Sunday, August 1, 2010

रिश्तों के तार कभी नहीं टूटते.....



इस संस्मरण को लिखने की हिम्मत मुझे मिली है 'अनुराग जी' के संस्मरण से जिसका शीर्षक है 'वो कौन था', मेरे और मेरे परिवार के जीवन में कुछ ऐसी घटनाएं घटित हुई है, जिनके पीछे आज तक कोई तर्क काम नहीं आया, बस वो घटनाएं घटित हुई और हमने उसे बिना कोई तूल दिए, स्वीकार कर किया, यह बिलकुल वैसा ही है जैसा आप घर में सत्यनारायण की कथा करवाते हैं, पंडित जी आते है, पूजा की हर विधि निबाहते हैं, और साधू बनिया की कहानी सुनाते हैं, हर बार यही बताते हैं कि  राजा ने 'कथा' करवाई तो उसका राज-पाट वापस मिल गया, कलावती 'कथा' से उठ गयी थी इसलिए उसका पति मर गया, लेकिन अंत तक हमें उस कथा का पता ही नहीं चलता, फिर भी हम उसे स्वीकार करते हैं कि यह सत्यनारायण की कथा थी, ऐसा ही कुछ इस प्रकार की घटनाओं की नियति होती है, ये बस घट जातीं हैं और हम ताउम्र इनकी असलियत नहीं जान पाते....
हाँ तो बात सन १९९८ की है, मैं अपने परिवार के साथ कनाडा आ गयी थी, जनवरी का महीना था, यहाँ कडाके
की ठण्ड थी, और शायद भारत में भी रही होगी,

मैं माँ-पिताजी को रांची (मेरे माँ-पिताजी, वही रहते हैं) हर शनिवार फ़ोन करती हूँ अब भी, और जो भी खास मौके होते हैं, उन दिनों को तो करना ही होता है, मैंने शनिवार को फ़ोन किया, और इस बार सोमवार भी किया क्योंकि उस दिन १९ जनवरी थी, मेरे छोटे भाई जय (जो इस दुनिया से जा चुका था) का जन्मदिन था, सब कुछ ठीक था, हमलोगों ने जय को याद किया,  घर में अब सब इस बड़ी घटना को लेकर धीरे-धीरे स्थिर होने लगे थे, फिर भी यादों के दायरे से निकलना कौन सा आसन था, खैर फ़ोन पर लम्बी बात-चीत हुई हमेशा की तरह, हमने जय की बहुत सारी अच्छी यादों को जीया,

उन दिनों जो भी भारत से फ़ोन करते थे, हम वापस उनको फ़ोन करते थे क्योंकि भारत से फ़ोन करना महँगा ही था, मेरे माँ-पिताजी को STD booth में जाना पड़ता था फ़ोन करने, जो बहुत असुविधाजनक बात थी, इसलिए मैं नियम से हर हफ्ते फ़ोन करती ही थी, कभी कभी हफ्ते में २-३ बार भी,

उस दिन २२ जनवरी थी बृहस्पतिवार, कनाडा में तकरीबन रात के १२-१२:३० बज रहे थे, long distance के रिंग से मेरी आँखें खुलीं, मैंने फ़ोन उठाया, मेरे पिता जी की आवाज़ थी "हेल्लो..." उनके हेल्लो से मेरी जान धक्क्क से निकल गयी मुझे लगा इतनी रात को फ़ोन कर रहे हैं कहीं.... माँ..... को कुछ तो नहीं हो गया... मैंने जल्दी से कहा हाँ ... बोलिए बाबा क्या बात है.. मेरी आवाज़ से ही उन्हें पता चल गया की मैं घबरा गयी हूँ, कहने लगे "परेशानी की कोई बात नहीं है... तुम घबराओ मत ..तुम्हारी माँ ठीक है... सलिल (मेरा दूसरा भाई) भी ठीक है, शोभा (सलिल की पत्नी) भी ठीक है, बस तुमसे बहुत ज़रूरी बात करनी है, वापस फ़ोन करो.. मेरे पिता जी इस तरह का फ़ोन करने वालों में से नहीं थे इसलिए मैं समझ गयी कि ज़रूर कोई बहुत ही ख़ास बात है, माँ होती तो मैं सोचती शायद फिर शोभा ने कुछ कहा होगा और वो उसी की शिकायत करने के लिए फ़ोन करने को कह रही है, लेकिन पिता जी ? मैंने उनसे कहा अभी फ़ोन करती हूँ, कहने लगे घर पर फ़ोन करों २० मिनट बाद, क्यूँकी बूथ से फ़ोन कर रहे हैं और घर पहुँचते-पहुँचते १५ मिनट लग ही जायेंगे, तुम २० मिनट में फ़ोन करो,

मैं पूरी तरह जाग चुकी थी अब मुझे २० मिनट ख़त्म होने का इंतज़ार करना था , बच्चे सो रहे थे, संतोष भी जाग गए थे, पिताजी का फ़ोन सुनकर उनके मन में भी आशंकाएं जाग गयीं थीं, लेकिन मैंने उन्हें बता दिया की सबलोग ठीक हैं परन्तु  पिताजी कुछ बात करना चाहते हैं, उन्होंने भी कहा, तो ऐसा करो तुम नीचे जाकर बात कर लो अगर कोई ख़ास बात हुई तो मुझे बुला लेना, मुझे सोने दो, मैंने भी सोचा ठीक ही है, बाप-बेटी के बीच में इनका क्या काम, समय गुजारना कठिन हो गया था, मैं १५ मिनट से ज्यादा नहीं रुक पाई और फ़ोन मिला ही दिया, माँ ने फ़ोन उठाया, मैंने कहा "पिताजी ने फ़ोन किया था , क्या हुआ ? वो कुछ बताना चाह रही तभी शायद पिता जी ने घर में प्रवेश किया था, माँ ने कहा "लो, बाबा आ गए हैं बात कर लो, वही बताएँगे", 'बात' जानने की उत्सुकता अपने चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी, फ़ोन पिताजी ले चुके थे, अब उन्होंने जो बताना शुरू किया वो कुछ इस तरह था :

उस दिन पिताजी सुबह से ही अपनी चाभी ढूंढ़ रहे थे, जो उन्हें मिल ही नहीं रही थी, उस गुच्छे में, ग्रिल की चाभी थी, उनकी आलमारी की चाभी थी और जाने कितने कमरों की चाभियाँ थीं, पूरा दिन ढूंढ़-ढूंढ़ कर सभी परेशान हो चुके थे चाभी नहीं मिली और नहीं मिली, मेरे पिता जी चाभी के मामले में काफी सतर्क रहने वालों में से हैं और उनके हाथ से चाभी गुम जाना थोड़ा अलग सा था, हाँ मेरी माँ ने शायद अपनी आधी ज़िन्दगी चाभी ढूंढने में ही बिता दी है, उसकी चाभी रोज गुमती है और रोज मिल भी जाती हैं,

जैसा मैंने बताया, उस गुच्छे में बाहर वाले ग्रिल की भी चाभी थी, रात को ग्रिल बंद नहीं हो पायेगा यही सोच कर और परेशान हो गए थे पिताजी, खैर, दूसरे ताले का इन्तेजाम किया गया और ताला ग्रिल में नीचे लगाया गया जहाँ लगाने की जगह खाली थी क्योंकि पहली वाली जगह में पहले का ताला लटक रहा था, जिसकी चाभी गुम गयी थी, रात को खाना खाकर, टी.वी. देखकर चाभी की चिंता करते हुए पिताजी अपने कमरे में सोने चले गए, अब उनके कमरे का भी लेखा-जोखा दे दू,:

उनके कमरे में एक बिस्तर जो दीवार से लगा हुआ है, पाँव की तरफ खिड़की है, और सिर की तरफ किताबों की अलमारी, लेटने पर दाहिने हाथ की ओर दरवाजा पड़ता है जो काफी दूर है, दरवाजे और बिस्तर के बीच काफी खुली हुई जगह है, मतलब बिस्तर और दरवाज़े के बीच, नीचे फर्श ओर ऊपर छत है, बिलकुल ख़ाली , मैं इसलिए यह सब बता रही हूँ, की जो भी हुआ वो किसी भी हिसाब से ठीक नहीं बैठत्ता है, पिताजी अपने बिस्तर पर सो रहे थे तकरीबन रात के दो बजे आवाज़ हुई 'छन्...' , कुछ गिरा था, आवाज़ हुई थी और यही आवाज़ सुनकर पिता जी उठ गए, बत्ती जलाया तो देखा उनकी चाभी बिस्तर से काफी दूर गिरी हुई है, चाभी जहाँ गिरी थी उसके ऊपर सिर्फ छत थी और कुछ नहीं, अब यह चाभी कहाँ से गिरी ? उन्होंने खड़े होकर बहुत सोचा हर तरीके से, खिड़की बंद थी, दरवाजा भी बंद, बिस्तर से पाँच-सात हाँथ की दूरी पर चाभी थी, दिन भर में पचीस बार पूरा बिस्तर झाड़ा जा चुका था, एक ही तरीके से चाभी गिर सकती थी और वह थी ऊपर से, और ऊपर सिर्फ छत थी,  सीमेंटेड छत और चाभी का गुच्छा कोई छोटा-मोटा भी नहीं था, जब कुछ समझ में नहीं आया तो उन्होंने अपना सिर झटक दिया,

मेरे पिता जी ऐसे भी नहीं कि कोई उन्हें बेवकूफ बना दे, गणितज्ञ हैं, बिहार के माने हुए शिक्षक थे अपने ज़माने में, जब वो उठ ही गए थे, और ठण्ड भी थी ही तो चाभी उठा कर अपनी लुंगी में खोंसा और कमरे का दरवाजा खोल कर बाहर आ गए, अब उन्हें लघुशंका के लिए जाना था, उसके लिए ग्रिल खोलना था, ग्रिल में दूसरा ताला था जो नीचे लगा था, उसको दूसरी चाभी से खोल कर वो बाहर आ गये, अब तक उनकी नींद पूरी तरह उड़ चुकी थी, हमारे घर के बाहर, एक बहुत बड़ा सा कुआँ है, सामने बड़ा सा आँगन, आगे गलियारी  है, जिस के दाहिने तरफ किराये के कमरे हैं, और बायीं तरफ कई बाथरूम्स, काफी आगे जाएँ तो बायीं तरफ कटहल का बड़ा सा पेड़, कुछ युक्लिप्टस के पेड़,  रात की रानी, अड़हुल, चमेली,  बेली,  तेजपत्ते का पेड़, और न जाने कितने छोटे बड़े पौधे,  दाहिनी ओर एक छोटा सा दुर्गा जी का मंदिर और मंदिर से लगा हुआ लोहे का गेट, पिता जी लघुशंका से निवृत हो बाथरूम से बाहर आये, तो उन्हें लगा कोई आ रहा है, अचानक उन्हें थोडा डर भी लगा, झट से गेट की तरफ देखा, तो देखते हैं कि मेरा सबसे छोटा भाई जय (जो इस दुनिया में नहीं है) चला आ रहा है गेट की तरफ से, पिता ने उसे देखते ही सोचा 'अरे ये यहाँ क्या कर रहा है?' जय सीधा चलता हुआ बिना पिताजी की तरफ देखे घर के अन्दर चला गया, काफी देर तक मेरे पिता जी स्तब्ध खड़े रहे बाहर, बार-बार उन्होंने तसल्ली कर ली थी कि वो जाग रहे हैं, वो घर के अन्दर आये, चारों तरफ देखा, जय का कुछ अता-पता नहीं था, जल्दी से माँ को उठाया, और सारा वाकया बताया, मेरे दूसरे भाई को वो जगाना नहीं चाहते थे, उसे उन्होंने कुछ नहीं बताया रात में, उनकी बूढी आँखे अपने लाडले को ढूंढ़ती रहीं रात भर, मेरी माँ सोचती रही काश मैं भी एक बार देख लेती, सवेरा होने तक दोनों माँ के कमरे में बिस्तर पर बैठे ही रह गए, जैसे ही STD Booth खुला मेरे पिताजी ने मुझे फोन कर दिया, और यह वही फोन था, जिसका ज़िक्र मैंने शुरू में किया था,

उसी वर्ष १५ अगस्त को मेरे भतीजे श्वेतांक का जन्म हुआ, मेरे पिता ने उसे हाथों में उठाया और रुंधे गले से कहा था 'बहुत देर कर दी बेटा वापस आने में, हमलोग तो आस ही छोड़ने लगे थे, बस अब तुम आ गए हो, तो सब ठीक हो जायेगा.....हैरानी की बात ये हैं कि श्वेतांक और जय की तस्वीरों में काफी समानता है .., हमने घर में दोनों की तस्वीरें साथ साथ लगाई हैं...अगर किसी को न बताओ..तो लोग यही सोचते हैं...कि तसवीरें एक ही बच्चे की हैं....एक और समानता है दोनों में...श्वेतांक भी बहुत अच्छा गाता है..ठीक जय की तरह...जैसा वो गाता था...
शायद कुछ रिश्तों के तार कभी नहीं टूटते..... कभी नहीं........