समलैंगिक विवाह, लिव-इन रिलेशन आज ज्यादा लोकप्रिय और सहज से रास्ते हो गए हैं..इनको मान्यता देकर हमारी सरकार ने इसे और भी सहज बना दिया है...इस तरह की घटनाओं को देख कर यही लगता है कि कुछ मानसिक बीमारियों को अब बीमारी नहीं माना जाता है...जो भी हो रहा है ठीक ही होगा...ये सोच कर हम पल्ला नहीं झाड सकते हैं...ये सब कुछ अप्राकृतिक और अनैतिक हो रहा है...इस सारी रेल-पेल में 'विवाह संस्था' किसी विलुप्त प्राणी की तरह नज़र आने लगेगी...और हमारी आने वाली पीढ़ी इसे इतिहास के रूप में पढेगी ..कि हमारे दादा-दादी के ज़माने में एक प्रकार का रस्म हुआ करता था, जिसे निभाया भी जाता था, जो 'विवाह' कहलाता था..
विवाह..सिर्फ़ स्त्री-पुरुष को साथ लाने की प्रक्रिया नहीं है..यह एक अनुशासन है, जिसके कारण समाज के तंतु अपनी जगह पर होते हैं ..रिश्तों की गरिमा को बचाने का एक बहुत ही महत्वपूर्ण साधन है..
कहीं पढ़ा था... इतिहास अपने आपको दोहराता है ..तो हम भी घूम फिर कर फिर वहीँ पहुँच रहे हैं जहाँ से शुरुआत हुई थी अर्थात 'पाषाण युग' जब शायद नहीं यकीनन जीवन ज्यादा कठिन रहा होगा और रस्मों रिवाज के बंधन न बराबर रहे होंगे....तो फिर फर्क क्या होने वाला है, तब और अब में ? लगभग वही स्थिति हो जायेगी...'निभाने' जैसे कठिन रास्ते से कन्नी कटा कर...
'संस्कृति' और 'सभ्यता' जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना अब 'आउट ऑफ़ फैशन' हो गया है...आजकल एक जुमला बड़ा सुनने में आता है ..'गो विथ दी फ्लो'..तो जा रहे हैं हम फ्लो के साथ...अब रास्ते में दो मूंछ वालों को चुम्बन करते देख कर हैरानी नहीं होती...बस उबकाई आ जाती है..और हम अपने रास्ते निकल लेते हैं ...अपने बच्चों को तो ठोक-पीट कर रख भी लेंगे, अपने हिसाब से ...लेकिन उनके बच्चों का क्या होगा...!
जब संस्कृति की ऐसी फजीहत देखती हूँ तो 'कट्टरपंथों' की याद आ जाती है..ऐसा नहीं कि मैं कट्टरपंथी तरीकों की हिमायत करती हूँ, लेकिन मान्यताओं का कुछ तो पालन होना ही चाहिये... और तब लगता है जो भूत बात से न माने उन्हें लात से मनवाना ही चाहिए..सिर्फ़ पोलीटीकली सही होने के लिए या फिर तथाकथित अग्रणी देशों की हर अनाप-शनाप बातों को अपना कर सिर्फ़ उनसे ताल में ताल मिलाने के लिए ...अपनी पीढ़ी के साथ खिलवाड़ करना .. किसी भी हाल में समझदारी नहीं है...
फिर अपनी संस्कृति पर ऐसा वहशियाना हमला कौन बर्दाश्त करेगा...?
समलैंगिक विवाह या लिव-इन रिलेशन के मामले में मेरा दिल भी इस्लामिक शरीयत क़ानून को सही बताने लगता है...बेशक मैं मुसलमान नहीं हूँ...
अगर हमारा समाज इन बीमारियों के बारे में जल्दी से नहीं सोचेगा तो 'विवाह संस्था' का अंत निश्चित है...और इसका सारा दारोमदार हमारी पीढ़ी पर है..क्यूंकि इस बिमारी को मान्यता हम ही दे रहे हैं...और प्रोत्साहन भी...भविष्य में हमारी पीढ़ी को लोग इतना कोसने वाले हैं कि हम सोच भी नहीं सकेंगे...इस आधुनिकता की दौड़ में हम अपनी कितनी ही थातियों को तिलांजलि देते जा रहे हैं...जिसका हमें अभी अनुमान ही नहीं है....जान-बूझ कर हम सब कुछ गवाँ रहे हैं...
कह सकते हैं हम कि... ये अहमकों का दौर है..और हम कितने अनजान हैं..
हाँ नहीं तो..!!
sabkuch jante hue kunye me jaa rahe .......kahne ko raha kya !
ReplyDeleteपोस्ट तो आपकी बहुत रोचक लगी, दो मूंछ वाले.... और चित्र भी गज़ब का मजेदार।
ReplyDeleteलेकिन पता नहीं क्यों, व्यक्तिगत तौर पर मैं ’लिव-इन रिलेशन’ को इतना गलत नहीं मानता, बशर्ते संतान वाले मामले में कुछ नियम, कायदे-कानून बन जायें।
और कोई भी कानून, चाहे हिन्दू विवाह अधिनियम हो या ’मुस्लिम शरीयत कानून’, फ़ूलप्रूफ़ नहीं है। अगर ऐसा होता, जैसा कि आपने कहा है तो कोई भी मुस्लिम महिला अन्याय का शिकार नहीं होती।
’let us agree to disagree' वाक्य आपकी किसी पोस्ट पर पढ़ा था, आशा है आप ऐसा मानती भी होंगी।
सदैव आभारी
संजय जी,
ReplyDeleteजी हाँ बिलकुल...let us agree to disagree..
शायद मैं अपनी बात ठीक तरीके से नहीं कह पायी..तालेबान से मेरा अभिप्राय ..कट्टरपंथों से था, वो किसी भी धर्म के हो सकते हैं...
और जहाँ तक लिव इन रिलेशन की बात है...तो सिर्फ संतान के संरक्षण की जिम्मेवारी सरकार पर आ जाए तो बात नहीं बनती है...वैवाहिक रिश्तों में जो बंधन होता है, संतान के लिए वो ज्यादा मायने रखती है...ज्यादा सुरक्षा प्रदान करती है...हालाँकि ये सही है कई बार हम रिश्तों को ढोते हैं....लेकिन बार-बार किराए के महलनुमा मकान बदलने से बेहतर है कच्चा मकान हो लेकिन अपना हो...
आपका धन्यवाद...
एक दम्मे ठीक कहे हैं।
ReplyDeleteहां नहीं तो....
आप की बात सही है लेकिन लगता नही कि अब इसे रोका जा सकेगा....
ReplyDeleteआपकी पोस्ट बहुत अच्छी है पर मैं लिव इन रिलेशनशिप को इतना गलत नहीं मानता हां कुछ सुधार की आवश्यकता तो ज़रूर है , कुछ मानसिक बीमारियों को अब बीमारी नही माना जाता ये बात आपने बिल्कुल सही कही है !
ReplyDeleteलिव इन रिलेशन के लिए जो कानून बन गए है ...निभाने से मुक्ति पाने वालों के लिए इतना आसान नहीं होगा ऐसे रिश्तों को निभाना भी ...
ReplyDeleteउन सामाजिक मान्यताओं का हर हाल में पालन किया जाना चाहिए जो एक स्वस्थ समाज के निर्माण में सहयक हैं ...बिना कट्टरपंथियों के हस्तक्षेप के भी ...!
अच्छी पोस्ट ..
अभी अभी मुक्ति की गंभीर कविता पर:
ReplyDeletehttp://feministpoems.blogspot.com/2010/08/blog-post_12.html
इसी बाबत टिप्पणी छोड़ी है.
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteAapaki post bahut vicharniya hai ...aaj ke haalat aur sabhyata main aae parivartan par sarthak chintan kiya hai..!!
ReplyDeleteSahi hai ki samay ke sath manyataaen parmparaen badalani chahiye lekin ye bhi sach hai ki kuch manyataen badal dene par jivan ka rup vikrat bhi ho sakata hai .
Dhanywad
अदा जी ,
ReplyDeleteबदलाव कभी रुकते नहीं पर जो नैसर्गिक हैं ,मानवता के अनुकूल हैं , वे ही टिकेंगे !
दूसरी तरफ असहज़ बदलाव भी होके रहेंगे पर उनकी उम्र लम्बी नही होगी ! इंसान जल्द ही अनैसर्गिकता से उकता जाता है !
बहकने की स्वतन्त्रता उनको भी है।
ReplyDeleteGirijesh ji ne kaha:
ReplyDeleteकुछ लिख नहीं पा रहा क्यों कि लिव इन पर जितना ही सोचा हूँ, उतना ही उलझा हूँ। हाँ, समलैंगिक विवाह तो मुझे भी विकृति ही लगते हैं।
आप ने इस विषय पर लिखा, इसके लिए धन्यवाद ।
... शायद धीरे धीरे मानवता के मायने भी बदल जाएँगे। न हम होंगे, न आप। दुनिया चलती रहेगी- जाने कैसे?
कभी कभी ईश्वर पर विश्वास करने को मन करता है :)
बिल्कुल सही लिखा है आपने ।
ReplyDeleteयह रोग तो विश्व भर में फैलता जा रहा है ।
और हम खड़े खड़े बस देख रहे हैं ।
let us agree to disagree
ReplyDeleteभारत के संदर्भ में ऊपर ली लाईनें सब कह देती हैं, जब तक आप मुंबई या दिल्ली जैसे मैट्रों में हैं तब तक लिव-इन-रिलेशन के लिये कहा जाता है "let us agree", छोटे शहरों और कस्बों तक आते आते उसमें "disagree" और जुड़ जाता है।
आगे आगे देखिये होता है क्या, इब्तेदाए इश्क है रोता है क्या