Sunday, August 30, 2009

छोटी सिलेन डियोन... और कुछ चुटकुले



हमारी बिटिया रानी...
प्रज्ञा......शायद हमारे लिए कभी भी बड़ी नहीं होएगी
जैसे हम आज तक बड़े नहीं हो पाए हैं अपनी माँ के लिए...
पिछले साल हम दुर्गा पूजा में रांची में थे...मूर्ति देखने गए थे
माँ ने सारा समय मेरा हाथ पकड रखा.....उस दिन भी माँ की पकड़ सुरक्षा दे रही थी ......
कुछ ऑडियो files देख रहे थे, तो एक गाना मिला .....
सोचा सुना ही दूँ...

बजा बजाया है : संतोष शैल
गायिका : प्रज्ञा शैल (पाँच वर्ष की थी जब )




कुछ चुटकुले :

Saturday, August 29, 2009

पलकें....

हर दिन,
तुम्हारे ख़्वाब
हमारी पलकों पर
दस्तक दे रहे हैं
झिरी में से
अन्दर देख रहे हैं
आज फिर बाहर
वो कतार सजाएं है
न जाने कितनी बार
कुंडा खटखटाएं हैं
पलकें खुलने को
आतुर हो जाती हैं
फिर डर कर
वहीं बैठ जाती हैं
बंद आँखें जागने लगीं हैं
तुम्हारे ख्वाबों से
दूर भागने लगी हैं
अब तो
सारी उम्र हम नहीं सो पायेंगे
तुम ही बताओ
कि अब मेरे ख्वाब कहाँ जायेंगे ??

Friday, August 28, 2009

चुपके से सो जाते हैं....

1)

मसरूफ़ियत में भी हम रस्में उलफ़त निभाते हैं
बेरोज़गारी में भी उनको फ़ुर्सत नहीं मिलती

कहने को तो सारी क़ायनात हमारी ही है,
बस उनके ही दीदार की जुगत नहीं मिलती

है चर्चा बड़ा शहर में, हम खुशकिस्मत हैं
इक उनसे ही अपनी कभी किस्मत नहीं मिलती

जाँ जाए कि रहे वादा तो निभाएँगे ही हम
इस बात पर हमारी,उनसे नीयत नहीं मिलती


2)
चुपके से सो जाते हैं....

देखा है तुम्हें आज
कई सदियों बाद
उम्र कि परछाईयां
नज़र आती थीं तुम पर
सवालों के कारवां
उफन पड़े थे
निगाहों से
पूछा तो नहीं
हम फिर भी बताते हैं
किस्सा-ए-दिल
अपना हाल सुनाते हैं
जिस दिन तुमने
निगाहें फ़ेरी थीं
उसी दिन,
वफ़ा की मौत हो गई थी
सब्र चुपके से खिसक गई
और
उम्मीद भी फ़ौत हो गई
हम तेरी जफ़ा से
कफ़न उतार
अपनी वफ़ा
को पहना आये थे
बाद में,
तेरी यादों के साथ
उसे दफ़ना आये थे
तब से हर रोज़
उस मज़ार पे जाते हैं
जी भर के तुम्हें
खरी-खोटी सुनाते हैं
उसपर भी अगर
जी नहीं भरता
तो अश्कों के दीप जलाते हैं
और एक बार फिर
तेरी जफ़ा ओढ़ कर
कब्र-ए-मोहब्बत में
चुपके से सो जाते हैं

Wednesday, August 26, 2009

काहे कि हम कुछो नहीं समझे हैं.....

भवंरा भवंरा आया रे,
गुनगुन करता आया रे,
फटाक फटाक.....
सुन सुन करता गलियों से अब तक कोई न भाया रे
सौदा करे सहेली का,
सर पे तेल चमेली का,
कान में इतर का भाया रे....
फटाक फटाक...

गिनती न करना इसकी यारों में,
आवारा घूमे गलियारों में
चिपकू हमेशा सताएगा,
ये जायेगा फिर लौटा आएगा,
फूल के सारे कतरे हैं,
जान के सारे खतरे हैं...
कि आया रात का जाया रे...
फटाक फटाक.....

जितना भी झूठ बोले थोडा है,
कीडों की बस्ती का मकौड़ा है,
ये रातों का बिच्छू है कटेगा,
ये जहरीला है जहर चाटेगा...
दरवाजों पे कुंडे दो,
दफा करो ये गुंडे,
ये शैतान का साया रे....
फटाक फटाक...

ये इश्क नहीं आसाँ,
अजी AIDS का खतरा है,
पतवार पहन जाना,
ये आग का दरिया है...
ये नैया डूबे न
ये भंवरा काटे न.....

अरे भाई बात इ है कि हिंदी-युग्म के आवाज़ में हम इ गीत सुने रहे ...उहाँ टिपिया भी दिए हैं कि बाबू हमको इ गीतवा नहीं समझ में आया है......और तब से हम अपना माथा खोजा-खोजा के थक गए हैं ...अभी तक हमरा पल्ले कुछो नहीं पड़ा है.....
इ गुलजार बाबु का फरमा रहे हैं......आपलोग तो बहुते गुनी जन हो .....गीत-गोबिंद का समझ भी रखते हैं ...हम ठहरे लिख-लोढ़ा पढ़-पत्थर टाइप का जंतु ....हमको ऐसा आदमी चाही जे एक-एक लाइन का मतलब बतावे कि इ है का ???
सुने है कि ऐड्स के प्रति जागरूक करे वास्ते इ सब फंडा हुआ है....लेकिन हम को कोई इ समझावे कि इ में का बात ऐसन है जिसको सुन के बात समझ में आ गयी कि इ ऐड्स की जागरूकता की बात कर रहा है......
हम थोड़ा-मोड़ा पढ़े हैं भाई, और कुछ-कुछ भाषा का भी ज्ञान है.....
असरानी इश्टाइल में हमरे दीमग्वा में भी येही बात घूम रहा हैं कि जब हम नहीं समझे तो 'उ लोग' का समझ जावेंगे ???.....कि खाली 'फटाक-फटाक' पर कूद-फांद कर बैठ जावेंगे.......आखिर कोई एन.जी.ओ. के सौजन्य से इ बना है तो भाई संदेशवा तो ठीक से मिलना चाही कि नाही.......

'ये जायेगा फिर लौटा आएगा'

कौन जावेगा और कौन लौट आवेगा ????
मरीज ?
बीमारी ?
तो आप सब गुनी जानो से हमरी प्रार्थना है कि समझा दीजिये हमको काहे कि हम कुछो नहीं समझे हैं.....

Tuesday, August 25, 2009

उड़ान....

उसने फिर
अपने वजूद को
झाडा, पोंछा,
उठाया
दीवार पर टंगे
टुकडों में बंटें
आईने में
खुद को
कई टुकडों में पाया
अपने उधनाये हुए
बालों पर कंघी चलायी
तो ज़मीन कुछ
उबड़-खाबड़ लगी
जिसपर उसने एक
लम्बी सी माँग खींच दी
जो आनंत तक जा
पहुंची
जहाँ घुप्प अँधेरा था
और
शून्य खडा था
उसने
लाल डिबिया को देखा
तो अँधेरे, चन्दनिया गए
होठ मुस्का गए
उँगलियों ने शरारत की
लाली की दरदरी रेत
माँग में भर गयी
आँखों ने शिकायत
का काज़ल
झट से छुपा लिया
होठों ने रात का कोलाहल
दबा दिया
अंजुरी भर आस पीकर
निकल आई वो घर से
अब शाम तक
पीठ पर दफ्तर की
फाइल होगी
या
सर पर आठ-दस ईटें
या कोई भी बोझा
ड्योढी के बाहर
आते ही
मन उड़ गया
पर मन
उड़ पायेगा ?
शाम तक तो उडेगा
फिर सहम जाएगा
जुट जाएगा
इंतजार में
एक और
कोलाहल के
जो आएगा
उसी अनंत
अँधेरे से...

Monday, August 24, 2009

'अदा' ख़ुद से बतियाती रही

काली सी इक रात जाती रही
घटाएँ नीर बरसाती रहीं

कश्ती किनारे बढ़ती गई
तूफाँ से मात खाती रही

खिंजां का ज़िक्र हम करते रहे
फूलों पर बात आती रही

खड़े रहे वो खंजर लिए
जुबाँ मोहब्बत जताती रही

सारे चेहरे अब झूठे लगे
'अदा' ख़ुद से बतियाती रही

Saturday, August 22, 2009

बोलते पत्थर ........(एक नज़्म चोरी की) भाग -२


हरकीरत हकीर......
नाम बोलो तो लगता है कुछ बोला है.....
रचनाएँ पढो तो लगता है कुछ पढ़ा....
तस्वीर देखो तो लगता हैं कुछ देखा .......
और चोरी करो तो लगा कि कुछ चुराया......
यकीन कीजिये यहाँ से चुराने के लिए सोचना भी कित्ता खतरनाक था आप सोच भी नहीं सकते......अरे दूसरी जगहों से तो चुराना मेरे लिए ऐसे था जैसे.....अपने ड्रेसिंग टेबल पर जाना और काज़ल लगाना..... लोग अगर नाराज़ भी होते न तो हम सम्हाल लेते.....कैसे ???? अरे Experience,,,, confidence !!!!!
लेकिन ये मामला थोड़ा टेढा है.....आपलोग समझ रहे हैं न.....अब क्या हैं अच्छी चीज़ें हमेशा कुर्बानियां लेतीं ही रहतीं हैं, शायद इस खूबसूरत रचना को भी ज़रूरत थी एक कुर्बानी की ...तो भाई मैं हाज़िर हो गई.... अब अगर कोई ऐसी-वैसी बात हो गयी और मुझे कुछ हो गया तो कृपया १ मिनट का मौन ज़रूर रखियेगा....

हरकीरत जी का परिचय उनकी जुबानी...
क्या कहूँ अपने बारे में...? ऐसा कुछ बताने लायक है ही नहीं बस - इक-दर्द था सीने में,जिसे लफ्जों में पिरोती रही दिल में दहकते अंगारे लिए, मैं जिंदगी की सीढि़याँ चढती रही कुछ माजियों की कतरने थीं, कुछ रातों की बेकसी जख्मो के टांके मैं रातों को सीती रही। ('इक-दर्द' से संकलित)


और अब पढिये एक नायब कृति, जिसे अनगिनत लोगों ने सराहा है......और आज एक बार फिर मौका मिल रहा है पढने का और सराहने का......
(१)

बोलते पत्थर ........

जब कभी छूती हूँ मैं

इन बेजां पत्थरों को

बोलने लगते हैं

ज़िन्दगी की अदालत में

थके- हारे ये पत्थर

भयग्रसित

मेरी पनाह में आकर

टूटते चले गए

बोले......

कभी धर्म के नाम पर

कभी जातीयता के नाम पर

कभी प्रांतीयता के नाम पर

कभी ज़र,जोरू, जमीन के नाम पर

हम ..............

सैंकडों चीखें अपने भीतर

दबाये बैठे हैं ........!!

(२)

मन्दिर मस्जिद विवाद ....


वह ....

कुछ कहना चाह रहा था

मैंने झुक कर

उसकी आवाज़ सुनी

वह कराहते हुए धीमें से बोला......

मैं तो बरसों से चुपचाप

इन दीवारों का बोझ

अपने कन्धों पर

ढो रहा था

फ़िर......

मुझे क्यों तोड़ा गया ....?

मैंने एक ठंडी आह भरी

और बोली, मित्र .......

अब तेरे नाम के साथ

इक और नाम जुड़ गया था

'मन्दिर' होने का नाम ......!!

(३)

भ्रूण हत्या ......


मन्दिर में आसन्न भगवान से

मैंने पूछा .......

तुम तो पत्थर के हो ....

फ़िर तुम्हें किस बात गम ....?

तुम क्यों यूँ मौन बैठे हो......??

वह बोला .......

जहां मैं बसता हूँ

उन कोखों में नित

न जाने कितनी बार

कत्ल किया जाता हूँ मैं .....!!

(४)

आतंक के बाद ......


सड़क के बीचो- बीच

पड़े कुछ पत्थरों ने ...

मुझे हाथ के इशारे से रोका

और कराहते हुए बोले.....

हमें जरा किनारे तक छोड़ दो मित्र

मैंने देखा .....

उनके माथे से

खून रिस रहा था

मैंने पूछा ....

'तुम्हारी ये हालत....?'

वे आह भर कर बोले .....

तुम इंसानों के किए गुनाह ही

इन माथों से बहते हैं .....!!

हरकीरत जी के लिए... .


यह रचना साभार निम्नलिखित लिंक से ली गयी है.....
http://harkirathaqeer.blogspot.com/

सारंगा तेरी याद में नैन हुए बेचैन, सुहानी रात ढल चुकी, कोई जब तुम्हारा ह्रदय तोड़ दे

देखिये हम जानता हूँ कि हमरा इम्प्रेसन ओतना ठीक नहीं रह गया है.....दू-चार गो चोरी-चकारी किये रहे हम तब से लोग हमको सक का नज़र से देखते हैं........
तो सोचे कि भाई कुछ गीत-गोविन्द सुन्वावेंगे तो लोग खुस हो जावेंगे.....तो आज बुलाएं हैं दू गो गवैया..... बिस्वास कीजिये सुनियेगा तो दांत तरे उनगरी धर दीजियेगा.......अरे हुज़ूर इ महफ़िल में 'हेमेश रेस्मियाँ' वर्जित है......आज तो आप सुनिए हिंदी ब्लॉग जगत के बहुते रोसन दू गो सितारा को .....
१. श्री शरद तैलंग
२. दिलीप कवठेकर
एतना सुन्दर गीत हम सुनवा रहे हैं कि आप भी याद रखियेगा कि कोई मिली थी एगो 'अदा' हाँ कह दे रहे हैं.....

शरद तैलंग जी के नाम से आप सभी परिचित हैं, जी हाँ शरद जी को हमलोग हिंदी फ़िल्मी संगीत का चलता-फिरता एन्सैक्लोपेडिया कहते हैं, और हम सब इनसे हारते रहे हैं 'आवाज़' के 'ओल्ड इस गोल्ड' प्रतियोगिता में...और विश्वास कीजिये इनसे हार कर मुझे हमेशा ख़ुशी हुई क्यूंकि कुछ न कुछ नया सीखने को मिला...
शरद जी कोटा राजस्थान में रहते हैं और सुगम संगीत गायक,व्यंगकार रंगकर्मी,ग़ज़लकार,कवि,आयोजक, पूर्व कार्यकारिणी सदस्य राजस्थान संगीत नाटक अकादमी जोधपुर,संयोजक सप्त शृंगार संस्था के हैं..
इनकी आवाज़ का जादू अब चलने ही वाला है बस आप संभल जाइए....

शरद तैलंग - स्टेज पर


शरद तैलंग - सारंगा तेरी याद में नैन हुए बेचैन



शरद तैलंग - सुहानी रात ढल चुकी


दिलीप कवठेकर
किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार,किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम है. बहुत कुछ पाया है इस ज़िंदगी से. संगीत,रंगकर्म,चित्रकारी,फोटोग्राफ़ी में किये अव्यावसायिक प्रयोग और व्यवसाय में वास्तुशास्त्र, इंजिनीयरींग और मॆनेजमेंट के कुछ भुगते ,कुछ आज़माये फ़ंडे. कुछ इहलोक की कुछ परलोक की. कुछ आत्मा की, कुछ परमात्मा की.. कुछ पायें , कुछ लौटायें..




दिलीप कवठेकर - कोई जब तुम्हारा ह्रदय तोड़ दे

अब आप सुन लिए हैं सब गितवा...अब बताइयेगा कि हम ठीक बोले कि नहीं. ...तो फिर ज्यादा मत सोचिये न......हमरे गायक लोगन का हौसला बढाइये और सच-सच कह दीजिये कुछ.......बहुत खुस हो जावेंगे दुनो...

Thursday, August 20, 2009

पंख मेरे झड़ रहे हैं

सावधानी.....यह कविता है किसीकी कहानी नहीं...यह कविता सिर्फ कवयित्री की कल्पना की उपज है

हम खुद से बिछड़ रहे हैं
हालात बिगड़ रहे हैं

अब कहाँ उड़ पायेंगे
पंख मेरे झड़ रहे हैं

तूफाँ कुछ अजीब आया
हिम्मत के पेड़ उखड़ रहे हैं

महफूज़ मकानों में बसे थे
वो मकाँ अब उजड़ रहे हैं

हमसफ़र साथ थे कई
पर आज बिछड़ रहे हैं

आईना है या हम हैं 'अदा'
अक्स क्यूँ बिगड़ रहे हैं ??

हाँ तो अब आप टिपियाने का सोच रहे हैं ...अरे नहीं भाई जबरदस्ती थोड़े न कह रहे हैं..उ का है कि खाली याद दिला रहे हैं कि हमरा 'पंख' 'बाल' नहीं झडा है महराज/महराजिन.....बस एतने याद रखिये,......गिरेगा......माकिल कुछ समय बाद ....का ? .......पंख...बाल ...और का !!!

Wednesday, August 19, 2009

सवेरा..

दूर क्षितिज में सूरज डूबा
साँझ की लाली बिखर गयी
रात ने आँचल मुख पर डाला
चाँद की टिकुली निखर गयी
ओस की बूँदें बनी हीरक-कणी
जब चन्द्र-किरण भी पसर गयी
तारे टीम-टीम मुस्काते नभ पर
जुगनू पूछे जुगनी किधर गयी ?

एक रात मेरे जीवन में आई
उसमें ऐसा कुछ कहीं न था
न साँझ की लाली ही बिखरी
चाँद का टीका सजा न था
न उम्मीद की किरण नज़र आई
विश्वास का तारा दिखा न था
आंसू के सैलाब बहे थे और
जुगनू-जुगनी का पता न था

बरस पर बरस बीत गए
पर वो रात तो जैसे ठहर गयी
युग बीते न जाने कितने
और लगता था एक पहर गयी
न जाने किस भावः ने कब
किस भावः से मेरे झगड़ गई
इक चिंगारी फूटी कहीं
और शोला बन वो लहर गई

अब भी रात वहीँ ठहरी है
पर बहुत उजाला लगता है
किरण-किरण से जुड़ जाते हैं
उम्मीद सुनहरा लगता हैं
चाँद का टीका भूल गई मैं
विश्वास तिलक सा लगता हैं
जीवन सी बस जी उठी मैं
हर साँस सवेरा लगता है

Tuesday, August 18, 2009

काँच के रिश्ते...

काँच के रिश्तों
का टकराना
टूटना,
और दूरियाँ, बढ़ जाना
न जाने
ये सिलसिला
कब रुकेगा
शायद तब
जब
रिश्ते
टूट जायेंगे
फिर, इतने काँच हम कैसे
समेट पायेंगे ?
कोई न कोई तो चुभेगा
और
तब !
एक रिश्ता बनेगा
जिसमें
दरार होगी
और यकीन मिट
जाएगा
रिश्ता
शक़ में लिपट
जाएगा !

कोई शक हो तो बता कर चलें

नतीजा लगावट का जाने क्या निकले
मोहब्बत में वो आजमा कर चले

आँखे लगीं हीं रहीं थीं फिर दर पे
इक झूठी झलक दिखा कर चले

ख्यालों में उनके फना हो गए हम
दिलों पे वो बिजली गिरा कर चले

हमें तो है उनकी ही लागी लगन
वो आये और बस मुस्कुरा कर चले

'अदा' है मेरा तक्ख्ल्लुस सुनें
कोई शक हो तो बता कर चलें

Monday, August 17, 2009

हमारा राष्ट्रीय गान....

हमारा राष्ट्रीय गान क्या सच-मच राष्ट्र के लिए ही है ?
कहते हैं गुरुदेव रविन्द्र नाथ ठाकुर ने इसे जॉर्ज पंचम की स्तुति में लिखा था...
आप क्या कहते हैं ?????

जन गण मन अधिनायक जय हे,
(हे भारत के जन गण और मन के नायक(जिनके हम अधीन हैं)
भारत-भाग्य-विधाता
(आप भारत के भाग्य के विधाता हैं)
पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा,
(वह भारत जो पंजाब, सिंध, गुजरात, महाराष्ट्र,)
द्वाविड़, उत्कल, बंग
(तमिलनाडु, उड़ीसा, और बंगाल जैसे प्रदेश से बना है)
विन्ध्य, हिमाचल, यमुना-गंगा,
(जहाँ विन्ध्याचल तथा हिमालय जैसे पर्वत हैं और यमुना-गंगा जैसी नदियाँ हैं)
उच्छल जलधि तरंगा
(और जिनकी तरंगे उच्छश्रृंखल होकर उठतीं हैं)
तव शुभ नामे जागे
(आपका शुभ नाम लेकर ही प्रातः उठते हैं )
तव शुभ आशिष माँगे
(और आपके आर्शीवाद की याचना करते हैं )
जन-गण-मंगलदायक जय हे,
(आप हम सभी जनों का मंगल करने वाले हैं, आपकी जय हो)
गाहे तव जयगाथा,
(सभी आपकी ही जय की गाथा गायें)
जन-गण-मंगलदायक जय हे
(हे जनों का मंगल करने वाले आपकी जय हो)
भारत भाग्य विधाता
(आप भारत के भाग्य विधाता हैं)
जय हे, जय हे, जय हे,
(आपकी जय हो, जय हो, जय हो,)
जय, जय, जय, जय हे
(जय, जय, जय, जय हो)

मेरा बनवास

ज़िन्दगी है रूह से
जिस्म एक लिबास

दूर रहना तुमसे
है मेरा बनवास

तेरी ख़ुशी मेरे नगमें
दीद की है आस

तेरी नज्र क्या करूँ
ख़ाली दामन पास

फूल यादों के खिले
पहनूँ खुशबू लिबास

Saturday, August 15, 2009

जन्नत सा एक पिंजरा बना लीजिये

रौनकें मेरे दिल की चुरा लीजिये.
देना है कुछ मुझे तो सजा दीजिये

लब हैं सूखे हुए जैसे साहिल कोई
आह की इनमें कश्ती चला लीजिये

खिल उठे हैं तसल्ली के बूटे, कई
शाखे-उम्मीद पर भी उगा लीजिये

हैं सदी की कतारों में लम्हे खड़े
गिन नहीं पायेंगे इनको सजा लीजिये

नीम-बाज आँखें कब से हैं सूनी पड़ीं
मुट्ठी भर ख्वाब इनमें छुपा लीजिये

है कहाँ कोई महफूज़ ज़माने में, तो
एक जन्नत सा पिंजरा बना लीजिये

थोडी सी हँसी


orkut graphics, glitters, tricks, games and comments



स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

बाँकेलाल की महफ़िल सजी है...सबको बुलाया है आप भी आइये और थोडी सी हँसी, थोडी सी मुस्कुराहट नोश फरमाइए....

Friday, August 14, 2009

कुछ भी...

कुछ ठहरे लम्हों ने
पत्थर उठाये हैं
बे-पैरहन यादों पर
जम कर चलायें हैं

शब्-ऐ-खामोशी की
आवाज़ चुरा
हौसले की इक धुन
नजदीकियों ने गाये हैं

अब कैसा तकल्लुफ
तराश दिया मुज्जसिम
टूटते तारों की
रौशनी पाये हैं

कभी फलक पर
या गर्दिश के पार
फेरा मुँह आफ़ताब से
चाँद हम बुझाये हैं

उम्मीद के सामने
खड़ी है 'अदा'
रोनी सी शक्ल लिए
हाथ हम हिलाए हैं

( बे-पैरहन - बिना कपडों के)
(गर्दिश : time)
(फलक : vault of heaven)

Thursday, August 13, 2009

यूँ हीं..

ख्याल आते रहे
सोहबत में
ज़रुरत के
ज़िन्दगी गुज़रती रही

इशारों को कैसे
जुबां दे दें हम
मोहब्बत बच जाए
दुआ निकलती रही

रेत के बुत से
खड़े रहे सामने
पत्थर की इक नदी
गुज़रती रही

रूह थी वो मेरी
लहू-लुहान सी
बदन से मैं अपने
निकलती रही

बेवजह तुम
क्यों ठिठकने लगे हो
मैं अपने ही हाथों
फिसलती रही

आईना तो वो
सीधा-सादा था 'अदा
मैं उसमें बनती
संवरती रही

Tuesday, August 11, 2009

हनममम्म...सोलिड है बाप

अरे बिडू मालूम क्या
उधर कुछ शान पत्ती
गुमराह ख्याल
कुछ लोचा कियेला है
अपुन का ज़हन की
गल्ली में
कब से मस्ती कर रहेला है
मालूम !!
क्या बोला ?
हकीकत भाई समझायेगा
अरे हकीकत से
ख्याल का ३६ का
आंकडा है रे
खाली-पिली
भंकस होयेगा
बोला अपुन उधर नई
जाने का
अहसास का अक्खा
दीवार है
सोलिड
टकरा जायेंगा
तो बहुत पछ्तायेंगा
मान्तायिच नईं और
गयेला उधर को
बिंदास..
और हुआ क्या ?
टकराया न..
और अब कल्टी मारा है !!
बोला चुप करके बैठने का
लेकिन शाणा है
अबी ज़मीर का खोली के
आगू राड़ा करेगा तो
कोंचा तो मिलेंगा
हाँ तो मिला !!!
सोलिड मिला..
फिर अपनी नियत हैं न
अरे नियत
उससे पंगा लिया
नियत ने उसका बैंड
बजा डाला
फिर
अपना दीमाग भाई
को मालूम चला
प्यार से बुलाया
इस गधेला ख्याल को
बहुत समझाया
मक्खन का माफिक समझाया
पर क्या समझेगा रे
एकदम धिबचुक है
दीमाग का भी भेजा
खिस्केला है बाप !!!
उसने अबी का अबी
जुबां को ताला मारा
और इस हलकट ख्याल
का उधरिच गेम कर डाला
ह्न्म्म्म
दीमाग भी न...
सोलिड हैं बाप !!!
चल अब तू भी खिसक ले...

work permit तुम्हारा ढुलमुलाने लगे

(पैरोडी : कोई जब तुम्हारा ह्रदय तोड़ दे तड़पता हुआ जब कोई छोड़ दे )
मैं karaoke का ट्रैक डाल रही हूँ, ये पैरोडी गाइए, या original गाइए, मैं अपने ब्लॉग पर आपकी आवाज़ भी डाल सकती हूँ अगर आप भेजेंगे तो ...शायद पब्लिक वोट भी करा दें और क्या पता समीर जी अपनी किताब ही दे दें इनाम में...पूछा भी नहीं है उनसे लेकिन विश्वास है मना नहीं करेंगे....इसे कहते हैं over confidence...हा हा हा हा हा )..
फिलहाल तो गाइए और खुश होइए...ओरिजनल या पैरोडी कुछ भी........!!!!!

work permit तुम्हारा ढुलमुलाने लगे
body shoppers भी कन्नी कटाने लगे
तब तुम मेरे पास आना प्रिय
इ फलैटवा खुला है खुला ही रहेगा तुम्हारे लिए

अभी तुमको मेरी ज़रुरत नहीं
प्रोजेक्ट जितने चाहोगी मिल जायेंगे
अभी कंप्यूटर की दुनिया है ये
contract जितने चाहोगी मिल जायेंगे
dead line तुम्हें जब डराने लगे
team leader जब pink-slip दिखाने लगे
तब तुम मेरे पास आना प्रिय
इ मुण्डी झुका है झुका ही रहेगा तुम्हारे लिए

work permit तुम्हारा ढुलमुलाने लगे
body shoppers भी कन्नी कटाने लगे

java कभी java script बनाओ
कैसे भी सबको टहलाते रहो
डरने की कोई ज़रुरत नहीं
per diem का रेट बढाते रहो
जब project delivery से डरने लगो
milestones में ही अपने जब घिरने लगो
तब तुम मेरे पास आना प्रिय
इ बलबवा जला है जला ही रहेगा तुम्हारे लिए

work permit तुम्हारा ढुलमुलाने लगे
body shoppers भी कन्नी कटाने लगे
तब तुम मेरे पास आना प्रिय
इ फलैटवा खुला है खुला ही रहेगा तुम्हारे लिए




कोई जब तुम्हारा ह्रदय तोड़ दे --फ़िल्म: पूरब और पश्चिम

कोई जब तुम्हारा ह्रदय तोड़ दे

तड़पता हुआ जब कोई छोड़ दे

तब तुम मेरे पास आना प्रिय

मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा, तुम्हारे लिए

अभी तुम को मेरी जरुरत नही, बहुत चाहनेवाले मिल जायेंगे

अभी रूप का एक सागर हो तुम कँवल जितने चाहोगी खिल जायेंगे

दर्पण तुम्हे जब डराने लगे, जवानी भी दामन छुडाने लगे

तब तुम मेरे पास आना प्रिय

मेरा सर झुका है, झुका है रहेगा, तुम्हारे लिए

कोई शर्त होती नहीं प्यार में, मगर प्यार शर्तों पे तुमने किया

नजर में सितारे जो चमके ज़रा, बुझाने लगी आरती का दिया

जब अपनी नजर में ही गिरने लगो,

अंधेरो में अपने ही घिरने लगो

तब तुम मेरे पास आना प्रिय

ये दीपक जला है, जला ही रहेगा तुम्हारे लिए

Monday, August 10, 2009

मेरे दिल का quarter कर लो occupy

इस कविता की पहली दो पंक्तियाँ बचपन में गाती थी....
उसके बाद कुछ याद नहीं रहा..सोचा इसको फिर से नया रूप दिया जाए...
ये दो पंक्तियाँ किसने लिखी मुझे नहीं मालूम....
ये बिलकुल ऐसे ही है जैसे घो-घो रानी कितना कितना पानी......हम नहीं जानते किसने लिखा...
फिर भी नया रूप है..आपको पसंद आएगा ...

मेरे दिल का quarter कर लो occupy
मत देना darling rent का single पाई

साँसों कि गलियों में तुम मजे में jogging करना
थक जाओ और मर्ज़ी हो तो ठंडा पानी पीना
मेरे नैन करेंगे water supply
मत देना darling rent का single पाई

धड़कन मेरी थपकी देगी अरमां का बिछौना
mood करे और नींद लगे तो मजे में उस पर सोना
मेरा heart करेगा heating सप्लाई
मत देना darling rent का single पाई

दोनों auricles तेरे,darling ventricles भी तेरा
बिजली-पानी मेरा खर्चा नहीं लगेगा ढेला
रानी मेरी बन जाओ बाकी को good bye
मत देना darling rent का single पाई

मेरे दिल का quarter कर लो occupy
मत देना darling rent का single पाई

Sunday, August 9, 2009

बात वो दिल की ज़ुबां पे कभी लाई न गई

बात वो दिल की ज़ुबां पे कभी लाई न गई
चाह कर भी उन्हें ये बात बताई न गई

नीम-बाज़ आँखें लगाने लगी हैं सेक हमें
आब से घिरते रहे आग बुझाई न गई

कौन है हम, हैं कहाँ,क्यों हैं ये पूछा तुमने
थी खबर हमको मगर तुमको जताई न गई

तार-तार हो गए हम जब तार-तार तुम कर गए
तार होकर भी रिश्तों की तारें बचायी न गई

दर्द का दिल पे असर कैसा है मुश्किल गुजरा
बात यूँ बिगड़ी के फिर बात बनाई न गई

जुनूँ-ए-इश्क ने फिर ख़ाक में मिला ही दिया
सलवटें माथे की हमसे तो मिटाई न गई

हम यहाँ आधे बसे, आधे हैं अब और कहीं
ज़िन्दगी बाँट कर भी दूरी मिटाई न गई

राह में उनकी नजर हम है बिछाए बैठे
अब शरर ढूंढें कहाँ, रौशनी पाई न गई

कुछ तो है बात के चेहरे पे कई सोग पड़े
हंसती है कैसे 'अदा' रुख से रुलाई न गई

Friday, August 7, 2009

मुहावरे ही मुहावरे

श्री गणेश हुआ
आँखें मिली
आँखें चार हुई
रातों की नींद हराम हुई
दिल आसमान में उड़ने लगा
दिल लगा लिया
दिल बल्लियों उछल गया
दिल चोरी हो गया
होश गुम हुए
दिल का कँवल खिल गया
प्रेम की पींगें बढ़ी
प्यार परवान चढा
दिल पर हाथ रख कर
कसमें खाने लगे
चाँद सितारे तोड़ कर लाने लगे
चौदहवी का चाँद हुए
कभी ईद का चाँद,
कभी पूनम का चाँद नज़र आये
सपनों के महल बनने लगे
फिर एक दिन
शहनाई बजी
हाथ पीले हुए,
डोली चढ़ गए
घोडी चढ़ गए
घर बसाया
घी के दीये जलाये
दो बदन एक जान हुए
दिन में होली रात दिवाली हुई
दिन हवा हुए,
प्रेम के सागर में डूबे उतराए
दसों उंगली घी में हो गए
दरवाज़े पर हाथी झूमने लगे
फिर धीरे-धीरे
दिल बैठने लगा
नानी याद आने लगी
नमक तेल का भावः समझ में आया
नून-तेल लकड़ी जुटाने में जुट गए
रात-दिन एक कर दिया
दीमाग लड़ाने लगे
कभी दाल नहीं गली
दिन को दिन रात को रात नहीं समझा
समय की चक्की में पिस गए
पाँव भारी हुए
आँख के तारे आये
कई टुकडों में बँट गए
पाँव में पत्थर बंध गए
काठ की हांडी बार-बार चढाने लगे
बच्चे सर खाने लगे
आँखें पथराने लगी
दिन में तारे नज़र आने लगे
दांतों चने चबाने लगे
दाँत से कौडी दबाने लगे
कभी दाँत निपोरा
तो कभी दाँत दिखाने लगे
कुछ ऐसे मिले
जिनके मुंह में राम बगल में छूरी थी
मुफलिसी में आटा भी गीला हुआ
मुसीबत अकेली नहीं आई
दर-दर की ठोकर खाने लगे
दिल खट्टा होने लगा
दाई से पेट छुपाने लगे
दाँव पे दाँव चलाने लगे
दलदल में फँस गए
दरिया तक जाते हैं और प्यासे लौट आते हैं
दिल का गुब्बार निकालने लगे
दामन बचाने लगे
तीन-पांच बहुत किया
जाने कब दिन फिरेंगे
अब तो लगता है
दिल कड़ा करना पड़ेगा
पीछा छुड़ाना पड़ेगा
कहीं खो जायेंगे
काफूर हो जायेंगे
लगता है
नौ-दो ग्यारह हो जाएँ

मेजर साहब...I am sorry.....



orkut graphics, glitters, tricks, games and comments



यह हमारी चोरी करने की तीसरी रात थी...., निकले तो थे ये सोच कर कि हम चोरी करेंगे किसी अच्छी सी नज़्म की, या फिर किसी दिल फरेब ग़ज़ल की, पहुँच भी गए थे ऐसे ही एक मकां पर, सुना था ...इस ज़मीन पर गज़लें गुनगुनातीं हैं, नज्में रक्स करतीं हैं और कहानियाँ मुस्कुराती हैं, लेकिन वहाँ जो मिला उसके आगे सारी गज़लें झुकी हुईं थीं, नज्में बिछी हुई थी, और कहानियाँ सज़दा कर रही थी... बस हम वही लेकर चले आये... आपके लिए... जो न कोई कहानी है, न अफ़साना, न ग़ज़ल, न ही नज़्म......ये एक हकीक़त है और सिर्फ हकीक़त, जो हक़दार है एक-एक हिन्दुस्तानी की सलामी की, और आज हमें यकीं है, सलामी... ज़रूर मिलेगी ...

यह संस्मरण है हिंदी ब्लॉग जगत के बहुत ही रौशन सितारा श्री गौतम राजरिशी जी का, जो भारतीय सेना में 'मेजर' हैं, ज़ाहिर है कुछ इन्हें 'मेजर साहब' कहते हैं, कुछ 'गौतम जी' और कुछ प्यार से 'हुजूर' भी कहते हैं

राजरिशी जी हैं तो मेजर लेकिन ग़ज़ल से ऐसी आशनाई न आपने देखी होगी न ही हमने देखी है, लोग इनकी ग़ज़लों को 'मीर साहब' की ग़ज़लों से कम नहीं मानते ...इनकी कलम से उभरे जज़्बात पढ़नेवालों में उम्मीद जगाती है, जो भी पढता है जहाँ होता है, वही से इन्हें कड़क सेलूट मारता है....
मेजर साहब की तारीफ़ करने की ताब हममें कहाँ होगी भला....हम ठहरे एक अदना चोर...हम आपको एक लिंक देंगे इस लेख के अंत में, उस पर क्लीक करेंगे और वहीँ पहुंचेंगे जहाँ पूरी दुनिया 'मेजर साहब' बारे में क्या कहती है इसकी झलक मिलेगी आपको.... फिलहाल हम अर्पित करते हैं कुछ श्रद्धा-सुमन मेजर गौतम राजरिशी जी के साथ, एक 'वीर बांकुड़े' को ...

मेजर ऋषिकेश रमानी - शौर्य का नया नाम

विगत दस-एक सालों में, जब से ये हरी वर्दी शरीर का एक अंग बनी है, इन आँखों ने आँसु बहाने के कुछ अजब कायदे ढ़ूंढ़ निकाले हैं। किसी खूबसूरत कविता पे रो उठने वाली ये आँखें, कहानी-उपन्यासों में पलकें नम कर लेने वाली ये आँखें, किसी फिल्म के भावुक दृश्‍यों पे डबडबा जाने वाली ये आँखें, लता-रफ़ी-जगजीत-मेहदी-ब्रायन एडम्स की आवाजों पर धुंधला जाने वाली ये आँखें, मुल्क के इस सुदूर कोने में फोन पर अपनी दूर-निवासी प्रेयसी की बातें सुन कर भीग जाने वाली आँखें, हर छुट्टी से वापस ड्‍यूटी पर आते समय माँ के आँसुओं का मुँह फेर कर साथ निभाने वाली ये आँखें---- आश्‍चर्यजनक रूप से किसी मौत पर आँसु नहीं बहाती हैं। परसों भी नहीं रोयीं, जब अपना ये "यंगस्टर" सीने में तेरह गोलियाँ समोये अपने से ज्यादा फ़िक्र अपने गिरे हुये जवान की जान बचाने के लिये करता हुआ शहीद हो गया।

शौर्य ने एक नया नाम लिया खुद के लिये- ऋषिकेश रमानी । अपना छोटु था वो। उम्र के 25वें पायदान पर खड़ा आपके-हमारे पड़ोस के नुक्कड़ पर रहने वाला बिल्कुल एक आम नौजवान, फर्क बस इतना कि जहाँ उसके साथी आई.आई.टी., मेडिकल्स, कैट के लिये प्रयत्नशील थे, उसने अपने मुल्क के लिये हरी वर्दी पहनने की ठानी। ...और उसका ये मुल्क जब सात समन्दर पार खेल रही अपनी क्रिकेट-टीम की जीत पर जश्‍न मना रहा था, वो जाबांज बगैर किसी चियरिंग या चियर-लिडर्स के एक अनाम-सी लड़ाई लड़ रहा था। आनेवाले स्वतंत्रता-दिवस पर यही उसका ये मुल्क उसको एक तमगा पकड़ा देगा। आप तब तक बहादुर नहीं हैं, जब तक आप शहीद नहीं हो जाते । कई दिनों से ये "शहीद" शब्द मुझे जाने क्यों मुँह चिढ़ाता-सा नजर आ रहा है...!!! छः महीनों में तीन दोस्तों को खो चुका हूँ...पहले >उन्नी, फिर >मोहित और आज ऋषि ।

सोचा कुछ तस्वीरें दिखा दूँ आप सब को इस unsung hero की, शौर्य के इस नये चेहरे की:-







भारतीय सेना अपने आफिसर्स-कैडर्स पर गर्व करती है, जिन्होंने हमेशा से नेतृत्व का उदाहरण दिया है। स्वतंत्रता के बाद की लड़ी गयी हर लड़ाई का आँकड़ा इस बात की कहानी कहता है... चाहे वो 47 की लड़ाई हो, या 62 का युद्ध या 65 का संग्राम या 71का विजयघोष या फिर 99 का कारगिल और या फिर कश्मीर और उत्तर-पूर्व में आतंकवाद के खिलाफ़ चल रहा संघर्ष।

हैरान करती है ये बात कि देश के किसी समाचार-पत्र ने ऋषि के इस अद्‍भुत शौर्य को मुख-पृष्ठ के काबिल भी नहीं समझा...!!!
i salute you, Rushikesh !


और अब लिंक :
http://gautamrajrishi.blogspot.com/2009/07/blog-post_31.html

जय हिंद !!!

Thursday, August 6, 2009

मेरी वाईफ का भईया (पैरोडी)



पैरोडी (मेरी सपनों की रानी कब आएगी तू)
VERY IMPORTANT : सबसे पहले मैं अपने भाई से हाथ जोड़ कर माफ़ी मांगती हूँ, PLEASE नाराज़ नहीं होना...बस ये परोडी है कटाक्ष नहीं..
अब आप साथ-साथ गाइए, मैं इस गाने को बना नहीं पायी हूँ लेकिन एक दिन ये भी बन ही जायेगा..
फिलहाल तो असली गीत सुने और साथ साथ गाकर देखें, और बताएं कैसा लगा.....

हे हे आ आ आ .....
मेरी वाईफ का भईया कब जाएगा तू
कब तक मेरा भेजा और खायेगा तू
और कब तक मुझको रुलाएगा तू
चला जा तू चला जा

तनखा है थोड़ी, पास न कौड़ी
तुझको पकौड़ी कौन खिलाये
तनखा है थोड़ी, पास न कौड़ी
तुझको पकौड़ी कौन खिलाये
कितना क़र्जे के नीचे दबाएगा तू

जब तू जाए, चैन आ जाए
सास को मेरी संग ले जाए
जब तू जाए, चैन आ जाए
सास को मेरी संग ले जाए
मिस्ड काल जी अब मेरा पायेगा तू

मेरी वाईफ का भईया कब जाएगा तू
कब तक मेरा भेजा और खायेगा तू
और कब तक मुझको रुलाएगा तू
चला जा तू चला जा
चला जा तू चला जा
चला जा तू चला जा......

Wednesday, August 5, 2009

सात जनम तक साथ निभाना

दुल्हन बन तेरे घर आना
संग-संग चलते ही जाना
क़तरा क़तरा जुड़ते जाना
चप्पे चप्पे पे छा जाना
कभी खुशबू आबशार बने तो
कभी हो कोई तेल पुराना
कभी आग का गोला हो तुम
कभी हो शबनम मोती दाना
कभी बातों से देह जलाना
नज़रों में ही कभी छुपाना
धूप-छाओं, के साए में
बस यह जीवन जीते जाना
अंत समय तेरे हाथों से
मुख में गंगाजल पा जाना
फिर दुनियाँ में दोबारा आना
फिर तुझसे जुड़ते ही जाना
फिर संग चलते ही जाना
कभी खुशबू आबशार का आना
तो कभी वही तेल पुराना
फिर वही वो आग का गोला
और कभी वही मोती दाना
फिर कभी मेरी देह जलाना
और कभी आँखों में बसाना
फिर जीवन का अंत आजाना
तेरे हाँथों एक बार फिर
मुख में गंगाजल पा जाना
बस ऐसे ही रोते गाते
तुझ संग सातों जनम निभाना

Monday, August 3, 2009

देयर इज समवन हू स्टिल लव्ज यू


हाँ तो चोरी की गयी रचनाओं की श्रृंखला में मेरी दूसरी पेशकश....इस रचना के मौलिक अधिकार जिनके पास हैं वो शहर से बाहर हैं, शायद १-२ दिन के लिए...उन्हें तो पता भी नहीं है क्या हो रहा है....लेकिन शायद चोरी का मतलब भी यही होता है, जिसका सामान चोरी जाए उसे पता ही न चले....!!!!
किशोर जी की कहानियों की तारीफ करना तो वैसा ही है जैसे....सूरज को घी दिखाना....न्न्न्नहीं नहीं मेरा मतलब है सूरज को दीया दिखाना...पढियेगा तो पता चल जायेगा, हम क्या कहना चाह रहे हैं..

Kishore Choudhary :
रेत का समंदर, माटी का घर, उड़ती धूल, तपते दिन, ठंडी रातें, अपनों की छावं, बिछड़े मित्रों की स्मृतियाँ, मुस्कुराते दर्द, ऊँघती खुशियाँ, लाल मिर्च की चटनी और बाजरे की रोटी के बीच इन सब से बेमेल कॉफी पीने की तलब हर समय...

ये था किशोर जी का परिचय उन्ही की ज़बानी :
और अब पढें एक ऐसी रचना जिसे आप एक साँस में ही पढ़ जायेंगे...क्यों यकीन नहीं आया....तो लगी शर्त !!!!! आप शुरू तो कीजिये.... क्या कहा जीतने पर क्या मिलेगा.....वही एक और चुराया हुआ माल .....हा हा हा हा ....

देयर इज समवन हू स्टिल लव्ज यू

मन के दौड़ते घोड़ों का रमझोल अनियंत्रित निरंकुश सा बीते दिनों के दृश्यों को इतनी तीव्र गति से बदल रहा था कि कोई स्पष्ट घटना स्थिर नहीं हो पा रही थी, डिजिटल पटल पर आ रहे संकेतों में अवरोध उत्पन्न होने पर दिखाई पड़ने वाले पिक्सल की तरह सब कुछ उलझा-उलझा गतिमान था। बस में बारह घंटे बिताने के कारण पैरों में सूजन सी दिखाई पड़ी स्पोर्ट्स शूज के तस्मों को ढीला करते हुए पांवों को अन्दर ठूँसा और सीट के ऊपर सामान रखने की रैक से ट्रोली बैग उतारा सिर्फ़ तीन सीढियां उतरने में कोई मिनट भर का समय लगा, ज़िन्दगी के उलझे तंतुओं की मानिंद रात भर सोये पैर दिशा तलाशने में समय ले रहे थे। शीशे सा पिघलता बदन होगा या फ़िर उखडी बिखरी साँसें, कितने दिन बाद मिलूँगा... दिन कहाँ अब तो वे महीनों में बदल चुके हैं दीवार पर टंगा कलेंडर न बदलने से कुछ रुकता थोड़े ही है।
प्लेटफार्म पर बैग टिकाने के बाद रात को खरीदी पानी की खाली हो चुकी बोतल को पास ही एक कूड़ेदान में फैंकते हुए स्वयं को एक बंधन से मुक्त किया और सोचने लगा अब क्या करे... यहाँ से ऑटो लेकर सीधा ही पहुँच जाए या फ़िर किसी होटल में रुक कर फ्रेश हो ले, अनिर्णय में कई ऑटो रिक्शाओं को पार करते हुए सिन्धी केम्प बस अड्डे से लगभग आधा किलोमीटर दूर निकल आया हालात अब भी वही थे क्या करे? पोलो विक्ट्री से पहले चाय नाश्ते की एक बड़ी पुरानी और मशहूर दूकान के आगे स्टूल खींच कर बैठ गया, यहाँ ग्यारह बजे तक दैनिक मजदूरों, राजधानी में अपना काम करवाने आने वालों और आस पास स्थित सरकारी कार्यालयों में काम करने वालों का जमघट लगा रहता है। मख्खन लगी ब्रेड के साथ दो चाय पीने के समय तय कर लिया कि शर्मा सदन में नहाया जाए फ़िर देखेगा।
सीलन भरे कमरे का किराया मात्र अस्सी रुपये, मात्र इसलिए कि इस तरह की यात्राओं ने सदैव उससे प्रीमियम पेमेंट वसूल किया है, रात को शायद इस कमरे में किसी ने जी भर के दारू पी होगी गंध अभी भी तारी थी दीवारों पर पान गुटके का पीक फैला था थोड़ी ताजा हवा की उम्मीद में खिड़की के पास खड़ा हुआ तो वहाँ भी जाली में बुझी हूई बीड़ियों के साथ नीले सफ़ेद पाउच फंसे थे, बाहर छतों पर कपड़े सूख रहे थे लेकिन उसने तय किया वह अपना बैग हरगिज नहीं खोलेगा कमरे की गंध को अपने साथ नहीं ले जाना चाहता था वो। बड़ी ग़लती की यहाँ आके ऐसी किसी होटल में आज तक नहीं रुका था वो।
बहुत देर प्रतीक्षा के बाद भी नल से गरम पानी नहीं आया और अब उसका सामर्थ्य भी जवाब देने लगा, तीन सिगरेट पी चुकने के कारण मुंह का स्वाद कैसेला होता हुआ आंखों तक आ गया, स्मृतियों के वातायन से झांकते दृश्यों के बीच पैताने का सूरज सर तक चढ़ आया, उसने बैग से सिर्फ़ तौलिया निकाला और बाल्टी से पानी उड़ेल कर बाहर आ गया, बदन में हरारत अब भी वैसी ही थी। सो चेक आउट... अपनी जेब पर निगाह डाली कमरे में इधर उधर देखा और कुछ अलसाये हुए मौसम के इस दिन में सड़क पर पहुँच गया।
स्नेहा से कल ही तय हुआ था आने के बारे में इसलिए ज्यादा कुछ प्लान करने की जरूरत नहीं थी फोन पर बिना किसी अनुनय विनय या फ़िर आग्रह के लगभग तय हो ही जाता था कि कब मिलें, ओटो वाले ने पूछा साब इधर ही, नहीं बाएँ अन्दर ले लो, यूनिवर्सिटी के दो नंबर गेट से सौ मीटर आगे एक बार फ़िर दायें और फ़िर बाएँ मुड़ते ही सामने एक बड़ी बिल्डिंग के सामने रुकवा लिया, पचपन रुपये का भुगतान कर खुले पड़े एक छोटे से दरवाजे को पार कर सामने बैठे निर्जीव से दो लोगों को संबोधित करते हुए कहा स्नेहा... रूम नंबर पन्द्रह... है क्या ? उन्होंने उसके सामने देखने की जगह माईक ऑन कर उसके शब्दों को दोहरा दिया।
कावेरी गर्ल्स होस्टल के भीतरी भाग से बाहर खड़ी कारों और भीतर टहल रही शोर्ट जींस अधोमुखी टी शर्ट वाली लड़कियों की जांच परख में दिल नहीं लगा, जिज्ञासावश वह मिलने आए आगंतुकों और बाउंड्री वाल की ऊँचाई को टटोलता रहा, एक होंडा सिटी एक जेन... रहने दो कई गाडियां थी। उसको लगा कि हो न हो ये ओमनी जरूर अपनी जगह पर खड़ी खड़ी हिलेगी । बाहर क्यों खड़े हो ? अन्दर आओ ना। स्नेहा का वही स्वर सुनाई दिया जो उसको बरसों से आश्वस्त करता आ रहा था, बैग लिए विजिटर रूम में सोफे पर सीधा बैठ गया, स्नेहा ने बताया मैं चेज करके आती हूँ, जाती हूई वह कुछ मोटी दिखाई पड़ी भूरे ट्राउजर पर पहने सफ़ेद अपर पर लिखा था नो वे।
वह शायद इतनी मोटी नही थी पहले, उन दिनों स्नेहा के भीतर और बाहर महत्वाकांक्षाएं सहज देखी जा सकती थी, ब्रांडेड कपडों तक उसकी पहुँच नहीं थी तो किसी मैगजीन से कॉपी कर ख़ुद अपने लिए एक ड्रेस सिलवा ली थी और दर्जी को एक ही हिदायत दी कि अगर ये इस फोटो के जैसी ना दिखी तो एक भी पैसा नहीं मिलेगा। उसी ड्रेस में कॉलेज के आगे लगे एक फव्वारे पर पाँव रख कर तीन फोटो खिंचवाए वे आज भी उसके पास रखे हैं। ब्रांडेड कपड़ों के प्रति ही नहीं वरन हर एक नाम जो स्थापित और बिकाऊ होने के साथ अभिजात्य होने का विश्वास प्रकट करता था उसे अपनी और खींच लेता था।
हेप्पी बर्थ डे कहते हुए पहली बार उसके गोल चहरे को छुआ तब स्नेहा ने एक रहस्यमयी मुस्कान से उसको देखा था ये दिन कई बोझिल दिनों के बाद आया था सहेलियों के साथ एक गुप्त पार्टी मम्मी की स्वीकृति से संपन्न हो चुकी थी कुछ गिफ्ट कुछ कोल्ड ड्रिंक की खाली बोतलें और थोड़ा सा एकांत , ऐसे में भी उसको सिर्फ़ यही पूछना याद आया "तुम्हारी ये टी शर्ट ओरिजनल एडिडास की है क्या ?"
कहाँ खो गए ? स्नेहा लौट आई थी हाथ में दो कप चाय और एक पोलिथीन। अब भी तुम्हारी एक आदत नहीं बदली जहाँ होते हो वहाँ रहते नहीं। वह चाय पी रहा था तब स्नेहा ने बैग खोला और उसमे पोलिथीन रख दिया।
"अब कहाँ जायेंगे ?"
"चलो बाहर देखते है"
"महारानी पेलेस चलें?"
"नहीं दोबारा वहाँ नहीं"
"फ़िर"
"यहीं पास में एक अच्छा होटल है"
"ओ के"
"ऑटो लेके चलते हैं "
"नहीं .... पैदल ठीक है ना "
"समझा करो यूनिवर्सिटी के पास ही है कोई देखेगा... ऑटो सही रहेगा"
स्वागत कक्ष में बैठा व्यक्ति ऐसे मुस्कुराया जैसे वे दोनों उसके बरसों पुराने ग्राहक हों, रेट कार्ड इस निवेदन के साथ आगे बढाया कि सिर्फ़ डीलक्स ही खाली हैं। स्नेहा ने आँख से लड़के को बैग उठाने का इशारा किया, इस अधिकार प्रदर्शन में ही दोनों की सुरक्षा थी जिसकी परवाह सिर्फ़ स्नेहा को थी।
तीसरे माले का कमरा संख्या तीन सौ आठ लम्बाई चौडाई बीस गुणा तीस, एक तरफ़ मेहमानों के लिए सोफा सेट और एक छोटी सी टेबल पास ही कालीन बिछा था और उसके पार एक आठ फीट लंबा चौडा पलंग। स्टूल को पाँव से सरकाते हुए खिड़की के पास ला कर बाहर नीचे सड़क पर दौड़ रहे वाहनों में स्नेहा की आँखें खो गई वह भी उसके पीछे कंधों पर हाथ रख कर बाहर देखने लगा। इस घड़ी में व्यंजनायें, अलंकार, रूपक, छंद, दोहे यानि सब कुछ निष्प्रभावी था। स्नेहा बाथरूम में चली गई, खिड़की से आते उदास हवा के झोंकों ने याद दिलाया की चार घंटे से उसने सिगरेट नहीं पी है। सिगरेट तो है भी नहीं उसके पास, वह कभी भी स्नेहा के सामने नहीं पीता हालाँकि ऐसा नहीं है कि वह जानती नहीं।
बाथ टब को उसने गरम पानी से भरा और लिक्विड सोप को उसमे ही घोल दिया , अभी अभी नहा कर गई स्नेहा की गंध वह इन सब सौन्दर्य प्रसाधनों के बीच पहचानने का प्रयास करने लगा। कुछ नहीं है कहीं ... सब झूठ सब फरेब... इसके सिवा कि स्नेहा है तो वह भी है। रात भर का सफ़र दिन की थकान और तम्बाकू के अभाव में मंद पडी
रक्त गति के कारण लगा शायद इसी टब में नींद आ जायेगी। वैसे बड़ी अजीब है ये देह कभी कभी तो नींद रात भर नहीं आती... टब खाली करके शोवर के नीचे कुछ देर खड़े रहने के बाद ख़ुद को पोंछता हुआ वह बाहर आ गया।
पलंग पर लेटी स्नेहा के पास जाकर वह भी लेट गया उसके हाथ को अपने हाथ में लिया और रूम की लाईट को डिम कर दिया। अचानक उसको लगा स्नेहा की कलाई पर कई स्पीड ब्रेकर उभर आए हैं, उसने फ़िर से छुआ और इस बार विश्वास होने पर हाथ को अपनी आंखों के सामने कर लिया। पूरी कलाई पर पन्द्रह बीस कटने के निशान थे किंतु उनकी उम्र ज्यादा नहीं थी। कटी कलाई ने दोनों के बीच खड़े बाँध में सुराख़ कर दिया। उसने दूसरा हाथ गरदन के पास रखते हुए स्नेहा को अपने और करीब खींच लिया। वह उसकी बाहों में सिमट आई चहरे को सीने से इस तरह सटा लिया जैसे कई दिनों बाद कोई अपने घर लौट कर आया हो और अपने सर को तकिये के नीचे रख सो जाए। एक तरल स्पर्श किसी रोमांटिक पल में दर्द की बूँद की तरह टपका, स्नेहा की आंखों का पानी उसकी बांह तक पहुँचा, कुछ बूंदें सीने के बालों में अटकी रह गई।
वाट हेप्पंड...
नथिंग
टेल मी
वुड यु लाईक टू लिसन टू मी ?
वाट डू यु थिंक ... वाई आई एम हियर?

सुमित आया था। हम दोनों एक रेस्त्रां में गए। पता नहीं क्यों पर मैं उसके साथ सब कुछ बरदाश्त कर सकती हूँ उसके बिना कुछ नहीं... ये मेरी बरदाश्त ही है जिसे तुम छू रहे हो, उभरी चमड़ी के नीचे कई बरसों का प्यार सिला हुआ है। सुमित ने कहा मैं तुमसे प्यार करता हूँ तो मेरे हाथ में टूटी चूड़ी का एक टुकडा था उसे मैंने अपनी कलाई पर चला दिया और खून आ गया। उसने मुझे बीते दिनों, इस बीच आई मुश्किलों के बारे में बताया अपने कुछ दोस्तों की बातें की फ़िर कहा आई लव यू... मैंने फ़िर अपना हाथ काट दिया। सुमित ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे रोकने की कोशिश की, मैंने पूछा जब इतने दिन मिलने नहीं आए क्या तब भी मुझे याद करते थे या अब भी किसी की... उसने मेरे तमाचा जड़ दिया। वह टेबल पर रखे मेरे हाथों पर अपना सर रख कर रोने लगा... आईस्क्रीम पिघल चुकी थी वेटर से कहा इसे ले जाओ दूसरी लाओ।
पिछले साल इसी रेस्त्रां में दिन कैसे बीत जाता था यह याद दिलाने लगा सुमित, ढेर सारे गिफ्ट, चोकलेट, क्रीम शेक, पिज्जा और इन्हे खाने से दिन ब दिन बढ़ते जा रहे बोडी वेट के कारण मजबूरी में बदली गयी जीन्सेज और भी बहुत कुछ याद दिलाया उसने फ़िर बोला तुम परेशां क्यों हो मैं अब भी तुमसे उतना ही प्यार करता हूँ... मैंने उसी चूड़ी से अपना हाथ काट लिया। वह बार बार चिल्लाने लगा आई लव यू... आई लव यू... उसने जितनी बार कहा मैंने उतनी बार अपने हाथ को काटा। उसकी आंखों में आंसू थे और सामने मेरे हाथ से टपकती खून की बूँदें... मैंने सुमित का रूमाल अपने हाथ में बाँध लिया क्योंकि अब मेरी हिम्मत ख़त्म हो गई थी मैं इस से ज्यादा दुखी नहीं देख सकती थी उसको।
सुमित के बारे में बताने को हज़ार अफसाने थे स्नेहा के पास पर अर्धनिंद्रा की स्थिति में सुनाई दिया " वाट काईंड ऑफ़ रिलेशन वी हेव... वेयर आर वी गोइंग... इज देयर एनी डेस्टिनेशन... "
चुप्पी पलंग तोड़ती रही बेगानी सांसों की महक बिखरती रही।
स्नेहा उठी, खुले बाल उसके चहरे पर बिखर गए होठों को इस तरह चूमा जैसे किसी दुआ पढने वाले के हाथों में सूखे गुलाब की पत्तियां आ गिरे दोनों करीब से करीब आते जा रहे थे पर दूरी बढ़ती जा रही थी इस पल में कई जनम समा गए थे विदैहिक अनुगूंज में बज रहे राग से सिर्फ वियोग के स्वर बिखर रहे थे किसी की आँखे रो रही थी किसी का दिल... दोनों में से किसी ने कहा "देयर इज समवन हू स्टिल लव्ज यू..."

कहते है उस रात स्नेहा सोयी नहीं
और स्नेहा का वह मित्र अब भी सूखे दरख्तों से, पत्थरों पर जमी काई से, मरी हूई चिडियाओं से एक ही बात दोहराता है "देयर इज समवन..."



नोट: इस पृष्ठ पर उपलब्ध सभी चीज़ें चोरी की है....अतः अनुरोध है की आप अपनी टिपण्णी रचना के रचनाकार को ही समर्पित करें...हाँ अगर दिल करे तो मेरे हाथ की सफाई या मेरी पसंद पर आप टार्च की रौशनी डाल सकते हैं....इससे मुझे प्रोत्साहन मिल सकता है और मेरी अगली चोरी के लिए प्रेरणा भी...धन्यवाद..

पुनर्जनम


सारी उम्र बड़े बुजुर्ग हमको ये ही बताये हैं
भारी पुण्य करला पर ही, मनुख जनम हम पाए हैं
ये ही बात भेजा में अपने, खूब बढ़िया से बैठाये हैं
कभी पुण्य हम नाही करेंगे, भारी कसम उठाये हैं

जे खाता में पुण्य ना होवे, तो भगवान बहुत गुसियाये हैं
कभी कुत्ता तो बिल्ली बना के, धरती पर धकियायें हैं
पूरा अटेंशन अब हम अपने खाता पर ही लगाये हैं
एक भी पुण्य का एंट्री, हम दाखिल नहीं करवाए हैं

राम राम करके बस बीत जाए ये जिंदगानी
पुनर्जनम में ना होई, कोई किसिम की परेशानी
मानुस जनम से छुट्टी मिलिहैं, ना होई शिकन पेशानी
डागी पुसी की जात होई और जीवन होई आसमानी

सुबह सवेरे गौरवर्णा हमें टहलाने ले जाई
ठुमकत लचकत हम आगे आगे, उनका पीछे पीछे दौड़ाई
हाथ में प्लास्टिक लेके मेनका, कदम से कदम मिलाई
जहाँ मर्जी हम विष्ठा त्यागे, और सुंदरी लपक के ले उठाई

हनी डार्लिंग की टेर फिर, हर पल देवे सुनाई
नयन से नयन उलझ जैहें, ज्यूँ प्रेम सागर लहराई
बात बात में हम उनका गलबहियाँ भी लगाई
गोड़ हाथ के बात ही छोडो, नाक मुंह भी चटवाई
मर्सितीज़ की अगली सीट पर मज़े में हवा हम खावें
सुबह शाम क्रिस्टल बोल में, प्युरीना ब्रांड पचावें
किंग साइज़ के बेड में सोवें, और रम्भा पीठ खुजावें
सुबह सवेरे आँख खुले तब, जब अप्सरा प्रभाती गावें

ये ही जीवन की आस में भगवन, एको पुण्य नहीं कमाए
कनाडा, इंग्लैंड या अमेरिका में बस श्वान योनी हम पा

जबसे तेरे नैना मेरे नैनों से लागे रे...आवाज़ 'अदा' की...


Sunday, August 2, 2009

अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ निभा सकते नही..


आज वॉशिंगटन पोस्ट पर एक खबर पढ़ी के अब लन्दन के बकिंघम पैलस के आगे खड़े होंगे हमारे सिख भाई, वो खुश हैं क्योंकि उन्हें पगड़ी पहनने की आज्ञा मिल गयी है, लेकिन यही पगड़ी हिन्दुस्तान की पहचान है...जब भी यह पगड़ी नज़र आएगी हिन्दुस्तान नज़र आएगा..
चाहे यह पगड़ी किसी indian origin ब्रितानिया के सर पर ही क्यों न हो, आज अचानक ब्रिटिश सरकार इतनी कृपालु कैसे हो गयी ? क्या इसके पीछे कोई कूटनीति काम कर रही है, क्योंकि जब भारत 'सोने की चिडिया' थी तब इन्होने भारत को कहीं का नहीं छोड़ा था और आज जब भारत फिर से एक सबल राष्ट्र बन रहा है ग्रेट ब्रिटेन कहीं दुनिया को ये तो नहीं बताना चाहता है कि चाहे तुम कितने भी सक्षम हो जाओ, खड़े रहोगे हमारे ही दरवाज़े पर रखवाली करते हुए ...
रानी की और खजाने कि रक्षा करता हुआ हिंदुस्तान कैसा नज़र आएगा यह मेरे लिए कल्पना से परे हैं...
शायद यह ख़ुशी की बात हो लेकिन मेरा दीमाग तो उल्टा है न, मुझे झट से याद आ गयी हमारी गुलामी, मुझे याद आया हमारा कोहिनूर हीरा, मुझे याद आई आजादी कि जंग, मुझे याद आई हमारी आज़ादी, जिसे बहुत मुश्किल से हमारे पुरखों ने पाया था, मुझे याद आई अंग्रेजों कि दोगली नीति divide and rule जिसने आज तक भारत को पीस कर रखा हुआ है....बटवारे का दर्द मैंने नहीं भुगता है लेकिन आज भी लोग उससे उबर नहीं पाए हैं.....हमारी संस्कृति, हमारे खजाने, हमारी धरोहर सब तो छीन कर ले गए है वो और आज एक बार फिर हिन्दुस्तान खड़ा है. हमारे ही लुटेरों की हिफजात करने के लिए, उसी कोहोनूर हीरे की रखवाली करने के लिए जो सिर्फ और सिर्फ हमारा है, और उसपर से क़यामत ये कि हम खुश हैं, क्योंकि हमें एक बार फिर महारानी के दरबार में सलामी ठोकने का अवसर मिला है, इन दो सिख भाइयों को देख कर क्या लगता नहीं है कि हम आज भी गुलाम हैं महारानी एलिजाबेथ द्वीतीय के ?... क्या नहीं लगता है कि भारत एक बार फिर खड़ा है अपने घुटनों पर बकिंघम पैलस के सामने गुलामी की जंजीर पहन कर ?.....फर्क सिर्फ इतना है जजीरें नज़र नहीं आ रही हैं.....

***********************************************************************************
अब एगो दुसर बात :

बात इ है की कल्हे हम एक ठो चोरी किये रहे और उसका से बहुते फायदा रहा हमको....
१. लोगन को सुभान अल्लाह वाला कविता पढने को मिला
२. हमरा ब्लॉग में लोग टिपियाने भी आये
३. और बहुते लोगन का कलेजा में ठंढक चाहुपा है
४. लोगन का इ सिकाइत कि हम धड़ाधड़ पोस्टिंग करते हैं उ भी दूर हो गया
५. इससे हमको एक नया रोजगार मिल गया है
तो हम इ सोच रहे हैं कि रात को निकलेंगे हम खोजारी में और जिन्खा भी ब्लाग पर सही माल मिलेगा चोरी करेंगे और छापेंगे अपना ब्लॉग पर, भाई फोटो भी साथ में लगावेंगे, औ पूरा जानकारी मिलेगा छापेंगे .....
अगर किन्ही भाई-बहिन को पिरोब्लेम है तो भाई कह दीजिये, बाद में कौनो प्रकार का झिकझिक नहीं चाही हमको...
और इ हो जान लीजिये किसी का भी हो सकता है औ कुछ भी हो सकता है.... बस शामिष नहीं मिलगा काहे की हम निरामिष हैं...
अब बता दीजियेगा भाई-बहिन लोग इ ठीक बात हैं कि नहीं... जिनको मंजूर नहीं होगा तो हम उनका ब्लोग्वा के तरफ ऐसा-वैसा नज़र से एकदम नहीं देखेंगे इ हमरा वादा रहा......पक्का.........गंगा जी का जल हाथ में लेकर कीरिया खा रहे हैं.....!!!!!

Saturday, August 1, 2009

चोर के घर डाका


मेरी नज़र में हिंदी ब्लॉग जगत की एक खूबसूरत कविता.
जिसे मैं हर दिन पढ़ती हूँ.... जब भी पढ़ती हूँ तो लगता है पूरा जीवन शुरू से जी गयी हूँ...
और यह काम मैं हर रोज़ करती हूँ....चुपके से....
लेकिन अफ़सोस की बात इस कविता का मालिक एक चोर है, वो कहीं से कुछ भी चुरा लाता है और छाप भी देता है ..
उसपर से कहता भी है 'आप को बुरा भी लगा हो तब भी मैं हटाने वाला तो हूँ नहीं' ह्न्म्म्म्म्म ......
हमने भी सोचा बच्चू को कुछ सबक सिखाया ही जाए...फिर क्या था उस चोर की 'ब्रांड नेम' कविता हम चुरा लाये हैं,.....चोर के घर डाका हा...हा..हा...हा... अभी तक तो सोया हुआ है कल जब उठेगा तो कितना रोयेगा.......
उसे भी तो पता चले कि वो अगर सेर है तो मैं २ सेर हूँ उसकी दीदी....
कहते हैं चोरी की हुई हर चीज़ ज्यादा अच्छी लगती है.... आपने उस चोर के ब्लॉग पर ये कविता पढ़ी है अब मेरे ब्लॉग पर यह कविता कैसी लग रही है जारा बताइयेगा.......उसके ब्लॉग से बेहतर है न ?????
तो ये रही वो बेहद खूबसूरत कविता जो आपका भी मन मोह लेगी, मेरा विश्वास कीजिये... साथ ही यह भी बताइयेगा मेरी हाथ की सफाई आपको कैसी लगी...क्योंकि किसी दिन आपके भी ब्लॉग पर मैं हाथ साफ़ कर सकती हूँ....अगर किसी को एतराज़ हो तो अभी ही बता दीजियेगा...बाद में हमको दोष मत दीजियेगा...



कवि : दर्पण शाह 'दर्शन'

संदूक

आज फ़िर,
उस कोने में पड़े,
धूल लगे को,
हाथों से झाड़ा,
तो...
धूल आंखों में चुभ गई।

संदूक का,
कोई नाम नहीं होता...
...पर इस संदूक में,
एक खुरचा सा नाम था,
सफ़ेद पेंट से लिखा।
तुम्हारा था या मेरा,
पढ़ा नही जाता है अब।

खोल के देखा उसे,
ऊपर से ही,
बेतरतीब,
पड़ी थी...
'ज़िन्दगी'।

मुझे याद है......
...माँ ने,
'उपहार' में दी थी।
पहली बार देखी थी,
तो लगता था,
कितनी छोटी है।
पर आज भी ,
जब पहन के देखता हूँ...
बड़ी ही लगती है,
शायद...
...कभी फिट आ जाए।

नीचे उसके...
तह करके...
सलीके से...
रखा हुआ है,
...'बचपन' ।
उसकी जेबों में देखा,
अब भी,
तितलियों के पंक ,
कागज़ के रंग,
कुछ कंचे ,
उलझा हुआ मंझा,
और,
...और न जाने क्या क्या ?
कपड़े,
छोटे होते थे बचपन में,
जेब बड़ी.

कितने ज़तन से,
...मेरे पिताजी ने, मुझे,
ये 'इमानदारी' सी के दी थी ।
बिल्कुल मेरे नाप की ।
बड़े लंबे समय तक पहनी।
और कई बार...
लगाये इसमे पायबंद ,
...कभी मुफलिसी के,
और कभी बेचारगी के,
पर,
इसकी सिलाई उधड गई थी,
...एक दिन।
जब,
भूख का खूंटा लगा इसमे।

उसको हटाया,
...नीचे,
पड़ी हुई थी 'जवानी',
उसका रंग...
उड़ गया था, समय के साथ साथ।
'गुलाबी' हुआ करती थी ये....
अब पता नही...
कौनसा नया रंग हो गया है?

बगल में ही पड़ी हुई थी
'आवारगी',
....उसमें से,
अब भी,
शराब की बू आती है।

४-५ सफ़ेद,
गोल,
खुशियों की 'गोलियाँ',
डाली तो थीं,
संदूक में,
पर वो खुशियाँ...
.... उड़ गई शायद।

याद है...
जब तुम्हारे साथ,
मेले में गया था,
एक जोड़ी वफाएं,
...खरीद ली थी।
तुम्हारे ऊपर तो पता नहीं,
पर मुझपे ये अच्छी नही लगती।
और फ़िर...
इनका 'Fashion' भी,
...नहीं रहा।
'Joker' जैसा लगूंगा...
इसको लपेटकर।

...और ये शायद...
'मुस्कान' है।
तुम, कहती थी न....
जब मैं,
इसे पहनता हूँ,
अच्छा लगता हूँ।
इसमें भी,
दाग लग गए थे,
दूसरे कपडों के।
हाँ...
...इसको,
'जमाने' और 'जिम्मेदारियों'
के बीच....
रख दिया था ना ।
तब से पेहेनना छोड़ दी।

अरे...
ये रहा,
'तुम्हारा प्यार'।
'valentine day' में,
दिया था तुमने।
दो ही महीने चला था,
हर धुलाई में,
सिकुड़ जाता था।
खारा पानी...
...ख़राब होता है,
इसके लिए,
भाभी ने बताया भी था,
...पर आखें,
...आँखें ये न जानती थी।

चलोssssss....
........
बंद कर देता हूँ,
सोच के...
जैसे ही संदूक रखा,
देखा,
यादें तो,
बाहर ही छूट गई,
बिल्कुल धवल,
Fitting भी बिल्कुल सही
...लगता था,
आज के लिए ही,
खरीदी थी
us 'वक्त' के बजाज से जैसे,
कुछ लम्हों की...
कौडियाँ देकर
चलो,
आज फिर,
इसे ही...
पहन लेता हूँ !

अब जो भी टिपण्णी करें 'दर्पण शाह 'दर्शन' जी की कविता के लिए और 'मयंक शैल' की चित्रकारी के लिए करें, मैंने तो सिर्फ चोरी की है...एक बेहद खूबसूरत कविता की...