Saturday, December 5, 2009
पर उपदेश कुशल बहुतेरे ...!!
मेरी अधिकतर पढाई कैथोलिक मिशन स्कूल और कालेज में हुई है.....और ज्यादातर मैं हॉस्टल में ही रही हूँ....
जाहिर सी बात है ...इस कारण से कैथोलिक मिशन के फादर, सिस्टर मदर्स के भी बहुत करीब रही हूँ.....जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा उन्ही के संसर्ग में बिताया है....
हॉस्टल में रहने के कारण इस धर्म समाज को बहुत करीब से देखने और समझने का मौका मिला ...वर्ना सिस्टर्स, फादर्स एक रहस्य ही बने रहते थे.....हमलोग उनके आवास में भी चले जाते थे और कभी कभी सिस्टर्स को बिना टोपी या वेल के देख कर हैरान हो जाते थे....उनके सर के बाल देखने की हमेशा इच्छा होती थी......और अगर किसी सिस्टर को हाबिट (उनका ड्रेस) के अलावा किस और ड्रेस में देख लेते तो बस वो दिन हमारे लिए संसार का आठवां आश्चर्य देखने के बराबर होता था..... हाबिट सफ़ेद रंग का लम्बा चोगा सा होता है...और कपड़ा बहुत कीमती हुआ करता था...सारे कपड़े विदेश से आते थे....कमर में उसी कपड़े की बेल्ट...साथ में रोजरी (माला) टंगी होती थी....सर पर लम्बे वेल होते थे जो टोपीनुमा थे लेकिन पीछे काफी नीचे पीठ पर हुआ करते थे....उनके गले में किसी चेन में या धागे में एक cross हुआ करता था...सारे कपडे झक्क सफ़ेद होते थे...और हों भी क्यूँ नहीं कपडे धोने के लिए फिर कई आया जो होती थीं ...
अक्सर हम उनके मेस या किचेन में भी चले जाया करते थे.....वहां उनकी समृद्धि देखते बनती थी...बड़े-बड़े बोल में मक्खन (उतने मक्खन मैंने आज तक नहीं देखे फिर कभी )जैम, जेली, ताजे फल, चिक्केन, मटन अंडा, सब्जियां, canned फ़ूड जो विदेशों से आते थे...बड़े-बड़े फ्रिज में खाना ठसा-ठस भरा रहता था....... किचेन से हमेशा ही फ्रेश ब्रेड बनने की खुशबू आती रहती थी....और हर वक्त ३-४ आया खाना पकाने में लगी रहती थी....wine की बोतल भी मैंने पहली बार उन्ही के किचेन में देखा था...रेड wine , वाईट wine...
उनके कमरों की छटा भी देखने लायक होती थी करीने से सजा बेडरूम....बेड पर साफ़ बेड-शीट ..टेबल कुर्सी, करीने से सजी हर चीज़....बहुत साफ़ सुथरा सब कुछ....उनके कमरों की सफाई के लिए भी लोग थे...बाथ- रूम इतना साफ़ की आप वहाँ सो सकते थे....साफ़ धुले तौलिये टंगे होते थे.....
अब बताते हैं बात उनके प्रार्थना वाले कमरे की बात....बहुत ही सुन्दर...और व्यवस्थित.....कभी- कभी retreat यानि मौन व्रत भी करती थी...तो retreat करने का स्थान भी भव्य था...
लेकिन ये तो सभी सन्यासिनियाँ हैं...इन्होने दुनिया का त्याग किया हुआ है और ईश्वर को अपनाया है ..तो फिर क्या दुनिया का त्याग इसे कहते हैं....सबसे अच्छा खाना...सबसे अच्छा पहनना ...सारी सुविधाओं से लैस रहना क्या संन्यास है.....??? क्या इतनी सुख सुविधा में रह कर ईश्वर मिल जाते हैं..?? लेकिन बात कुछ समझ में नहीं आती थी.....इसी उन्हां-पोंह में..जीवन बीतता गया....और मेरे सारे सवाल वहीँ खड़े रहे.....
पिछले साल मुझे रांची जाना पड़ा....अपने कालेज 'संत जेविएर्स, रांची' चली गयी ....यूँ ही देखने.....काफी कुछ बदला हुआ नज़र आया....बिल्डिंग और ज्यादा भव्य और विद्यार्थी और ज्यादा उदंड ...खैर ....मुझे याद आया कि हमारे एक प्रोफेसर ने अवकाश प्राप्ति के बाद यहीं कहीं पास में अपना एक बिज़नस शुरू किया था होल सेल का ...मैंने पता किया 'प्रोफेसर राजगढ़िया' का और बहुत जल्द ही उनका पता मिल गया....बस क्या था पहुँच गयी उनकी संस्था में.....दस सेकंड में ही उन्होंने मुझे पहचान लिया....और बस इतनी आत्मीयता से मिले कि क्या बताऊँ....हम लोग बैठ कर बातें करने लगे .....इतने में ही 'फादर लकड़ा' ...जिन्हें मैं तो नहीं जानती थी.... वो आ गए 'राजगढ़िया सर मिलने ...सर ने बहुत ही गर्मजोशी से उनका भी स्वागत किया.....मेरा भी परिचय दिया गया उन्हें और फिर बातें आगे बढ़ने लगी....फादर लकड़ा....जिन्हें अगर मैं बाहर कहीं देखती तो किसी कालेज का स्टुडेंट ही समझती.....उनका पहनावा बहुत मोडर्न...अपनी हीरो होंडा में आये थे...... लगातार सिगरेट पी रहे थे.....उनकी सिगरेट आम सिगरेट नहीं थी....भूरे रंग की..पतली लम्बी सिगरेट थी.....मैंने यूँ ही पूछ लिया ...फादर ये तो काफी कीमती सिगरेट लगती है ...कहने लगे हाँ...वेरा क्रूज़ है ...अब हम क्या जाने वेरा क्रूज़ क्या है ...खैर मैंने कहा कि ये आप कितनी पीते हैं.....?? २ पैकेट प्रतिदिन.....मैंने कहा ये तो बहुत महंगा पड़ता होगा आपको......कहने लगे मुझे नहीं ....मुझे तो हर दिन ये मेरे मिशन वालों को देना ही है.....ये मेरी ज़रुरत है और मुझे मिलना ही है...मैं आसमान से गिर गयी ...मैंने कहा ये सिगरेट आपको आपका चर्च देता हैं...उन्होंने कहा हाँ......मुझे ही नहीं जिन्हें भी जो-जो आदत है सबकी पूर्ती करते हैं ......हैरानी हुई सुन कर कि व्यसनों की भी आपूर्ति होती है संन्यास में....ख़ास करके जो सुसंगठित, सुसंचालित धार्मिक-संस्था है....और जहां बाकायदा धर्म-गुरु बनने की न जाने कितनी सीढ़ियों, पायदानों से होकर जाना पड़ता हैं.... जहाँ तक पहुँचने के लिए विवाह करना वर्जित है और ३ शपथ लेनी पड़ती हैं....गरीबी, पवित्रता और आज्ञापालन (Live a life of poverty, chastity and obedience ) ....फादर लकड़ा से और भी आगे बातें होती रहीं....उनकी बातों से एक पल को भी किसी साधू की विनम्रता नहीं झलकी.....सभी बातें 'अहम्' को ही तुष्ट करतीं लगीं ...... उनकी गरीबी में शुमार था फिल्मों का शौक.......उन्होंने यह भी बताया कि किस तरह वो फर्स्ट डे फर्स्ट शो फिल्म देखने जाते हैं......यहाँ तक कि नायिकाओं के नृत्य पर भी उनकी टिपण्णी बहुत सटीक थी.....सुनकर ही लग रहा था कि वो काफी ध्यान से देखते हैं....
अब तक मेरा भेजा फिर चुका था...मैंने फादर लकड़ा को आड़े हाथों लिया....पूछ ही दिया उनसे कि भगवान् कि भक्ति में आप कितना समय लगाते हैं...कहने लगे दिन भर में ५-६ घंटे मैं ईश्वर की आराधना में ही लगाता हूँ...अब उन्होंने मुझ पर प्रश्न दाग दिया....आप कितने घंटे लगाती हैं ??? मैंने कहा मुश्किल से ५ से १० minutes पूरे दिन में.....कहने लगे ये तो बहुत कम है.....इससे मुक्ति कहाँ मिलेगी.....मैंने कहा पादरी साहब (अब फादर बोलने का मेरा कोई इरादा नहीं था ) हम जैसे लोग जो दो जून की रोटी जुटा कर ....अपने बच्चों को पाल कर ...अपनी जिम्मेवारियों को पूरी तरह से निभाने के बाद अगर दो minute के लिए भी अपने भगवान् को याद कर लेते हैं तो ...स्वर्ग के द्वार हम जैसों के लिए ही पहले खुलेंगे ...आपके लिए नहीं....आपका क्या है ...विवाह आपने किया नहीं .....बच्चे आपके है नहीं.....आपको तो सब कुछ पका-पकाया मिलता है..कपडे धुले हुए, प्रेस किये हुए मिलते हैं, हर सुबह सिगरेट की डब्बी आपके कमरे में आपके उठने से पहले पहुंच जाती है....आपके पहुँचने से पहले आपका कमरा सजा होता है....न बिजली का बिल देने की चिंता न बच्चों की फीस....मतलब ये कि आप एक तिनका इधर से उधर नहीं करते हैं...नून-तेल लकड़ी का इंतज़ाम करना किस चिड़िया का नाम है आप नहीं जानते....आप क्या जाने परिवार क्या है ....?? उसकी समस्याएं क्या हैं....?? जूझते तो हम जैसे लोग ही हैं ....और श्रृष्टि भी हम ही चला रहे हैं आप नही.....इसलिए मुझे पूरा विश्वास है ईश्वर के ज्यादा करीब हम ही हैं आप नहीं....अब उन्हें कोई जवाब देते नहीं बना....वो अपना सा मुंह लेकर चले गए...
आज कल यहाँ भी कुछ ऐसा ही देखकर ....मुझे इस घटना की याद आई......कई बार पढ़ती हूँ....नारी का उत्थान, नारी जागृति, तो मन सोचता है....नारी क्या सिर्फ 'नारी' है.....वो एक बेटी, पत्नी और माँ भी है....बेटी के रूप में समस्याए अलग होंगी, बेटी की समस्या सभी नारियां समझ सकती हैं....क्योंकि और कुछ हों न हों बेटी तो हैं ही....पत्नी कि समस्या वही समझ सकती हैं जो विवाहिता हों और माँ की समस्या भी वही समझेगी जो माँ हो....कोई कितना भी कहे कि 'नारीगत' समस्या हर नारी समझ सकती है तो वो बिलकुल गलत है...जिस नारी ने कभी विवाह नहीं किया वो वैवाहिक समस्याओं को कैसे समझेगी और जो कभी माँ नहीं बनी वो मातृत्व की पीड़ा और समस्या कैसे समझेगी...कदापि नहीं समझेगी.ठीक वैसे ही जैसे किसी फादर, किसी सिस्टर किसी सन्यासी को क्या मालूम गृहस्थ जीवन कितना जटिल है, उसकी समस्याएं कितनी गहन हैं.....परिवार के एक सदस्य का एक निर्णय कितने जीवनों को दांव पर लगा देता हैं, किताबी ज्ञान से जीवन नहीं चलते....प्रसव की पीड़ा को पढ़ कर नहीं महसूस किया जा सकता.....और बच्चों के साथ जागी गयी कितनी ही लम्बी रातों को बोल कर नहीं बताया जा सकता .....उसको महसूस करना पड़ता है...
उपदेश देना बहुत ही आसन है....लेकिन काम करना उतना ही कठिन ...!!
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पर उपदेश कुशल बहुतेरे ...
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आह! हमने तो यूं ही नाहक उम्र गंवा दी.
ReplyDeleteआपने बहुत देर दी बताते में..
काश मैं भी फिरंग-बाबा बन गया होता..
क्या बात कही है ...पर उपदेश कुशल बहुतेरे ...मिल ही जाते है आते जाते खूबसूरत आवारा सड़कों पर कभी कभी इत्तिफाक से ....
ReplyDeleteधार्मिक शिक्षा के नाम पर एक बहुत ही बड़े ढोंग का पर्दाफाश कर रही हैं आप ...आपके साहस को प्रणाम ...
घायल की गति घायल जाने ....एक गृहस्थ नारी ही दूसरी नारी की भावनाओं को बेहतर समझ सकती है ...बहुत सही कहा आपने ....!!
ढोंग का पर्दाफाश करती पर उपदेश कुशल बहुतेरे ... यह रचना / संस्मरण सामयिक प्रश्नों का उत्तर देने के साथ-साथ जीवन के शाश्वत मूल्यों से भी जुड़ी है। आपने साहसपूर्ण काम किया है। अभिनंदन है।
ReplyDeleteओह तो पादरी भी अब विलासी हो गए हैं ...रही बात लिप्त होकर या निर्लप्त होकर ब्रह्म ज्ञान होने की तो इस पर काफी उपनिषद् चर्चा भी है ! दो मार्ग हैं सत्य ज्ञान के प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग -कुछ लोग निवृत्ति रहकर भी सत्यज्ञान कर लेते हैं -वे हम प्रवृत्तिमार्गियों से अलग हैं और अलग ही रहते भी हैं !
ReplyDeleteवैसे पादरी शब्द भी फादर का पर्यायवाची ही है.
ReplyDeleteअदा जी की चमकार, बार-बार, लगातार...
ReplyDeleteझकास सफेद को भी धो डाला, पटक-पटक कर...
आपने पहले नहीं बताया...महफूज़ या दीपक मशाल का ब्रदर बनने की जगह ये वाला ब्रदर बनने
में ज़्यादा फ़ायदा था...
जय हिंद...
इस रचना दा ज़वाब नहीं (बतर्ज़ कपिलदेव)!
ReplyDeleteमैं पहले भी लिख चुका हूँ कि ब्लॉग जगत को एक परिवार जैसा मानने से इंकार करने वाले भौतिक संसार में भी परिवार की अवधारणा पर विश्वास नहीं करते होंगे।
सुंदर रचना। खुशदीप जी ने ठीक कहा 'झकास सफ़ेद को भी धो डाला'
अब सोचा जाएगा कि 'उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफ़ेद कैसे!?'
अरे! इसमें सोचना क्या है :-)
बी एस पाबला
काश! हमारे धर्म में भी साधु सन्त बनने पर ये सुविधाएँ मिलती!!
ReplyDeleteऐसा होता तो हम भी कबके "स्वामी गर्दभानन्द" बन गये होते।
"जिस नारी ने कभी विवाह नहीं किया वो वैवाहिक समस्याओं को कैसे समझेगी और जो कभी माँ नहीं बनी वो मातृत्व की पीड़ा और समस्या कैसे समझेगी"
यह बात तो सही है।
कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य से शास्त्रार्थ करते समय मुण्डण मिश्र ने पूछा था कि "गृहस्थ का सुख क्या होता है?" मुण्डण मिश्र गृहस्थ थे और शंकराचार्य ब्रह्मचारी। शंकराचार्य ने इस प्रश्न का उत्तर बताने के लिये समय माँगा था। उस समय में उन्होंने एक मृत व्यक्ति में परकाया प्रवेश करके गृहस्थ के सुख दुख को जाना। फिर अपनी काया में पुनः प्रवेश कर मुण्डण मिश्र के प्रश्न का उत्तर दिया था।
जिस नारी ने कभी विवाह नहीं किया वो वैवाहिक समस्याओं को कैसे समझेगी और जो कभी माँ नहीं बनी वो मातृत्व की पीड़ा और समस्या कैसे समझेगी...
ReplyDeleteअदा जी मैं ऊपर कही बात से तो पूरी तरह सहमत नहीं हूँ। यदि व्यक्ति संवेदनशील हो तो वह यह समझ सकता है।
लेकिन फिर भी वह किसी न किसी पहलू से अनभिज्ञ अवश्य रहेगा क्यों कि उस ने यथार्थ में उस ने प्रसवपीड़ा को नहीं भुगता है। इसी कारण प्रसवपीड़ा को झेलने वाली माताओं का दुनिया में बदल नहीं है।
आँखों को खोलने वाला बहुत सुंदर आलेख! बधाई!
बहुत करीब से जान लिया हमनें भी यह धार्मिक कार्य-व्यापार! सन्यास और गृहस्थ जीवन दो अलग-अलग धारणायें हैं- दोनों जगह ईमानदारी पहली शर्त है !
ReplyDeleteकाफी कुछ खोल दिया आपने ! नारी और नारी-विमर्श पर भी कुछ मुद्दे तलाशती प्रविष्टि । आभार ।
अदा जी, अच्छा संस्मरण , बहुत थोड़े समय के लिए सुरुआती बचपन में मैं भी इन लोगो के साथ रहा ! मुझे इन लोगो की सिर्फ एक ही बात बुरी लगी, जो थी की अपने ही धर्म की चर्चा और importance , अन्यथा हो सकता है कि मैं गलत भी हूँ मगर मैंने यह भी महसूस किया कि अन्य धर्मो की अपेक्षा इस धर्म के इन तथाकथित गुरुओ में थोड़ा बहुत सहिष्णुता भी है, और यही वजह है कि लोग आसानी से इनके जानसे में भी आ जाते है धर्म परिवर्तन के लिए !
ReplyDeleteभूल सुधारः
ReplyDeleteमेरे पूर्व की टिप्पणी में भूलवश "मण्डन मिश्र" के स्थान पर "मुण्डण मिश्र" टंकित है। कृपया उसे "मण्डन मिश्र" ही पढ़ें।
आपने बिलकुल सही कहा पादरी साहब को. रामचरित मानस मे गोसाईं जी ने भी कहा है, "करम प्रधान विश्व करि राखा !!" पोल-खोल के लिय धन्यवाद !!
ReplyDeleteAapki lekhani kya to kavita kya to aalekh,yaa sansmaran...har tarah se mahir hai!
ReplyDeleteलाख टके की बात कही है आपने।
ReplyDelete------------------
अदभुत है मानव शरीर।
गोमुख नहीं रहेगा, तो गंगा कहाँ बचेगी ?
maine apni shuruaati padhayi catholick mission school mein hi ki hai hai. par hakikat ko jitne behtar aapne darshaya hai waisa maine kabhi dekha bhi nahi tha. iska karan ye ho sakta hai ki school mein main sirf 9.30 se 3.30 hi hoti thi... hostal mein rahne se bachi rahi thi. par hakikat se rubaru karvane ke liye bahut bahut dhanyvaad.
ReplyDeleteada ji
ReplyDeletebahut hi sundar dhang se dushale mein lapet kar joote mare hein..........aapke vicharon se main poorntah sahmat hun...........aaj ki duniya aisi hi hai sirf doosre ko hi updesh de sakti hai magar jab wo hi apne par beete to sab updesh chulhe ki bhent chadh jate hain.
सारे धर्मगुरु ऐसे ही होते हैं...चाहे वो पीर हों,साधू हों या पादरी....सिर्फ विलासिता के तरीके अलग अलग हैं...इश्वर का नाम लेकर सबकी आँखों में धूल झोंको....और अपन उल्लू सीधा करो...
ReplyDeleteपर उपदेश कुशल बहुतेरे...ढोंग का पर्दाफाश करती यह संस्मरण/आलेख/वार्तालाप
ReplyDeleteएक साहसिक प्रयास है...और जिम्मेदार लेखन शायद इसी को कहते हैं.
जीवन की पूर्णता तब है जब हम जीवन का सामना स्वयं अपने हाथो करते हैं.
कौन क्या त्याग करता है ये तो उसकी आत्मा ही जानती है...बाकी...पर उपदेश कुशल बहुतेरे
मैं भी मिशनरी स्कूल का पढ़ा हुआ हूँ..... सैंट मैरी शिमला का..... उस वक़्त शायद मैं KG / या फर्स्ट क्लास में पढ़ता था..... मैंने खुद फादर और नन टीचर्स को आपस में प्रेम (?) करते अपनी आँखों से हॉस्टल में देखा था...... और बाद में अपने दोस्तों को जा कर बताया था.... कि फादर और सिस्टर आपस में फाइटिंग कर रहे थे..... अपनी मम्मी को भी बताया था..... तो मम्मी ने मेरी बात को अनसुना कर दिया था..... और मैं जिस स्कूल का पढ़ा हुआ हूँ.... वहां से बड़े बड़े राजनितिक और फिल्म स्टार भी पढ़े हैं...... और मैं यह खेल पूरे १० साल तक देखता रहा ......आठवीं और नौवीं में आते आते.... हम तो रौशन दान से खूब झांकते थे......रात में.... जिम्मी शेरगिल जो आज एक फिल्म स्टार है..... मेरा सीनिअर हुआ करता था.... और आज बहुत अच्छा दोस्त है..... उसके पास तो फोटोस भी हैं..... चर्च और मिशनरी में यह बहुत ही कॉमन बात है..... बहुत अच्छी बात याद दिलवाई आपने..... सोच रहा हूँ कि धर्म बदल के फादर बन जाऊ ..... यम.... यम...
ReplyDelete"जिस नारी ने कभी विवाह नहीं किया वो वैवाहिक समस्याओं को कैसे समझेगी और जो कभी माँ नहीं बनी वो मातृत्व की पीड़ा और समस्या कैसे समझेगी" इस पंक्ति से मैं सहमत तो नहीं हूँ...... क्यूंकि नारियां ज़्यादातर संवेदनशील होती हैं...... हाँ यह है कि इस (जिस नारी ने कभी विवाह नहीं किया) प्रकार कि नारियां चिडचिडी होती हैं.... गुस्सैल होतीं हैं.... क्योंकि ये अप्राकृतिक जीवन जीती हैं....
@दिनेश जी
ReplyDeleteअदा जी मैं ऊपर कही बात से तो पूरी तरह सहमत नहीं हूँ। यदि व्यक्ति संवेदनशील हो तो वह यह समझ सकता है।
@महफूज़ अली
जिस नारी ने कभी विवाह नहीं किया वो वैवाहिक समस्याओं को कैसे समझेगी और जो कभी माँ नहीं बनी वो मातृत्व की पीड़ा और समस्या कैसे समझेगी" इस पंक्ति से मैं सहमत तो नहीं हूँ...... क्यूंकि नारियां ज़्यादातर संवेदनशील होती हैं......
दिनेश जी, महफूज़ जी,
आप दोनों के समक्ष मैं अपनी बात रखने की कोशिश करती हूँ...
हम सभी बहुत संवेदनशील हैं...लेकिन क्या किसी कैसर के मरीज की तकलीफ सही मायने में हम अनुभाव कर सकते है, या फिर किसी एड्स से पीड़ित इंसान किस जहन्नुम से होकर जा रहा है क्या वास्तव में हम उसे समझ सकते हैं ?? मेरा मानना है हम नहीं समझ सकते...चाह कर भी नहीं......इसी लिए कहती हूँ ....इस तरह की समस्याएं संवेदनशीलता से नहीं अनुभव से समझ में आती हैं.....हम जबकि रोज इनसे दो-चार होते रहते ....हमारा मनहमारी आत्मा इसी में सराबोर रहती है...फिर भी हर बार हर समस्या नयी लगती है.....फिर उसको क्या समझ में आएगा जो दूर बैठा बिना दूरबीन के देख रहा हो.....आशा है आप दोनों मेरी बात समझ गए होंगे....
जिस नारी ने कभी विवाह नहीं किया वो वैवाहिक समस्याओं को कैसे समझेगी और जो कभी माँ नहीं बनी वो मातृत्व की पीड़ा और समस्या कैसे समझेगी..
ReplyDeleteMother Teresa
मठ, मन्दिर, मस्जिद, चर्च.... बहुत कम हैं जहाँ मानवीय सरोकार बचे हों। इन जगहों पर ईश्वर नहीं ऐश्वर्य निवास करता है। ईश्वर के बारे में कुछ नहीं कहूँगा, विषयांतर होगा।
ReplyDelete... सदाचारण और आत्मनिग्रह तो बस बातें हैं।
हाँ, फादर वग़ैरह अमूमन मौलवी और पुजारी की तुलना में बेहतर माने जाते रहे हैं। आप ने इनकी अच्छी पोल खोली।
अदाजी!
ReplyDeleteनमस्कार!
आज थॊडा जल्दी मै हू.
वैसे आप हमेशा ही अच्छा लिखती है. विषय भी सटीकता लिऎ हुऎ होते है!
आभार
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मुम्बई ब्लोगर मीट दिनाक ०६/१२/२००९ साय ३:३० से
नेशनल पार्क बोरीवली मुम्बई के त्रिमुर्तीदिगम्बर जैन टेम्पल
मे होनॆ की सुचना विवेकजी रस्तोगी से प्राप्त हुई...
शुभकामानाऎ
वैसे मै यानी मुम्बई टाईगर इसी नैशनल पार्क मे विचरण करते है.
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जीवन विज्ञान विद्यार्थीयों में व्यवहारिक एवं अभिवृति परिवर्तन सूनिशचित करता है
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ताउ के बारे मे अपने विचार कुछ इस तरह
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ब्लाग चर्चा मुन्नाभाई सर्किट की..
@अनामी/बेनामी जी,
ReplyDeleteअच्छी बात कहने के लिए तो मुंह छुपाने की बिलकुल भी आवश्यकता नहीं होनी चाहिए....
आपने ही मेरी बात का जवाब भी दे दिया.....exceptions तो हर जगह हैं.....और शायद इसलिए बस एकही मदर टेरेसा हुई.....मदर टेरेसाओं की फौज नहीं....
अदा जी सही कहा आपने कहने और करने मे हमेशा अन्तर होता है आज मेरी पोस्ट भी आपकी तरह ही ढोल के पोल खोलने वाली है । बधाई
ReplyDelete@ Anonymous.....
ReplyDeleteAnonymous.....भाई..... एक बार अटल बिहारी बाजपाई ने कहा था कानपूर कि सभा में..... कि मैं कुंवारा ज़रूर हूँ......... लेकिन ब्रह्मचारी नहीं..... यही बात MOTHER TERESA पर भी लागू होती है..... एक बात और ब्रह्मचारी का जीवन बहुत थोडा होता है..... वो कम उम्र में ही टें बोल जाता है.... जैसा कि स्वामी विवेकानंद जी .....
पिछले कुछ दिनों से आपको देख और पढ रहा था ..कुछ कारणों से टीप नहीं पा रहा था ....आज समय मिल गया है ...
ReplyDeleteअदा जी ,
यदि सिर्फ़ चंद शब्दों में कहना हो तो यही कहूंगा कि ...हां अब हो रही है सही मायने में ...नारी विमर्श ..एक दम लाईन बाय लाईन ...और तर्क दर तर्क.....आप और वाणी जी खुद महिला हैं इसलिए ..पुरुषवादी नजरिये का होने का स्वाभाविक सा आरोप भी आप पर नहीं मढा जा सकेगा ..पिछले दिनों आपकी कही गई बातें और उनपर आई प्रतिक्रियाएं ही बताने के लिए काफ़ी हैं कि ....बहस किस दिशा में बढ रही है और ....जनमत भी ...बशर्ते कि ..कल को ये न कहा जाए कि हुंह ..टीप से जनमत थोडी तय हो जाता है...अरे आप मुस्कुरा रही हैं ...ऐसा कहा ही जाता है ...
चलिये अच्छा है अब इस मुहिम को एक नई पहचान मिलेगी ..और सतत ठेकेदारी टाईप ...मानसिकता से छुटकारा भी ...और ढेर सारे लिंक्स से मुक्ति भी ....जल्द ही हम भी आपकी इस मुहिम में जुडने जा रहे हैं ...ये अब बहुत जरूरी हो गया है ....शुभकानाएं और हां आपका स्नेह बना रहेगा ,,,,,अब ये कहने की जरूरत तो नहीं है न
सही मायनों में बेहतरीन लेखन इसे ही कहा जा सकता है कि आप जो कहना चाहते हैं, वो बिना किसी का नाम लिए कह भी दिया ओर जिसके लिए कहा गया है, वो उसे भली भान्ती समझ भी रहा है....किन्तु ?
ReplyDelete:)
ये आपके संतुलन की हद है बिना किसी को कोसते हुए जैसा है वैसा कह दिया और क्या खूब कह दिया. लेखनी चलती रही इसी तरह.
ReplyDeleteमैंने कहा पादरी साहब (अब फादर बोलने का मेरा कोई इरादा नहीं था ) हम जैसे लोग जो दो जून की रोटी जुटा कर ....अपने बच्चों को पाल कर ...अपनी जिम्मेवारियों को पूरी तरह से निभाने के बाद अगर दो minute के लिए भी अपने भगवान् को याद कर लेते हैं तो ...स्वर्ग के द्वार हम जैसों के लिए ही पहले खुलेंगे ...आपके लिए नहीं....आपका क्या है ...विवाह आपने किया नहीं .....बच्चे आपके है नहीं.....आपको तो सब कुछ पका-पकाया मिलता है..कपडे धुले हुए, प्रेस किये हुए मिलते हैं, हर सुबह सिगरेट की डब्बी आपके कमरे में आपके उठने से पहले पहुंच जाती है....आपके पहुँचने से पहले आपका कमरा सजा होता है....न बिजली का बिल देने की चिंता न बच्चों की फीस....मतलब ये कि आप एक तिनका इधर से उधर नहीं करते हैं...नून-तेल लकड़ी का इंतज़ाम करना किस चिड़िया का नाम है आप नहीं जानते....आप क्या जाने परिवार क्या है ....?? उसकी समस्याएं क्या हैं....?? जूझते तो हम जैसे लोग ही हैं ....और श्रृष्टि भी हम ही चला रहे हैं आप नही.....इसलिए मुझे पूरा विश्वास है ईश्वर के ज्यादा करीब हम ही हैं आप नहीं....अब उन्हें कोई जवाब देते नहीं बना....वो अपना सा मुंह लेकर चले गए...
ReplyDeleteshandaar uttar diya aapne... :)
taaliyaan....
ReplyDeletetaaliyaan......
taaliyaan.............
bahut achchaa lagaa padh kar....
lekin ye faather type ke log kisi bhi jagah kisi bhi dharam kisi bhi jaati mein ho sakte hain....
अच्छा लिखा है। आजकल अधिकतर बड़े धर्मगुरुओं का जीवन घणे मजे में गुजरता है। हर धर्म के गुरुओं के यही हाल हैं।
ReplyDelete@अनूप शुक्ल
ReplyDeleteअच्छा लिखा है। आजकल अधिकतर बड़े धर्मगुरुओं का जीवन घणे मजे में गुजरता है। हर धर्म के गुरुओं के यही हाल हैं।
ठीक कहा महागुरुदेव...
जय हिंद...
दी, ये मानसिक दोगलापन हर और छाया हुआ है..एक प्रेरणास्पद संस्मरण...ओह मै सोच रहा था कि आपके पास तो अच्छे-खासे संस्मरण हैं..उन्हें पुस्तक की शक्ल क्यों नहीं देतीं..एक संग्रहनीय कृति होगी...!!!
ReplyDeleteआश्चर्यजनक,किन्तु ’सच’ ही होगा!
ReplyDeleteबधाई! इस सच को उजागर करने के लिये.
@महफूज अली जी,
ReplyDeleteएक बार अटल बिहारी बाजपाई ने कहा था कानपूर कि सभा में..... कि मैं कुंवारा ज़रूर हूँ......... लेकिन ब्रह्मचारी नहीं..... यही बात MOTHER TERESA पर भी लागू होती है.
किसी पर भी उंगली उठाने से पहले से सोच लेना चाहिए की हम किस पर उंगली उठा रहे हैं, मदर टेरेसा को अटल बिहारी बाजपाई के वक्तव्य में समेट लेना - आपकी सोच पर तरस आ रहा है.
अदा जी की प्रस्तुति को मैं बधाई के काबिल मानती हूँ, लेकिन पाँचों अंगुली एक बराबर नहीं होतीं. उनका संस्मरण जो प्रस्तुत कर रहा है , उनका देखा हुआ है वह सौ प्रतिशत मान्य है लेकिन जिसको हमने देखा ही नहीं हैं वह सारे धर्मगुरुओं और महापुरुषों के लिए बोल देना न्याय नहीं है.
पादरियों और ननों के मध्य सम्बंधों के बारे में तो कई बार सुना था लेकिन इसके अलावा भी इनके इतने ठाठ-बाट होते हैं पता नहीं था। आपने बहुत ही रुचिकर और स्वस्थ तरीके से सच्चाई को सामने रखा।
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