मेरी अधिकतर पढ़ाई कैथोलिक मिशन स्कूल और कालेज में हुई है.....और ज्यादातर मैं हॉस्टल में ही रही हूँ....
जाहिर सी बात है ...इस कारण से कैथोलिक मिशन के फादर, सिस्टर, मदर्स के भी बहुत करीब रही हूँ.....जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा उन्ही के संसर्ग में बिताया है....
हॉस्टल में रहने के कारण इस धर्म समाज को बहुत करीब से देखने और समझने का मौका मिला ...वर्ना सिस्टर्स, फादर्स एक रहस्य ही बने रहते थे.....हमलोग उनके आवास में भी चले जाते थे और कभी कभी सिस्टर्स को बिना टोपी या वेल के देख कर हैरान हो जाते थे....उनके सर के बाल देखने की हमेशा इच्छा होती थी......और अगर किसी सिस्टर को हाबिट (उनका ड्रेस) के अलावा किसी दूसरी पोशाक में देख लेते तो बस वो दिन हमारे लिए संसार का आठवां आश्चर्य देखने के बराबर होता था..... हाबिट सफ़ेद रंग का लम्बा चोगा सा होता है...और कपड़ा बहुत कीमती हुआ करता था...सारे कपड़े विदेश से आते थे....कमर में उसी कपड़े की बेल्ट...साथ में रोजरी (माला) टंगी होती थी....सर पर लम्बे वेल होते थे जो टोपीनुमा थे लेकिन पीछे काफी नीचे पीठ पर हुआ करते थे....उनके गले में किसी चेन में या धागे में एक cross हुआ करता था...सारे कपडे झक्क सफ़ेद होते थे...और हों भी क्यूँ नहीं कपडे धोने के लिए फिर कई आया जो होती थीं ...
अक्सर हम उनके मेस या किचेन में भी चले जाया करते थे.....वहां उनकी समृद्धि देखते बनती थी...बड़े-बड़े बोल में मक्खन (उतने मक्खन मैंने आज तक नहीं देखे फिर कभी )जैम, जेली, ताजे फल, चिक्केन, मटन, बीफ, अंडा, सब्जियां, canned फ़ूड जो विदेशों से आते थे...बड़े-बड़े फ्रिज में खाना ठसा-ठस भरा रहता था....... किचेन से हमेशा ही फ्रेश ब्रेड बनने की खुशबू आती रहती थी....और हर वक्त ३-४ आया खाना पकाने में लगी रहती थी....wine की बोतल भी मैंने पहली बार उन्हीं के किचेन में देखा था...रेड wine , वाईट wine...
उनके कमरों की छटा भी देखने लायक होती थी करीने से सजा बेडरूम....बेड पर साफ़ बेड-शीट ..टेबल कुर्सी, करीने से सजी हर चीज़....बहुत साफ़ सुथरा सब कुछ....उनके कमरों की सफाई के लिए भी लोग थे...बाथ-रूम तक इतना साफ़ कि आप वहाँ सो सकते थे....साफ़ धुले तौलिये टंगे होते थे.....
अब बताते हैं बात उनके प्रार्थना वाले कमरे की बात....बहुत ही सुन्दर...और व्यवस्थित.....कभी- कभी retreat यानि मौन व्रत भी किया करतीं थीं सिस्टर्स...ख़ास मौके होते थे ईस्टर से पहले ...जिसे लेंट पिरीअड कहा जाता है ...तो retreat करने का स्थान भी भव्य था...
लेकिन ये तो सभी सन्यासिनियाँ हैं...इन्होने दुनिया का त्याग किया हुआ है और ईश्वर को अपनाया है ..फिर क्या दुनिया का त्याग इसे कहते हैं....सबसे अच्छा खाना...सबसे अच्छा पहनना ...सारी सुविधाओं से लैस रहना क्या संन्यास है.....??? क्या इतनी सुख सुविधा में रह कर ईश्वर मिल जाते हैं..?? लेकिन बात कुछ समझ में नहीं आती थी.....इसी उन्हां-पोंह में..जीवन बीतता गया....और मेरे सारे सवाल वहीँ खड़े रहे.....
दो साल पहले मुझे रांची जाना पड़ा....अपने कालेज 'संत जेविएर्स, रांची' चली गयी ....यूँ ही देखने.....काफी कुछ बदला हुआ नज़र आया....बिल्डिंग और ज्यादा भव्य और विद्यार्थी और ज्यादा उदंड ...खैर ....मुझे याद आया कि हमारे एक प्रोफेसर ने अवकाश प्राप्ति के बाद यहीं कहीं पास में अपना एक बिज़नस शुरू किया था होल सेल का ...मैंने पता किया 'प्रोफेसर राजगढ़िया' का और बहुत जल्द ही उनका पता मिल गया....बस क्या था पहुँच गयी उनके गोदाम में.....राजगढ़िया सर बहुत अच्छा गाते थे...और मुझे हमेशा गाने के लिए प्रेरित करते थे...हालांकि वो पोलिटिकल साइंस पढ़ाते थे...और इस विषय से मेरा कुछ लेना देना नहीं था , लेकिन गाने की वजह से मैं उनके गुड बुक्स में थी...ख़ैर जैसे ही मैं उनके सामने पहुंची, दस सेकंड में ही उन्होंने मुझे पहचान लिया....और बस इतनी आत्मीयता से मिले कि क्या बताऊँ....हम लोग बैठ कर बातें करने लगे .....इतने में ही 'फादर लकड़ा' ...जिन्हें मैं तो नहीं जानती थी.... वो आ गए 'राजगढ़िया सर से मिलने ...सर ने बहुत ही गर्मजोशी से उनका भी स्वागत किया.....मेरा भी परिचय दिया गया उन्हें और फिर बातें आगे बढ़ने लगी....फादर लकड़ा....जिन्हें अगर मैं बाहर कहीं देखती तो किसी कालेज का लफंटुस सा स्टुडेंट ही समझती.....उनका पहनावा बहुत मोडर्न था, उनके हाथ में हेलमेट था और बातों में ही बताया कि वो अपनी हीरो होंडा में आये थे, फादर लगातार सिगरेट पी रहे थे.....उनकी सिगरेट आम सिगरेट नहीं थी....भूरे रंग की..पतली लम्बी सिगरेट थी.....मैंने यूँ ही पूछ लिया ...फादर ये तो काफ़ी कीमती सिगरेट लगती है ...कहने लगे हाँ...वेरा क्रूज़ है ...अब हम क्या जाने वेरा क्रूज़ क्या बला है ...खैर मैंने कहा कि ये आप कितनी पीते हैं.....?? २ पैकेट प्रतिदिन.....मैंने कहा ये तो बहुत महंगा पड़ता होगा आपको......कहने लगे मुझे नहीं ....मुझे तो हर दिन ये मेरे मिशन वालों को देना ही है.....ये मेरी ज़रुरत है और मुझे मिलना ही है...मैं आसमान से गिर गयी ...मैंने कहा ये सिगरेट आपको आपका चर्च देता हैं...उन्होंने कहा हाँ......मुझे ही नहीं जिन्हें भी जो-जो आदत है सबकी पूर्ती करते हैं ......हैरानी हुई सुन कर कि व्यसनों की भी आपूर्ति होती है संन्यास में....ख़ास करके जो सुसंगठित, सुसंचालित धार्मिक-संस्था है....और जहां बाकायदा धर्म-गुरु बनने की न जाने कितनी सीढ़ियों, पायदानों से होकर जाना पड़ता हैं.... जहाँ तक पहुँचने के लिए विवाह करना वर्जित है और ३ शपथ लेनी पड़ती हैं....गरीबी, पवित्रता और आज्ञापालन (Live a life of poverty, chastity and obedience ) ....फादर लकड़ा से और भी आगे बातें होती रहीं....उनकी बातों से एक पल को भी किसी साधू की विनम्रता नहीं झलकी.....सभी बातें 'अहम्' को ही तुष्ट करतीं लगीं ...... उनकी गरीबी में शुमार था फिल्मों का शौक.......उन्होंने यह भी बताया कि किस तरह वो फर्स्ट डे फर्स्ट शो फिल्म देखने जाते हैं......यहाँ तक कि नायिकाओं के नृत्य पर भी उनकी टिप्पणी बहुत सटीक थी.....सुनकर ही लग रहा था कि वो काफी ध्यान से देखते हैं....
अब तक मेरा भेजा फिर चुका था...मैंने फादर लकड़ा को आड़े हाथों लिया....पूछ ही दिया उनसे, कि भगवान् की भक्ति में आप कितना समय लगाते हैं...कहने लगे दिन भर में ५-६ घंटे मैं ईश्वर की आराधना में ही लगाता हूँ...अब उन्होंने मुझ पर प्रश्न दाग दिया....आप कितने घंटे लगाती हैं ??? मैंने कहा मुश्किल से ५ से १० minutes पूरे दिन में.....कहने लगे ये तो बहुत कम है.....इससे मुक्ति कहाँ मिलेगी.....मैंने कहा पादरी साहब (अब फादर बोलने का मेरा कोई इरादा नहीं था ) हम जैसे लोग जो दो जून की रोटी जुटा कर ....अपने बच्चों को पाल कर ...अपनी जिम्मेवारियों को पूरी तरह से निभाने के बाद अगर दो minute के लिए भी अपने भगवान् को याद कर लेते हैं तो ...स्वर्ग के द्वार हम जैसों के लिए ही पहले खुलेंगे ...आपके लिए नहीं....आपका क्या है ...विवाह आपने किया नहीं .....बच्चे आपके है नहीं.....आपको तो सब कुछ पका-पकाया मिलता है..कपडे धुले हुए, प्रेस किये हुए मिलते हैं, हर सुबह सिगरेट की डब्बी आपके कमरे में आपके उठने से पहले पहुंच जाती है....आपके पहुँचने से पहले आपका कमरा सजा होता है....न बिजली का बिल देने की चिंता न बच्चों की फीस....मतलब ये कि आप एक तिनका इधर से उधर नहीं करते हैं...नून-तेल लकड़ी का इंतज़ाम करना किस चिड़िया का नाम है आप नहीं जानते....आप क्या जाने परिवार क्या है ....?? उसकी समस्याएं क्या हैं....?? जूझते तो हम जैसे लोग ही हैं ....और श्रृष्टि भी हम ही चला रहे हैं आप नहीं.....इसलिए मुझे पूरा विश्वास है ईश्वर के ज्यादा करीब हम ही हैं आप नहीं....अब उन्हें कोई जवाब देते नहीं बना....वो अपना सा मुंह लेकर चले गए...
कई बार पढ़ती हूँ....नारी का उत्थान, नारी जागृति, तो मन सोचता है....नारी क्या सिर्फ 'नारी' है.....वो एक बेटी, बहन, पत्नी और माँ भी है....कितने जीवन उसके साथ जुड़े होते हैं, बेटी के रूप में समस्याए अलग होंगी, बेटी की समस्या सभी नारियां समझ सकती हैं....क्योंकि और कुछ हों न हों बेटी तो हैं ही....पत्नी की समस्या वही समझ सकती हैं, जो विवाहिता हों और माँ की समस्या भी वही समझेंगी जो माँ हो....कोई कितना भी कहे कि 'नारीगत' समस्या हर नारी समझ सकती है, तो वो बिलकुल ग़लत है...अधिकतर नारियों के सामने जब भी अपनी बात आती है, हम सबसे पहले अपने आस-पास के लोगों को देखती हैं, उस समय मुंशी प्रेमचंद जी की कथा 'पंच परमेश्वर' के नायक सी स्थिति हो जाती है, और सच पूछिए तो तब निर्णय लेना भी आसन हो जाता है, परिवार के एक सदस्य का एक निर्णय कितने जीवनों को दांव पर लगा देता हैं, किताबी ज्ञान से जीवन नहीं चलते....प्रसव की पीड़ा को पढ़ कर नहीं महसूस किया जा सकता.....और बच्चों के साथ जागी गयी कितनी ही लम्बी रातों को बोल कर नहीं बताया जा सकता, उसको महसूस करना पड़ता है...
लोग कह सकते हैं, संवेदनशील व्यक्ति इस बात को समझ सकता है ...शायद सच हो लेकिन समझना और महसूस करना दो अलग बातें हैं...
हाँ नहीं तो..!!
जाकी पाँव न फटी बिबाई , वो क्या जाने पीर पराई
जाकी पाँव न फटी बिबाई , वो क्या जाने पीर पराई
ReplyDeletesahi kaha aapne, hum kisi ki peer ko nahin samajh sakte
आप हमेशा एक बात कहती हैं कि "कोई कितना भी कहे कि 'नारीगत' समस्या हर नारी समझ सकती है, तो वो बिलकुल ग़लत है।" और आप गलत हैं क्युकी अगर आपके हिसाब से चला जाये तो
ReplyDeleteमाता पिता बच्चो कि समस्या नहीं समझ सकते और बच्चे माता पिता कि
पति पत्नी कि समस्या नहीं समझ सकता , पत्नी पति कि
अमीर गरीब कि समस्या नहीं समझ सकता , गरीब अमीर कि
अदा जी
हम सब एक समाज का हिसा हैं । अपनी अपनी पीड़ा हम भोगते हैं और दुसरो कि पीड़ा को समझते हैं । भोगने और समझने के अंतर को केवल मनुष्य ही नहीं जानवर भी समझते हैं । नारी कि पीड़ा , यानी प्रसव इसको एक माँ भोगती हैं लेकिन उस माँ से जुदा हर व्यक्ति इस को समझता हैं । डिलीवरी कराने वाली डॉक्टर कई बार अविवाहित भी होती हैं । क्या आप का मानना हैं कि हर गाइनोकोल्गिस्त को विवाहिता होना चाहिये ताकि वो प्रसव कि पीड़ा को समझ सके या किसी भी पुरुष को डिलीवरी कराने का अधिकार ही नहीं होना चाहिये ।
मिशनरी मे बहुत से तरह के लोग होते हैं और वो सब इंसान हैं । वो अपनी मर्जी से वहाँ नहीं होते । मे जिस स्कूल मे पढ़ती थी वहाँ कई "brother " नौकरी के कार्यकाल के बाद brother hood छोड़ देते थे । जैसा कि आपने कहा हैं क्युकी आप उनकी जगह नहीं हैं आप उनकी पीड़ा और त्रासदी को नहीं समझ सकती
सौ बातों की एक बात लिख ही दी आपने .. जाकी पाँव न फटी बिबाई , वो क्या जाने पीर पराई !!
ReplyDelete7/10
ReplyDeleteपठनीय / मौलिक / विचारणीय
बहुत सुन्दर पोस्ट
दो अलग-अलग विषय मिक्स क्यूँ ?
लास्ट पैराग्राफ अलग विषय है, उस पर
एक दूसरी सुन्दर पोस्ट हो सकती थी.
आखिरी पाराग्राफ तक तो सब कुछ सही था लेकिन आखिरी में अचानक से यह नारी शक्ति कहाँ से आ गयी ? पूरे लेख और वाकये से बिल्कुल अलग, कृपया इसे समझाने का कष्ट करेंगी.....
ReplyDeleteखैर कुल मिलकर अच्छा लगा पढना...
कभी कभी मेरे ब्लॉग का भी रुख करें...
स्मृति ही भक्ति की पराकाष्ठा है, यदि गाढ़ापन लिये हो। बड़ी सुन्दर पोस्ट।
ReplyDelete:)
ReplyDeleteपिछली बार भी पढा था पर टिप्पणी देने से बच निकला ! लेकिन अबकी बार...सबसे पहले आपके आलेख के पहले हिस्से पर ...क्या आपको नहीं लगता कि 'मिशन' एक मल्टीनेशनल कम्पनी है जो सेवा और आध्यात्म परोसने के नाम से दुनिया की आबादी को एक खास सांचे में ढालने की कोशिश कर रही है ? किसी मल्टीनेशनल कम्पनी के ओहदेदारों की तरह से व्यवहार करते फादर लाकडा को महसूस कीजिये सारे भ्रम मिट जायेंगे ! अब ये मत पूछियेगा कि इस तरह के इंवेस्ट्मेंट के नतीजे क्या निकलेंगे / फायदे क्या होंगे ? उस दिन आपने अंग्रेजी पर एक आलेख लिखा...अगर वो एक किस्म की गुलामी है तो फिर इस कम्पनी के रास्ते आ रही गुलामी के बारे में क्या ख्याल है ! एक स्थायी गुलामी , एक नयी तरह का उपनिवेशवाद !
अब आपके आलेख का दूसरा हिस्सा ...देखिये 'पीर' का सम्बन्ध अनुभूति से है वर्ना पीर कुछ भी नहीं ! ये तो ठीक है कि 'निज' अनुभूति का विशिष्ट महत्व है पर दूसरों की अनुभूति को सिरे से खारिज़ भी नही कर सकते ज़रा इस मामले में मां और नवजात शिशु को ही लें !
पादरी सत्ता मे त्याग की बातें ये सब ैसी ही बातें हैं जैसे राजनीति मे ईमानदारी.
ReplyDelete--
इस पोस्ट का ९०% हिस्सा अापने मिशन के फादर सिस्टर्स पर खर्च किया, स्त्री पीड़ा पर सिर्फ १०%.
माँ अपने बच्चों के लिये तमाम दर्द सहती है, तभी तो उनका स्थान सर्वोच्च होता है.
उपरोक्त कहावत से तो सभी परिचित हैं... फिर भी मानव समाज मे संवेदना का महत्व है, सहानुभूति अौषधि का काम करती है.
"आप क्या जाने परिवार क्या है ....?? उसकी समस्याएं क्या हैं....?? जूझते तो हम जैसे लोग ही हैं ....और श्रृष्टि भी हम ही चला रहे हैं आप नहीं.....इसलिए मुझे पूरा विश्वास है ईश्वर के ज्यादा करीब हम ही हैं आप नहीं..."
ReplyDeleteमास्टर स्ट्रोक था जी।
"लोग कह सकते हैं, संवेदनशील व्यक्ति इस बात को समझ सकता है ...शायद सच हो लेकिन समझना और महसूस करना दो अलग बातें हैं..."
सहमत हैं जी। ’अंदाजा लगाना और भोगना’ दोनों में अंतर है।
बहुत अच्छा लेख लगा आपका यह, फ़िर से।
आजकल शायद बहुत मसरूफ़ हैं आप, नई प्रस्तुति बहुत इंतजार करवाती हैं, या फ़िर कोई सरप्राईज़ देने का इरादा है?
आभार स्वीकार करें।