वो !
ट्राफिक लाईट पर मिला
ट्राफिक लाईट पर मिला
प्रचंड धूप में कोयला
मैला कुचैला
भगवान् ने मानो
चेहरे पर एक ही
भाव चिपका दिया हो
याचना !!
बिसूर कर बोला था
मैडम, ले लो न ...
बहुत बढ़िया है
मैडम, भूखा हूँ
रोटी खा लूँगा
कितने का है ?
मेरा इतना पूछते ही
दूसरे कई भाव दिखने लगे
आशा, विश्वास !!
ख़ुश हो जाने का
बहाना मिल गया था
एक डब्बा ३ रुपैये
दो लोगी तो ५ में दूँगा
भरी दोपहर में
पसीने से अटा बदन
और छोटा हो रहा था
डीहाईद्रेशन से चीज़ें
संकुचित हो जाती हैं
डीहाईद्रेशन से चीज़ें
संकुचित हो जाती हैं
मुझे अपने हाथों की
फ़िक्र थी
फ़िक्र थी
अल्ट्रा वायेलेट रेज को
कैसे छ्काउंगी
कैसे छ्काउंगी
मैंने फुर्ती से
हाथ बाहर निकाला
झट से
पाँच रुपल्ली उसे दे डाला
पाँच रुपल्ली उसे दे डाला
और टिशू पेपर के
दो डब्बे
ड्राइवर ने सम्हाला
घर आकर वातानुकूलित
कक्ष में लेट गई
लेकिन कमरे का तापमान
कम नहीं हो रहा था
कम नहीं हो रहा था
कारण समझ नहीं पा रही थी
नज़रें चारों तरफ दौड़ा रही थी
देखा तो
टिशू पेपर के डब्बे
टिशू पेपर के डब्बे
मुँह फाड़े ही
जा रहे थे
जा रहे थे
ए.सी. से कहीं ज्यादा
आग बरसा रहे थे
आग बरसा रहे थे
झुलसते हुए बचपन की
तपिश मुझे झुलसा रही थी
और धीरे-धीरे
मैं ख़ुद याचक बनती जा रही थी...
और धीरे-धीरे
मैं ख़ुद याचक बनती जा रही थी...
Aah!
ReplyDeleteझुलसते हुए बचपन की
ReplyDeleteतपिश मुझे झुलसा रही थी
और धीरे-धीरे
मैं ख़ुद याचक बनती जा रही थी...
याचक कौन है कुछ पता नहीं
याचना कौन है कुछ पता नही
बेहद मार्मिक रचना !
ReplyDeleteGirijesh Rao ji kahin emailwa mein :
ReplyDeleteये उस बीमारी के लक्षण हैं जिसे सम्वेदना कहते हैं। मैं तो इसका लाइलाज मरीज हूँ।
कई बार खुद को बहलाना पड़ता है। चलिए एक और जन मिला !
बहुत संवेदनशील रचना है!
ReplyDeleteबहुत मार्मिक रचना है!
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील पोस्ट है!
ReplyDeleteयाचना करते हाथ कई बार इसी तरह झुलसा देते हैं ....ट्रैफिक सिग्नल पर कई बार आँखें बस इन बच्चों पर टिक जाती है ...कई बार जरुरत ना होने पर भी अखबार वगैरह ले लेते हैं ..मगर हर बार तो नहीं लिए जा सकते ...!
ReplyDeleteसंवेदनशील रचना ..!
बहुत संवेदनशील रचना है
ReplyDeleteaacha likha aapne par aap ko pata India main apni marji se bheek nahin mangte balki inke peeche ek bahut bada gang operate ho raha hai.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeleteyour post is good. badhai
ReplyDelete---------------------------
aapne meri post par jo comment kiya hai, uska jawab de raha hu....
अदा जी. आपके कमेन्ट से मैं सहमत नहीं हूँ. आपने कहा कि डाक्टर भगवान हैं. मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या डाक्टर लोग फ्री में काम करके किसी की जान बचाते हैं क्या? अदा जी, उनका भी ये पेशा है. वे पैसो के लिए ही काम करते हैं. उस डाक्टर का क्या, जो कई बार जान तक ले लेते हैं, जो भ्रूण हत्या में शामिल हैं? मेरा मतलब सचिन को उसके काम में ही माहिर मानता हूँ, वह अपने पेशे में माहिर है और कुछ लोग उसे भगवान भी मानते हैं, इसमें कोई बुरे भी नहीं है. यदि कोई डाक्टर किसी मरीज को मौत के मुह से निकाल लाता है तो उस मरीज के लिए भगवान ही है, ऐसे में आप उस मरीज को ये नहीं कह सकती कि आप उस डाक्टर को भगवान मत कहो.
शायद आप समझ रहीं हों.
come to http://www.sanjaybhaskar.blogspot.com/ and read others specially Virender chauhan's comments.
Thanks
संवेदनशील रचना.
ReplyDeleteबेहद मार्मिक रचना।
ReplyDeleteतेज प्रताप सिंह जी भी ठीक कह रहे हैं, लेकिन भीख मांगने वालों में और ऐसे बच्चों में अंतर है।
गिरिजेश राव जी सही कह रहे हैं, और इस बीमारी के जितने ज्यादा मरीज होंगे, समाज के लिये उतना ही बेहतर होगा।
संवेदनशील प्रस्तुति के लिये आभार।
@ Ameen..
ReplyDeleteफ्री में डाक्टर्स काम नहीं करते ...लेकिन जीवन दान ज़रूर करते हैं....
जान से बढ़ कर पैसा नहीं होता...
पैसा लेकर वो जान बचाते हैं...और कुछ डाक्टर्स की वजह से सभी डाक्टर्स के लिए ये बात नहीं कही जा सकती...जब जान पर बन आती है तो यही डाक्टर भगवान् का रूप होता है...उस समय उसी के हाथ में होता है जीवन...अभी छोटे हो जीवन का मोल नहीं मालूम ...किसी दिन समझ में आएगा...जब कोई अपना या ख़ुद जीवन से लड़ रहा होता है तो सचिन नहीं बचाता है उसे ...कोई अदना सा डाक्टर ही भगवान् बन कर आता है ..
तुम जब भी बीमार हुए हो तो क्या डाक्टर ने तुम्हें ठीक नहीं किया ? उस वक्त जो भी पैसा लिया गया था वो क्या तुम्हारे तबियत से ज्यादा बड़ा था..? उस वक्त सचिन आता तो क्या ठीक हो जाते तुम ?
सचिन को भगवान् मानने वाले ..बेवकूफ हैं...यही भगवान् जब कल को बूढा हो जाएगा और मैच नहीं खेल पायेगा तो क्या कहोगे उसे...फिर भी भगवान् ही कहोगे ..?
सचिन जैसे भगवान् न जाने कितने आए और चले गए ...और आते ही रहेंगे...
खेल है क्रिकेट सिर्फ़ खेल ...
और सचिन सिर्फ़ एक अच्छा खिलाड़ी....उसो भगवान् बना कर भगवान् का अपमान मत करो....बस..
एक सड़क के भीख मांगते याचक का बहुत सुंदर चित्रण
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट के लिए बधाई |
आशा
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteएक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
ReplyDeleteआपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
बड़ी ही संवेदनशील स्थिति के साथ न्याय किया है आपकी कविता ने।
ReplyDeleteझुलसते हुए बचपन की
ReplyDeleteतपिश मुझे झुलसा रही थी
और धीरे-धीरे
मैं ख़ुद याचक बनती जा रही थी...
बेहद संवेदनशील और मार्मिक्……………?
ये ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर मिलना मुश्किल है।
संवेदित कर देने वाली रचना.
ReplyDeleteमैने ऐसे बच्चों पर ही कहा था:
सो जाते हैं कहीं पर भी बस यूँ ही दुबक कर
यह बच्चे कभी दूध की बोतल नहीं पीते !
समय हो तो पढ़ें
शहर आया कवि गाँव की गोद में http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_04.html
संवेदनशील आत्मा से निकली हुई संवेदनशील रचना , बहुत ही मार्मिक और भावुक कर देने वाली
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील पोस्ट है!
ReplyDeleteआज बोलने के लिए कुछ भी नहीं है...कुछ भी तो नहीं...आज बोलने के लिए कुछ भी नहीं है...कुछ भी तो नहीं...
ReplyDeleteजीवन की कठोर हकीकत सड़क किनारे खुले आसमान में ही है ...मार्मिक रचना . शुभकामनायें
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