Thursday, August 12, 2010

आँखें मेरी खुलीं हैं, मैं फिर भी सो रही हूँ ....



कहने को ज़िन्दगी है, पर बोझ ढो रही हूँ 
मैं कुछ तो खो चुकी हूँ, बाक़ी भी खो रही हूँ 

वो ज़मीन मेरी वफ़ा की बंजर पड़ी हुई थी 
खून-ए-ज़िगर से सींचा, अब अश्क बो रही हूँ

साग़र की सारी मौजों, अब तो पनाह दे दो
मझधार में मैं आकर, कश्ती डुबो रही हूँ 

वो ख़्वाब का जज़ीरा, सोती रही जहाँ मैं 
आँखें मेरी खुलीं हैं, मैं फिर भी सो रही हूँ


26 comments:

  1. वो ज़मीन मेरी वफ़ा की बंजर पड़ी हुई थी
    खून-ए-ज़िगर से सींचा, अब अश्क बो रही हूँ ।
    क्या कमाल का लिखा है अदा जी, बेहतरीन ।

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  2. वो ज़मीन मेरी वफ़ा की बंजर पड़ी हुई थी
    खून-ए-ज़िगर से सींचा, अब अश्क बो रही हूँ
    Bahut hi kamaal ki gazal hai....Dhanywaad!

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  3. कमाल की प्रस्तुति ....जितनी तारीफ़ करो मुझे तो कम ही लगेगी

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  4. बहुत खूबसूरत अल्फ़ाज़।
    खुली आंखों से सोने वाली उपमा बहुत बढ़िया लगी।

    अच्छा, दस नंबरी बनने पर किसी को बधाई दी जा सकती है न किसी को? हा हा हा

    सदैव आभारी।

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  5. कहने को ज़िन्दगी है, पर बोझ ढो रही हूँ
    कुछ तो खो चुकी हूँ, बाक़ी भी खो रही हूँ

    -हम्म!! यह क्या हुआ!!

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  6. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

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  7. मझधार में नैया डोले तो माझी उसे बचाए,
    माझी जो नैया डुबोए, उसे कौन बचाए....

    जय हिंद...

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  8. बहुत अच्छी अभिव्यक्ति है। इसी उनींदेपन ने दुनिया को कबाड़ बना रखा है।

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  9. @ दिनेश राय द्विवेदी जी ,
    :)

    @ अदा जी ,
    ज़ज्बातों और अल्फाजों को लेकर सब कुछ परफेक्ट है लेकिन नाउम्मीदी क्यों ?

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  10. गज़ब का लिखा है। हर पंक्ति झिंझोड़ती है।

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  11. Great + Great = Maha Great

    Bahut Hi Sundar ADA

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  12. सारे शेर ज़िन्दगी को बयाँ कर गये।

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  13. bahut sundar kavya......
    --------------------------------
    www.gaurtalab.blogspot.com

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  14. @ समीर जी..
    आप भी न ! कवि हृदय का कौनो ठिकाना होता है ?
    ऊ कभी आना होता है तो कभी सोरह आना होता है
    हाँ नहीं तो..!

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  15. @ अच्छा दिनेश राय जी..
    का कमेन्ट मारे हैं..!
    अब हमरी उनींदी आखें कबाड़ी की दूकान लगने लगी हैं का ?
    आप तो एकदम से भलूवे डाउन कर दिए न...!!
    हाँ नहीं तो..!

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  16. अदा जी,
    परिप्रेक्ष्य का अंतर है। आप ने खूबसूरत रचना कही है। लेकिन जैसे ही रचना हुई वह आप के काबू से बाहर हो गई। अब वह पाठकों की थाती है। पता नहीं किस शैर को किस पाठक ने किस मन से पढ़ा। जो समझ आया वही टिप्पणी की।
    इस रचना में जिन्दगी से बेजारपन दिखाई देता है। हम ने तो जिन्दगी से बेजार होना सीखा ही नहीं। आपने निकोलाई आस्त्रोवस्की की पुस्तक अग्निदीक्षा न पढ़ी तो एक बार अवश्य पढें।

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  17. @ दिनेश जी...
    मैंने यूँ ही आपसे ज़रा मज़ाक कर लिया था..आशा है आपने बुरा नहीं माना ..:):)
    आपकी बात बिल्कुल सही...
    रचना की समृद्धि भी तो उसी में है कि पाठक उसका अर्थ अपने अनुसार निकाल सके...
    आपका बहुत धन्यवाद...

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  18. बहुत सशक्त अभिव्यक्ति.

    रामराम

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  19. Hi...

    Aankhen meri khuli hain, main fir bhi so rahi hun..

    Wah..

    Har sher tera umda,
    dil padhke kho gaya hai...
    Pahle kyon nahin aaye...
    ye soch ro gaya hai..

    Aaj se hum aapke blog ke anusarankarta hue...

    Deepak..

    www.deepakjyoti.blogspot.com
    gazlon main aisi gazlen..
    milti kahan hain 'Deepak'..
    Ab tak kya khoya humne,
    ahsaas ho gaya hai...

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  20. साग़र की सारी मौजों, अब तो पनाह दे दो
    मझधार में मैं आकर, कश्ती डुबो रही हूँ

    ये मुझे सबसे ज्यादा पसंद आई...

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  21. कहने को ज़िन्दगी है,
    पर बोझ ढो रही हूँ मैं
    --
    बहुत ही बढ़िया अल्फाज के साथ
    आपने गजल को सँवारा है!

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  22. कमाल का नगमा बुना..

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  23. गज़ब किया! उसके वादे पे अश्कबार किया :(

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  24. जिंदगी हर हाल में जीने के लिए है ...ढोने के लिए नहीं ...!
    कविता का सूनापन उदास कर देता है
    इसलिए कुछ हलका फुल्का ..."अरे हम काहे ढोयेंगे बोझा ...कौन गधे हैं ..."
    "आँखें खोल कर मत सोया कीजिये ...डर जायेंगे लोंग ...."

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