Monday, July 29, 2013

इक सानिहा.....!

आज अज़ब इक सानिहा, इस शहर में हो गया
नज़रें मिली, नज़रें झुकी, दिल मेरा खो गया

जाने कितने अब्र आये, इस रौशन आसमान में 
भीड़ उनकी ऐसी लगी, चाँद मेरा खो गया

चाक ज़िगर करते रहे, तेरे तग़ाफ़ुल कई  
दीद से दिल टपक गया और ग़र्द-ग़र्द हो गया

कितना बेअसर रहा, मेरा वज़ूद-ओ-अदम  
वो ख़ुश हुआ या ना हुआ, पर मुझे देख सो गया

हुई क्या तक़सीर 'अदा', कोई बताता नहीं 
इस उधेड़-बुन में दिल, दर-ब-दर हो गया 

सानिहा=दुर्घटना
अब्र=बादल
तग़ाफ़ुल=उपेक्षा
वजूद-ओ-अदम=अस्तित्व और बिना अस्तित्व 
दीद=आँखें
तक़सीर=भूल 


Thursday, July 25, 2013

जे हम तुम चोरी से, बंधे एक डोरी से, जईयो कहाँ ए हज़ूर …!

हमरे घर में, हमरी पीढ़ी ने पहली शादी की,  संतोष जी की जुडवाँ बहन, पुष्पा कृष्णास्वामी की बेटी, शालिनी का शुभ विवाह, आन्द्रे (दामाद फ्रेंच है और लास्ट नेम तो बहुते फ्रेंच है,  बहुते कोसिस किये मगर याद कहाँ रहा भला :)) के साथ २० जुलाई २०१३ को, केनन बीच, ऑरेगन, यू एस ए में, धूम-धाम से संपन्न हुआ …। 
उपर वाले की महती किरपा रही कि, भागते-दौड़ते हम कईसनो समय पर पहुँचिये गए…। जोन दिन भारत से कैनेडा पहुँचे वही रतवा में यू एस की रवानगी थी हमरी, आराम कौन चिड़िया का नाम है, ई कोई जानने भी नहीं दिया। ऊ दिन और आज का दिन है,  ढंग से सोये नहीं हैं, जूता सिलाई से चंडी पाठ किये जा रहे हैं बस्स्स्स्स.… हाँ नहीं तो !!
पेश हैं कुछ तस्वीरें मयंक शैल के सौजन्य से :)

लीज़ा, पुष्पा की सम्धन, प्रज्ञा, पुष्पा और मैं 
मेरी बेटी प्रज्ञा (चिन्नी ) हल्दी की रस्म में 
जय, शालिनी का छोटा भाई 
लीज़ा, प्रज्ञा और मृगांक 

शालिनी (मेहंदी की रस्म )


आन्द्रे, शालिनी और मैं 
पूरा परिवार शादी के बाद



सारे होसियार, सियार बन गए थे, 'हे स्टॉक ' बीच पर 

लीज़ा (हमरी होने वाली बहू) और चिन्नी (प्रज्ञा) मेरी छोनी-मोनी बेटी, केनन बीच पर ऊँची छलाँग लगाते हुए, जीवन में भी ऐसी ही छलांग लगाने का इरादा रखतीं हैं दुनो 
जय, लीज़ा और चिन्नी, केनन बीच पर 
जय, चिन्नी, पुष्पा और लीज़ा 

प्रज्ञा के दोनों  बड़े भाई हमेशा प्रज्ञा के पीछे रहते हैं  :)


मेरा छो छ्वीट बेटा, डॉ मृगांक, जो शिकागो से सिर्फ एक दिन के लिए ही आ पाया 







कुछ लिखने का कोसिस किये हैं, कच्चा-पक्का ही है, आपलोग ज़रा माफ़ी और साफ़ी के साथ नोश फ़र्माइयेगा पिलीज :)


वो पहले तो मेरी सब्र को, हवा देने लगे
कहीं मर न जाऊं सोच कर, फिर दवा देने लगे

पहले जला कर ख़ाक में, मुझको मिला दिया
फिर जन्नत-ए-नशीं की, दुआ देने लगे

है किसे परवाह अब, मेरे ग़म रहें सलामत
फ़जूल में दीदार का, क्यूँ सिला देने लगे

आये थे बड़ी दूर से, मिली शब्-ए-हिज्र सौगात
अब तअस्सुफ़ के कई हाथ, मुझे सज़ा देने लगे

शब्-ए-हिज्र= जुदाई की रात
तअस्सुफ़=पश्चताप