Tuesday, December 25, 2012

तपस्विनी....! (कहानी)

(अगले एक महीने तक, ब्लॉग पर आती-जाती रहूंगी। इस वक्त कनाडा से दूर (ब्रसेल्स में) हूँ और भारत के करीब, बस कुछ ही घंटों में भारत पहुँच जाऊँगी )

ऐसा क्यों होता है, किसी भी सफ़र में जब, ख़ामोशी की दीवार टूटती है तो, बीच का अटपटापन बाकी नहीं रहता। बातें, मौसम, देश की राजनीति से होती हुई, व्यक्तिगत बातों तक आ जातीं हैं। बातों के प्रवाह में, गजब की गति आ जाती है। सहयात्री की फ़िक्र तक हो जाती है, उसका साथ यूँ लगता है, जैसे अब कभी छूटने वाला ही नहीं है, लेकिन मंजिल पर पहुँचते ही, रास्ते यूँ जुदा हो जाते हैं, जैसे कभी मिले ही नहीं। फिर कभी उस सहयात्री का, न ख़याल सताता है, न ही चेहरा याद रह जाता है। लेकिन इस बार मेरे लिए ये सफ़र, थोडा अलग सा, थोडा हट कर था, कुछ अनूठा ही था ।

आज भी राँची से भुवनेश्वर का सफ़र तय करना था, ट्रेन से। अपने नियत समय, रात 8.30 बजे तपस्विनी, राँची के प्लैटफार्म पर धड़धड़ाती हुई आई और इंसानी रेले, इस रेल में समाते चले गए। मैं भी इसी रेले का हिस्सा बना, पहुँच ही गया अपने लिए, आवन्टित स्थान पर। बर्थ देखकर ही मन बुझ गया। मुझे कभी भी बीच वाली बर्थ पसंद नहीं आती है, लेकिन आज मेरी किस्मत में, बीच वाली बर्थ ही लिखी थी। खुद को कोसा, दूसरी ट्रेन लेनी चाहिए थी। लेकिन तुरंत ही मन को समझा लिया, इस ट्रेन में सफ़र करने की, सबसे बड़ी सहूलियत ये है, कि ये रात 8.30 बजे राँची से चलती है और सुबह 7.30 भुवनेश्वर पहुँच जाती है। रात भर का सफ़र बहुत आसान है, बस चद्दर तानो और सुत जाओ, फिर अल-सुबह, यानि मुंह अँधेरे, जब उठो तो खुद को भुवनेश्वर में पाओ। प्रीटी ईजी हुमम  :)

बर्थ पर चादर बिछा लिया, तकिया भूरे लिफ़ाफ़े से निकाल कर, नियत जगह पर रख लिया, लैपटॉप सिर की तरफ ही रखा, क्या भरोसा बाबा, कब किसकी नियत ख़राब हो जाए। कम्बल ठीक से ओढ़ लेने के बाद, मैंने अपने अडोस-पड़ोस का मुआयना किया। मेरी सामने वाली बर्थ पर कोई था, जो नींद के हवाले हो  चुका था। नीचे वाली बर्थ पर एक महिला, किताब में नज़रें गडाए लेटी हुई थी। उसे देख कर, घुटती हुई बीच वाली बर्थ पर मुझे, अपने फेफड़ों में ताज़ी हवा का अहसास हुआ। हालांकि वो ऐसी नहीं थी, कि उसे देखते ही कोई मर-मिटे, लेकिन ऐसी भी नहीं थी, कि उसे अनदेखा किया जाए। 

शायद मेरे घूरने का अहसास उसे हुआ था, उसने नज़रें उठा कर मुझे देख ही लिया।  नज़रें मिलते ही मैंने, अभिवादन किया और मुस्कुरा दिया। बदले में उसने भी, एक प्यारी सी मुस्कान उछाल दी मेरी ओर । मेरे लिए ये बड़ा अप्रत्याशित था, लेकिन मन कूद गया था, मन मांगी मुराद जो मिली थी। चलो कम से कम, ये बोरिंग सा सफ़र, अब उतनी बोरिंग नहीं होगी । मैं बीच-बीच में उसे, ऊपर लेट कर देखता रहा, और अपनी नयन क्षुधा बुझाता रहा। फिर न जाने कब, मेरी आँख लग गयी। पटरियों पर ट्रेन के दौड़ते पहिये, लगातार लोरी सुना रहे थे और पूरे डब्बे में नींद पसरती चली गई। 

मेरी नींद अचानक खुल गयी, लगा जैसे बहुत देर से, ट्रेन की खटर-खटर की आवाज़ नहीं आ रही है। यात्रियों से पूछने पर मालूम हुआ, ट्रेन तीन घंटे से किसी जंगल में रुकी हुई है। राजधानी आज लेट है और जब-तक वो नहीं निकल जाती, हमें जाने की इजाज़त नहीं है। 

खिड़की के बाहर घुप्प अँधेरा पसरा हुआ था, और महीन बारिश के छीटें, जुगनुओं से चमक रहे थे। डब्बे के अन्दर रूई से बादल उतर आये थे, जिससे अन्दर सर्दी और बढ़ गयी थी। ये रेलवे अधिकारी, पता नहीं क्यों, वातानुकूलित कक्ष को, इतना ठंडा कर देते हैं कि ठण्ड के मारे गुस्सा आ जाता है। एक परिचारक पास से ही गुजर रहा था, उससे कहा मैंने, यार बहुत ठंडा कर दिया है तुम लोगों ने, थोडा कम करो भाई। साब ! रेगुलेटर ख़राब है, कम नहीं हो सकता है। कहिये तो, एक और कम्बल दे सकता हूँ। कौन सी नयी बात है, हमेशा ही रेगुलेटर काम नहीं करता, चल यार वही दे दे। कम्बल मिल जाने से थोड़ी रहत मिली और मैं फिर नींद के आगोश में चला गया।

सुबह पौ फट रही थी और मेरी नींद भी खुल गई। खिडकियों पर कोहरे के भाप, अभी भी छाये हुए थे लेकिन निचली बर्थ पर तो,  उजाला ही उजाला था। बिना हाथ-मुंह धोये हुए, अलसाई आँखें कितनी खूबसूरत लगतीं हैं। मैं खुद से ही बाज़ी लगा रहा था, मानना पड़ेगा, बड़ी खूबसूरत आँखें हैं, कोई भी इन में झाँक कर बेहोश हो जाए और ओपन हार्ट सर्जरी करवा ले। हम दोनों की नज़रें फिर मिली, मैंने गुड मोर्निंग कहा और नीचे उतरने का उपक्रम करने लगा। मुझे नीचे आता देख, उसने अपने बर्थ से चादर हटा दिया और मेरे लिए जगह बना दी। उधर सूरज की किरणे नज़र आने लगीं थी और मेरे दिमाग में भी आशा की किरणें सर उठाने लगीं थीं।

मैं उसकी बर्थ पर बैठ चुका था, अपना परिचय दिया मैंने और बदले में उसने तपाक से, बड़ी ही गर्मजोशी से हाथ बढाया और पटुता से कहा 'नमिता फ्रॉम रांची'। उसका इस बेबाकी से हाथ बढ़ा देना, मैं सकते में आ गया था, ख़ुद को सम्हालते हुए, हौले से मैंने उसका हाथ थाम लिया। मंत्रमुग्ध सा मैं उसे देखता रहा और उसका स्पर्श सोख लिया मैंने। उसकी नर्म-गर्म हथेली और मेरे हाथों में उतर आया ठंडा पसीना, मेरे बदन में चींटियाँ रेंग गयीं थीं। उसकी बोलती हुई आँखें, उन आँखों का पैनापन, और उन आँखों की प्रयासहीन अभिव्यक्ति, उस घुटे हुए वातावरण में ताज़गी का बयार थी। 

उसका मुझे देख कर मुस्कुराना, मुझे अपने बर्थ पर बैठने के लिए जगह देना, अपना नाम बताना और मुझसे हाथ मिलाना, इस बात की चुगली खा रहे थे, कि वो मुझसे बहुत इम्प्रेस्ड थी। इस ख्याल से ही मन, शरीर तपने लगे थे। मैंने छुपी नज़रों से, अनुमान लगाना शुरू कर दिया था, शायद इसकी उम्र तीस होगी। गोल चेहरा, छोटी सी नाक, आखें तो बस नीला समुन्दर। आज मुझे पहली बार, अपने बाल नहीं रंगने का अफ़सोस हुआ था। फिर दिल को तसल्ली दे दी थी, शायद  कुछ महिलाएं बालों में सफेदी पसंद करती हैं। 

मैंने पूछ ही लिया 'कहाँ जा रही हो ? उसके चमकीले सफ़ेद दाँत, और सुडौल होंठों पर मेरी नज़र टिक गयी, 'मेरे हसबैंड छह  महीने से भुवनेश्वर में हैं, एक प्रोजेक्ट से सिलसिले में, उनके पास ही जा रही हूँ।' 'हसबैंड' ! ये शब्द मुझे हथौड़े की तरह लगा था। जी हाँ, देखिये न उनको अकेले रहना पड़ रहा है, पूरे छह महीने हो गए हैं। मैं हर महीने जाती हूँ उनके पास। उनका भी दिल कहाँ लगता है, हमारे बिना। लव मैरेज है न हमारी। दरअसल हम कॉलेज में साथ-साथ थे। सोचा तो नहीं था मैंने, कि कभी ऐसा भी होगा, लेकिन हो ही गया। जिस दिन मैं वापिस आती हूँ, बेचारे मेरे वो, उसी दिन से मेरा इंतज़ार करना शुरू कर देते हैं। ......... वो बोलती जा रही थी और मेरा जबड़ा लटकता जा रहा था। कहीं अन्दर, दिल के अन्दर ट्विन टावर में से एक टावर ढहता जा रहा था। मेरी आवाज़ बहुत मुश्किल से निकल रही थी। लेकिन बात तो आगे भी बढानी थी, पुछा था मैंने 'कब लौट रही हो रांची ?' उसने उतनी ही अदा से कहा  ,'बस दो दिन में, मेरे बच्चों के एक्जाम्स हैं, मेरा बड़ा बेटा एम् .ए कर रहा है और बिटिया फिजिक्स आनर्स। इतने बड़े हो गए हैं, लेकिन मैं न रहूँ तो कोई काम नहीं होता उनसे। मेरा बेटा तो हमेशा कहता है, मोम यू आर दी कूलेस्ट मोम इन दी होल वर्ल्ड। ' ऐसा कहते हुए उसकी चमकीली आँखों में गज़ब  का संतोष था। मेरे अन्दर दूसरा ट्विन टावर भी ढह गया था।

खिड़की के बाहर, दूर-दूर तक फैली हुईं पर्वतमालाएँ, निद्रामग्न तपस्विनी सी लग रहीं थीं, और उनके नीचे बसे हुए शहर, कितने बौने !!


Saturday, December 22, 2012

क्यों ???


खजुराहो के मंदिर में, नारी के अनगिनत मनोभाव, अपार प्रतिष्ठा पाते हैं। ये उत्कीर्ण आकृतियाँ, पूर्णता और भव्यता की, प्रतीक मानी जातीं हैं। यहाँ नारी देह की लोच, भंगिमाएँ और मुद्राएं, लालित्यपूर्ण तथा आध्यात्मिक मानी जाती हैं। विनम्रता और आदर पाती हैं, ये प्रस्तर की मूर्तियाँ।  ऐसी विशुद्ध सुन्दरता की दिव्य अनुभूति के लिए, समस्त कामनाओं से मुक्त हो कर, श्रद्धालु वहाँ जाते हैं। स्त्री के कामिनी रूप की, हर कल्पना को सम्मानित करते हैं, क्योंकि वो अपने हृदय में जानते हैं, यही शक्ति, संभावित माता है, जो सृष्टि को जन्म देगी, जो नारी के सर्वथा योग्य है।

लेकिन सड़क पर आते ही, वो सब भूल जाते हैं।
क्यों ???

Friday, December 21, 2012

मुझे 'भोग्या' शब्द से सख्त आपत्ति है....!

अरे ! लड़का जात है, अब ई सब नहीं करेगा तो का करेगा !!
अरे उसका का है ऊ तो लड़का है, तुम लड़की हो तुमको न सोचना है !!
तो का हुआ लड़का है, कौनो मौगी थोड़े ही न है, उसको यही सब सोभा देता है !!

ऐसी बातें तो बहुत आम सुनने को मिलतीं ही रहीं हैं। जिस तरह फ़िल्मी अंदाज़ में ये हादसा हुआ है, एक चलती बस पर, तो कई फिल्में भी याद आ गयी। और ये भी लगा कि, कला के नाम पर वर्षों से इन कला के ठेकेदारों ने क्या-क्या नहीं परोसा है समाज को !! कहते हैं, फिल्में समाज का दर्पण होतीं हैं। और इनमें समाज को बदलने की शक्ति होती है। फिल्में बनाने की भी एक रेसेपी होती है। कहते हैं समाज को जो पसंद आता है, वही फिल्मों में परोसा जाता है। कला के नाम पर, और समाज को बदलने के जज़्बे से ओत-प्रोत फिल्मकार, हर मसाला फिल्म में एक 'रेप' सीन का होना नितांत अनिवार्य बना गए। बिना इस सीन के फिल्म कभी पूरी ही नहीं हो पाती थी/है। और यही सीन उस फिल्म का सबसे अहम् सीन होता था/है। तो मतलब ये हुआ, कि ऐसे सीन लोगों की पसंद होती है, अब 'लोग' में नारियां भी आतीं हैं, और मुझे पूरा विश्वास है, खुद की अस्मिता की ऐसी भद्द-पिटाई हम नारियां तो नहीं ही चाहती होंगी। तो बाकी के 'लोग' कौन बचे जिनकी पसंद को मद्दे नज़र रखते हुए, इसे प्रस्तुत किया जाता है, पुरुष ही न बचे !!!  यही बचे हुए 'लोग' चटखारे ले-ले कर उस सीन की बात करते हैं। कई-कई बार उसी सीन को देखने जाते हैं । फिल्मों में कभी सामूहिक बलात्कार, कभी एकल बलात्कार, मनोरंजन से वंचित पुरुषत्व धारी, बेचारे पुरुषों के लिए श्रेष्ठ मनोरंजन का साधन था और अब भी है। ये सब दिखा कर फिल्म मेकर्स ने, न सिर्फ इस जहालत को मान्यता दी है, बल्कि इसे अंजाम देने के तरह-तरह के गुर भी सिखाये हैं। तो गोया, बलात्कार डिक्लेयर्ड मनोरंजन था और अब भी है। अब फर्क सिर्फ इतना है, 'कौन बनेगा बलात्कारी' की तर्ज़ पर लोग अपना रियालिटी शो बनाते हैं, और इसमें अब बढ़-चढ़ कर हिस्सा भी लेते  हैं।

दिल्ली का सामूहिक बलात्कार कांड इतनी सुर्ख़ियों में सिर्फ इसलिए आया, क्योंकि उस अभागिन के साथ न सिर्फ बलात्कार हुआ, उसके शरीर को भी तहस-नहस कर दिया गया। अगर सिर्फ बलात्कार हुआ होता, या फिर जान भी ले ली जाती, तो ये हादसा भी, दूसरे हादसों की तरह, बड़े आराम से, पुलिस की फ़ाईलों में गुम हो चुका होता। ये तो, पीडिता की चोटें इतनी गंभीर थीं, जितनी गंभीर चोटें देख कर डाक्टर तक सकते में आ गए थे , इसलिए यह मामला जम कर सामने आ गया। वर्ना ये भी किसी गताल-खाता में दफ़न हो चुका  होता और शीला दीक्षित, बयान दे चुकीं होती, 'कहा था न मैंने रात में बाहर मत निकला करो। बात ही नहीं मानतीं हैं आज कल की लडकियां, मुझे देखो मैं तो दिन में भी अकेली नहीं निकलती बाहर। हर वक्त एक जत्था होता है मेरे साथ।'

वैसे भी बलात्कार तो कभी 'रीयल क्राईम' की श्रेणी में आया ही नहीं है। इसे एक घटना से ज्यदा कुछ नहीं समझा जाता है। बलात्कार हुई नारी से, पुलिस, समाज, उसके अपने और बलात्कारी, बस इतनी ही उम्मीद करते हैं, कि वो अपने कपडे झाडे और उठ खड़ी हो और भूल जाए कि कहीं, कभी उसके साथ कुछ भी हुआ है। न वो खुद परेशान हो, न ही दूसरों को परेशान करे। क्योंकि बलात्कार करना कुछ पुरुष अपना  जन्मसिद्ध  अधिकार समझते हैं और बलात्कार होना स्त्री का कर्तव्य। यूँ ही तो स्त्री को 'भोग्या' नहीं कहा गया है। शर्म आती है सोच कर, नारी की बस इतनी ही औकात है ...'भोग्या' अर्थात भोग की वस्तु ...???? मुझे 'भोग्या' शब्द से सख्त आपत्ति है। 

अक्सर देखती हूँ, जब भी किसी बलात्कारी को मौत की सजा या जननांग काटने की सज़ा, की बात की जाती है, कुछ लोग फुर्ती से इन बातों को, अमानवीय, अनुचित और न जाने क्या क्या कह कर जस्टिफाई करने की कोशिश करते हैं । ऐसी फटाफट दलील का मकसद समझ में नहीं आता है। हाँ ! मन में एक संदेह ज़रूर सिर  उठता है, शायद उनको भी उनके अपने करम याद आ जाते होंगे, और एक भय भी घर कर जाता होगा, कहीं कल उनकी भी पोल-पट्टी न खुले और उनका भी जुलुस न निकले। वर्ना ये समझना भला कितना मुश्किल हो सकता है , कि बलात्कार करना क़त्ल करने के बराबर है। क्योंकि इस दुष्कर्म से गुजरी हुई नारी, हर दिन मरती है। एक हत्या, जब एक बार की जाती है, तो मुज़रिम बहुत बड़ी सज़ा का हक़दार हो जाता है, लेकिन जब कोई हत्यारा, हर दिन हत्या करता हो, तो उसकी सज़ा क्या होनी चाहिए, आप ख़ुद ही निर्धारित  कर लीजिये !

Wednesday, December 19, 2012

क्या बुराई थी उसमें ?

(आज जो भी लिख रही हूँ, शायद उसका ओर-छोर आपको समझ ना आये, क्योंकि मन बहुत विचलित है।)

क्या बुराई थी उसमें ? डॉक्टर बन रही थी वो ...बन जाती तो न जाने कितनों को मौत के मुंह से निकाल लाती वो। लेकिन दुराचारियों ने उसे ही मौत के मुंह में धकेल दिया !! कितने अरमान से, कितने परिश्रम से वो यहाँ तक पहुंची होगी। कितनी तपस्या की होगी उसने और उसके परिजनों ने। लेकिन कुछ ही मिनटों में सब कुछ स्वाहा हो गया !! सिर्फ एक ही तो बुराई थी उसमें, वो एक पढ़ी-लिखी, स्वावलंबी बनाने को आतुर 'नारी' थी। अब तक कल्पना नहीं कर पायी हूँ, क्या-क्या सहा होगा उसने ? क्या-क्या हुआ होगा उसके साथ ? कितनी तकलीफ, कितनी तड़प ..कितना दर्द ???? मैं सोचना भी नहीं चाहती हूँ। बस मैं उसके आस-पास रहना चाहती हूँ। 
 
लेकिन सारा दोष उसके मत्थे मढने को सब तैयार बैठे हैं। रात में क्या ज़रुरत थी फिल्म जाने की, क्या ज़रुरत थी उस बस में बठने की ....क्या ज़रुरत थी ये करने की, क्या ज़रुरत थी वो करने की ...लेकिन कोई ये नहीं कहता क्या ज़रुरत थी उन वहशियों को ऐसा घोर और घृणित काम करने की ...अपने से कमजोर पर दोष का ठीकरा फोड़ना हर सबल का ईश्वर प्रदत्त अधिकार है, जैसे मालिक नौकर पर, धोबी गधे पर, पति पत्नी पर (अगर पत्नी कमज़ोर हो तो ) और फिर फ़ोकट में स्वयंभू 'भगवान्', रक्षक और जाने क्या क्या बने लोग ऐसे अधिकारों का उपयोग करने से वंचित भला कैसे रह सकते हैं। दोष कपड़ों का होता है, शाम दोषी होती है, रात तो महा दोषी होती है और उससे भी बड़ी बात लड़की, युवती, औरत, महिला, स्त्री,जो भी नाम आप पुकार लें, वो तो नरक का द्वार कहाती ही है। बाकी पुरुषों के चरित्र, संस्कार, मानसिकता इत्यादि सब अपनी जगह ठीक हैं ...वाह !! उसमें बदलाव की क़तई भी ज़रुरत नहीं है ..वो सब एकदम टीप-टॉप है।

कैसा घटिया चरित्र, और कैसे लीचड़ संस्कार होते हैं जो, कपड़ों की लम्बाई-छोटाई में बिगड़ जाते हैं, ये कैसा चरित्र हैं जो शाम ढले गिरने को आतुर हो जाता है। कैसा चरित्र है जो एक बच्ची, एक असहाय महिला को देख कर उबाल खाने लगता है।
क्या चाहता है पुरुष वर्ग, कि नारी घर में चौबीस घंटे बैठी रहे। क्या पढाई-लिखाई करना, नौकरी करना, अपना कैरियर बनाना, नारी का अधिकार नहीं है ???
ऐसा क्यों नहीं है कि नारी एक नार्मल ज़िन्दगी जी सकती ? जहाँ सब कुछ सामान्य हो।
कभी सोचा है नारी भी एक साफ़-सुथरी, साधारण सी ज़िन्दगी, जो डर-भय से परे हो, जीना चाहती है, लेकिन वो जी नहीं सकती, इसका एक मात्र कारण हैं ...पुरुष
वर्ना इस दुनिया में लाखों जीव-जंतु हैं, उनसे नारी को कोई खतरा नहीं है, खतरा है तो सिर्फ पुरुषों से और त्रासदी ये है कि नारी इन्हें रक्षक मानती है।
रेप की विक्टिम जो भी होती है, उसके अपने तो उसके माँ-बाप भी नहीं रह जाते। हर जानने वाला या अनजाना उसे ही शक की नज़र से देखता है। कितनी अजीब बात है, बिना किसी कसूर के सारी उम्र की सजा एक बेगुनाह झेलती है और दोषी हमेशा साफ़ बच कर निकल जाते हैं, क्योंकि कोई चश्मदीद गवाह नहीं होता। अंधे कानून को ये बात समझ में नहीं आती कि बलात्कारी गवाहों के सामने बलात्कार नहीं करता, जो उसके साथ होते हैं वो गवाह नहीं, इस काम में बराबर के हिस्सेदार होते हैं। ऐसे काम अंधेरों में और अकेले ही किये जाते हैं।
ऐसे हादसे होते ही रहेंगे तब तक, जब तक :
भारतीय कानून में सुधार नहीं होगा
पुरुष समाज इन्हें रोकने और ऐसे अपराधियों को पकडवाने के लिए आगे नहीं आएगा
पुरुष समाज, महिलाओं के साथ-साथ ऐसे मुजरिमों को सजा दिलवाने के लिए मुहीम नहीं चलाएगा।
जब तक ऐसे केसों की कार्यवाही ज़रुरत से ज्यादा समय लगाएगी
जब तक ऐसे मुजरिम साफ़ बच कर निकलते रहेंगे
जब तक इन वहशियों को कड़ी से कड़ी सजा नहीं दी जायेगी
तब तक ये चलता ही रहेगा, लडकियां पिसतीं ही रहेंगी और ऐसी सनसनीखेज़ खबरें सुर्खियाँ बन कर अखबारों, टीवी की टी आर पी बढ़ातीं ही रहेंगी। हम आप उनपर पोस्ट लिखते रहेंगे और ऐसी पीड़िता सिर्फ एक चर्चा बन कर ख़बरों की भीड़ में खोतीं रहेंगी। दुनिया यूँ ही चलती रहेगी और हम यूँ ही फिर बिफ़रते रहेंगे अगले हादसे पर ...बिना मतलब !! 


New Delhi: More than 50 per cent of women feel unsafe while travelling on Indian roads, with the capital perceived to be the most unsafe of all the metros, a study claimed on Friday. According to the study, 51 per cent of the women surveyed in Delhi, Mumbai, Kolkata and Chennai felt unsafe while travelling on roads while 73 per cent said they were scared of travelling alone at night.
The study conducted by Navteq, global provider of navigation enabled maps, and TNS Market Research claims 87 per cent women regarded Delhi as most unsafe city while Mumbai was touted as the safest city by 74 per cent women. While women in Kolkata felt safer than those in Delhi and Mumbai, most women in Chennai felt their city was safer than Delhi but not as safe as Mumbai.
The study also claimed that to find their way, most women prefered to seek direction from friends and family before setting out while en-route in unfamiliar areas, a similar number will seek directions from strangers with an aim to overcome the fear of losing their way.

कहीं देर न हो जाए !

भारत हमेशा से ही पश्चिम की उतरन पहनने का आदी रहा है। पश्चिम में जो कुछ छूट जाता है या छूटने लगता है भारतीय उसे फट अपना लेते हैं। फिर वो फैशन हो, भोजन हो, त्यौहार हों, सिगरेट हो, लिव-इन रिलेशन हों, पारिवारिक मूल्य हों, समलैंगिगता हो या फिर पूरे देश को चलाने की रणनीति हो, या आम जन की मानसिकता। अभी चार साल पहले अमेरिका के जन साधारण ने 'अब बहुत हुआ' सोचकर एक फैसला लिया और देखते ही देखते पूंजीवादी माफिया टोली और बुश administration को बाहर का रास्ता दिखा दिया । एक बदलाव के सपने के साथ, श्री ओबामा ने सरकार की बागडोर अपने हाथों में सम्हाल ली । जिससे कुछ हद तक, पूंजीवादियों पर लगाम कसी गयी। 

लेकिन, जैसा कि हमेशा होता है, अमेरिका की उतरन, भारत पहनने को अब तैयार है। धीरे-धीरे भारत भी पूंजीवाद की तरफ अग्रसर होता जा रहा है, तभी तो आज देश किसी अम्बानी, किसी बिड़ला के इशारों पर नाचता दिख रहा है। आज भारतीय खुश होते हैं देख कर कि, अम्बानी पृथ्वी के अपार धनिकों में शुमार हैं, लेकिन वो धनी  हुए कैसे ? आपका ही पैसा लेकर न ! धनी होना बुरी बात नहीं है, लेकिन तानाशाही की हद तक धनी हो जाना, ख़तरे की घन्टी है । आज अम्बानी के तानाशाह बनने की शुरुआत हो चुकी है। अब अम्बानी आपकी रसोई तक पहुँच चुका है। आप कितना खाना बनायेंगे, और कैसे खायेंगे, इसका फैसला अब अम्बानी करने लगा है। क्योंकि आपको साल में कितने सिलिंडर मिलेंगे, इसका फैसला आपने अम्बानी के हाथ में दे दिया है। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप कैसे जीते हैं या आप कैसे मर जाते हैं, क्योंकि उसके चूल्हे के लिए गैस की कभी कोई कमी नहीं होगी। अभी तो ये सिर्फ शुरुआत है, आगे-आगे देखिये होता है क्या। यही मौका है, भारतीयों के सम्हल जाने का, आवाज़ उठा कर लगाम कसने का। क्या इतने विशाल देश को चंद लोगों के हाथों में जाने देना सही होगा ? इससे पहले कि अम्बानी या उन जैसे लोग आपकी रसोई, आपका घर, आपकी जमा-पूँजी, आपकी दवाईयाँ यहाँ तक कि आपके जीवन का पुर्जा-पुर्जा वो अपने इख्तियार में कर लें , आप सोते से जाग जाइये और अपने आप को रहन होने से बचा लीजिये।

आज हर आम भारतीय की नज़र, बस चंद ख़ास व्यक्तियों पर ही टिकी रहती है। जैसे इनके अलावा और कोई रहता ही नहीं है भारत में। 'व्यक्ति पूजा' भारतीयों का प्रिय शगल हमेशा से रहा है। कुछ ही इने-गिनों की पकड़ मिडिया पर, और जन-मानस पर इतनी ज़बरदस्त देखने को मिलती है, कि लगता है, इन गिने-चुने लोगों के अलावा, भारतीय समाज में किसी का कोई योगदान ही नहीं है। अफ़सोस होता है यह सब देख कर। क्यों हम भूल जाते हैं कि हमारा देश सिर्फ इनके बल पर नहीं चल रहा है। भारत चल रहा है, लाखों शिक्षकों, लाखों डॉक्टर्स, जाने कितने इंजीनियर्स, कितने ही वैज्ञानिक, अनगिनत मजदूरों और न जाने कौन-कौन हैं, जो हर पल भारतीय समाज के तंतुओं को मजबूत बनाने में अपना योगदान दे रहे हैं। दुःख की बात ये हैं कि, हम कभी उनके बारे में न तो सोचते हैं, न कहीं उनकी चर्चा होती है, न ही उनको कभी सामने लाने की कोशिश की जाती है, यहाँ तक कि इतने बड़े हुजूम के होने का भी हमें भान नहीं है। लेकिन सच्चाई यही है कि भारत की चमक इन Unsung Heros की वजह से ही है, न कि इन चंद घाघ बिजिनेस मेन की वजह से । 

इन पूँजीपतियों के फंदे से जितनी जल्दी हो सके खुद को बचाना होगा ...अमेरिका की ग़लतियों से सीख लेने की जगह उन्हें अपनाना भारतीयों की भारी मूर्खता होगी। देख लीजिये, कहीं देर न हो जाए !


Thursday, December 13, 2012

मेरी एक पुरानी ग़ज़ल और गुनगुनाने की कोशिश ....(Repeat)



मेरी एक ग़ज़ल है .....जिसे बस गुनगुनाने की कोशिश की है.... सुनियेगा ज़रा...
(न जी भर के देखा, न कुछ बात की, बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की, ....की तर्ज़ पर )


हम बोलें क्या तुमसे के क्या बात थी
अजी रहने दो बातें बिन बात की

सहर ने शफ़क़ से ठिठोली करी है
शिकायत अंधेरों को इस बात की

खयालों के तूफाँ तो थमने लगे हैं
लहर कोई डूबी थी जज़्बात की

उजालों से ऊँचें हम उड़ने लगे थे
कहाँ थी ख़बर अपनी औक़ात की

मन सोया जहाँ था वहीँ उठ गया है
शिकन न थी बिस्तर पे कल रात की

मुसलसल वो आया गली में हमारी
नदी बह रही थी इक हालात की

गुबारों से कितने परेशाँ हुए तुम
क्यूँ भूले वो ताज़ी हवा साथ की


मुसलसल= लगातार
गुबारों=धूल भरी आँधी
सहर=सुबह
शफ़क़=सवेरे की लालिमा

Thursday, December 6, 2012

अपने गिरेंबाँ में भी, झाँको तो एक बार ....

अपने गिरेंबाँ में भी, झाँको तो एक बार ....
आज 6 दिसंबर है और वो मार्च महीने की 2 तारीख़ थी ...