कौनो प्रोजेक्ट कर रहे हैं,या फोरेन का ट्रिप लगाते हैं
गुप्ता जी काफी गंभीर हुए, फिर थोडा मुस्कियाते हैं
फिर संजीदगी से घोर व्यस्तता का कारण हमें बताते हैं
अरे शर्मा जी राम कृपा से, ये शुभ दिन अब आया है
पूरा परिवार को कैनाडियन गोरमेंट ने,परीक्षा देने बुलाया है
कह दिए हैं सब बचवन से, पूरा किताब चाट जाओ
चाहे कुछ भी हो जावे, सौ में से सौ नंबर लाओ
एक बार कैनाडियन सिटिज़न जब हम बन जावेंगे
जहाँ कहोगे जैसे कहोगे, वही हम मिलने आवेंगे
वैष्णव देवी की मन्नत है, उहाँ परसाद चाढ़ावेंगे
बाद में हरिद्वार जाकर, गंगा जी में डुबकी लगावेंगे
कैनेडियन सिटिज़न का पासपोर्ट, जब हमको मिल जावेगा
बस समझिये शर्माजी जनम सफल हो जावेगा
गुप्ताजी की बात ने हमका ऐसा घूँसा मारा
दीमाग की बत्ती जाग गयी और सो़च का चमका सितारा
आखिर कैनेडियन बनने को हम इतना क्यूँ हड़बड़ाते हैं
धूम धाम से समारोह में, अपनी पहचान गंवाते हैं
बरसों पहले हम भी तो, ऐसा ही कदम उठाये थे
सर्टिफिकेट और कार्ड के नीचे, खुद को ही दफनाये थे
गर्दन ऊँची सीना ताने, 'ओ कैनाडा' गाये थे
जीवन की रफ्तार बहुत थी, 'जन गण मन' भुलाये थे
जिस 'रानी' से पुरुखों ने जान देकर छुटकारा दिलाया था
उसी 'रानी' की राजभक्ति की शपथ लेने हम आये थे
अन्दर सब कुछ तार तार था, सब कुछ टूटा फूटा था
एक बार फिर, पराधीन ! होकर हम मुस्काए थे
aap itanee khoobsooratee se taang kheechate kheechate sanjeeda bhee ho jatee hai........
ReplyDeletejitnee akadee akadee chavi aap apanee banatee hai aap utanee hee komal dil walee aur bhavuk hai.........
chalo bahut dino se dimag me ghoom raha hai...poonch hee letee hoo......
ek var murchit ho gayee thee lambee der ke liye.......ab ek dam swasth ho na........
sugar low ho gayee thee kya us samay.....?
Agar uchit samjho to avashy batana.........
Saree duniya hee apanee hai aur socho to kich bhee apana nahee........
अदा जी ,
ReplyDeleteअब तो नमक उनका ही खाए हैं
फिर काहे घबराये हैं ?
नवरात्रों की शुभकामनायें ।
पुरानी है, लेकिन ये कविता बहुत पसंद है जी हमें। कैरियर के चलते या किसी और वजह से बेशक आप जैसों को बाहर जाना पड़ा हो, लेकिन ये देश आपका और आप इस देश के हैं।
ReplyDeleteअसल में यह एक मर्म है ...किन्तु चमक के पीछे भागता इंसान बहुत देर बाद महसूस कर पाता है इसे
ReplyDeleteक्या खूब अभिव्यक्ति है !!
ReplyDeleteपराधीन मानसिकता तो हमारे कामनवेल्थ खेलों में खूब दिख रही है :)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कटाक्ष जो आज भी उतना ही समसामयिक है...बहुत सुन्दर प्रस्तुति...आभार...
ReplyDeleteपराधीन मानसिकता की भी क्या खुब अभिव्यक्ति!!!!
ReplyDeleteसुंदर भावों से सजी कविता |बधाई
ReplyDeleteआशा
अदा जी सादर प्रणाम !!!
ReplyDeleteपुरानी है पर दम है इस बात में
जिस 'रानी' से पुरुखों ने जान देकर छुटकारा दिलाया था
उसी 'रानी' की राजभक्ति की शपथ लेने हम आये थे
अन्दर सब कुछ तार तार था, सब कुछ टूटा फूटा था
एक बार फिर, पराधीन ! होकर हम मुस्काए थे
@ सरिता जी...
ReplyDeleteमैं बिलकुल स्वस्थ हूँ, डाक्टरों को तो बस बहाना चाहिए...(दराल साहेब, डा. अमर :):))
आपने याद रखी है ये बात, आपका स्नेह है...सच में बहुत अच्छा लगा..आपका पूछना..
अरे... हमसे तो डाक्टर भी परेशान रहते हैं..कि ये ठीक कैसे हो जाती है...हमारे बिजिनेस की ऐसी-तैसी कर देती है...
हाँ नहीं तो..!!
@ डा. दराल ...
ReplyDeleteअब खाना तो हम होटल में भी खाते ही हैं...और जम के पैसा चुकाते हैं....
है कि नहीं...!!
@ संजय जी...
ReplyDeleteबात ई है.... हम हैं ज़मीन के इंसान ...और पैर हमेशा ज़मीन पर ही रखते हैं...
जब तक गोबर गाय नहीं देख लेते ...जीने का मज़ा नहीं आता...
अब हम ठहरे विशुद्ध भारतीय....दुनिया में कहीं भी रहे...भारत को ही ढूंढते हैं.....अगर न मिले तो बना लेते हैं...
ईहाँ भी बना ही लिए हैं...
हाँ नहीं तो..!
अच्छा ........तो यह पुरानी कविता है.....?
ReplyDeleteअनिल जी...
ReplyDeleteआप गलत समझे हैं...जितनी चमक भारत में है उतनी दुनिया के किसी कोने में में नहीं...
कहते हैं मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी...हम भी अपनी रोजी-रोटी के ही चक्कर में यहाँ आये हैं...
हम तो वैसे ही अप्प्लाई कर दिए थे अब हमको का मालूम था कि ये लोग बुला ही लेंगे ...और जब बुला लिया तो रोजी को अपनाना ही होता है...
यहाँ आकर हमने कोई गलती नहीं कि है...लेकिन कुछ खोने का दुःख होता ही है...
हमें तो वैसे भी खोने कि आदत है...लड़की हैं न...पहले माँ का घर खोया...अब देश...का फरक पड़ता है....
बस एक बात साफ़ कर देवें हम...चमक के पीछे न पहले माँ का घर छोड़े हैं ..न ही देश...जो भी छोड़ा है...इसलिए कि छोड़ना पड़ा है...
आपका शुक्रिया...
@ जनाबे आली महफूज़ जी...
ReplyDeleteकौनो सक है का...!
जब वसुधा को कुटुंब मान ही लिया है तो फिर काहे का अपराध बोध !
ReplyDeleteराजनैतिक सीमाओं से 'बड़ी हद' में रहिये , देखिएगा एक दिन सारे फासले मिट जायेंगे !
@ अली साहब...
ReplyDeleteअपराध बोध इस बात का नहीं है...कि विदेश में हूँ...
अपराध बोध इस बात का है कि :
जिस 'रानी' से पुरुखों ने जान देकर छुटकारा दिलाया था
उसी 'रानी' की राजभक्ति की शपथ लेने हम आये थे
अन्दर सब कुछ तार तार था, सब कुछ टूटा फूटा था
एक बार फिर, पराधीन ! होकर हम मुस्काए थे
तौ बिटिया देर मत करो इहाँ कि टिकट कटाय लियो औउर वापिस आई जावो. कौउन रोकत है
ReplyDeleteछोडो रानी कीकि रामभक्ति
बहुत खूब... तारीफ़ में पहले ही काफी कहा जा चुका है... मेरा भी वही कहना है.....
ReplyDelete@ अनामिका आंटी जी...
ReplyDeleteबस अभयहीं टिकसवा लेवत हैं ..आउर चहुपत हैं...:):)
सामयिक लगी आपकी कविता ...
ReplyDeleteफिर से पढ़कर भी वो ही पुरान वाले भाव जागे. :)
ReplyDelete@ अदा जी ,
ReplyDelete:)
आपकी कविता 'अच्छे से पढकर' ही टिप्पणी की थी , मुश्किल ये है कि आप 'श्रम' को राज्य भक्ति और पराधीनता के ख्याल से जोड़ दे रही हैं ! कनाडा ही क्यों आप जैसे लाखों भाई बहिन अरब मुल्कों में अपने श्रम को पूंजी में बदलने गये हैं ! ज़रा कहिये तो ...किसी भी अरबी रानी को हमारे पूर्वजों नें जान दे कर भगाया है भला ? हजारों हजार नेपाली अपना श्रम लेकर भारत आते हैं और लाखों चीनी भी अन्य देशों में ऐसे ही मौजूद हैं ! इतना ही नहीं खुद रानी के वंशज अंग्रेज भी दूसरे मुल्कों में वही कर रहे हैं जो कनाडा में मेरे श्रमवीर भाई बहिन !
कहने का आशय ये है कि इंसान अपनें श्रम के साथ अपनी पूरी वसुधा में विचरता है ! राजनैतिक सीमा रेखायें और इतने सारे देश बनने से बहुत पहले से ही इंसान यह करता आया है ! अतः आपका श्रम और उससे जुड़ा प्रवास मेरे लिए वैसा नहीं है जैसा आपनें कविता में अभिव्यक्त कर दिया है !
राजा / रानियां आते जाते रहेंगे उनका आना जाना और राजनैतिक देशों का उद्भव / पतन ...किसी भी रूप में महापराक्रमी इंसान और उसके श्रम को छोटा नहीं करता वो तब भी प्रवास करता था जब देश विदेश नहीं थे ! इसलिए कहता हूं जी छोटा मत कीजिये...
" राजनैतिक सीमाओं से 'बड़ी हद' में रहिये , देखिएगा एक दिन सारे फासले मिट जायेंगे"
[ बुरा मत मानियेगा वसुधैव कुटुम्बकम के बारे में मेरे ख्याल ऐसे ही हैं ]
हमेशा की तरह अली जी ने एक अलग दृष्टि दी है। आभार।
ReplyDeleteरानी का डंडा चलता रहा है और रहेगा। सच का एक पहलू यह भी है।
जिराफ को हेल्थ चेकअप और परहेज की आवश्यकता है। :)
ReplyDelete@ गिरिजेश जी...
ReplyDeleteएक मुद्दत के बाद आपके दर्शन हुए हैं...
और जिराफ़ का का कहें...अच्छा खासा फिगर ईहाँ का फ्रेंच फ्राईस खा के कबाड़ा हो गया है....कनाडियन जिराफ़ है न...!
रानी की प्रजा,
ReplyDeleteवाह रे मज़ा।
एक बार फिर, मैं पराधीन...
ReplyDeleteसेंस ऑफ ह्यूमर आपका गजब का है...
मैंने गलत तो नहीं का...(हां नहीं तो... का जवाब ढूंढा है)
जय हिंद...
सीधी साधी भाषा में गंभीर बात कहने का ढंग , अच्छा लगा बधाई
ReplyDeleteह्म्म्म...
ReplyDeleteये हैं न इंडिया वाली अदा ...क्या बात है ...
कविता पुरानी है फिर भी नयी जैसी ही है ..
कुछ सन्दर्भ हमेशा एक जैसे ही रहते हैं ...!