लटकता विश्वास ...
हजारों बार अपने खून से
तुमने मेरी माँग भरी
पर आज तलक माँग में
कोई लाली नहीं आ पाई
शायद तुम्हारे खून में
सफेदी कुछ ज्यादा थी
या फिर यह खून
मेरी आँखों में
समा गया है
क्योंकि मेरे आँसुओं
का रँग अब
लाल हो चला है
एक मंगलसूत्र भी,
पहना गए थे तुम
मेरे गले में
उस फंदे से मेरा
विश्वास अब तक
लटक रहा है
एक अँगूठी भी
पहनाई थी तुमने
जिसका सिरा मुझे
आज तक नहीं मिला
अब भी मेरी ज़िन्दगी
उस अँगूठी में
वो सिरा ढूंढ रही है
और गोल गोल
घूम रही है !!
(यह कविता मैंने अपनी बहुत प्रिय सहेली पुष्पा के लिए लिखी है.....जिसके विवाह सम्बन्ध में कुछ पेचीदगियां आ गयी हैं, ईश्वर उसे सबकुछ झेलने की क्षमता दे ..!! )
एक अँगूठी भी
ReplyDeleteपहनाई थी तुमने
जिसका सिरा मुझे
आज तक नहीं मिला
सिरे की तलाश ----
बेहतरीन
बाप रे बाप,
ReplyDeleteबड़ी खून-खराबे वाली कविता है...
वो तो गोल-गोल घूमने हमेशा के लिए गया जिसे ये कविता सुनाई जा रही है...
जय हिंद...
दिलचस्प ! कविता पढ़कर एक शेर याद आ गया
ReplyDeleteसारी शोखी, हंसी, शरारत, छोड़ कहां पर आई है,
मुझे छोड़ सब समझ गए, बिटिया ससुराल से आई है।
एक अँगूठी भी
ReplyDeleteपहनाई थी तुमने
जिसका सिरा मुझे
आज तक नहीं मिला
अब भी मेरी ज़िन्दगी
उस अँगूठी में
वो सिरा ढूंढ रही है
और गोल गोल
घूम रही है !!
-जबरदस्त सोच!! क्या गजब कर रहीं हैं आप?
शानदार रचना!
शायद तुम्हारे खून में सफेदी कुछ ज्यादा थी
ReplyDeleteया फिर यह खून मेरी आँखों में समा गया है
क्योंकि मेरे आँसुओं का रँग अब लाल हो चला है
मार्मिक ...
क्या बात है ...
आज इतनी उदासी कविता में ...आपको हँसते मुस्कुराते देखना ही अच्छा लगता है ...!!
टूटते विश्वासों को बहुत ही मार्मिकता से अभिव्यक्ति दी है आपने । बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteबड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल के
ReplyDeleteजो चीरा तो कतरा-ए-खूं निकला
बहुत ही उम्दा अभिव्यक्ति है...
ReplyDeleteपर
सहसा विशवास नहीं होता दी कि ये आपने लिखा है...आपतो कितने विषम परिस्थितियों में भी जाने कितनी सकारात्मकता खींच लाती हैं फिर ये..!
मेरी शुभकामनाएं कि आपकी ये उम्दा रचना केवल रचना के स्तर पर ही हो कभी भी आपके भाव जगत का सच ये ना हो..!
शायद तुम्हारे खून में
ReplyDeleteसफेदी कुछ ज्यादा थी
या फिर यह खून
मेरी आँखों में
समा गया है
क्योंकि मेरे आँसुओं
का रँग अब
लाल हो चला है
एक मंगलसूत्र भी,
पहना गए थे तुम
मेरे गले में
उस फंदे से मेरा
विश्वास अब तक
लटक रहा है
वाह, इसे कहते है "जहां न पहुचे रवि वहां पहुचे कवि" बहुत खूब, अदा जी !
Harek tippanee ke saath sehmat hun..alag koyi alfaaz nahee..
ReplyDeleteYah poorv me poem number 12 me padha tha. Us srinkhla ki sabhi kaviytaayen itni sashakt hai ki main kah nahi sakta...
ReplyDeleteUske baad se hi main aapke blog ka prashanshak...nahi wo kya kahte hain FAN ho gaya hun.
आप हिंदी काव्य धरा की एक सशक्त हस्ताक्षर हैं. इसमें कहीं कोई संदेह की गुंजाइश नहीं है.
रेनू की माटी वाली प्रदेश से आपका अभिनन्दन!!
कविता संपूर्ण भाव लिए हुए है
ReplyDeleteजीवन में ऐसी परिस्थितियां आती हैं जब विश्वास टूटते हैं ,
ReplyDeleteएक मंगलसूत्र भी,
पहना गए थे तुम
मेरे गले में
उस फंदे से मेरा
विश्वास अब तक
लटक रहा है
पीड़ा को सही शब्द दिए हैं... दुआ है कि आपकी सहेली के जीवन में सब सुलझ जाये .
खून से भरी माँग... वाह .. ।
ReplyDeletebahut hi marm sparshiy likhi hai rachna ...
ReplyDeleteye prateek to bas maadhyam hain ... dil se dil ki pahchaan hona jaroori hai ...
बेदर्द से अहसास और असहायता ! उफ़ ! क्या कीजे !
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