एक आईने ने दूसरे
आईने को देखा
मुँह बिचकाया
उसे अपना भी मुँह
बिचका नज़र आया
आमने-सामने जब भी
वो खुल कर आते हैं
एक दूसरे से छुप नहीं पाते हैं
प्रतिबिम्बों की कतार
लम्बी हो जाती है
लाख जतन करें
आखीर...
नज़र नहीं आता है !
इसीलिए तो
आईने का आईने से मिलना
बड़ा सपाट होता है
और तब
दरार की याद आ जाती है
जिसके होने से
कम से कम
चेहरा तो बदल जाता है.....
बहुत प्यारे भाव लिए रचना |
ReplyDeleteआशा
थोड़ी उलझी हूँ इस कविता में ...!
ReplyDeleteऔर तब
ReplyDeleteदरार की याद आ जाती है
जिसके होने से
कम से कम
चेहरा तो बदल जाता है.....
क्या बात है !! सुन्दर !!
समय हो तो अवश्य पढ़ें और अपने विचार रखें:
मदरसा, आरक्षण और आधुनिक शिक्षा
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_05.html
sundar bhaawon ki anoothi rachna!
ReplyDeletegud one!
वाह क्या कटाक्ष है रचना में बहुत खूब अदा जी। बहुत समय बाद पढ़ने का मौका मिला बहुत सुन्दर लिखा है।
ReplyDeleteआईने का आईने से मिलना
ReplyDeleteबड़ा सपाट होता है
और तब
दरार की याद आ जाती है
जिसके होने से
कम से कम
चेहरा तो बदल जाता है.....
bahut khub.........kya baat kahi aapne......:)
bahut sundar bhawna.
ReplyDeleteआईने का आईने से मिलना बहुत गहन अर्थ है इसमें
ReplyDeleteआपका आभार आपने हमज़बान की मदरसे वाली पोस्ट पर अपने सार्थक विचार रखे.
ReplyDeleteमेरा लिखने का यही मात्र उद्देश्य है कि मदरसे को आधुनिक शिक्षा से जोड़ा जाए.और ऐसी परम्परा रही है.परम्परा कब बदली मैंने इसका भी ज़िक्र किया है.
शहरोज़
अपना भी मुँह
ReplyDeleteबिचका नज़र आया
यही तो होता है अपना चेहरा देखने पर।
एक आईने से ही सामना करना पड़े तो दुनिया में बहुत दिक्कत हो जाती है, और आपने आईने से आईने का आमना-सामना करवा दिया।
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी यह कविता भी।
सदैव आभारी।
एक आईने ने दूसरे
ReplyDeleteआईने को देखा
मुँह बिचकाया
उसे अपना भी मुँह
बिचका नज़र आया
बेहद सटीक कथन. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम
आईनों की बोली केवल सौन्दर्य को समझ आती है।
ReplyDeleteआईना वही रहता है,
ReplyDeleteचेहरे बदल जाते हैं...
जय हिंद...
shandar rachna ghrai hi in baaton me
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