इस्लाम और हिन्दू धर्म के सर्वोत्तम गुणों को आत्मसात करते हुए एक सांस्कृतिक बुनियाद डाली गई जिसे 'सूफी मत' कहते हैं..हम भारतवासी सांस्कृतिक रूप से प्रबुद्ध हैं, इसलिए इस मिली-जुली संस्कृति का अविर्भाव हो पाया, अगर सच्ची बात कहें तो यह एक आन्दोलन है तो पूरी तरह स्वदेशी है, और यह वेदों और कुरआन से प्रभावित है साथ ही यह ठेठ सिन्धी विशेषता है....
१४ वी शताब्दी में सात बैतों (श्लोकों) से इसकी शुरुआत मानी जाती है...
सूफी कवियों की फेहरिस्त बहुत अच्छी ख़ासी है ..जिनमें काज़ी कदन हैं , कवि शाह अब्दुल करीम, महान सूफी संत शाह इनायत हुए, इन कवियों की बैतों और बोलों से आज भी रेगिस्तानी इलाके झंकृत होते ही रहते हैं....
सिन्धी सूफी काव्य परंपरा की शुरुआत यूँ तो १४ वी शताब्दी में हुई है जो दिनों दिन समृद्ध होती चली गई..
१७ वीं शताब्दी में शाह अब्दुल लतीफ़ नामक बहुत ही योग्य सूफी कवि हुए, वो कुरआन और वेदों के ज्ञाता थे, वो सात भाषाविद थे अर्थात सात भाषाओँ का ज्ञान था उन्हें इसलिए उन्हें 'सूफी-ए-हफ्त ज़बान' भी कहा जाता है..संत कवि शाह अब्दुल लतीफ़ का योगदान भक्ति आन्दोलन में बहुत मायने रखता है...शाह अब्दुल हिन्दुओं के सत्संग में शिरकत किया करते थे और हिन्दू तीर्थस्थानों पर भी जाया करते थे...कहा जाता है कि द्वारिका में वो श्री कृष्ण का नाम उच्चारण करके नाच उठे थे...संत कवि शाह अब्दुल लतीफ़ प्राचीन वैदिक परंपरा के सूफी कवि थे, जिन्हें धर्मशास्त्र से ज्यादा रहस्यवाद में रूचि थी...
आज के परिवेश में जब देखती हूँ ..धार्मिक उन्माद से भरे लोगों को ..तो महसूस होता है कि ये संत ये कवि इन बातों से कितने ऊपर थे...क्या ये संभव नहीं कि हम भी भारत की ऐसी ही गंगा जमुनी संस्कृति को लेकर आगे चलें ...और जो राह हमारे पूर्वज हमें बता गए हैं उसी का कुछ मान रखें...
आख़िर कौन सा भगवान् कितना बड़ा है, इसे तय करते हुए हम इन्सानों को लज्जा क्यूँ नहीं आती.....
कितना अहंकारी है मनुष्य ...जो भगवान् जैसी शक्ति तक को उसकी शक्ति बताता है....यूँ तो कई जगहों पर यह भी पढ़ती हूँ कि भगवान् नाम की चीज़ होती ही नहीं है...चमत्कार की बात करना बेकार है...लेकिन उनलोगों से ही मेरा एक प्रश्न है...अगर मनुष्य इतना ही सक्षम है ...तो मनुष्य जैसी चीज़ ख़ुद बिना किसी ईश्वर के बनाये हुए पुर्जों का इस्तेमाल (स्टेम सेल) किये हुए क्यूँ नहीं बना लेता है...क्यूँ आज भी वही मनुष्य जो ईश्वर के होने तक को नकारता है...अपने होने का ही रहस्य नहीं जान पाता है...किसी दूसरे चमत्कार को रहने ही दिया जाए...हमारा होना ही एक चमत्कार है...इसे ही समझ लें तो बहुत बड़ी बात होगी...और अगर हम ये समझ गए तो जीवन इतना सस्ता नहीं होगा जितना इसे लोगों ने बना दिया है...और जितना इसका दुरूपयोग हो रहा है...
हाँ नहीं तो ..!!
दमा दम मस्त कलंदर ....रुना लैला की आवाज़
अच्छी रचना |गाना और फोटो भी बढिया हैं बधाई |
ReplyDeleteआशा
एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
ReplyDeleteआपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
शिवम् मिश्रा has left a new comment on your post "दमा दम मस्त कलंदर ....":
ReplyDeleteएक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
हम तो गाना सुन रहे हैं...
ReplyDeleteसूफी संतों के माध्यम से रहस्यवाद पर चर्चा करने के लिए आभार ! जीवन अनंत है...इसका रहस्य प्रेम से ही जाना जा सकता है... हमें सूफी संत साहित्य में इसी बात के दर्शन होते हैं । सुंदर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteविचारोत्तेजक!
ReplyDeleteपरसों रात को मूमल और कल दिन को मैं रेशमा की आवाज़ में सुन रहा था सारे दिन में रिपीट मोड पर
ReplyDeleteमुझे भी लगता था कि कितनी तो दूर है वह दरगाह...
अगर बीच में पुलिस वाले न खड़े हों, धरती को बांटा न गया हो इधर का पेड़ हमारा और उधर का उनका न कहा जाता हो...
मगर कुछ बातों को नसीब कहते हैं जैसे कल एक दोस्त को कहना चाह रहा था आजा, चलते हैं, उसी दरगाह के आगे बैठ कर कव्वालियाँ सुनेंगे... मेरे घर से कुछ घंटे का ही रास्ता है,
मगर कौन आएगा वह तो फोन भी नहीं करता... किससे कहूँ ...फिर ये बाड़ें भी बहुत बड़ी और ऊँची है मगर दिल वहीं अटका है.
कभी पांचवां 'दिया' साथ जलाने का ख्वाब भी होता है तो कभी लगता है कि ड्योढी को चूमने की रवायत वाकई कितनी अच्छी है.
कोई मानता ही नहीं मेरी बात
सूफियाना फक्कड़ी अन्दाज़ मन में बसी आवारगी का प्रतिबिम्ब है।
ReplyDeleteसूफियों की बात करते हुए आज आपने दिल जीत लिया ! नमक की खानों में शक्कर के दानों से वे, मुझे हमेशा से पसंद रहे हैं ! उन्माद और प्रेम के मोल तोल में वे ही भाते हैं मुझे !
ReplyDeleteआखिर में बहुत बड़ा सवाल पूछ लिया आपने :)
"आख़िर कौन सा भगवान् कितना बड़ा है, इसे तय करते हुए हम इन्सानों को लज्जा क्यूँ नहीं आती.."
ReplyDeleteआज तो आनंद आ गया आपके लेख को पढ़कर , नफरत फैलाते धार्मिक उन्मादियों के मध्य ऐसी शीतल फुहारों कि बेहद जरूरत है , आभार इस प्यारी पोस्ट के लिए
बहुत सुंदर आलेख और गाना भी उतना ही खूबसूरत। आपकी गायकी के तो क्या कहने मज़ा आ गया ।
ReplyDeleteसच ही ये संत आज के िन्सानों के मुकाबले धर्म और ईश्वर को कितना अच्छा जानते थे ।
सूफी सम्प्रदाय पर बहुत अच्छी जानकारी!
ReplyDeleteपसंद आया आपका ये सूफ़ियाना अंदाज़,
ReplyDeleteएक कमी खटक रही है, गायिका रूना लैना की फोटो तो है लेकिन पोस्ट में कहीं नाम नहीं है,,,
बांग्लादेश की इस गायिका ने सत्तर के दशक में बॉलीवुड में भी कुछ ज़बरदस्त गाने गाए थे...
दो दीवाने इस शहर में (घरौंदा)...
एक से बढ़ कर एक, लाई हूं तोहफ़े अनेक (एक से बढ़ कर एक)...
जय हिंद...
अभी दोबारा क्लिप को ध्यान से देखा तो ऊपर इंग्लिश में रुना लैला का नाम नज़र आया...
ReplyDeleteजय हिंद...
सतीश जी कि बात से सहमत हूँ!
ReplyDeleteसूफी गीत कव्वालियों की तो बात ही क्या है ...मेरी तो जान बसती है इनमे ...
ReplyDeleteदमदम मस्त कलंदर ...पसंदीदा गीतों में से एक ...
हमारा होना ही ईश्वर के होने का सबूत है ...सिर्फ हमारा होना ही नहीं ...हम हर पल उस के चमत्कार को आसपास महसूस करते हैं ... फूल , चाँद , तारे , सूरज , हवा ,खुशबू ....ये सब उसके चमत्कार ही तो हैं ...
और मैंने तो कई बार ईश्वर को इतना करीब पाया है ...अपनी दुःख तकलीफ बस उसे कहकर निश्चिंत हो जाती हूँ ...जाने कैसे वही सुलझा देता है सब ...!
सूफी काव्य पर अच्छी जानकारी दी है ।
ReplyDeleteरुना लैला को २५ साल पहले पहली बार सुना था ।
अच्छा लगा फिर से सुनकर ।
@ Mrs. Asha Joglekar
ReplyDeleteआदरणीय आशा जी,
ये मेरी आवाज़ नहीं है..इसे रुना लैला, जो बहुत ही मशहूर गायिका हैं उन्होंने गाया है...
ये तो आपका प्रेम है जो आपको ऐसा लगा...
हृदय से धन्यवाद...