सुन लो मेरी दास्ताँ कुछ मिटे हुए अरमानों की
मैं जोड़ रहीं हूँ धज्जियां कुछ फटे गिरेह्बानों की
(कहाँ उतरा था चाँद कभी सागर में नहाने को
पर मौजों को थी हड़बड़ी तूफाँ को बात बताने की)
कहाँ उतरा था चाँद कभी सागर में नहाने को
पर मौजों से हुई गुफ़्तगू कुछ शोहदे तूफानों की
शमा तो बुझती ही रही हर महफ़िल में सुन 'अदा'
और राख भी उड़ती रही कुछ जले हुए परवानों की
अब एक गीत ...आप सुन चुके हैं ..दिल करे तो फिर सुन लीजिये...कोई ज़बरदस्ती नहीं है...
कहाँ उतरा था चाँद कभी सागर में नहाने के लिए
ReplyDeleteपर थी मौजों को हड़बड़ी तूफाँ को बात बताने की
अद्भुत! लाजवाब।
बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteकहाँ उतरा था चाँद कभी सागर में नहाने के लिए
पर मौजों को थी हड़बड़ी तूफाँ को बात बताने की
पहले लगा कि आज हौसले पस्त करके ही छोडेंगी आप ! पर जी उठा इक आस लेकर "मैं जोड़ रहीं हूँ धज्जियां कुछ फटे गिरेह्बानों की"
ReplyDeleteआपके कविता संसार में ये आस हमेशा बनी रहे ! दुआयें !
हर शमा तो बुझती ही रही हर महफ़िल में 'अदा'
ReplyDeleteऔर राख भी उड़ती रही कुछ जले हुए परवानों की
बहुत खूब , मुवारक हो
आज सबसे पहले गाने की बात
ReplyDeleteऐसा महसूस हो रहा है " कुछ तो नयी बात है " संभवतया आपकी आवाज में पहली बार सुना हो
ये गीत "कानों में मिश्री घोलना " वाली बात को सार्थक कर रहा है [खास तौर से बीच और अंत में ]
कहाँ उतरा था चाँद कभी सागर में नहाने के लिए
पर मौजों को थी हड़बड़ी तूफाँ को बात बताने की
आपकी कविता में सब जीवित और बात करने वाला लगता है , चाँद , मौजे , तूफाँ सारी नेचर बस एक दूसरे से बात करती नजर आती है
बहुत उंचाई है इन भावों में , पढ़ के मन प्रसन्न हो जाता है
"ब्लागस्पाट.कॉम" का भी धन्यवाद देने का मन करता है जो हमें आपसे बात करने देता है
फोटो गजब है [हमेशा की तरह ]
जोडती रहे धज्जियाँ ....
ReplyDeleteधज्जियाँ उड़ने से हर हाल में बेहतर काम है ये ...
और जब कह दिया की कोई जबरदस्ती नहीं है सुनने की तब तो गीत सुनकर ही मानेंगे ...
" तेरे आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है "...
प्रेम मुहब्बत से दूर रहने वाले इतने सुंदर गीतों का चयन कैसे कर लेते हैं ...आश्चर्य ...
गिरिजेश जी के ब्लॉग पर पढ़ा ...माँ बाबा कनाडा आ रहे हैं आपके पास ...प्रणाम कहियेगा हमारा भी ..!
adbhut shabd-srijan, bahut badhiya, shubhkaamnaayen.
ReplyDeleteसुन लो मेरी दास्ताँ कुछ मिटे हुए अरमानों की
ReplyDeleteमैं जोड़ रहीं हूँ धज्जियां कुछ फटे गिरेह्बानों की
लाजबाब शेर अदा जी !
बहुत खूब !!
ReplyDeleteगम से दिल क्यों लगाए 'मजाल',
ReplyDeleteसुने क्यों बात दो पल के मेहमानों की.
चाँद सागर में उतरे या न उतरे, सागर को गागर में बखूबी उतार लेती हैं आप।
ReplyDeleteशमां को तो जलकर बुझना ही है लेकिन बुझने से पहले महफ़िल तो रोशन कर ही जाती है वो । और परवाने, एक बार भक्क सी आवाज होती है जी बस्स फ़िर तो राख ही उड़ती होगी उनकी। सच में बहुत अजीब रिश्ता है शमां और परवानों का -
कितने परवाने जल गये ये राज पाने के लिये
शमां जलने के लिये है या जलाने के लिये।
शानदार और जानदार पोस्ट लगी जी, हमेशा ही लगती है इसमें नया क्या है? हा हा हा।
नया ये है कि प्लेयर नहीं चल रहा है हमारे सिस्टम पर, पुरानी पोस्ट में ढूंढकर सुन लेंगे - तारीफ़ एडवांस में रख लीजिये। बहुत अच्छा गाती हैं आप।
सदैव आभारी।
बहुत सुन्दर भाव ...बस जोडती रहें ...सुन्दर कलाकृति बनेगी ...
ReplyDeletewaah
ReplyDeleteखूब अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कहानी अरमानों की।
ReplyDeleteकहाँ उतरा था चाँद कभी सागर में नहाने के लिए
ReplyDeleteपर मौजों को थी हड़बड़ी तूफाँ को बात बताने की
itni pyari panktiyon ko aaap jaise AADAkara hi gadh sakta hai.....:)
bahut sundar!!
पर मौजों को थी हड़बड़ी तूफाँ को बात बताने की
ReplyDeleteकाफ़िया नहीं मिल रहा है... ज़रा देख लीजिए॥
@ cmpershad ji,
ReplyDeleteआपका बहुत शुक्रिया...
मैंने सचमुच ध्यान ही नहीं दिया था ...
अब बदल दिया है...शायद कोई बात बने..देखिएगा ज़रा..
नहीं उतरा था चाँद कभी सागर में नहाने के लिए
पर मौजों से हुई गुफ़्तगू कुछ बेनाम तूफानों की
sundar lekhan, madhur aawaz.
ReplyDeleteहर शमा तो बुझती ही रही हर महफ़िल में 'अदा'
ReplyDeleteऔर राख भी उड़ती रही कुछ जले हुए परवानों की
बहुत सुन्दर ...
क्या बात है अदा दी...
ReplyDeleteये बुझी बुझी सी सोच क्यों है.
उडती उडती सी ये राख क्यों है ??
खूबसूरत गज़ल...दिल का हाल बयान कर रही है.
अदा जी,
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता
आज कल आप कुछ अलग सा तो लिख रही हैं लेकिन ये नदाज़ भी निराला है,
बधाई !