुझको गुमा नहीं था

ये हवाएँ मुझको क्यूँ कर, यूँ बींधने लगीं हैं 
थीं रंगीनियाँ बहाराँ, मौसम-ए-खिज़ा नहीं था

पोशीदा हुस्न परदे में, और कैफ़-असर कर बैठा 
नज़रों में ही शायद, हिजाबे निशाँ नहीं था

जब आई थी क़यामत, हम सामने खड़े थे
थी लताफत बस तारी, मेरी जीस्त में कुछ नहीं था  

करीं=क़रीब 
पोशीदा=छुपा हुआ
कैफ़-असर=मादक/नशे का असर 
मौसम-ए-खिज़ा=पतझड़ का मौसम
लताफत=लालित्य / माधुर्य 
जीस्त=जीवन  


 

उड़ान...


उसने फिर
अपने वज़ूद को
झाडा-पोंछा,
उठाया
दीवार पर टंगे
टुकडों में बंटें
आईने में
खुद को
कई टुकडों में पाया,
अपने उधनाये हुए
बालों पर कंघी चलायी,
तो ज़मीन कुछ
उबड़-खाबड़ लगी,
जिसपर उसने एक
लम्बी सी माँग खींच दी,
जो अनंत तक जा
पहुंची,
जहाँ घुप्प अँधेरा था
और
शून्य खडा था...
उसने
लाल डिबिया को देखा तो
अँधेरे, चन्दनिया गए,
होंठ मुस्कुरा उठे,
उँगलियों ने शरारत की,
लाली की दरदरी रेत
माँग में भर गयी,
आँखों ने शिकायत
का काज़ल
झट से छुपा लिया,
होठों ने रात का कोलाहल
दबा दिया,
अंजुरी भर आस पीकर,
निकल आई वो घर से,
अब शाम तक
पीठ पर दफ्तर की
फाइल होगी
या
सर पर आठ-दस ईटें
या कोई भी बोझा,
ड्योढी के बाहर
आते ही
मन उड़ गया,
पर मन
उड़ पायेगा ?
शाम तक तो उड़ेगा
फिर सहम जाएगा,
जुट जाएगा
इंतजार में
एक और
कोलाहल के,
जो आएगा
उसी अनंत
अँधेरे से...

ये है रेशमी जुल्फों का अँधेरा न घबराइये....

Tuesday, September 21, 2010

पुराना सामान नई पैकिंग....हर्ज़ क्या है...!




कुछ दिनों पहले किसी से मेरी बात हो रही थी आज के रिमिक्स गानों के विषय में  ...मेरी परिचिता को बहुत बुरा लगता है कि आज कल पुराने गानों को नया रूप देकर गाया जा रहा है...उनका कहना था , इस तरह से इन गानों की गंभीरता और गरिमा को ठेस लगती है...यही नहीं यह चोरी भी है...परन्तु मैं उनकी बात से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ ...

हमें ख़ुश होना चाहिए कि पुराने गानों को नया रूप देकर आज की पीढ़ी कम से कम गा तो रही है..वर्ना इन गानों को लुप्त होने में कोई समय नहीं लगता ...इन सुरीले गानों को जिंदा रखने का इससे बेहतर और कोई विकल्प नहीं हो सकता है...इन गानों को नयी तकनिकी से सजा कर नए लोगों के लिए आकर्षक बना कर एक तरह से देखा जाए तो, हमारी धरोहर को बचाया जा रहा है...इसलिए इसमें मुझे कोई बुराई नज़र नहीं आती है...हम सिर्फ़ अपनी पीढ़ी तक की बात न सोचें..आनेवाली पीढ़ी भी इन गानों को बचाने में प्रयत्नशील है...जितने भी संगीत की प्रतियोगिता होती है, आज के बच्चे भी इन्हीं गानों को गाते हैं...जिन्हें सुनकर मन आह्लादित होता है...
आप के क्या विचार हैं इस बारे में ज़रा बताइयेगा..

रही बात चोरी की तो, बड़े कलाकारों की कृतियों की कभी भी चोरी नहीं होती...ये कृतियाँ अजेय हैं ...जिस रूप में भी होंगी रचेता की पहचान बनी रहेगी....

हिंदी साहित्य में भी बहुत दिग्गज कवि हुए हैं, उनकी कवितायें हमने, आपने, सबने पढ़ी हैं..लेकिन समय के साथ हम सभी उनको भूल रहे हैं...एक समय ऐसा भी आएगा जब ये कवितायें आम जनों के जीवन से विलुप्त हो जायेंगी, यदा कदा ही कभी उनका ज़िक्र होगा...और यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा...क्यों नहीं हम उन कवियों की कृतियों से प्रेरणा लेकर कुछ नया करने की कोशिश करें,  एक नया दृष्टिकोण देने की कोशिश करें...और फिर इसमें बुराई भी क्या है....जब उन्होंने इन कविताओं को लिखा था तो उनका माहौल अलग था, वो समय अलग था, वो मनस्थिति अलग थी, वो परिवेश अलग था, अब समय बदल गया है, लोग बदल गए हैं, सोच बदल गई है....बेशक विषय वही हैं...अगर इन कविताओं को एक नया प्रारूप दिया जाए तो हर्ज क्या है...इन रचनाओं को सरलता प्रदान की जाए उससे लोगों का शब्द ज्ञान बढेगा और तब शायद ये आज की नयी पीढ़ी और जन मानस तक अपनी पहुँच बना सकेंगे...और इस कोशिश में लोग नया सीख भी सकेँगे......आप क्या कहते हैं..?


वाणी और मेरा बुढ़ापा ....पुनर्प्रसारण


वैसे तो हमारा (मेरा और वाणी) का बुढ़ापा आने से रहा, अरे हम जैसों को बुढ़ापा कहाँ आता है, वो भी तो बेचारा घबराता होगा (मतलब हमें ऐसा लगता है...ये हमारी खुशफहमी भी हो सकती है :):))
फिर भी अगर भूले भटके...बुढ़ापे को हमारे बिना दिल ना लगा...और आ ही जाए तो ...परवा इल्ले:):)
कुछ सौन्दर्य प्रसाधन हम भी यूसिया लेंगे ...और नहीं तो का....
और तब जो हमारे मन में जज्बा होगा.....आपको बताते हैं हम....ये देखिये....


नोट :: एक बात और ये मत समझिये कि बायीं तरफ हम हैं और दाई तरफ वाणी ....जी नहीं, बिलकुल  भी नहीं.....वैसे अगर सोच भी लिया तो कोई बात नहीं.....लेकिन ना ही सोचें तो बेहतर होगा....हाँ नहीं तो...:):)




दर्पण हिल उठे, घरवालों ने भृकुटी तानी थी
ब्यूटी क्वीन बनने की हमने अपने मन में ठानी थी
खोई हुई खूबसूरती की कीमत आज हमने पहचानी थी
दूर बुढ़ापा हो जाए इस सोच की मन में रवानी थी
चमकी डोल्लर सत्तावन में वो बिल्डिंग जो पुरानी थी
सौन्दर्य प्रसाधनों के मुख से हमने सुनी कहानी थी
टोटा-टोटा बन जाए कल तक वो जो नानी थी

कानपुर का झाँवा मिलाया और मिटटी मंगाई बरेली की
लखनऊ का नीम्बू निचोड़ा और रस मिलाई करेली की
फेस पैक स्वर्गीय बना है बस चूको मत छबीली जी
पाउडर, रूज, आईलाइनर, मसखरा बस यही हमारी सहेली जी
शहनाज़ के सारे नुस्ख़े हमको याद ज़बानी थी
सौन्दर्य प्रसाधनों के मुख से हमने सुनी कहानी थी
टोटा-टोटा बन जाए वो कल तक वो जो नानी थी
हम अपना ख्याल रखेंगे.....:)
 
टोटा=खूबसूरत लड़की 


मालूम है आप सुन चुके है इस गीत को...तो क्या हुआ , रेडियो पर दिनभर में एक ही गीत को दस बार सुन लेते हैं आप...और हम सुना दें तो शिकायत ??  ना जी दोबारा सुनिए....प्लीज...

आवाज़ वही....क्या कहते हैं ...'अदा' की... और गीत भी वही ...'नैनों में बदरा छाये'', हाँ नहीं तो...

Monday, September 20, 2010

तुझको मुबारक हों तेरे बन्दूक औ तमंचे....




न मंदिर न मस्जिद न कोई धरम चाहिए
इंसानियत मिले वो दैर-ओ-हरम चाहिए

मेरी ख्वाहिशों की मुझसे सरहद न पूछ
कम से कम मुझे दोआलम चाहिए
 
तुझको मुबारक हों तेरे बन्दूक औ तमंचे
मुझको तो बस मेरी कलम चाहिए
 
मौत से मुझे कोई शिकायत ही नहीं  
फिलहाल ज़िन्दगी का भरम चाहिए 

दैर-ओ-हरम=मंदिर-मस्जिद 
दोआलम=दोनों जहान
माँ को देख कर बचपन में पहुँच गई हूँ....इस समय तीन पीढियां एक साथ रह रहीं हैं...:):)

 

Sunday, September 19, 2010

बस कह दिया तो कह दिया ...

वो स्याह रंग मैं झेल गई
पानी में,
पत्तों के किनारों में
कुछ मीनारों में
बादल में
चेहरे में
स्याही में
सूट में
आँखों में
कॉफ़ी में
दांतों में
देवदार में
कार में
विषधर में
होठों में

पर नहीं झेल सकती तुम्हारे दिल में...
बस कह दिया तो कह दिया ...!


 
 
 

Saturday, September 18, 2010

विकल भानु रश्मियाँ जलधि को पुकारती ....


विकल भानु रश्मियाँ जलधि को पुकारती 
कभी यहाँ संवारती, कभी वहाँ सिंगारती
सिंधु के चरण वो जगह जगह पखारती
उषा से अवसान तक निर्निमेष निहारती
कृतज्ञता स्वरुप वो आरती उतारती
उत्कर्ष हो तरंग तो रश्मि बिम्ब चूमती
विशाल सिन्धु वक्ष पर गोल-गोल घूमती
अनादि काल से गगन मही को ताकता रहा
चक्षु फिर असंख्य लिए नीरनिधि झाँकता रहा
अगम अधूत अभय बने उभय आसक्त हैं 
अथक अकथ प्रीत मग्न दोनों अतृप्त हैं 

यहाँ कुछ शब्दों का अर्थ डालना उचित होगा :
भानु=सूर्य 
जलधि=सागर
सिन्धु=सागर
नीरनिधि=सागर
मही=धरा 
अगम=दुर्गम 
अधूत=निर्भय
उभय=दोनों 
अथक=जो थके नहीं 
अकथ=जो कहा न जाए




Friday, September 17, 2010

अरे दिल्ली जाना है तो दिल्ली की गाड़ी में बैठो न....


मुझे इस बात से बहुत ज्यादा कोफ़्त होती है, जब बिना प्रयास किये हुए यह मान लिया जाता है कि यह काम तो हो ही नहीं सकता है....

आज का प्रश्न यह है  " क्या हमारा देश सुधर सकता है ?"
बिलकुल सुधर सकता है, क्यों नहीं सुधर सकता है, समाज एक कपड़े की तरह है और हम धागों की  तरह, धागे मजबूत तो, कपडा भी मजबूत, लोकतंत्र का अर्थ ही है जनता का, जनता  के लिए और जनता द्वारा और जनता को अपनी शक्ति का भान होना चाहिए ...मुट्ठी भर भ्रष्ट नेताओं की दुहाई देने वाले या तो डरपोक है या निकम्मे, जब समाज को बदलना है तो भिड़ ही जाना होगा, अगर हम सोच लें पहले ख़ुद को बदलने की, फिर अपने आस-पास के परिवेश को बदलने की कोशिश करने की, तो क्यों भला यह संभव नहीं होगा, गाँधी जी सत्याग्रह और असहयोग के बल पर अजेय अंग्रेजी हुकूमत को घुटने पर ले आये थे और हम गाँधी के देश में अपने ही लोगों की गुंडागर्दी से डर कर बैठे हुए हैं...आज पोलिटिक्स मात्र गुंडों का खेल होकर रह गया है...और इसके लिए जिम्मेवार हमारा तथाकथित मध्यमवर्गीय समाज है....

बचपन से एक बात हमेशा देखी है, समस्याओं से बचके निकलना, बाद में वही समस्याएं विकराल रूप ले लेतीं है...फिर हम आराम से कहते हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता है, वही हाल राजनीति का रहा है, राजनीति में जाना बुरी बात है, राजनीति बुरे लोगों का काम है, भले लोग राजनीति में नहीं जाते हैं, यही तो सुनते-सुनते कान पक गए हैं, और हमेशा हैरानी होती रही है मुझे कि, देश के लिए  काम करना कैसे बुरा हो सकता है ?  लोगों ने राजनीति और राजनीतिज्ञों की गलत छवि बना दी और हमने यक़ीन कर लिया....सच पूछिए तो राजनीति बुरी चीज़ नहीं है...शायद यह सबसे अहम् चीज़ है...क्योंकि हम दुनिया के किसी भी कोने में रहें इसके प्रभाव से नहीं बच सकते, और जब यह हमारे जीवन का अभिन्न अंग है तो क्यों नहीं इसके लिए कुछ अच्छा सोचें, इसके प्रति जागरूक रहें और इसका प्रारूप बदलने की कोशिश करें....क्यों नहीं इसे स्वस्थ बनाने में अपना योगदान करें....

राजनीति के प्रति पढ़े-लिखे लोगों की उदासीनता के कारण ही आज पोलिटिक्स पर गुंडों का आधिपत्य है, हमलोग ये क्यों नहीं सोचते राजनीति भी एक कैरियर है...बच्चों को उसमें जाने के लिए हमें प्रोत्साहित करना चाहिए...हर नौकरी की तरह यह भी एक नौकरी है...इसके लिए भी पाठ्क्रम होना चाहिए....नयी पीढ़ी को  ट्रेनिंग मिलनी  चाहिए, कैसे कोई राजनीति में प्रवेश पाए इसका मार्गदर्शन होना चाहिए, एक जरूरी शैक्षणिक योग्यता का निर्धारण होना चाहिए, 

कितनी अजीब बात है एक पार्क तो खूबसूरत बनाने की  ट्रेनिंग है, बिल्डिंग को सजाने की ट्रेनिंग है, और अपने देश को व्यवस्थित करने की कोई ट्रेंनिग नहीं ....लानत है जी...

आज दुनिया की बड़ी से बड़ी कंपनी को देखिये ..उसके टॉप की position किसी न किसी भारतीय के पास है, इनलोगों ने अपने बुद्धि-विवेक से अपनी योग्यता साबित कर दिखाई है ....क्या वो अपने देश में इस काबिल नहीं थे....?? जब हम अपने देश के विदेश मंत्रालय के Spokesperson को देखते हैं और सुनते हैं तो आत्महत्या कर लेने का दिल करता है...लगभग २ अरब आबादी वाले देश में एक ढंग का प्रवक्ता नहीं मिलता जो अपने देश की गिरती साख को विदेशों में सम्हाल सके, जो ढंग से बात कर सके, जो भी आता है शिफारिशी जोकर होता है, इन जोकरों से तो लाख दर्जे बेहतर Spokesperson पाकिस्तान के होते हैं...कम से कम वो अपनी बात तरीके से लोगों के सामने रखते हैं, और लोग सुनते भी हैं, हमारे प्रधान मंत्री जी को ही देखिये, वो क्या कहते हैं, उसे या तो अल्ला मियाँ सुन पाते हैं या वो ख़ुद या फिर मैडम जी....देश का प्रधानमंत्री ऐसा होना चाहिए जिसे देख कर लोगों में उत्साहवर्धन हो, न कि अच्छा खासा उत्साह ग़श खाने लगे...हमारे प्रधानमंत्री जी जब बोलते हैं तो लगता है, परमिट  ले लेकर बोल रहे हैं... बेशक वो लोग कांग्रेस के थे लेकिन उनके व्यक्तित्व का प्रभाव विदेशों में बहुत सही पड़ता था, जैसे श्रीमती इंदिरा गाँधी जी, श्री राजीव गाँधी जी..

अब समय आ गया है कि जनता जागे और अपनी ताकत को पहचाने, उसका उपयोग करें,  तो फिर देश को सुधरने से कोई नहीं रोक सकता है, संसद में बैठे हुए जो लोग हैं उन्हें हमने चुना है....उन्हें वही करना होगा जो, हम चाहेंगे, और जनता हमेशा सही ही चाहेगी, लोग कहेंगे 'अदा' सपने देखती है....ये नहीं हो सकता, तो उनसे मैं कहूँगी कि जब उस दिशा में कोई काम किया ही नहीं तो उसकी सफलता पर पहले से संदेह क्यूँ करना ??  अरे दिल्ली जाना है तो दिल्ली की गाड़ी में बैठो, घर में बैठ कर भगवान् से मानना कि हमें दिल्ली पहुंचा दो...बेवकूफी है...या फिर बिना गाड़ी में बैठने का प्रयास किये हुए मान लेना कि हम तो दिल्ली जा ही नहीं सकते....सरासर गलत होगा.....
हाँ नहीं तो...!!