Friday, August 6, 2010

कम से कम चेहरा तो बदल जाता है.....


एक आईने ने दूसरे
आईने को देखा
मुँह बिचकाया
उसे अपना भी मुँह
बिचका नज़र आया
आमने-सामने जब भी
वो खुल कर आते हैं
एक दूसरे से छुप नहीं पाते हैं
प्रतिबिम्बों की कतार
लम्बी हो जाती है
लाख जतन करें
आखीर...
नज़र नहीं आता है !
इसीलिए तो
आईने का आईने से मिलना
बड़ा सपाट होता है 
और तब 
दरार की याद आ जाती है 
जिसके होने से 
कम से कम
चेहरा तो बदल जाता है.....

15 comments:

  1. बहुत प्यारे भाव लिए रचना |
    आशा

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  2. थोड़ी उलझी हूँ इस कविता में ...!

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  3. और तब
    दरार की याद आ जाती है
    जिसके होने से
    कम से कम
    चेहरा तो बदल जाता है.....


    क्या बात है !! सुन्दर !!
    समय हो तो अवश्य पढ़ें और अपने विचार रखें:

    मदरसा, आरक्षण और आधुनिक शिक्षा
    http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_05.html

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  4. sundar bhaawon ki anoothi rachna!
    gud one!

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  5. वाह क्या कटाक्ष है रचना में बहुत खूब अदा जी। बहुत समय बाद पढ़ने का मौका मिला बहुत सुन्दर लिखा है।

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  6. आईने का आईने से मिलना
    बड़ा सपाट होता है
    और तब
    दरार की याद आ जाती है
    जिसके होने से
    कम से कम
    चेहरा तो बदल जाता है.....

    bahut khub.........kya baat kahi aapne......:)

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  7. आईने का आईने से मिलना बहुत गहन अर्थ है इसमें

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  8. आपका आभार आपने हमज़बान की मदरसे वाली पोस्ट पर अपने सार्थक विचार रखे.
    मेरा लिखने का यही मात्र उद्देश्य है कि मदरसे को आधुनिक शिक्षा से जोड़ा जाए.और ऐसी परम्परा रही है.परम्परा कब बदली मैंने इसका भी ज़िक्र किया है.


    शहरोज़

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  9. अपना भी मुँह
    बिचका नज़र आया
    यही तो होता है अपना चेहरा देखने पर।

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  10. एक आईने से ही सामना करना पड़े तो दुनिया में बहुत दिक्कत हो जाती है, और आपने आईने से आईने का आमना-सामना करवा दिया।
    बहुत अच्छी लगी यह कविता भी।

    सदैव आभारी।

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  11. एक आईने ने दूसरे
    आईने को देखा
    मुँह बिचकाया
    उसे अपना भी मुँह
    बिचका नज़र आया


    बेहद सटीक कथन. बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम

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  12. आईनों की बोली केवल सौन्दर्य को समझ आती है।

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  13. आईना वही रहता है,
    चेहरे बदल जाते हैं...

    जय हिंद...

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