Monday, August 23, 2010

हैं तन्हाँ, तन्हाँ....


हैं !
तन्हाँ, तन्हाँ
कभी हैराँ, हैराँ
इन्सानी जंगल में,
कोई हिन्दू, 
कोई मुसलमाँ,
मंज़िल की तलाश 
सभी को 
मंज़िल लेकिन है कहाँ ?
नज़रों में जब हो वीरानी
फिर कैसा गुलशन ?
कैसा बियाबाँ ?
कौन आएगा  
तुझसे मिलने
जब सन्नाटा
तेरा निगेहबां ?
जाना तो था मुझको भी कहीं 
पर जाऊँगी अब नहीं वहाँ ...!!

एक गीत ...छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए..

13 comments:

  1. नज़रों में जब हो वीरानी
    फिर कैसा गुलशन ?
    कैसा बियाबाँ ?

    बिलकुल सही
    सीख देती पोस्ट

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  2. चित्र तो बस ग्रेट है जी
    दोनों ही फुल तन्हा लग रहे हैं

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  3. कविता की भाषा सीधे-सीधे जीवन से उठाए गए शब्दों से निर्मित हैं।

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  4. बढिया प्रस्‍तुति .. रक्षाबंधन की बधाई और शुभकामनाएं !!

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  5. Waah! bahut sundar kavita aur utana hi sundar ..geet bhi hai!!

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  6. तन्हाई का ऐसा चित्र पहिले कभी नहीं देखे हैं... सचमुच! अऊर कबिता में खींचा हुआ सब्दचित्र अद्भुत है..बहुत सुंदर!!

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  7. बहुत पुरअसर तरीके से अपने ख्यालात पेश किये हैं आपने। हाँ, वीरानी, गुलशन और बियाबाँ वाली पंक्ति पर अपना सोचना ये है कि सब नजर और नजरिये के ही नतीजे हैं। मन कभी तनहाई से घबराता है तो कभी भीड़ से भी कतराता है।

    आज की पिक्चर, पोस्ट और गाना एक मुकम्मल कैनवस का ही हिस्सा दिखते हैं - गुंथे हुये, एक ही रंग में, एक ही लय में।

    सदैव आभारी।

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  8. सन्नाटे और नाउम्मीदियाँ इंसान की खुद की ओढी हुई हैं ! बेहतर ख्याल पर खत्म हुई कविता !

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  9. बढिया प्रस्‍तुति .. रक्षाबंधन की बधाई और शुभकामनाएं !

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  10. बहुत सुन्दर रचना शुभकामनाये !

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  11. अदा जी , जन्मदिन की हार्दिक बधाई एवम शुभकामनायें ।

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  12. बड़ी सुन्दरता और सरलता से कही गयी बात।

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  13. bahut khubsurat, pyari kavita......ekdum dil se judi hui :)

    rakhi ki shubkamnayaen.....:)

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