Sunday, December 27, 2009

दहेज़ बनाम स्त्रीधन....


दराल साहब की एक पोस्ट पढ़ी.....http://tsdaral.blogspot.com/2009/12/blog-post_26.html प्रभावित हुए बिना नहीं रह पायी, अफ़सोस कि मैं इस चर्चा में शामिल नहीं हो पायी...लेकिन मुद्दा तो हमारे ही काम का था, तो सोचा उनका शुक्रया भी अदा कर दूँ और अपनी बात भी कह दूँ...क्यूंकि मुझे मालूम था इस टोपिक पर मुझे इतना कुछ कहना है कि वही बोलेंगे इसकी टिप्पणी मेरी पोस्ट से लम्बी कैसे भला ?? इसलिए सोचा चलो आम के आम और गुठलियों के दाम, टिप्पणी की टिप्पणी और पोस्ट की पोस्ट। बात है जी बहुत प्यारी, रोमांटिक और सनसनीखेज़ भी अर्थात ये बात चंद्रमुखी सरीखी भी है, सूर्यमुखी सरीखी भी और ज्वालामुखी सरीखी भी, अरे बाबा ये सारे गुण एक ही रिश्ते में होते हैं......शादी में ...


खैर, हमरी भी शादी हुई थी, हमरे बाबा को चप्पल घिसने की ज़रूरत ही नहीं हुई (भले बाद में हमरी चप्पल तो छोडो एडी घिस गयी) लड़का(उस समय तो यही कहा जाता है) का मालूम कहाँ हमको देखा और सीधा बाबा के पास पहुँच गया और हिम्मत देखिये...बोलिए दिया हिंदी फ़िल्मी का इश्टाइल में मैं आपकी लड़की का हाथ माँगने आया हूँ जब की अपना हाथ गोड़ का कौनो ठेकाना नहीं था...हाँ नहीं तो हमरे बाबा कौन से कम थे हिंदी फिल्म उ भी खूब देखते हैं, सामने हीरो सरीखा लड़का देखे...खूब गोर नार.....बस रीझ गए .....और सबसे बड़ी बात.....जो उन्खा लुभा गयी....अरे बाप रे !! लड़का हमसे बात किया है ..बहुत बहादुर है......मूंछ में ताव देकर फ़िल्मी ठाकुर जैसन बोल दिए ......बच्चा दिया......

बस जी शादी हो गयी हमरी अब ई लीगल है कि इललीगल ई हमको नहीं मालूम ...पर हुई थी और हाँ शादी बाकायदा चंदा करके हुई थी.....हा हा हा....घबडाईए नहीं सौंसे परिवार भिक्षाटन पर नहीं निकला था जब भी कि हमरा हक है ब्राह्मण जो ठहरे हुआ यूँ कि मेरे ५ मामा और ३ चाचा, ३ मौसी और ५ फूफू, और हम ठहरे सबकी लाडली (अब अपने मुंह से अपनी का तारीफ करें :))....बस होड़ लग गयी सबमें हम इ देंगे और हम उ देंगे.....कोई अलमारी दे गया तो कोई पलंग.....कोई गगरा...तो कोई डनलप......इसलिए ड्रेसिंग टेबुल का मुंह इधर है और पलंग का मुंह उधर अरे उनके बीच मेल-मिलाप कभी नहीं हुआ ही नहीं न ! साफ़-साफ़ दीखते हैं......एक ठो गम्हार हैं तो एक ठो टीक ......हाँ नहीं तो ! इहाँ तक कि खस्सी भी चंदा में ही आया जब भी कि शादी में नॉन-वेज नहीं बनता है लेकिन लड़के वाले पूरे खाधुड निकले बोल दिए कि भैया हम तो खैबे करेंगे.....तो जी बारात दूसरे दिन भी आई....अब ई अलग बात है कि सबलोग ख़ुशी-ख़ुशी खिलाने को तैयार थे..... माँ-बाबू जी का भला का जाता था ...थे ना सुदर्शन मामू.....सब समहार लिए....

काफी कम उम्र थी हमरी भी और इनकी भी नौकरी चाकरी की बात छोडिये पढाई भी पूरी नहीं हुई थी हमदोनो की हमरी शादी बस हो गयी थी। बिना नौकरी के शादी होना हम तो तब लिपस्टिक भी नहीं लगाते थे। अगर जो कहीं लगाते होते तो उहो खरीदने का औकात नहीं था। कुछ दिन बहुत कठिन रहा पढाई और बच्चे साथ-साथ, जीवन कुरुक्षेत्र बन गया था ऐसे में अगर स्त्रीधन होता तो मनोबल ऊँचा होता और अगर पति भी काम ना करे तो ससुराल में जो वाट लगती है सुबह-दोपहरिया और शाम ;);) लेकिन कुल मिला कर सब निपट गया रोते-गाते सब लोग साथ दिया.....

भाई !!! एक बात हम बता देते हैं ...नौकरीशुदा लड़कियों की समस्या कम होती है ...लेकिन अगर लड़की नौकरी नहीं कर रही है तो उसे परेशानी ज्यादा होती है.... इसीलिए नौकरी बहुत ज़रूरी है...

कोई हमको ई बतावे कि दहेज़ और स्त्री-धन एक ही बात है का ?? काहे कि हम हर हाल में स्त्री-धन के पक्ष में हैं। हम दहेज़ के डिमांड के विरोधी हैं लेकिन इस बात से हम पूरा समर्थन करते हैं कि लड़की को स्त्रीधन मिलना चाहिए। माँ-बाप को यह ज़रूर सोचना चाहिए कि चाहे कुछ भी हो लड़की पराये घर जा रही है। उस घर को अपनाते-अपनाते उसे समय लगता है और ससुरालवालों को उसे भी अपनाने में समय लगता है। नए लोग नया परिवेश लेकिन नित-प्रतिदिन कि ज़रूरतें तो नहीं रूकती हैं। कहीं कोई आदत ही हो किसी को कभी कुछ खाने कि ही इच्छा हो। कभी कुछ शौक हो, मुंह खोल कर नहीं कह पाती है। यहाँ तक की अपने पति तक से नहीं कह पाती है। अपनी छोटी से छोटी ज़रुरत के लिए ऐसे में कम से कम अपने पैसों से अपनी चीज़ें तो ले सकती है। उसकी अपनी ज़रुरत की चीज़ें अगर उसकी अपनी हों तो ससुराल में मान बना रहता है। सबके साथ नहीं तो ज्यादातर लड़कियों के साथ टीका-टिप्पणी ज़रूर होती है, अगर वो कुछ लेकर ना जाए तो। फिर यह तो लड़की का हक भी है और माँ-बाप का फ़र्ज़ भी कि वो अपनी सुविधा और हैसियत के हिसाब से बेटी की मदद करें। बेटा तो घर में माँ-बाप के साथ ही रह जाता है। माँ-बाप बेटेके हर सुख-दुःख में साथ होते हैं। लेकिन बेटी ?? उसे तो ना जाने क्या-क्या और कितना adjust करना पड़ता है। माँ-बाप की तरफ से की गयी थोड़ी सी भी मदद कितना सम्मान, कितना धैर्य और कितना आत्मविश्वास देती है यह एक स्त्री ही समझ पाएगी और अपने माँ-बाप से इस मदद की अपेक्षा करने में कैसी शर्म ??? ....

32 comments:

  1. बहने और बेटियाँ कितनी सरलता से भाईयों और पिता-माता का मन पढ लेती हैं, उन्हें निश्चिंत कर देती हैं कि आपका फैसला शिरोधार्य.. अब आपके दिए संस्कारों से ही हम अपने नए जीवन का शुभारम्भ करेंगे । स्त्रीधन कोई कुबेर का खजाना नहीं होता ...थोडा सा स्वर्ण, कुछ ज़रूरत की चीज़े..वस्त्रादि और विवेकवान संस्कार जो ससुराल में बहु को लक्ष्मी सदृश प्रतिष्ठित कर दें । माता-पिता की स्नेहिल स्मृति बन जाए । जो कुछ तुमने इस आलेख में लिखा ..बस इतना ही समझ पाया बहना ! दहेज चलता होगा साहुकारों में...हम तो अपनी बहनों-बेटियों को संस्कार ही दे पाते हैं..अगर तुम इसे स्त्रीधन मान लेती हो तो तुम्हारा बडप्पन है और हम आश्वस्त हैं कि हमने तुम्हारा हाथ सुपात्र को दिया है । आशीर्वाद ।

    ReplyDelete
  2. बहुत बढ़िया पोस्ट लिखी है आपने।देहज तो नही ही होना चाहिए...लड़के वाले मांगें तो धेला मत दो....लेकिन अपनी बेटी की जरूरतो का ध्यान रख कर स्त्री धन का तो बेटी का हक जरूर बनता है।
    ....आप की बात से सहमत ।

    ReplyDelete
  3. dhej lalchi log mangte hai aur stri dhan mata pita apni beti ko khushi se dete hai .

    ReplyDelete
  4. अदा,जहाँ तक मेरी समझ है...स्त्री धन लड़की के जेवरो को कहा जाता है..चाहे माँ-बाप लाखों रुपये दहेज़ में दे दें,पर अधिकतर वे लड़की के हाथों में हज़ार दो हज़ार रुपये भी नहीं रखते...वह अपनी छोटी छोटी जरूरतों का या तो गला ही घोंट देती है या मन मसोस कर रह जाती है या फिर ताजे ताजे बने पति का मुहँ देखती है...माँ-बाप को भी दोष नहीं दे सकते...दहेज़ देने में ही उनकी कमर इतनी टूट जाती है..कि लड़की को भी कुछ रुपये दे दें,,इसका ख़याल नहीं आता उन्हें
    जेवर तो ज्यादातर लॉकर में ही सजे रहते हैं...इस स्त्री धन की बात तभी उठती है...अगर नौबत तलक तक पहुंचे और मध्यमवर्गीय लडकियां सारे जुल्म सह कर भी ऐसी नौबत नहीं आने देतीं...इसलिए अंततः इस स्त्री धन पर हक पति या उसके घरवालों का ही होता है.

    ReplyDelete
  5. बहुत सुंदर पोस्ट। लेकिन आज समाज वहाँ नहीं है जहाँ तीस चालीस बरस पहिले था। जैसे जैसे समाज बदल रहा है जरूरतें और परिभाषाओं में भी अंतर आ रहा है।

    ReplyDelete
  6. आप की बात से सहमत हुं , मैने एक पैसा भी दहेज नही लिया, कुछ गहने हमारी बीबी लाई जिसे मैने आज तक देखा भी नही,जब मां बाप देना चाहे तो भी कई बार लडके बाले लालची हो तो बात बिगड जाती है,या लडके बाले मांगे रके तो भी बुरा लगता है, कई बार मां बाप सिर्फ़ अपने खान दान मै नाक ऊंची रखने के लिये देते है, कर्ज ले कर भी, इस लिये यह गलत है, अगर बीबी अच्छी ओर समझ दार हो तो यही सब से बडा दहेज है, क्योकि शान्ति पैसो से नही घर के माहोल से मिलती है, आप ने बहुत ही सुंदर भाषा मै एक सुंदर बात कह दी.
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  7. अदाजी!

    आम के आम और गुठलियों के दाम....मे अपनी बात को रखने का स्टाईल अपुन को जम गया जी।

    वैसे स्त्री धन की परिभाषा क्या है ?

    रही बात दहेज कि तो इसे देना और लेना कानुनी अपराध माना गया है। सामाजिक व्यवस्था मे इसे कुरिति कहा गया है धर्म मे इसे निषेद किया गया है।

    १९५५ से १९८६ तक देहेज नाम के दानव का सम्पुर्ण भारत कि जतीयो, वर्गो, धर्मो, गरीब- अमिर्, शिक्षित्-अशिक्षित्, रोजगार प्राप्त, बेरोजगार, अफसर मन्त्री सन्त्री सभी इसकी चपेट
    मे थे।

    देहेज के दानव को अमिरो ने प्रतिष्टा के रुप मे देखा. गरीबो ने अपनी साख बचाने का जरीया समझा।

    लडकी की शादी मे माता-पिता,भाई द्वारा जो भी लडकी को दिया जाऍ इसमे कोई बुराई नही है. क्यो कि यह रित-रिवाज सदियो की परम्परा है व सामाजिक ढाचे के व्यव्यस्था के मुताबिक तय है। जैसे लडकी की शादी होगी लडकी-लडके के साथ रहने लगेगी. यानी ससुराल मे रहेगी। शुरु शुरु मे घर ग्रह्स्ती चलाने मे बेटी को तकलिफ् ना हो इसलिऍ शादी मे बर्तन,समान,कपडे दिऍ जाते है. सोना, चान्दी इत्यादी दिऍ जाते है।

    पुराने समय मे बेटी को विवाह के समय डाइचा मे गाय,नोकर-चाकर इत्यादी दिऍ जाते थे। जमाना बदला स्कुटर की माग बढी, फिर जमाना बदला कार देने का जमाना आ गया।

    बुराई बेटी को देने मे नही है बुराई मागकर लेने मे। माग कर ली गई वस्तु दहेज की श्र्णी मे आता है। यह दहेज प्रथा गरीब एवम मध्यम परिवारो मे रोग की तर्ह उभरी। इसके लिऍ और कोई जिम्मेदार नही है लडकी की सासु मॉ जिम्मेदार होती है। और सासु मॉ स्वय एक औरत होने के बावजुद यह भुल जाती है की वो भी कभी किसी की बहु बन्कर आई थी, या उसकी भी बेटी है?

    समाज मे बेटीयो के लिऍ मॉ बाप के लिऍ समाज ने कई तर्ह की व्यव्स्थाऍ प्रदान की है जो आदिकाल से सुचारु रुप से चल रही थी।
    शादी के बाद बेटी की पहली डीलवरी पियर मे करवाना। उस वक्त उनके नाती के लिऍ ढेरो कपडे खिलोने, सोने की चैन बच्चे के झुलने पालने, बेटी को कपडॅ-लते, साडी वगेहरा दिऍ जाते है। फिर नाती एवम बेटी के लिऍ होली मे ढुढ के समय कपडे लते बर्तन सोना चान्दि भेजते है। इन्ह दो तीन सालो मे बेटी की घर गृस्ती जम जाती है । माता पिता प्रसन्न होते है की अब बेटी ससुराल मे सेट हो गई । उसके बाद २१-२२ वर्षो बाद भाई अपनी बहन के सहयोग के लिऍ खडा हो जाता है और अपने किसी एक भान्जा भान्जी के विवाह के समय मामेरा करता है जो लाखो रुपयो ( सामर्थय अनुशार्)मे होता है। ।

    तो अदा जी !

    सामाजिक व्यव्स्था अच्छे के लिऍ एवम मानव मात्र कि भालाई सुखी सन्तोषजनक जीवन के लिऍ ही बनी थी। पर कुछ बदमाशो ने इसका बेजा फायदा उठाने की कोशिस की है एवम कर रहे है, हम इसमे ना उलझे। और मेरी लेखको(नारी- पुरुष)से प्रर्थना है की विषय को लिखने के लिऍ ना लिखे अन्तर मन से उस सामाजिक ढाचे को समझे। मनुकाल से सामाजिक व्यव्स्था चली आ रही है इन्ह रिति रिवाजो को बनाने वाले मुर्ख नही थे हमारे ही दादा परदादा थे। कई राजा महाराजा आऍ गऍ, अकबर बादशाह आऍ गऍ, राम कृष्ण हुऍ,अग्रेज आऍ चले गऍ, नेहरु जी आए अब मनमोहनजी आऍ यह भी जाएगे, और कोई आऍ कोई जाऍ सामाजिकव्यव्स्था ही इन्ह सभी का मुख धुरी है। सरकारे व्याप्त बुराईयो को कुप्राथाओ को अकुश लगाने का काम करती है व्यव्स्था एवम पाल्न पोषण का जिम्मा समाजिक व्यवस्था के हाथ मे। हम सभी इमानदारी से इसका पालन करे। देहेज,

    ना बाबा! ना! कहकर बेटी को कुछ भी ना देने वाला आदमी भी बहाने करता है अपनी जिम्मेदारीयो को निभाने के लिऍ। ऐसे व्यक्ती भी समाज की व्यव्यव्स्था के गुनेगाहर है।

    !!जय हिन्द !!

    ReplyDelete
  8. थैन्क्स फोर रिलिज माई कमेन्ट

    यह भी देखे

    http://dada1313.blogspot.com/2009/12/blog-post_28.html

    ReplyDelete
  9. मांग कर लिया या दिया जाने वाला धन दहेज़ कह्ताला है इसलिए दहेज़ लेने देने के हम तो सख्त खिलाफ हैं ...हाँ ...विवाह में दिया जाने वाला स्त्रीधन स्त्रियों को अपनी पैठ ज़माने में काफी मदद करता है ..
    ससुराल में जब सुटकेस से पहली बार अपना पेस्ट , साबुन , शैम्पू निकाले तो कई नजदीकी रिश्तेदार महिलाओं की वक्र दृष्टि का सामना करना पड़ा ....इ सब लेकर आई है ...इ सब इनको यहाँ नहीं मिलता क्या ....??
    मगर यहाँ यह भी ध्यान रखने योग्य है कि यदि एक ही परिवार की बहुएं अलग अलग आर्थिक स्तर से आई हैं तो उनके द्वारा लाया गया स्त्रीधन आपसी वैमनस्यता का कारण हो सकता है ...एक दूसरे से होड़ा होड़ी आखिरकार दहेज़ के लेनदेन तक जा पहुँचती है ...

    ऐसन खुसनसीब या खुबसूरत तो ना रहे के कौनो ऐसे ही जाके पापाजी से हाथ मांग लेता और मांगता तो हाथ गोड़ सब टूट फूट हो के लौटता ....:)...:)...,

    मगर आज आपकी पोस्ट पढ़ कर अपने विवाह से समय की एक बात याद आ गयी ...पापा को सब हिसाब किताब लगाते देखकर मैंने कहा कि पापा, बहुत खर्चा हो गया है ना ....पापा मुस्कुराते हुए बोले ...बेटा, अब तू यहाँ कि नहीं उस परिवार के फायदे की बात सोच ....ज्यादा पुरानी बात नहीं है ...२1 साल ही तो हुए होंगे ..मैं सोचती हु आजकल ये सीख शायद माता पिता अपने बच्चों को देते ही नहीं है ...अब तो ये कहा जाता है कि तू अपने और हमारे फायदे की बात सोच ....!!

    ReplyDelete
  10. पता नहीं के आपकी बात में दम है या नहीं..
    पर पहली टिपण्णी में जरूर दम है.......

    मेरे ख्याल से माँ बाप.. इतना कुछ तो देते ही हैं के जब तक सब लोगों से खुल ना जाए..तब तक अपना खर्चा कर सके लड़की...

    ज्यादा शायद इसलिए नहीं देते होंगे...
    के खुद ही खर्चा करती रहेगी तो खुलेगी कैसे सब से.....
    :)
    आपकी
    पोस्ट एक आम औरत के लिए लिखी गयी पोस्ट नहीं लगी आज...

    ReplyDelete
  11. आपका सवाल वाज़िब है...लेकिन ज़माने की जिस तरह रफ्तार है, आने वाला वक्त ऐसा भी आ सकता है

    बेटी...डैड, आज शाम को मेरी शादी है, आप ज़रूर आइएगा...

    डैड... सॉरी बेटा, शाम को तो मैं नहीं आ सकता, आज मेरी भी शादी है...

    ये तो रही मज़ाक की बात...दहेज और उपहार में फर्क होता है...बेटी का भी मां-बाप पर उतना ही हक होता है जितना कि बेटे का...अगर मां-बाप खुशी खुशी और अपने सामर्थ्य के अंदर ही कोई उपहार बिटिया को देना चाहते हैं तो उसमें कोई बुराई नहीं है...हां दबाव जहां हो वहां रिश्ता ही नहीं जोड़ना चाहिए...मैंने ऐसे परिवार भी देखे हैं जो पहले कहते हैं हमें बस बिटिया चाहिए और कुछ नहीं...लेकिन दहेज में मोटा माल-पानी न मिले तो शादी के अगले दिन से ही ससुराल में सबके मुंह बन जाते हैं...बहू को कभी बारातियों की खातिर न होने, या घर का कामकाज न आने के ताने देकर प्रताड़ित करना शुरू कर दिया जाता है...और आजकल वो ज़माना भी नहीं रहा जब रिश्तेदारों या जानने वालों को ही बेटे-बेटियों के जवान होने पर शादी की फिक्र रहती थी...अब कोई इस काम में हाथ नहीं डालना चाहता...अखबारों या नेट पर मैट्रिमोनियल एड देखकर रिश्ते होते हैं..,इन एड में अस्सी फीसदी झूठ लिखा जाता है....यही सब शादी के बाद गड़बड़झाला करता है....टिप्पणी कुछ ज़्यादा ही लंबी हो गई लगती है...

    जय हिंद...

    ReplyDelete
  12. सार्थक आलेख.

    यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।

    हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.

    मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.

    निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।

    एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।

    आपका साधुवाद!!

    शुभकामनाएँ!
    समीर लाल
    उड़न तश्तरी

    ReplyDelete
  13. 'अदा ' जी ज्यादा वकालत की कौनो जरूरत नाहीं -यी आजकल की बेटियाँ बाप के सर
    चढ़कर वसूल कर ले ले रही हैं -अब लाडली हैं तो कौन क्या बोले ? बेटा इतनी हुज्जत करे तो
    कान पकड़ कर बाहर का दरवाजा दिखा दिया जाय !

    ReplyDelete
  14. बहुत सारी प्रतिक्रियाएँ आ गई हैं और हमारे कहने के लिये कुछ बचा ही नहीं है इसलिये हम तो इतना ही कहेंगे कि बहुत ही अच्छा संस्मरण है!

    ReplyDelete
  15. विषय पर बहस मुबाहिशे अपनी जगह हैं. मेरे हिसाब से दोनों ही तरफ़ के तर्क मौजूद हैं. और होते ही हैं. सिर्फ़ तलाशने की जरुरत होती है.

    पर मैं तो आपका यह आलेख पढकर विस्मित हूं. इतना सटीक और रोचक भाषा शैली मे लिखा गया है कि शुरु से आखिर तक एक सांस मे पढ गया.

    इस आलेख को मेरे द्वारा पढे २००९ के सर्वश्रेष्ठ आलेखों मे मानता हूं. बहुत बधाई और शुभकामनाएं. नये साल की रामराम.

    रामराम.

    ReplyDelete
  16. स्त्रीधन तो वही जिसे किसी को माँगना ही नही पड़ता..बेहद प्यारी पोस्ट लिखी आपने सच्ची..!

    ReplyDelete
  17. आलेख अच्छा लगा। आपसे सहमत हूं। बहुत-बहुत धन्यवाद
    आपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।

    ReplyDelete
  18. धन्यवाद, अदा जी। इस विषय को आगे बढ़ाने ले लिए।
    हमारे देश में कई रीती रिवाजें इस तरह की हैं, जिनमे लड़की के लिए स्त्री धन का प्रावधान है।
    उत्तर भारत में लड़के वालों की तरफ से जेवर देने की रिवाज़ है और मूंह दिखाई के रूप में पैसे दुल्हन को दिया जाते हैं। इसी तरह बाकि क्षेत्रों में भी अपनी अपनी रस्मे होती होंगी।
    मां -बाप तो सामर्थ्य अनुसार लड़की को देते ही हैं।
    बस इसके बाद तो पति पत्नी और परिवारों में सामंजस्य की ज़रुरत होती है।
    अक्सर उसी की कमी रह जाती है।

    आपका लेख बहुत सुन्दर बना है। बधाई।

    ReplyDelete
  19. बहुत बढ़िया पोस्ट. दिल से. धाराप्रवाह.

    ReplyDelete
  20. प्रस्तुति का बेहतरीन अंदाज, अदा जी !निचोड़ यह है चर्चा का कि कोई माने अथवा न माने मगर लडकी के बाप को कुछ तो देना ही है बेटी की शादी में !

    ReplyDelete
  21. बहुत बढ़िया लिखा है आपने ...दिए बिना गुजारा कहाँ है और देने का दिल भी हर माता pita का karta है ..koi maange to mushkil है fir ..accha par laga aapka yah sansmarn kuch kuch apni shaadi se milta jutla

    ReplyDelete
  22. ada ji me khud job karti hu so aaj tak is istridhan ki mehetta ko itni gehrayi se nahi soch payi thi..aaj apki post padh kar aur un halaato ko soch kar ehsaas hua ki such me parents ko thoda to istridhan apni bitiya ko jaroor dena chahiye.

    meri beti to nahi hai..lekin haa.n ankhe khol di aapki is rachna ne.

    ReplyDelete
  23. दहेज लेना और देना अपराध है .
    दुल्हन ही दहेज है .

    इस मे से किसे माने .

    ReplyDelete
  24. बहुत बढ़िया पोस्ट लिखी है आपने।देहज तो नही ही होना चाहिए...लड़के वाले मांगें तो धेला मत दो....लेकिन अपनी बेटी की जरूरतो का ध्यान रख कर स्त्री धन का तो बेटी का हक जरूर बनता है।
    ....आप की बात से सहमत ।

    ReplyDelete
  25. गुणीजन अपनी बात कह चुके
    अपने लिए कुछ बचा ही नहीं :-)

    बी एस पाबला

    ReplyDelete
  26. .
    .
    .
    आदरणीय 'अदा' जी,
    बेहतरीन विचारोत्तेजक आलेख,
    स्त्रीधन क्या है इसे लेकर कुछ भ्रम की स्थिति दिख रही है...
    आइये जानते हैं स्त्री धन है क्या चीज ?
    कुछ और जानकारी यहाँ पर भी है।

    स्पष्ट है कि स्त्रीधन एक नारी को उसके जीवन पर्यन्त मिले उपहारों को कहा जाता है जिन पर उसका एकाधिकार है, जबकि दहेज विवाह के मौके पर वरपक्ष को वधू के पिता द्वारा दी गई संपदा है। अत: स्त्रीधन का विरोध तो किया ही नहीं जा सकता, यह स्नेह स्वरूप दिये उपहार हैं जोर-जबरदस्ती से ऐंठा हुआ दहेज नहीं...


    .

    ReplyDelete
  27. आपका लेख काफी रोमांचक है.....रही स्त्री धन की बात तो ये शब्द तब ही ज्यादा प्रयोग में आता है जब अलग होने की नौबत आती है...मेरे विचार से स्त्री धन उसे कहते हैं जो माँ-पिता विवाह के समय लड़की को देते हैं विशेष रूप से जेवर ..... हाँ यदि स्त्री धन की परिभाषा ही बदल दें तब अच्छा है कि लड़की को कुछ धन के रूप में सहयोग राशी दी जाये...पर आज कल ज़माना बदल रहा है..लड़कियां भी नौकरी करती हैं...तो अब शायद ऐसी ज़रुरत महसूस ना हो....कम उम्र में विवाह भी नहीं होते....कम से कम पढ़े लिखे समाज में....और जहाँ शिक्षा का आभाव है वहाँ इतनी सोच नहीं उभरती...
    आपका लेख मन पर एक छाप छोड़ता है.....बधाई

    ReplyDelete
  28. एक बात याद हो आई , मेरे पड़ोस में दो बहनें रहती थी . बड़ी बहिन की शादी हुई अब छोटी बहिन की शादी थी , बड़ी बहिन ने बवाल खड़ा कर दिया की मुझे इतना दहेज़ क्यूँ नहीं दिया. अब दोनों बहनें बात नहीं करती.
    इस बात को क्या समझूँ aDaDi? और इसे आपकी पोस्ट के साथ कैसे रख के देखूं

    सच एक ही बात के लाखों आयाम .

    ReplyDelete
  29. बचवा,
    बड़ी बहन के जैसी बेवकूफ कोई नहीं...अगर किसी की शादी आज से ४० साल पहले हुई और उसके पति को साइकिल मिली ...उसी घर में अब दूसरी शादी है और अब लड़के को मोटर साइकिल मिल रही है इस बात को लेकर बवाल करना महा मूर्खता है...
    aDaDi..

    ReplyDelete
  30. "लड़का(उस समय तो यही कहा जाता है) का मालूम कहाँ हमको देखा और......"

    हां जी, शादी के जब तो लड़का ही रहता है और शादी के बाद...........
    शादी के पहले सुभाष बोस और शादी के बाद गांधी :)

    ReplyDelete
  31. is vishay mein apna gyan thoda kam hai par itna to soch paaye hain ki DAHEJ ya STREEDHAN jo bhi kah lijiye, uska kitna bhag ladki ke paas rah paata hai jise wo apni marzi se kharch kar sake?

    ReplyDelete