एक ठो पुरानी कविता .. दू-दू गो बड्डे है न नहीं लिख पाए...हाँ नहीं तो..!
पशे-चिलमन वो बैठे हैं हम यहाँ से नज़ारा करते हैं
गुस्ताख़ हमारी आँखें हैं आँखों से पुकारा करते हैं
कोताही की कोई बात नहीं, इक ठोकर मुश्किल काम नहीं
मेरी राह के पत्थर तक मेरी ठोकर को पुकारा करते हैं
पीते हैं बस आँखों से और बदनाम हुए हम जाते हैं
कितने तो हैं जो मयखानों में रात गुजारा करते हैं
हम बन्जारों को भी है कभी सायबाँ की दरकार
नज़रें बचाए जाने क्यों हमसे वो किनारा करते हैं
हम बन्जारों को भी है कभी सायबाँ की दरकार
नज़रें बचाए जाने क्यों हमसे वो किनारा करते हैं
जब डूबते हैं पहलू में 'अदा' गोशा-गोशा सकुचाता है
हम हुस्न-ए-मुजसिम लगते हैं वो नज़र उतारा करते हैं
पशे-चिलमन=परदे के पीछे
सायबाँ=घर
गोशा-गोशा=पोर-पोर
हुस्न-ए-मुजसिम=सुन्दरता की मूर्ति
Waah!! bahut khoob :-)
ReplyDeleteRegards
Fani Raj
वाह! सुन्दर कलाम!
ReplyDeleteपीते हैं बस आँखों से और बदनाम हुए हम जाते हैं
ReplyDeleteकितने तो हैं जो मयखानों में रात गुजारा करते हैं
किसके?आँखों के?
वाह !! वाह !!
ReplyDeleteपीते हैं बस आँखों से और बदनाम हुए हम जाते हैंकितने तो हैं जो मयखानों में रात गुजारा करते हैं
ReplyDeleteजब डूबते हैं पहलू में 'अदा' गोशा-गोशा सकुचाता है हम हुस्न-ए-मुजसिम लगते हैं वो नज़र उतारा करते हैं
kya baat hai jee!! ghazab ka likhatee hain aap, shabd sahit bhav aur bhasha par aapkee itanee behatareen pakad kee jitanee tareef kee jae, kum hai
regards
ई डिक्शनरी तो महा हेल्पफुल है जहाँ जहां भी अटके संभाल लिया
ReplyDeleteपीते हैं बस आँखों से और बदनाम हुए हम जाते हैं
कितने तो हैं जो मयखानों में रात गुजारा करते हैं
ई तो गजब का बात कह दिया
सभी का सभी ज्ञानेन्द्रियाँ आहार करती है , ई आँख वाला मामला ज्यादा ही पकड़ा जाता है , गलत बात है
ई फोटू बड़ा ही क्लासिक लग रहा है
[अभी बिहारी भाषा ठीक से नहीं आती, हां समझ में पूरी आती है ]
सब से पहले तो जन्म दिन की बधाई,
ReplyDeleteआप को राखी की बधाई और शुभ कामनाएं.
पर्दे दारियों , बदनामियों पर ठिठकती , पनाह की उम्मीद लिए बंजारों और राह की ठोकरों वाली नाउम्मीदियों से गुज़रती हुई कविता आखिरकार प्रियतम की आगोश में जा पहुँचती है ! कविता का उम्मीद पर ठहर जाना अच्छा लगता है !
ReplyDeleteजब डूबते हैं पहलू में 'अदा' गोशा-गोशा सकुचाता है
ReplyDeleteहम हुस्न-ए-मुजसिम लगते हैं वो नज़र उतारा करते हैं
Badhiya kalam
दू दू गो बड्डे हैं तो दू दू गो केक खिलाने नहीं बनते हैं का?
ReplyDeleteआपकी ये गज़ल तो हमारी पसंदीदा गज़लों में से एक है जी, दो क्या दो सौ बड्डे ट्रीट के बदले भी यह सौदा बुरा नहीं लगा। कभी आपकी आवाज में सुनने को भी मिले तो धन्य हो जायेंगे, वैसे हमारा मन कहता है कि ऐसा होगा जरूर।
सारी गज़ल ही बेहतरीन है, कभी गाकर पोस्ट कर दीजिये - (ये प्रार्थना ही है, कमेंट नहीं)
सदैव आभारी।
कोताही की कोई बात नहीं, इक ठोकर मुश्किल काम नहीं
ReplyDeleteमेरी राह के पत्थर तक मेरी ठोकर को पुकारा करते हैं
bahut badhiya
बढ़िया रचना है !
ReplyDelete--
इसे कव्वाली के रूप में गाना बहुत सुखद लगता है!
पीते हैं बस आँखों से और बदनाम हुए हम जाते हैं
ReplyDeleteकितने तो हैं जो मयखानों में रात गुजारा करते हैं
थोड़ी देर से ही सही...
जन्मदिन की शुभकामनाएँ....!!
:: हंसना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है।
रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ.
ReplyDeleteब़ढ़िया रचना है!
कोताही की कोई बात नहीं, इक ठोकर मुश्किल काम नहीं
ReplyDeleteमेरी राह के पत्थर तक मेरी ठोकर को पुकारा करते हैं
पीते हैं बस आँखों से और बदनाम हुए हम जाते हैं
कितने तो हैं जो मयखानों में रात गुजारा करते हैं
DIL KE ANADR SE SIRF "Wah" 'Wah" "Wah" hee nikal rahaa hai !
जब डूबते हैं पहलू में 'अदा' गोशा-गोशा सकुचाता है
ReplyDeleteहम हुस्न-ए-मुजसिम लगते हैं वो नज़र उतारा करते हैं
waah kya baat hai ,padhkar maja aa gaya ,dono badhaiyaan kabool kare .
kya bat hai bhut khub
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteआपकी इस गज़ल पर एक शेर याद आ गया ।
"में नज़र से पी रहा था,
दिल ने यह बद्दुआ दी,
तेरा हाथ जिन्दगी भर जाम तक ना पहुँचे" ।
देर से ही सही,जन्मदिन की हार्दिक बधाई ।
बदनाम होने का मज़ा तो सिर्फ पीने वाले ही जानते हैं।
ReplyDeleteखुश नसीब होते है वो
ReplyDeleteजो आँखो से प्यास बुझा देते है
वरना तो जहाँ मै समुन्द बस
इक प्यासा ढूँढा करता है
आप ने जो लिखा उसकी तारीफ जितनी की जाय कब है
एक अच्छी गज़ल से रूबरू करवाया ... आभार.
ReplyDeleteपीते हैं बस आँखों से और बदनाम हुए हम जाते हैं
कितने तो हैं जो मयखानों में रात गुजारा करते हैं
कितने तो है जो मयखानो में रात गुज़ारा करते हैं.... बहुत खूब
किसी ग़ज़ल का एक शेर याद आ रहा है ...
ReplyDeleteतेरी गली की हवा भी है शराब जैसी ..
बिना पिए भी गुजरूँ तो लड़खड़ाऊं मैं ..!
Girijesh ji kahin :
ReplyDelete@ जब डूबते हैं पहलू में 'अदा' गोशा-गोशा सकुचाता है
हम हुस्न-ए-मुजसिम लगते हैं वो नज़र उतारा करते हैं
मरहब्बा!
संयोग शृंगार की क्या खूब अभिव्यक्ति!
'मूर्ती' को 'मूर्ति' कीजिए।
@ Girijesh ji,
ReplyDeleteVartani sudhaar ke liye punh aabhaari hun..
saadar..