Thursday, December 3, 2009

हम हक़ीक़त के हाथों यूँ मरते रहे बढ़ के पेड़ों से बेलें हटाते रहे



ज़िन्दगी के लिए कुछ नए रास्ते हम बनाते रहे फिर मिटाते रहे
थी वहीँ वो खड़ी इक हंसीं ज़िन्दगी हम उससे मगर दूर जाते रहे

रात रोई थी मिल के गले चाँद से और अँधेरे अँधेरा बढ़ाते रहे
आँखें बुझने लगीं हैं चकोरी की अब दूर तारे खड़े मुस्कुराते रहे

बिखरे-बिखरे थे मेरे वो सब फासले हम करीने से उनको सजाते रहे
अब समेटेंगे हम अपनी नजदीकियां दूरियों को गले से लगाते रहे

वो पेड़ों के झुरमुट से अहसास थे और ख्वाबों की बेलें लिपटती रहीं
हम हक़ीक़त के हाथों यूँ मरते रहे बढ़ के पेड़ों से बेलें हटाते रहे

वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
इक कली जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे

24 comments:

  1. आज बहुत दिनों बाद आ पाया हूँ अदा जी,
    पता नहीं कितनी पोस्ट्स आपकी अभी पढ़नी है मुझे,
    ये शेर सबसे जुदा है, अपने आस-पास की सच्चाई को बा-खूबी उकेरा है आपने,
    वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
    इक कलि जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे
    बहुत खूब !!

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  2. वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर
    लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
    इक कलि जिस गली में बलि चढ़ गयी
    वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे

    बहुत सफाई से समाज को फटकार लगाई है आपने!

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  3. आज के हालात को व्यक्त करती रचना...बहुत ही सही तस्वीर पेश करती है...बधाई..

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  4. एक उम्दा रचना के लिए बधाई:

    बिखरे-बिखरे थे मेरे वो सब फासले हम करीने से उनको सजाते रहे
    अब समेटेंगे हम अपनी नजदीकियां दूरियों को गले से लगाते रहे

    वाह!

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  5. ग़ज़ल क़ाबिले-तारीफ़ है।

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  6. देर से आना, जल्दी जाना
    ए साहिब, ये ठीक नहीं
    चाहने वालों को यूं है सताना
    ए साहिब, ये ठीक नहीं...

    जय हिंद...

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  7. आपके शेर मन में अद्भुत भावों का सृजन और संचार करते हैं जिन्हें समटने में
    सारी बची खुची बौद्धिक ऊर्जा निवेशित हो जाती है !

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  8. by god.....!!!!!!!!!!!

    itani sahi..?
    be-khatkaa....!!!!!!!!!!!

    manu..

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  9. वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
    इक कलि जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे...

    कलम की धार कहर बरपा रही है आज कल ...!!

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  10. अब समेटेंगे हम अपनी नजदीकियां दूरियों को गले से लगाते रहे

    वो पेड़ों के झुरमुट से अहसास थे और ख्वाबों की बेलें लिपटती रहीं

    bahut khub...!!!!

    इक कलि जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे

    ye jiski taarif parimal ji ne ki hai abhi..
    wo bhi behad sunder ban padaa hai...

    manu..

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  11. ना तो हिंदी में लिखा जा रहा था और ना ही...आई . दी. नहीं खुल पा रही थी ..
    इसी लिए अनाम कमेंट्स की माफ़ी चाहूँगा....
    बहुत बहुत सही लिखा है....
    ९९.९९ % बह्र में है....१०० % भी हो जायेगी ...

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  12. "वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर ..."

    पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
    चल रहा लकुटिया टेक,
    मुट्ठी-भर दाने को, भूख मिटाने को
    मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता –
    दो ड़ूक कलेजे के करता, पछताता, पथ पर आता।
    सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

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  13. रात रोई थी मिल के गले चाँद से और अँधेरे अँधेरा बढ़ाते रहे
    आँखें बुझने लगीं हैं चकोरी की अब दूर तारे खड़े मुस्कुराते रहे

    Ati Sundar !

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  14. रात रोई थी मिल के गले चाँद से और अँधेरे अँधेरा बढ़ाते रहे
    आँखें बुझने लगीं हैं चकोरी की अब दूर तारे खड़े मुस्कुराते रहे

    बिखरे-बिखरे थे मेरे वो सब फासले हम करीने से उनको सजाते रहे
    अब समेटेंगे हम अपनी नजदीकियां दूरियों को गले से लगाते रहे
    अदा जी आप भी क्या गज़ब कर रही हैं । अरे इनको पढते हुये किसी ब्लाग पर जाने का मन ही नहीं हो रहा। बहुत बहुत बधाई

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  15. zindagi ki itni gehri baatein itne asaan shabdo mein keh diya aapne..

    har ek sher apne mein kuch khaas hai..
    ज़िन्दगी के लिए कुछ नए रास्ते हम बनाते रहे फिर मिटाते रहे
    थी वहीँ वो खड़ी इक हंसीं ज़िन्दगी हम उससे मगर दूर जाते रहे

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  16. वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
    इक कली जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे
    क्या बात है अदा जी.

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  17. रात रोई थी मिल के गले चाँद से और अँधेरे अँधेरा बढ़ाते रहे
    आँखें बुझने लगीं हैं चकोरी की अब दूर तारे खड़े मुस्कुराते रहे

    बहुत खूब ..सुन्दर लिखा है आपने शुक्रिया

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  18. बहुत खूब ग़ज़ल कही...सभी शे'र जेहन में हलचल पैदा कर रहे हैं.

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  19. वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
    इक कली जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे


    लोमहर्षक

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  20. वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
    इक कली जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे

    जिंदगी ऐसे ही हो गयी है जहाँ आदमी अपने जीने की जद्दोजहद में भूल जाता है की क्या अच्छा कर रहा है और क्या बुरा..
    बहुत बढ़िया ग़ज़ल लिखा है आपने...पढ़ कर बहुत अच्छा लगा..

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  21. वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
    इक कली जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे
    बहुत सुंदर रचना, मै इसी लिये तो मंदिर नही जाता, क्योकि मुझे पता है भगवान तो वहा से कब का भाग गया है.अब वहा लडने वाले ओर पेसो के लालची रहते है

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  22. ज़िन्दगी के लिए कुछ नए रास्ते हम बनाते रहे फिर मिटाते रहे
    थी वहीँ वो खड़ी इक हंसीं ज़िन्दगी हम उससे मगर दूर जाते रहे
    सच ज़िन्दगी,सामने खड़ी होती है और हम उसे पहचान नहीं पाते...सुन्दर ग़ज़ल....असलियत से रु-ब-रु करवाती हुई.

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  23. zindgi ko kaheeN qreeb se chhoo kar guzarti huee ek nayaab rachnaa....
    har sher apna falasfaa khud bayaan kartaa huaa....
    bhaav, shaili aur kathyaa ka anoothaa sangam....
    m u b a r a k b a a d .

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  24. वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
    इक कली जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे....
    jyada hi achhi ho gayi ye wali...

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