Monday, October 11, 2010

उम्मीद का दामन..


एक पुरानी प्रविष्ठी....
ठोकर खाकर मैं गिरती जब तक,
थामने को उठे कई हाथ,
निकल रहा था मेरा दम,
कि हवाओं ने दिया झूम के साथ
कितना घना अँधेरा था,
जब वज़ूद बना एक बिसरी बात,
तब, 
तारे झुक झुक आये मुझे तक
स्याह रात बनी उजली रात,
तन्हाई के आग़ोश में अब तो
महफूज़ हैं मेरे हर जज़्बात,
तेरा क्यूँ मैं सोग मनाऊँ,
जब उम्मीद खड़ी है थामे हाथ...



12 comments:

  1. बहुत दिनों बाद इतनी प्यारी सी रचना पढने को मिली..यूँ ही लिखते रहें....

    मेरे ब्लॉग पर इस बार
    एक और आईडिया....

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  2. जिस तरह phoenix पक्षी जलकर फ़िर उठ खड़ा होता है, आपकी बहुत सी गज़लों, कविताओं में निराशा जैसे भावों को झटककर उम्मीद और विश्वास तनकर खड़े हो जाते हैं। ये भी ऐसी ही रचनाओं में से एक है।
    बहुत शानदार। पुरानी है तो क्या हुआ? वो कहते हैं न कुछ ’ब्यूटी थिंग और जॉय फ़ार एवर’ या ऐसा ही कुछ। हा हा हा।
    सही बात है, ’महफ़ूज़ हैं जज्बात, तो काहे का सोग।’
    हमेशा की तरह चित्र भी बहुत ही खूबसूरत, matching with the sentiments.
    शुभकामनायें।
    हम भी हमेशा की तरह...आभारी।

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  3. kya kahun ..... ye hausla hi zindagi ko aakar deta hai ....
    vatvriksh ke liye bhejen

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  4. उम्मीद का हाथ हमेशा थामे रहें...उम्दा रचना.

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  5. तारे झुक झुक आये मुझे तक
    स्याह रात बनी उजली रात,
    तन्हाई के आग़ोश में अब तो
    महफूज़ हैं मेरे हर जज़्बात,
    उम्मीद भरी सकारात्मक रचना......

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  6. उम्मीद का हाथ, सदा ही अपने पास रहता है।

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  7. वाह ...तेरा क्यूँ मैं सोग मानों जब उम्मीद खड़ी है साथ ...
    ये हौसला हर दिल में कायम रहे ...
    बहुत बढ़िया ...!

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  8. बहुत बेहतरीन

    कभी फुरसत मिले तो यहाँ भी आइये
    www.deepti09sharma.blogspot.com

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  9. यह हौसला काबिले तारीफ़ है....

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  10. एक उम्मीद जो सब क़ायम है !

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