Wednesday, October 20, 2010

चुपचाप....


यूँ हीं ...
हम निकले थे, 
ज़रा सा बाहर,
कि मिल गई
बिखरी सी ज़िन्दगी,
रिश्तों की डोरी,
खुशियों के मंज़र,
दुश्मनों के खंज़र
दोस्तों के पत्थर,
अपनों की नज़र ,
आँखों के समंदर,
यादों की कतरन, 
और सुलगती सी
आग
हमने समेट लिया
सब कुछ
सीने के अन्दर
चुपचाप..!

12 comments:

  1. यही एक मात्र विकल्प होता है इंसानों के पास !

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  2. हमने समेट लिया
    सब कुछ
    सीने के अन्दर
    चुपचाप..!

    कुछ चीजें चुपचाप समेट लेने को ही होती हैं जिंदगी में ...
    अंतर्मुखी क्षणों को ब्यां करती सुंदर कविता

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  3. हम तो सोचते थे कि यह सब सिर्फ हमने ही समेट लिया है चुपचाप ...!

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  4. 6/10


    सुन्दर पोस्ट / पठनीय
    चंद शब्दों में ही बहुत कुछ अभिव्यक्त हो रहा है

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  5. मनुष्य की लाचारी की बहुत सुन्दर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति...

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  6. यूँ हीं ...
    हम निकले थे,
    ज़रा सा बाहर,
    कि मिल गई
    बिखरी सी ज़िन्दगी........
    बहुत ही सुन्दर भाव.....
    पूरी जिन्दगी लग जाती है इसे समेटने में !!

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  7. काश जिस सीने में समेटा है उसमे कोई वाल्व लीक हो जाये और ये सब शब्दों में, हवा में, सांस में, रक्त में,आह में, आक्सीजन में, पानी में, अश्क में.....किसी रूप में निकल जाये...यही बस यही हाँ यही अर्ज है.

    :)

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  8. ‘खुशियों के मंज़र,
    दुश्मनों के खंज़र’

    देखें, करते है क्या असर :)

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