भारत में प्रति मिनट,
एक व्यक्ति की आत्मा
मर जाती है,
कई करोड़
इस बीमारी से पीड़ित हैं,
हज़ारों मरीजों की
जीवन शैली में ही,
इस रोग के लक्षण हैं,
भ्रष्टाचार के तपेदिक से ग्रस्त रोगी
अनैतिकता की थूक से,
रोग फैला देता है,
अपनी एक करनी से
कितनों को पीड़ित कर देता है,
महत्त्वाकांक्षा के वजन का बढ़ना,
और स्वार्थ की भूख बढ़ना
इस रोग के मूल लक्षण हैं,
ईलाज इसका मुफ्त है,
बस विवेक पर
नज़र रखने की
ज़रुरत होती है...
ओह भ्रष्टाचार के तपेदिक से ग्रसित
ReplyDeleteआदमी रोज घुट घुट कर मर रहा है...
आज आपकी रचना एक नए अंदाज में पढ़ने मिली...आभार
हमारे समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार की बीमारी का बहुत सुन्दर विश्लेषण और निदान .......अगर हम संतोष और विवेक की औषधि का उपयोग करें तो निश्चय ही इस बीमारी से छुटकारा पाया जा सकता है....अति सुन्दर और समसामयिक प्रस्तुति...
ReplyDeleteभ्रष्टाचार के तपेदिक के लक्षण और निदान दोनों का बखूबी चित्रण हुआ है । बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !!!
ReplyDeleteमहत्वकांक्षा को महत्त्वाकांक्षा कर लीजिए । कृपया बुरा मत मानिए ।
भारती जी..
ReplyDeleteहृदय से आभारी हूँ...
‘बस विवेक पर
ReplyDeleteनज़र रखने की
ज़रुरत होती है..’
अरे वो तो स्वप्नलोक ब्लाग लिखने में व्यस्त है :)
आज क्षय के इस रोग से हर तरफ़ क्षरण हो रहा है।
ReplyDeleteबहुत खूब ..सही चित्रण ...पर यह ऐसी बीमारी है जिसे लोंग खुद लगाना चाहते हैं ....नज़रें धुंधली हो गयी हैं और विवेक चंद उन लोगों के पास है जिसको इस बीमारी पाने का मौका नहीं मिलता ...
ReplyDeleteबढ़िया सटायर है इस कविता मे ।
ReplyDeleteकॉमनवेल्थ की चकाचौंध में क्या अदा जी आप भी...
ReplyDeleteगंजों के शहर में कंघे बिकते हैं क्या...
मैंने गलत तो नहीं का...
जय हिंद...
@ चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी...
ReplyDeleteआपको मालूम नहीं है...ऊ तो भ्रष्टाचार जी और अनैतिक जी बीजी हैं...विवेक जी तो भेकेशन पर हैं...:):)
बहुत अच्छा लिखा है आपने। रोचक अंदाज में इस राजरोग के कारण और निदान बताये, लेकिन क्या इसका इलाज इतना सरल है?
ReplyDeleteAn ex-prime minister of this country once advocated corruption by quoting it as an international phenomenon.(एडवोकेसी न भी कहें तो पर्दा डालना तो कह ही सकते हैं।)
एक और पूर्व प्रधानमंत्री ने खुद माना था कि केन्द्र से सौ रुपये चलते हैं और जनता तक पहुँचते पहुँचते पन्द्रह रुपये रह जाते हैं।
मेरे हिसाब से हिन्दुस्तान से भ्रष्टाचार कभी खत्म नहीं हो सकता। इसे मेरा नकारात्मक नजरिया मत समझियेगा, बल्कि यह ओब्जर्वेशन है। यहाँ ईमानदारी को तभी तक कोई पसंद करता है जब तक उससे वास्ता न पड़े और हम लोग इसके आदी हो चुके हैं।
शिक्षा प्रणाली जबतक नहीं सुधरेगी, शिक्षा का उद्देश्य जब तक डाक्टर, इंजीनियर, आई ए एस बनाना रहेगा न कि बेहतर इंसान बनाना, भ्रष्टाचार जारी रहेगा।
सामाजिक मुद्दों पर भी आपकी चुटकी जोरदार रहती है।
आभार स्वीकार करें।
बहुत रोचक अंदाज़ में लिखा है ...
ReplyDeleteकही पढ़ा था अक्षरा नैतिक को ही मिलती है ...:)...आपके पोस्ट से इतर लगे कमेन्ट तो क्षमा कीजियेगा ...
नवरात्र पर्व की हार्दिक शुभकामनायें ...!
---शानदार कविता , सार्थक व सामयिक ।
ReplyDelete--बस एक तकनीकी बात ---
"महत्त्वाकांक्षा के वजन का बढ़ना,
और स्वार्थ की भूख बढ़ना "---------तपेदिक में वज़न व भूख दौनों ही कम होजाते हैं।
सच कहा अदा जी इस तपेदिक ने आज ऐसे नासूर का रूप ले लिया है कि समझे ही नहीं आ रहा है कि ..इसे खत्म करके देश को निरोग कैसे किया जाए
ReplyDeleteस्थिति खराब है, हजारों समस्यायें हैं।
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 12 -10 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
ReplyDeleteकृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
ईलाज इसका मुफ्त है,
ReplyDeleteबस विवेक पर
नज़र रखने की
ज़रुरत होती है...
निदान तो है पर कोई अपनाये तब ना.
सुन्दर रचना
क्या कहें..यही देख कर भी चुप रह जाते हैं.
ReplyDeleteइस पर शरद कोकास जी से सहमत !
ReplyDeletebahot achcha likh hain aap.
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