Thursday, May 9, 2013

एक झटपट पोस्ट...फ्रॉम अमस्टरडम :)

एक झटपट पोस्ट डाल रही हूँ। 

इस समय होलैंड के अमस्टरडम शहर में हूँ। यह कैनालों का शहर है। कल सारा दिन कनालों के चक्कर लागते रहे हम। खूबसूरत लोगों का बहुत ही खूबसूरत शहर है। कल पहले तो मौसम सुहाना था, बाद में मुम्बई की बरसात का क्या है एतबार वाला हाल हो गया। जम  के बारिश होने लगी और हम बरसाती मेंढक बन गए थे। 
लेकिन दिमाग हमारा है खुराफ़ाती,  सोचते रहे क्या ख़ास बात है यहाँ, और हमको नज़र आ ही गयी एक ख़ास बात। 
एक बात जो सबसे ज्यादा आकर्षित कर रही है यहाँ, वह है, साईकिलों की भरमार। यहाँ के लोग ज़्यादातर साईकिल का ही इस्तेमाल करते हुए नज़र आ रहे हैं और इसके कई फायदे भी नज़र आ रहे हैं, वातावरण में प्रदूषण न के बराबर है, लोग फिट-फाट दिखाई दे रहे हैं, पेट्रोल की खपत पर अंकुश है, जिसके कारण पेट्रोल बेचने वाले देशों की दादागिरी का कम ही असर है और सड़कों पर पार्किंग की मारा-मारी नहीं है। पूरे होलैंड की बात तो नहीं कर सकती मैं लेकिन अमस्टरडम कुल मिला कर काफी संयत, ऑर्गनाइज्ड और खूबसूरत लगा। सोचियेगा आपलोग भी साईकिल के इस्तेमाल के बारे में :)

बाकी फिर कभी, अभी ज़रा जल्दी में हैं हम :)














होटल के पार्किंग लोट में भी साइकिल ही नज़र आ रहे हैं :):)

Tuesday, May 7, 2013

क्यों झाँकना नज़र में ये, नक़ाब जैसा है...


फ़िलहाल ये मेरी आखरी पोस्ट है। लौट कर आऊँगी लेकिन कब आऊँगी मालूम नहीं। आज ही निकल रही हूँ होलैंड और उसके बाद भारत के लिए। शायद आ पाऊं ब्लॉग पर या शायद न भी आ पाऊं। जो भी है आप सभी को हैपी-हैपी ब्लॉग्गिंग। कोई टंकी-वंकी  पर नहीं चढ़ रही हूँ, बस एक बार फिर बीजी होने वाली हूँ। तो मिलते हैं एक छोटे/लम्बे ब्रेक के बाद :):)
जब भी लौट कर आऊँगी यहीं आऊँगी :) 

मिला जब वो प्यार से, तो गुलाब जैसा है
आँखों में जब उतर गया, शराब जैसा है

खामोशियाँ उसकी मगर, हसीन लग गईं 
कहने पे जब वो आया तो, अज़ाब जैसा है

करके नज़ारा चाँद का, वो ख़ुश बहुत हुआ 
ख़बर उसे कहाँ वो, आफ़ताब जैसा है

करते रहो तुम बस्तियाँ, आबाद हर जगह  
इन्सां यहाँ इक छोटा सा, हबाब जैसा है

कुछ दोस्ती, कुछ प्यार, कुछ वफ़ा छुपा लिया
क्यों झाँकना नज़र में ये, नक़ाब जैसा है

अज़ाब=ख़ुदा का क़हर या नाराज़गी
आफ़ताब = सूरज
हबाब=बुलबुला  


आओ हुज़ूर तुमको सितारों में ले चलूँ ...आवाज़ 'अदा' की ..

Monday, May 6, 2013

साईकिल की सवारी ..


सोचिये तो बात बहुत छोटी सी है..और अगर विचार करें तो बात बहुत बड़ी, कम से कम मानसिकता का वृहत आकलन तो करती ही है, ये छोटी सी घटना...

साल के, छः से सात महीने यहाँ, कनाडा में, बरफ और ठण्ड का ही जोर रहता है, जब गर्मी आती है, तो बस यूँ समझिये, पंख-पखेरू, जीव-जंतु, इंसान, सभी ज्यादा से ज्यादा वक्त, घर के बाहर ही बिताना चाहते है, हर तरफ ख़ूबसूरती का वो आलम होता है, बस लगता है, जैसे स्वर्ग ही, धरा पर उतर आया हो, प्रकृति अपने रंगों की ऐसी छटा बिखेरती है, कि हर दृश्य यूँ लगता है, मानो किसी चित्रकार ने अपनी सारी उम्र की कल्पना, अपनी तूलिका के हवाले कर दी हो..

अब ऐसे ही खुशगवार मौसम में, साईकिल की सवारी से बेहतर विकल्प और क्या हो सकता है, प्रकृति का सानिध्य पाने के लिए, इन देशों में, वेल अवेटेड और वेल डिजर्वड समर में, स्विमिंग और साईकिलिंग, मनोरंजन कहें या व्यायाम, सबके लिए निहायत ही ज़रूरी व्यसन बन जाते हैं, गर्मी का आना और साईकिल की सवारी, बस यूँ समझिये एक दूसरे के पर्याय बन जाते हैं...

हमारा घर भी, कहाँ अछूता है भला ! सब अपनी-अपनी साईकिल की सफाई, और कल पुर्जे ठीक करने में लग जाते हैं, घर में, कई साइकिलें हैं, और सबके लिए एक-एक तो हैं हीं..परन्तु हमारे मृगांक दुलारे को इस बार, ऐसी-वैसी साईकिल नहीं चाहिए थी, लिहाजा जिद्द पर आ गया, कि मुझे स्पोर्ट्स साईकिल ही चाहिए...स्पोर्ट्स साईकिल, इतनी सस्ती भी नहीं आती, और अगर मृगांक खरीदने जाए तो, सस्ती बिलकुल नहीं आएगी, ये मैं जानती थी...फिर सोचा यही तो उम्र है, चलो मुझ जैसे, मुर्दे पर जैसे नौ मन, वैसे दस मन...लिहाजा स्पोर्ट्स साईकिल खरीदी गयी, साथ ही, मेरे अकाउंट में एक और डेंट लग गया...

आखिरकार, मृगांक की पसंद की साईकिल, आ ही गयी घर पर, उसे खरीदने से पहले ही, मुझे उसकी उपयोगिता पर, काफी कुछ समझाया गया..कि किस तरह, घर के इकोनोमी पर इसका, बहुत अच्छा असर पड़ने वाला है...मृगांक बाबू, समझाने लगे, मम्मी मैं कार लेकर जाता हूँ, हर महीने मुझे कम से कम $५००, सिर्फ पार्किंग के देने होते हैं, पेट्रोल का खर्चा अलग, कार की वजह से कभी दोस्तों को भी यहाँ-वहाँ, पहुंचाना पड़ता है, इससे पेट्रोल का खर्चा और बढ़ जाता है...ऐसे में मैं साईकिल से, बस स्टेशन तक जाऊँगा, वहाँ साइकिल रख दूँगा और, बस लेकर, सीधे अपने कोलेज चला जाया करूंगा, वर्जिश की वर्जिश हो जायेगी मेरी और बचाईश की बचाईश होगी आपकी, मात्र $ ७२ के पास में मेरा काम चल जाएगा...प्लान सुपर था, और फ्लॉप होने के चांस बहुत कम, मुझे भी सीधे-सीधे ७००-८०० डॉलर बचते नज़र आये...मैंने कहा चलो साईकिल की  कीमत ३-४ महीने में निकल आएगी...साथ ही मेरे लाल मृगांक के थोड़े, डोले-शोले भी निकल आयेंगे...

तो जनाब, मृगांक ने पहला दिन, अपने स्कूल का रास्ता इसी प्लान के तहत, तय किया, उसके बाद, मैंने भी नहीं पूछा, न देखा,  सब कुछ वैसा ही सामान्य हो गया, जैसे पहले था, अर्थात मृगांक कार से ही कोलेज जाने लगा...और मेरे घर की इकोनोमी, ज्यों-की-त्यों मुंह बाए खड़ी रही...अब इस एक दिन की तब्दीली, ऐसी भी तो नहीं थी, कि मैं याद करती...तो जी बात आई-गयी होकर, रह गयी...

साईकिल को आये हुए, ३ महीने हो गए होंगे...गर्मियां अब ख़तम वाली थीं, मैं घर के बाहर कुछ काम करने गयी, तो देखा घर के पीछे एक साईकिल पड़ी हुई है, मेरी मेहनत की कमाई का, इतनी बेरहमी से ऐसा दुरूपयोग ?? हम तो जी बस बिफरे हुए अन्दर आ गए, मृगांक को हांक लगाई और डांट लगानी शुरू कर दी ,  इतनी महंगी साईकिल और ऐसे बाहर फेंक दिया है...हिन्दुस्तानी दिमाग के हिसाब से कह ही दिया अगर कोई उठा कर ले जाता तो ??? आँख मलता हुआ मृगांक बाहर आया और कहने लगा..'अरे मम्मी, कोई नहीं ले जाएगा कुछ भी, आप भी न बस सुबह सुबह शुरू हो जातीं हैं '  'ये सब कुछ नहीं सुनना मुझे, साईकिल उठा कर लाओ और गैरेज में रखो'...मेरे हुकुम की तामिल हुई,  मृगांक घर के पीछे से साईकिल उठा कर ले आया, मुआयना करने के बाद, सिर हिलाता हुआ, गंभीर स्वर में बोला.. 'ये मेरी साईकिल नहीं है'...अब मैंने बारी-बारी से सबसे जवाब-तलब कर लिया...सबने हाथ खड़े कर दिए कि...जी ये साईकिल हमारी नहीं है... अब मेरे लिए तो साईकिल-साईकिल एक ही लगती हैं, जैसे सारे काले एक ही नज़र आते हैं मुझे, या फिर सारे चाईनीज एक से लगते हैं...लिहाज़ा मैंने हुकुम दे दिया, कि इस साईकिल पर नोटिस लगाओ, और बाहर रख दो, जिसकी है आकर ले जाए...

सुबह-सुबह साईकिलों की खोज़-खबर से, एक बात सामने आ गयी कि, मृगांक बाबू की साईकिल घर पर नहीं है, जब मैंने पूछा, इतनी मंहगी साईकिल लेने की जिद्द की तुमने, सिर्फ एक दिन देखा चलाते हुए, उसके बाद कभी नहीं देखा, साईकिल गयी कहाँ...?? अब मृगांक अपनी स्मृति के आईने साफ़ करने बैठ गया...उसे भी, समझ में नहीं आ रहा था, कि आखिर साईकिल गयी कहाँ...कहने लगा मम्मी मुझे जहाँ तक याद है, मैं सिर्फ एक दिन, लेकर गया हूँ साईकिल, बस स्टेशन, वहाँ मैंने साईकिल को, साईकिल स्टैंड पर लगाया, फिर मैंने वहाँ से बस ली...कोलेज गया, लेकिन कोलेज से मैं तो, सीधा ही घर आ गया बस से...मैंने तो बस स्टेशन से साईकिल ली ही नहीं.....और मैं तो एकदम भूल ही गया...अब मेरा गुस्सा नौवें आसमान पर, पहुँच ही गया...हाँ हाँ तुम्हें क्यूँ याद रहेगा, पैसे तो बैंक लूट कर लाती हूँ ना, खरीदने से पहले, इतना भाषण कि, ये होगा वो होगा, इस बात को हुए कितने दिन हो गए..." मैंने डपटते हुए मृगांक से पुछा, पप्पी फेस बना कर बोला 'मम्मी, दिन नहीं महीने हो गए,  २-३ महीने तो हो गए होंगे...' लो अब एक और लोस, ३ महीने पहले साईकिल बस स्टेशन पर, छोड़ कर आये हो...अब तक क्या वो वहां, बैठी होगी तुम्हारे इंतज़ार में...भूल जाओ अब उसको, और आज के बाद तुम्हारे लिए, कुछ भी नहीं खरीदना है...मैं बक-बक करती जा रही थी, और मृगांक पजामे में ही, अपनी कार निकाल कर, तेज़ी से निकल गया...

कुछ ही देर में, मृगांक, लौट कर आ गया, मुस्कुराता हुआ...मम्मी साईकिल मिल गयी, वहीँ थी, किसी ने हाथ भी नहीं लगाया था...देख लो, और हाँ, इसको लोस नहीं माना जाएगा हाँ..मेरा गुस्सा काफूर हो चूका था, और वो मुझे खुश करने के अपने सारे हथकंडे अपना रहा था...मुझे मानना तो था ही ...हाँ नहीं तो..!! 

तो जनाब..३ महीने तक ब्रांड न्यू स्पोर्ट्स साईकिल, लावारिस पड़ी रही, फेलोफिल्ड बस स्टेशन पर और किसी ने उसकी तरफ, आँख उठा कर देखा भी नहीं...कौन कहता है, राम राज्य नहीं है...है जी बिलकुल है, ई अलग बात है, ई बस राम के राज्य में नहीं है...

और तभी मुझे याद आ गया, एक और वाक्या, हम बहुत छोटे थे, मेरे बाबा साईकिल पर ही जाया करते थे, उस दिन वो घर से तो साईकिल पर ही गए थे, लेकिन लौटे रिक्शे में थे...पूछने पर पता चला, किसी काम से वो, रांची के बड़े पोस्ट ऑफिस गए थे, बस सिर्फ २ मिनट के लिए उन्होंने अपना सिर घुमाया था और जब तक ताला लगाने के लिए, उनका सिर वापिस मुड़ा, उनकी..साईकिल गायब हो चुकी थी...

इसे कहते हैं....मानसिकता का फ़र्क़ ...

हाँ नहीं तो !


Sunday, May 5, 2013

तिनका ही था कमज़ोर सा, उसका मुक़द्दर, देखना....


किस्मत की वीरानियों का, मेरा वो मंजर, देखना 
हैराँ हूँ घर की दीवार के, उतरे हैं सब रंग, देखना 

उड़ता रहा आँधियों में वो, जाने कितना दर-ब-दर 
तिनका ही था कमज़ोर सा, उसका मुक़द्दर, देखना

पोशीदा है ज़मीन के, हर ज़र्रे पर दिलकश बहार 
उतरो ज़रा आसमान से, आएगी नज़र वो, देखना

सोया किया क़रीब ही, फ़रिश्ता दश्त-ए-दिल का 
ख़ुशबू सी उसकी बस गई, महका है शजर, देखना

इश्क़ के दावे उनके, अब तो हो गए आसमाँ-फरसा 
हम भी देखेंगे उनकी अदा, और तुम भी 'अदा', देखना 


आगे भी जाने न तू ....आवाज़ 'अदा' की ...

Friday, May 3, 2013

अच्छा हुआ नर्गिस मर गयी ...


प्रस्तुत है एक संस्मरण ...

उनके फिर से निक़ाह करने की खबर सुन कर मैं हैरान हो गयी थी। अभी महीने भर पहले ही तो उनकी बीवी का इंतकाल हुआ था। फिर भी, हमने सोचा चलो उम्र ज्यादा हो जाए, तो इंसान को साथी की और भी ज्यादा ज़रुरत होती है। अपने भविष्य के बारे में ही सोचा होगा शायद उन्होंने,  फिर हमें क्या, उनका जीवन, जो मर्ज़ी हो सो करें। हम तो वैसे भी, किसी के फटे में पाँव नहीं डालते।

खैर, बात आई गयी और वो जनाब एक बार फिर, किसी के शौहर हो ही गए। एक दिन हमारे घर भी पधार गए, मय बीवी। उनसे या उनकी बीवी से मिलकर, कोई ख़ास ख़ुशी नहीं हुई थी मुझे, क्योंकि आये दिन, उनकी माँ या बच्चों से उनकी नयी नवेली और उनकी 'तारीफ़ सुनती ही रहती थी। मेरे घर भी आये तो 'दो जिस्म एक जान' की तर्ज़ पर ही बैठे रहे दोनों। मुझे तो वैसे भी बहुत चिपक कर बैठनेवाले जोड़ों से कोफ़्त ही होती है, आखिर मेरे घर में, मेरे बच्चे हैं और उनके सामने कोई अपनी नयी-नवेली बीवी को गोद में बिठा ले, अरे कहाँ हज़म होगा मुझे। अब आप इस बात के लिए मुझे,  'मैंने कभी नहीं किया, नहीं कर सकती, न करुँगी ' सोचने वाली उज्जड गँवार समझें या फिर हिन्दुस्तानी संस्कारों का घाल-मेल, आपकी मर्ज़ी। लेकिन झेलाता नहीं है हमसे। हम तो वैसे भी 'महा अनरोमैंटिक' का तमगा पा चुके हैं, बहुते पहिले ।

बातें होतीं रहीं, यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ की, आख़िर मैंने भी पूछ ही लिया, भाई साहब कहाँ मिल गयी आपको 'नगमा जी'? उन्होंने जो जवाब दिया, सुन कर मुझे उबकाई ही आ गयी। कहने लगे ... अरे सपना बहिन ! जिस दिन 'नर्गिस' फौत हुई थी, उस दिन बड़े सारे लोग आये थे, घर पर। ये भी आई थी, मेरी खालू की बेटी के साथ। तभी मैंने देखा था इसे। 'नर्गिस की मिटटी' के पास, ये भी रो रही थी, मुझे इसकी आँसू भरी आँखें, इतनी खूबसूरत लगीं थीं, कि क्या बताऊँ। मैं तो बस, इसे ही देखता रह गया, उसी वक्त आशिक हो गया था इसका। और उस दिन के बाद, मैंने इसका पीछा नहीं छोड़ा। 

जिस तरह छाती ठोंक कर उन्होंने ये बात कही, मेरे कानों में झनझनाहट हो गयी थी।  मैं सोचने को मजबूर हो गई, ये इंसान है या कोई खुजरैल कुत्ता, मरदूये ने अपनी मरी हुई बीवी की मिटटी तक उठने का इंतज़ार नहीं किया था, और बिना वक्त गँवाए, बिना बीवी की लाश उठवाये आशिक हो गया, किसी और का ?  बड़ा जब्बर कलेजा पाया है बन्दे ने। एक कहावत है डायन भी सात घर छोड़ देती है, लेकिन इस जिन्न ने सात घंटे भी इंतज़ार नहीं किये।

अब सोचती हूँ अच्छा हुआ नर्गिस मर गयी .....वर्ना कहीं ये मर गया होता और नर्गिस ने किसी पर आँख गड़ा दी होती तो क्या होता  !!!!

हाँ नहीं तो !!

एक और संस्मरण अगली बार ...

कितनी सच्चाई उसके बयानों में थी....


मैं भी कल रात उन दीवानों में थी
और मेरी नज़रें गुजरे ज़मानों में थी

ये दिल घबराया ऊँचे मकाँ में बड़ा
फिर सोयी मैं कच्चे मकानों में थी

यूँ हीं दिखती हूँ मैं भी शमा की तरहाँ 
पर गिनती मेरी परवानों में थी

उसकी बातों पे मैंने यकीं कर लिया 
कितनी सच्चाई उसके बयानों में थी

मेरे अपनों ने कब का किनारा किया 
मुझसे ज़्यादा कशिश बेगानों में थी

क्या ढूँढे 'अदा' वो तो सब बिक गया
तेरे सपनों की डब्बी दुकानों में थी

 ये समा, समा है ये प्यार का ...आवाज़ 'अदा' की ..

Wednesday, May 1, 2013

मैं ज़िन्दगी जलाकर बार-बार, छोड़ जाऊँगी.....




इक ज़ुनून, 
कुछ यादें,
थोड़ा प्यार,
छोड़ जाऊँगी।
इन हवाओं में मैं 
इंतज़ार,
छोड़ जाऊँगी।
ले जाऊँगी साथ,
कुछ महकते से रिश्ते,
मेरे नग़मों की बहार 
छोड़ जाऊँगी।
कहीं तो होंगे,
मेरे भी कुछ ग़मगुसार,
जलाकर इक दीया
प्रेम का यहीं कहीं, 
ये मज़ार,
छोड़ जाऊँगी।
कहाँ-कहाँ बुझाओगे,
मेरी सदाओं की मशाल,
मैं ज़िन्दगी जलाकर,
बार-बार,
छोड़ जाऊँगी।
मैं लफ्ज़-लफ्ज़ यक़ीं हूँ,
तुम भी यक़ीन कर लो,
मैं हर्फ़-हर्फ़ 
एतबार,
छोड़ जाऊँगी....!

एक गीत..नैनों में बदरा छाये...और आवाज़ वही...'अदा' की...