सोचा कुछ हंगामा हो ही जाए...
अपने बच्चों को देखती हूँ तो, अपनी कृति पर नाज़ ही नाज़ करती हूँ....और सुनती ही रहती हूँ, पिता गर्व से कहते हैं..'आख़िर बेटा किसका है !' या फिर 'मेरी बेटी है तो ऐसा ही होना है '...परन्तु जैसे ही कहीं किसी बच्चे ने कुछ भी ग़लती की, फट से आरोप लगता है..'सब तुम्हारी ग़लती है'...'तुम्हारी वजह से ही ऐसा हो रहा है'...वाह जी वाह ! चित्त भी मेरी, पट भी मेरी और अंटा मेरे बाप का....हाँ नहीं तो ..!!
आज सोचा कुछ हिसाब किताब हो ही जाए....एक तो सबकुछ हम करें, लेकिन जब क्रेडिट लेने की बात हो तो कोई और ले जाए...ऐसा हो नहीं सकता है जी....जहाँ भी देखो बच्चों का सारा क्रेडिट दूसरे के नाम चला जा रहा है...बच्चों की पहचान, बच्चों के पिता से ही होती है, जबकि ज्यादातर काम हमने किया है...बच्चों के डीएनए strand में हम माँओं का आधा योगदान है, इस बात से विज्ञानं भी इनकार करने की हिम्मत नहीं कर सकता.....पूरे समय तक अपने खून से सींचना, दुनिया में कदम रखने से पहले ही, उन्हें सारे संस्कार और अच्छाइयों से संवारना ...इसमें तो हमारा ही फुल contribution है...इस बात के लिए कोई भी क्लेम नहीं कर सकता कि किसी ने कोई भी योगदान किया है जी ...इस हिसाब से हमारा योगदान ५०% से बहुत ज्यादा हो गया...उनके जन्म के समय की सारी तकलीफ झेलना और जन्म के बाद उनकी देख-भाल करना, अगर ये भी जोड़ा जाए तो, योगदान ९०% से ज्यादा ही बनता है हमारा...आप कह सकते हैं कि मनोबल बढाने में, या फिर हर तकलीफ में लोग साथ देते हैं, 'साथ' ही देते हैं, झेलते नहीं हैं, और अब तो घर की आर्थिक जिम्मेवारी में भी बराबर का हाथ है हमारा, इन सारे कारणों को देखते हुए महसूस होता है ...महिलाओं का हक़ ज्यादा बनता है बच्चों पर...फिर भी हमारे नाम का नामो निशान नहीं होता...
इसलिए मैंने सोचा, आज इस बारे में हिसाब हो ही जाना चाहिए...ये पूरा-पूरी दादागिरी है या नहीं..ज़रा आप गुणीजन बतायेंगे...?
अब आप कहेंगे...अजी जब पत्नी ही हमारी है, तो फिर बच्चे को उसका नाम क्यों देना ?
बाग़ में माली ने आम का पेड़ लगाया, पेड़ पर आम आए..अब उस आम को 'आम' ही कहा जाएगा और उसी पेड़ के नाम से जाना जाएगा...माली के नाम से नहीं ...माली का नाम अगर 'मंगरा' है तो आम का नाम, मंगरा नहीं हो जायेगा...
लेकिन वाह री दुनिया....हम तो जी एक पेड़ से भी गए गुजरे हैं...! बच्चे को माँ का नाम देने का काम नहीं हो सकता... क्योंकि इससे पुरुषार्थ को चोट पहुँचती है...बराबर में खड़े होने की बात, कहने में, सुनने में और पढ़ने में ही अच्छी लगती है...व्यवहार में लाना कठिन होता है...फिर भी ईमानदारी से सोचने में क्या बुराई है...सोचकर देखिये क्या यह सत्य नहीं है ?
हमारे पूर्वज हमसे ज्यादा संवेदनशील और तार्किक थे ...जब कुंती पुत्र 'कौन्तेय ' कहा सकते हैं तो ...हमारे बच्चों को हमारा नाम क्यों नहीं मिल सकता....??
और इसी बात पर फिर एक बार कहना है...
हाँ नहीं तो ..!!
बिल्कुल सही । हां नही तो ..। पर क्या फरक पडता है ।
ReplyDeleteक्यूँ नहीं..मैडन नेम इसी से तो प्रचलन में आया होगा...अब तो बहुतेरे स्कूलों में भी बाप का नाम नहीं लिखते..सिर्फ माँ का लिखा जाता है.
ReplyDeleteसोलह आने सही बात!!! हाँ नहीं तो...! :-)
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। नवरात्रा की हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteसौ फीसदी सहमत ! मैंने तो खयाली घोड़े भी दौड़ा दिए हैं :)
ReplyDeleteस्वप्न = स्वप्नेय , स्वप्नात्मज , स्वप्नात्मजा ,...?
मंजूषा = मंजूषेय , मंजूषात्मज , मंजूषात्मजा ,...?
शैल = शैलेय , शैलात्मज , शैलात्मजा ,...?
अदा = अदेय , अदात्मज , अदात्मजा ,...?
:-)
ReplyDeleteहां नही तो!!!
आपने तो बस हर माँ के मन की बात कह डाली..... और क्या कहूं.....?
ReplyDeleteहा हा हा ..बिल्कुल सही कहा आपने...
ReplyDeleteआपको नवरात्र की ढेर सारी शुभकामनाएं ....
बढिया !!
ReplyDeleteबहुत सोचपरक विचारणीय पोस्ट प्रस्तुति.....आभार
ReplyDeleteआपको नवरात्र की ढेर सारी शुभकामनाएं .
ReplyDelete
ReplyDeleteदीदी ,
सबसे पहले तो नवरात्रा स्थापना के अवसर पर हार्दिक बधाई एवं ढेर सारी शुभकामनाएं आपको और आपके पाठकों को
शानदार .. जानदार ...बेहतरीन ....... लेख
हमारा पूरा पूरा समर्थन है आपको
आपकी बातें बिल्कुल सही हैं। अब तो विद्यालयों की पंजियों और अंक सूचियों में मां के नाम का भी उल्लेख अनिवार्य है।
ReplyDeleteऔर एक बात बोलूं इस तरह से अगर किसी को संबोधित किया जाये तो उस पर बेहद अच्छा साइकोजिकल इफेक्ट भी होता होगा
ReplyDeleteमाँ का नाम अपने नाम के आगे सुनना बेहद ... बेहद सुन्दर अनुभव होता होगा , जो मन को शीतल करता है और भावनाओं को संतुलित ....
लेकिन दीदी लोग भारत की संस्कृति अपनाना ही कहाँ चाहते हैं , अगर कोई कहता/कहती है तो ऐसे बोलते हैं "भारतीय संस्कृति का रक्षक आ गया/गयी है " :(
जैसे तो कोई रूढ़ीवादी आ गया हो और कहने वालों को ना तो विज्ञान की समझ होती है न कोई विशेष ज्ञान
मैं अनुभव से कह रहा हूँ :(
इतिहास में ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं, सत्यकाम जाबाल एक ऐसा ही नवयुवक था, जिसकी पहचान उसकी माता के नाम से थी।
ReplyDeleteवैसे पिता का नाम देने का एक और भी कारण हो सकता है, जिसे सत्य और विश्वास में फ़र्क के माध्यम से एक चुटकुले में भी समझाया गया है।
बहरहाल, आईडिया बुरा नहीं है और अली साहब ने तो फ़ेहरिस्त भी पेश की है, नोश फ़रमाईये। After all charity begins at home.
माली और पेड़ का उदाहरण मस्त है।
gaurav kI shubhkaamanaae lete hue
ReplyDeleteसबसे पहले तो नवरात्रा स्थापना के अवसर पर हार्दिक बधाई एवं ढेर सारी शुभकामनाएं आपको और आपके पाठकों को
aapake bhaav ko pooraN samarthan
अरे अदा जी ! किसने मना किया है जिसका मर्जी नाम लगाइए .मेरे बच्चे मेरा सरनेम लगाते हैं :) हाँ नहीं तो :).
ReplyDeleteबिल्कूल सही कहा बच्चे पर माँ का हक़ ज्यादा बनता है पर वो हक़ हमें मिलता नहीं | उत्तर भारत में तो नहीं पर मुंबई से लेकर दक्षिण भारत में अपने नाम के साथ पिता का नाम लगाने का प्रचलन है माँ का नहीं | हा मै खुद एक दो लोगों को जानती हु जो अपने पिता के साथ ही माँ का नाम भी जोड़ते है और इसके अलावा एक ऐसे व्यक्ति को भी जानती हु जो अपने नाम के साथ सिर्फ माँ का नाम ही लगते है स्वार्थ के कारण क्योकि उन्होंने अपने पिता की जगह माँ के प्रोफेशन को चुना है और माँ उस क्षेत्र में जानी पहचानी जाती है | मतलब की समाज में माँ का नाम ज्यादा जाना पहचाना जाये तो ये परिपाटी भी शुरू हो सकती है स्वतः | यानी पहले माँ को अपनी पहचान बनानी होगी |
ReplyDeleteबहुत ही कमाल की बात कही आपने ..दक्षिण भारत के इतिहास में एक शातकर्णी वंश हुआ करता तो जिनके शासक अपने नाम के आगे अपनी माता का नाम लगाते थे जैसे गौतमी पुत्र शातकर्णी ...सही कहा आपने और मुझे तो लगता है कि ये नाम की खूबसूरती को और भी बढा देता है
ReplyDeleteसत्य तो यही है कि पुत्र माँ का है, पिता का तो विश्वास ही है।
ReplyDelete---संतान--पुत्र -पुत्री तो माता के ही होते हैं । माता को ही पता होता है कि इसका पिता कौन है। दूध भी माता का ही होता है।
ReplyDelete----माता तो एक ही होती है पर पिता ५ होते हैं---जन्मदाता, विद्यादाता , संस्कारदाता, अन्नदाता( पालक ) व सुरक्षा दाता । इसीलिये प्राचीन भारतीय व्यवस्था में मूलतः माता-पिता दोनों के ही नाम से ही सन्तान पुकारी जाती थी क्योंकि उस समय परिवार में अहं, मेरा-तेरा का भाव ही नहीं था ,माता के नाम से पुकारने के महत्व का एक कारण वहुविवाह व्यवस्था भी थी ।
---परावर्ती मध्य कालों में--युद्ध, संहार से समाज/संस्क्रिति के पतन व स्त्रियों और संपत्ति पर स्वामित्व झगडों के कारण पुरुष-सत्तात्मक स्थिति आने पर सिर्फ़ पिता का नाम प्रयोग में आने लगा।
...... फिर भी हम तो यही कहेंगे
ReplyDelete"भारतीय संस्कृति जिंदाबाद" :)