यह मेरी एक पुरानी कविता है..
अहल्या गौतम ऋषि की पत्नी थी, वह अति-सुन्दर थी, उसकी सुन्दरता पर देवराज इन्द्र तक मोहित थे... गौतम ऋषि प्रातःकाल सूर्योदय से पहले ही उठ जाया करते थे और पूजा इत्यादि में संलग्न हो जाते थे...उस दिन भी यही हुआ था ..लेकिन इंद्र ने चन्द्रमा के साथ मिल कर एक कुटिल योजना बनायीं..चन्द्रमा उस दिन, समय पहले ही अस्त होने लगा, देवर्षि गौतम समय से पहले ही उठ गए और नदी की ओर चल पड़े....जब उन्होंने सूर्यदेव को अर्ध्य देना चाहा, तो उन्हें पता चल गया कि अभी एक पूरा प्रहर बाकी है...वो अपने घर की ओर चल पड़े ...
इधर आश्रम में अहल्या सो रही थी..लेकिन इन्द्र, देवर्षि गौतम का रूप लेकर अन्दर आ गए, अहिल्या उन्हें ऋषि गौतम ही समझ रही थी, और अपना सर्वस्व दे दिया ...जब ऋषिराज गौतम अपने आश्रम के समीप पहुंचे तो उन्होंने छत पर चन्द्रमा को बैठे देखा, उन्हें शक हुआ, ज़रूर कोई बात है...उन्हें देखते ही चन्द्रमा भागने लगा, देवर्षि ने अपना मृगछाला उसपर फेंक कर मारा ...कहते हैं उसी मृगछाले का निशान, आज तक चाँद पर है....उनकी क्रोधित वाणी, इन्द्र के कानों पर भी पड़ी, वो भी निकल कर भागे..और ऋषिराज गौतम से टकराए, ऋषि ने उन्हें तुरंत नपुंसक हो जाने श्राप दे दिया....और ऐसा ही हुआ...अहल्या की अस्त-व्यस्त अवस्था देख कर देवर्षि सब कुछ समझ ही चुके थे ...अहिल्या को भी पाषाण हो जाने का श्राप दे दिया...परन्तु उन्हें इस बात का भी अनुमान था, कि अहल्या उतनी दोषी नहीं थी, इसलिए इस श्राप से मुक्ति का भी उपाय बता गए थे...दशरथ पुत्र राम के चरण रज जब भी उस पाषण पर पड़ेंगे...वो मुक्त हो जायेगी... और ऐसा ही हुआ ...!
आज भी हमारे समाज में न जाने कितनी निर्दोष अहल्यायें, ऐसे हादसों से गुज़र कर, पत्थर सी ही बनी हुई हैं...
निस्तब्ध रात्रि की नीरवता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
अरुणिमा की उज्ज्वलता सी पडी हूँ
कब आओगे ?
सघन वन की स्तब्धता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
चन्द्र किरण की स्निग्धता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
स्वप्न की स्वप्निलता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
क्षितिज की अधीरता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
सागर की गंभीरता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
प्रार्थना की पवित्रता सी पड़ी हूँ
कब आओगे
हे राम ! तुमने एक अहल्या तो बचा लिया
एक और धरा की विवशता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
कविता पुरानी है लेकिन भूमिका में बाँधी गई कहानी नई है । काश !!! आधुनिक अहल्याओं को किसी राम का संवेदनशील स्पर्श मिल सके । मार्मिक कविता ।
ReplyDeleteविजयदशमी की हार्दिक की शुभकामनाएँ
इस युग में अहल्याएं तो बहुत हैं, मगर राम कहां से लाओगे? क्या है कोई पुरुष जो मर्यादा पुरुषोत्तम का एक हज़ारवां हिस्सा भी हो.
ReplyDeleteवैसे मीराजी नें सही कहा है, कि उस एक सर्वशक्तिमान पुरूष के सामने हम सभी स्त्री हैं. ( यहां स्त्री को प्रकृति भी माना जा सकता है)
ये कहानी पहले पढ़ी थी लेकिन वो इतनी विस्तारपूर्वक नहीं थी.
ReplyDeleteकविता को जो शब्द मिले. काबिले तारीफ हैं.
बहुत बहुत सुंदर रचना.
कब आआोगे यही सवाल तो हम सब को है कब आओगे राम । कविता सुंदर है पर चंद्रमा की स्निग्धता शब्द थोडा अटपटा है यहां पर । शिला की जडता होना चाहिये । स्निग्धता तो राम के स्पर्श के बाद आई ना । अगर बुरा लगा हो तो मेरे ब्लॉग पर आकर गलतियां निकालें प्लीज ।
ReplyDelete2.5/10
ReplyDeleteऔसत
कुछ भी ख़ास नहीं है
ATI UTTAM
ReplyDeleteवाह गज़ब
ReplyDeleteआदिकवि श्री वाल्मीकि रचित रामायण के अष्टचत्वरिंशः सर्गः (48वे सर्ग) के श्लोक क्रमांक 17-19 के अनुसार स्पष्ट है कि अहल्या ने इन्द्र को पहचानने के पश्चात् ही अपनी स्वीकृति दी थी। देखियेः
ReplyDeleteतस्यान्तरं विदित्वा च सहस्त्राक्षः शचीपतिः।
मुनिवेषधरो भूत्वा अहल्यामिदमब्रवीत्॥17॥
एक दिन जब महर्षि गौतम आश्रम में नहीं थे तब उपयुक्त अवसर जानकर शचीपति इन्द्र मुनिवेष धारण कर वहाँ आये और अहल्या से बोले -
ऋतुकालं प्रतीक्षन्ते नार्थिनः सुसमाहिते।
संगमं त्वहमिच्छामि त्वया सह सुमध्यमे॥18॥
"रति की कामना रखने वाले प्रार्थी पुरुष ऋतुकाल की प्रतीक्षा नहीं करते। हे सुन्दर कटिप्रदेश वाली (सुन्दरी)! मैं तुम्हारे साथ समागम करना चाहता हूँ।"
मुनिवेषं सहस्त्राक्षं विज्ञाय रघुनन्दन।
मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतुहलात्॥19॥
(इस प्रकार रामचन्द्र जी को कथा सुनाते हुये ऋषि विश्वामित्र ने कहा,) "हे रघुनन्दन! मुनिवेष धारण कर आये हुये इन्द्र को पहचान कर भी उस मतिभ्रष्ट दुर्बुद्धि नारी ने कौतूहलवश (कि देवराज इन्द्र मुझसे प्रणययाचना कर रहे हैं) समागम का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
आशीष जी ..
ReplyDeleteआपकी बात अक्षरसः सही है...
गौतम अपनी पत्नी अहल्या के साथ तप करते थे। एक दिन गौतम की अनुपस्थिति में इन्द्र ने मुनिवेश में आकर अहल्या से संभोग की इच्छा प्रकट की। अहल्या यह जानकर कि इन्द्र स्वयं आए हैं और उसे चाहते हैं- इस अधम कार्य के लिए उद्यत हो गयी। जब इन्द्र लौट रहे थे तब गौतम वहां पहुंचे। गौतम के शाप से इन्द्र के अंडकोश नष्ट हो गये और अहल्या अपना शरीर त्याग, केवल हवा पीती हुई सब प्राणियों से अदृश्य होकर कई हज़ार वर्ष के लिए उसी आश्रम में राख के ढेर पर लेट गयी। गौतम ने कहा कि इस स्थिति से उसे मोक्ष तभी मिलेगा जब दाशरथी राम यहाँ आकर उसका आतिथ्य ग्रहण करेंगे। गौतम स्वयं हिमवान् के एक शिखर पर चले गये और तपस्या करने लगे।
आपका आभार इस योगदान के लिए...
इन्द्र ने स्वर्ग में पहुंचकर समस्त देवताओं को यह बात बतायी, साथ ही यह भी कहा कि ऐसा अधम काम करके गौतम को श्राप देने के लिए बाध्य कर, इन्द्र ने गौतम के तप को क्षीण कर दिया है। इन्द्र का अंडकोष नष्ट हो गया था। अत: देवताओं ने मेष (भेड़ा) का अंडकोष इन्द्र को प्रदान किया। तभी से इन्द्र मेषवृण कहलाए तथा वृषहीन भेड़ा अर्पित करना पुष्कल-फलदायी माना जाने लगा। वनवास के दिनों में राम-लक्ष्मण ने, तपोबल से प्रकाशमान, आश्रम में अहल्या को ढूंढ़कर उसके चरण-स्पर्श किए। अहल्या उनका आतिथ्य-सत्कार कर शापमुक्त हो गयी तथा गौतम के साथ सानंद विहार करने लगी। *
ReplyDeletesabhaar..
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%B9%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE
आज भी हमारे समाज में न जाने कितनी निर्दोष अहल्यायें, ऐसे हादसों से गुज़र कर, पत्थर सी ही बनी हुई हैं...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कहा आपने ...लेकिन ऐसी कथा कहानियों से यह भी आभास होता है की राजा चाहे देवताओं का हो या इंसान का वह कुकृत्य का पर्याय भर होता है ..इसलिए जनतंत्र सबसे अच्छी व्यवस्था है लेकिन इसमें जबरदस्ती कोई महारानी या जबरदस्ती कोई महाराज ना बने तब ....
सारगर्भि्त भूमि्का के साथ सुंदर रचना
विजयादशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं
दशहरा में चलें गाँव की ओर-प्यासा पनघट
मन को छूती हुई बेहतरीन रचना....
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteआपको विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनाये
सुंदर रचना!
ReplyDeleteएक चर्चा यहाँ भी हुई थी -
http://pasand.wordpress.com/2008/05/24/ahlya-haiku-ramayan/
विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें।
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (18/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
बहुत सुन्दर कविता, कथानक संग न्याय करती हुयी।
ReplyDeleteअब न कोई अहिल्या बनता है न कोई अहिल्या किसी राम के चरणों के स्पर्श की प्रतीक्षा करती है । ज़माना बदल चुका है ।
ReplyDeleteकथा की अहिल्या पर प्रतिक्रिया देता ज़रुर पर आशीष श्रीवास्तव की टिप्पणी पर विचारण किये बगैर यह उचित नही होगा !
ReplyDeleteफिलहाल मेरी हाज़िरी ही कुबूल फर्माइये !
अली साहेब..
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति के लिए हृदय से आभार..
धन्यवाद्. आप सब को बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीकात्मक त्योहार दशहरा की शुभकामनाएं. आज आवश्यकता है , आम इंसान को ज्ञान की, जिस से वो; झाड़-फूँक, जादू टोना ,तंत्र-मंत्र, और भूतप्रेत जैसे अन्धविश्वास से भी बाहर आ सके. तभी बुराई पे अच्छाई की विजय संभव है.
ReplyDeleteविजयादशमी पर्व की आपको और आपके पूरे परिवार को हार्दिक शुभ कामनायें।
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट लगी आपकी। छोटी,मगर सब कुछ बता दिया इसमें। कविता भी बहुत सुन्दर और पहले की तरह ही इस बार भी चित्र का सिलैक्शन लाजवाब है।
धन्यवाद।
अहल्या प्रसंग जानते तो थे, लेकिन इस पोस्ट के और फ़िर कमेंट्स के माध्यम से बहुत कुछ और जानने को मिला।
ReplyDeleteवैसे जितनी उत्कंठा से अहल्या ने राम का इंतज़ार किया, मुझे लगता है स्वयं दशरथपुत्र भी उतने ही लालायित रहे होंगे, कर्तव्य था उनका।
और आज की अहल्या की भावनायें दर्शाती कविता, मर्मस्पर्शी।
आभार आपका।