कभी हैराँ, हैराँ
इन्सानी जंगल में,
कोई हिन्दू,
कोई मुसलमाँ,
कोई मुसलमाँ,
मंज़िल की तलाश
सभी को
मंज़िल लेकिन है कहाँ ?
नज़रों में जब हो वीरानी
फिर कैसा गुलशन ?
कैसा बियाबाँ ?
कौन आएगा
तुझसे मिलने
जब सन्नाटा
तेरा निगेहबां ?
जाना तो था मुझको भी कहीं
पर जाऊँगी अब नहीं वहाँ ...!!
एक गीत ...छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए..
नज़रों में जब हो वीरानी
ReplyDeleteफिर कैसा गुलशन ?
कैसा बियाबाँ ?
बिलकुल सही
सीख देती पोस्ट
चित्र तो बस ग्रेट है जी
ReplyDeleteदोनों ही फुल तन्हा लग रहे हैं
कविता की भाषा सीधे-सीधे जीवन से उठाए गए शब्दों से निर्मित हैं।
ReplyDeleteबढिया प्रस्तुति .. रक्षाबंधन की बधाई और शुभकामनाएं !!
ReplyDeleteWaah! bahut sundar kavita aur utana hi sundar ..geet bhi hai!!
ReplyDeleteतन्हाई का ऐसा चित्र पहिले कभी नहीं देखे हैं... सचमुच! अऊर कबिता में खींचा हुआ सब्दचित्र अद्भुत है..बहुत सुंदर!!
ReplyDeleteबहुत पुरअसर तरीके से अपने ख्यालात पेश किये हैं आपने। हाँ, वीरानी, गुलशन और बियाबाँ वाली पंक्ति पर अपना सोचना ये है कि सब नजर और नजरिये के ही नतीजे हैं। मन कभी तनहाई से घबराता है तो कभी भीड़ से भी कतराता है।
ReplyDeleteआज की पिक्चर, पोस्ट और गाना एक मुकम्मल कैनवस का ही हिस्सा दिखते हैं - गुंथे हुये, एक ही रंग में, एक ही लय में।
सदैव आभारी।
सन्नाटे और नाउम्मीदियाँ इंसान की खुद की ओढी हुई हैं ! बेहतर ख्याल पर खत्म हुई कविता !
ReplyDeleteबढिया प्रस्तुति .. रक्षाबंधन की बधाई और शुभकामनाएं !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना शुभकामनाये !
ReplyDeleteअदा जी , जन्मदिन की हार्दिक बधाई एवम शुभकामनायें ।
ReplyDeleteबड़ी सुन्दरता और सरलता से कही गयी बात।
ReplyDeletebahut khubsurat, pyari kavita......ekdum dil se judi hui :)
ReplyDeleterakhi ki shubkamnayaen.....:)