Thursday, December 3, 2009
हम हक़ीक़त के हाथों यूँ मरते रहे बढ़ के पेड़ों से बेलें हटाते रहे
ज़िन्दगी के लिए कुछ नए रास्ते हम बनाते रहे फिर मिटाते रहे
थी वहीँ वो खड़ी इक हंसीं ज़िन्दगी हम उससे मगर दूर जाते रहे
रात रोई थी मिल के गले चाँद से और अँधेरे अँधेरा बढ़ाते रहे
आँखें बुझने लगीं हैं चकोरी की अब दूर तारे खड़े मुस्कुराते रहे
बिखरे-बिखरे थे मेरे वो सब फासले हम करीने से उनको सजाते रहे
अब समेटेंगे हम अपनी नजदीकियां दूरियों को गले से लगाते रहे
वो पेड़ों के झुरमुट से अहसास थे और ख्वाबों की बेलें लिपटती रहीं
हम हक़ीक़त के हाथों यूँ मरते रहे बढ़ के पेड़ों से बेलें हटाते रहे
वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
इक कली जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे
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आज बहुत दिनों बाद आ पाया हूँ अदा जी,
ReplyDeleteपता नहीं कितनी पोस्ट्स आपकी अभी पढ़नी है मुझे,
ये शेर सबसे जुदा है, अपने आस-पास की सच्चाई को बा-खूबी उकेरा है आपने,
वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
इक कलि जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे
बहुत खूब !!
वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर
ReplyDeleteलोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
इक कलि जिस गली में बलि चढ़ गयी
वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे
बहुत सफाई से समाज को फटकार लगाई है आपने!
आज के हालात को व्यक्त करती रचना...बहुत ही सही तस्वीर पेश करती है...बधाई..
ReplyDeleteएक उम्दा रचना के लिए बधाई:
ReplyDeleteबिखरे-बिखरे थे मेरे वो सब फासले हम करीने से उनको सजाते रहे
अब समेटेंगे हम अपनी नजदीकियां दूरियों को गले से लगाते रहे
वाह!
ग़ज़ल क़ाबिले-तारीफ़ है।
ReplyDeleteदेर से आना, जल्दी जाना
ReplyDeleteए साहिब, ये ठीक नहीं
चाहने वालों को यूं है सताना
ए साहिब, ये ठीक नहीं...
जय हिंद...
आपके शेर मन में अद्भुत भावों का सृजन और संचार करते हैं जिन्हें समटने में
ReplyDeleteसारी बची खुची बौद्धिक ऊर्जा निवेशित हो जाती है !
by god.....!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteitani sahi..?
be-khatkaa....!!!!!!!!!!!
manu..
वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
ReplyDeleteइक कलि जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे...
कलम की धार कहर बरपा रही है आज कल ...!!
अब समेटेंगे हम अपनी नजदीकियां दूरियों को गले से लगाते रहे
ReplyDeleteवो पेड़ों के झुरमुट से अहसास थे और ख्वाबों की बेलें लिपटती रहीं
bahut khub...!!!!
इक कलि जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे
ye jiski taarif parimal ji ne ki hai abhi..
wo bhi behad sunder ban padaa hai...
manu..
ना तो हिंदी में लिखा जा रहा था और ना ही...आई . दी. नहीं खुल पा रही थी ..
ReplyDeleteइसी लिए अनाम कमेंट्स की माफ़ी चाहूँगा....
बहुत बहुत सही लिखा है....
९९.९९ % बह्र में है....१०० % भी हो जायेगी ...
"वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर ..."
ReplyDeleteपेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी-भर दाने को, भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता –
दो ड़ूक कलेजे के करता, पछताता, पथ पर आता।
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
रात रोई थी मिल के गले चाँद से और अँधेरे अँधेरा बढ़ाते रहे
ReplyDeleteआँखें बुझने लगीं हैं चकोरी की अब दूर तारे खड़े मुस्कुराते रहे
Ati Sundar !
रात रोई थी मिल के गले चाँद से और अँधेरे अँधेरा बढ़ाते रहे
ReplyDeleteआँखें बुझने लगीं हैं चकोरी की अब दूर तारे खड़े मुस्कुराते रहे
बिखरे-बिखरे थे मेरे वो सब फासले हम करीने से उनको सजाते रहे
अब समेटेंगे हम अपनी नजदीकियां दूरियों को गले से लगाते रहे
अदा जी आप भी क्या गज़ब कर रही हैं । अरे इनको पढते हुये किसी ब्लाग पर जाने का मन ही नहीं हो रहा। बहुत बहुत बधाई
zindagi ki itni gehri baatein itne asaan shabdo mein keh diya aapne..
ReplyDeletehar ek sher apne mein kuch khaas hai..
ज़िन्दगी के लिए कुछ नए रास्ते हम बनाते रहे फिर मिटाते रहे
थी वहीँ वो खड़ी इक हंसीं ज़िन्दगी हम उससे मगर दूर जाते रहे
वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
ReplyDeleteइक कली जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे
क्या बात है अदा जी.
रात रोई थी मिल के गले चाँद से और अँधेरे अँधेरा बढ़ाते रहे
ReplyDeleteआँखें बुझने लगीं हैं चकोरी की अब दूर तारे खड़े मुस्कुराते रहे
बहुत खूब ..सुन्दर लिखा है आपने शुक्रिया
बहुत खूब ग़ज़ल कही...सभी शे'र जेहन में हलचल पैदा कर रहे हैं.
ReplyDeleteवो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
ReplyDeleteइक कली जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे
लोमहर्षक
वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
ReplyDeleteइक कली जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे
जिंदगी ऐसे ही हो गयी है जहाँ आदमी अपने जीने की जद्दोजहद में भूल जाता है की क्या अच्छा कर रहा है और क्या बुरा..
बहुत बढ़िया ग़ज़ल लिखा है आपने...पढ़ कर बहुत अच्छा लगा..
वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
ReplyDeleteइक कली जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे
बहुत सुंदर रचना, मै इसी लिये तो मंदिर नही जाता, क्योकि मुझे पता है भगवान तो वहा से कब का भाग गया है.अब वहा लडने वाले ओर पेसो के लालची रहते है
ज़िन्दगी के लिए कुछ नए रास्ते हम बनाते रहे फिर मिटाते रहे
ReplyDeleteथी वहीँ वो खड़ी इक हंसीं ज़िन्दगी हम उससे मगर दूर जाते रहे
सच ज़िन्दगी,सामने खड़ी होती है और हम उसे पहचान नहीं पाते...सुन्दर ग़ज़ल....असलियत से रु-ब-रु करवाती हुई.
zindgi ko kaheeN qreeb se chhoo kar guzarti huee ek nayaab rachnaa....
ReplyDeletehar sher apna falasfaa khud bayaan kartaa huaa....
bhaav, shaili aur kathyaa ka anoothaa sangam....
m u b a r a k b a a d .
वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
ReplyDeleteइक कली जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे....
jyada hi achhi ho gayi ye wali...