Saturday, June 30, 2012

SAUDIS TRAVELING FOR "HALAL SEX" TO INDONESIA

SAUDIS TRAVELING FOR "HALAL SEX" TO INDONESIA

Nikaah al-mut'ah (or commonly known as 'mut'ah) is a temporary marriage contract in which two parties agree to the duration of the marriage at the start of the agreement. The agreement does not have a lower limit. As an example, it can be stipulated for 45mins, one night, one month or 10 years. The time is mutually agreed. A form of 'mahr' (gift) is often advanced and in this period, man and woman can resume intimacy and in effect, live as married couples. At the end of the specified period, the Nikaah al-mut'ah is automatically dissolved without the need for divorce.

'निकाह अल-मुताह', जिसे आम तौर पर 'मुताह' के भी नाम से जाना जाता है, एक अस्थायी शादी का अनुबंध है जो दो पक्षों के बीच शादी की अवधि के समझौते से शुरू होती है। इस शादी में निम्नतम अवधि की कोई सीमा नहीं होती, उदाहरणार्थ इस शादी की अवधि 45 मिनट, एक रात, एक महीना या 10 साल हो सकती है। अवधि की सीमा दोनों पक्षों के, आपसी समझौते से तय की जाती है। 'मेहर' या उपहार पेशगी के रूप में दे दिया जाता है। इसके बाद स्त्री और पुरुष, आत्मीय सम्बन्ध में जा सकते हैं, और एक विवाहित जोड़े की तरह रह सकते हैं। अवधि की समाप्ति के साथ ही निकाह अल-मुताह अपने आप भंग हो जाता है, इसमें तलाक़ की आवश्यकता नहीं होती है।

Wednesday, June 27, 2012

जो मुझे अधूरा समझे, वो नगण्य है मेरे लिए,

(ब्रेस्ट कैंसर को हरा कर आने वाली उन विजयी महिलाओं को समर्पित)

सुन रही हो मौत !
देख लो !
मैंने तुम्हें हरा दिया,
'मुझसे चूक हो गयी'
कहने के सिवा रास्ता क्या
बचा था तुम्हारे पास ?
मेरे पीछे-पीछे,
हर घडी तुम प्रदक्षिणा
करती रही,
मैंने भी कटिबद्ध होकर
तुझसे पीछा छुड़ा लिया ।
मेरा मातृत्व, मेरे वक्ष पर
टिका कोई भाव नहीं,
जो इनके कट जाने से गिर जाएगा !
वो तो मेरे रोम-रोम में बसा है
प्रस्फुटित होता ही रहेगा
मेरा ममत्व, अनादिकाल तक ।
हाँ...
कुछ भाव जो गाहे-ब-गाहे
दिखते थे मेरे मुख पर,
उनका शास्वत आधिपत्य
अब हो गया है, मेरे उर-आनन् पर
संतुष्टि, गौरव, विजय, साहस, ख़ुशी
और पूर्णता,
यही नाम हैं उनके ।
इनसब से सजी मैं दमकती हूँ ।
अब अपने परिजनों संग, मैं चहकती हूँ ।
निकल आई हूँ ,
ज्यामिति और अंकों के बंधन से,
जो मुझे अधूरा समझे
वो मेरे लिए भी नगण्य है,
और तू  ?
तू तो बस ताकती रह मेरा मुख
तब तक,
जब तक तेरा समय नहीं आ जाएगा !!
हाँ नहीं तो।.!!


दूध के जले हुए हैं हम...हर दिल जो प्यार करेगा...'आवाज़ 'अदा' की...

दूध के जले हुए हैं हम,
अब छाँछ भी,
फूँक कर पीते हैं ।
अफ़सोस बस इतना है कि,
हम दूध से भी जल गए...!!!
और अब एक गीत ...हर दिल जो  प्यार करेगा...'आवाज़ 'अदा' की...

Sunday, June 24, 2012

बईठल-बईठल गोड़ो टटाने लगा है...(Monologue)

आज तो भिन्सरिये से, जब से गोड़ भुईयां में धरे हैं, अनठेकाने माथा ख़राब हो गया है। बाहरे अभी अन्हारे है..बैठे हैं ओसारा में और देख रहे हैं टुकुर-टुकुर। आसरा में हैं कब इंजोर होवे, साथे-साथे सोच रहे हैं, काहे मनवा में ऐसे बुझा रहा है, हमरा तो फुल राज है घर पर (कौनो गलतफैमिली में मत रहिएगा, हम निरीह राष्ट्रपति हूँ, प्रधानमन्त्री नहीं), हाँ तो हम कह रहे थे, फुल राज है हमरा घर पर, न सास न ससुर, न कनियां, न पुतोह, न गोतनी, न भैंसुर, न देवर-भौजाई, बस दू गो छौंड़ा और एगो छौड़ी है हमर । पतियो तो नहीं हैं हियाँ, जे नरेट्टी पर सवार होवे कोई। ऊ हीयाँ नहीं हैं, माने ई मत समझिये कि, हमको फुल पावर है। अरे अईसन खडूस हैं, कि रिमोटे से, कोई न कोई बात हमरे माथा पर बजड़बे करते हैं। साँवर, पतरसुक्खा आदमी बहुते खतरनाक होता है...हम कह दे रहे हैं। :)

हाँ.. तो तखनिए से हम सोच रहे हैं कि, काहे हम खिसियाये हुए हैं। अरे ! आप हमको बुड़बक मत न समझिये, तनी कनफुजिया जानते हैं और नर्भसाईयो जाते हैं। हाँ ! अब इयाद आ गया, कल्हे बोले थे, बचवन को, बाबू लोग गाड़ी थोडा हुलचुल कर रहा है, देखवा लो, कुछ कमी-बेसी होवे तो, बनवा लो, आज एतवार है, हमको कहीं जाना पड़ सकता है, कहीं बीच बाजार में ई टर्टरावे लगेगा तो बेफजूल में माथा ख़राब होवेगा। लेकिन ऊ लोग तो हमरा सब बात टरका देता है न, अभी कुछो apple का टीम-टाम कीनना होगा उनका, तो सब आएगा हमरा खोसामद करने, तब सब लबड़-लबड़, निम्मन-निम्मन बात करेगा, यही बात पर तो हमको खीस लगता है | सब बचवन एक लम्बर का खच्चड़, लतखोर और थेथर हो गया है, बड़का तो महा बकलोल, बुड़बक, और भीतरी भितरघुन्ना है, काम कहो तो करता नहीं है, यही में मन करता है, सोंटा निकाल लेवें |

जब बियाह होगा, आउर आवेगी कोई गोरकी-पतरकी, तब सब एक टंगड़ी पर खड़ा रहेगा लोग, ठीके है वही लोग सरियावेगी ई सब को, सबको बहुते फिरफिरी छुटता है..खाना परोसो तो सौ किसिम का नखरा, कलेवा होवे कि बियालु किचिर किचिर होबे करेगा, कोई को रामतोराई नहीं पसीन्द, तो कोई बाबू साहेब को कोंहड़ा नहीं पसीन्द, कोई का पेट गोंगरा, पेचकी, बईगन, बचका से ऐंठता है, कोई भात से दूर भागता है, तो कोई रोटी देखिये के रोता है, हाँ चोखा सब मन से खाता है, आउर फास्ट फ़ूड, पीजा परात भर के रख देवें तो सब भकोस लेगा लोग। एगो हमरे बाबा थे, पहिला कौर मुंह में डाले के पहिले ही चालू हो जाते थे। खाना बढियाँ बना है, खाली धनिया तनी ठीक से नहीं भुन्जाया है, सीझा नहीं है आलू, तनी महक आ रहा है जीरा का। हाँ तो ई बचवन अब काहे को पीछे रहेगा भाई, खाना में मीन-मेख निकाना सब अपने नाना का कौउलेज में सीखा है ना। 

देख लीजियेगा, बियाह बाद सब छौडन लोग छूछे भात खायेगा, भिंजाया हुआ बूट भी ऐसन चभर-चभर खायेगा जैसे पोलाव खा रहा है...काहे ? काहे कि उनकी कनियाँ  बना के देवेगी न.! तखनी हम पूछेंगे सबको। 

हमको बढियाँ से मालूम है, सब एक पार्टी हो जावेगा, हमरे ई तो अभिये से कहते रहते हैं, जेतना टर्टराना है टर्टरा लो, मेहराना तो तुमको हईये है, सब पतोहू लोग को हम बतावेंगे तुम हमको केतना नाच नचाई हो।  फोनवा पर उनसे रोज़-रोज़ हमरा बतकही होईये जाता है, अब का बात पर होता है, का-का बतावें, गोइंठा में घी कौन डाले। हमको कहे ऊ एक दिन तुम तो ट्यूबलाईट हो कुछो नहीं समझती हो, हमहूँ कह दिए आप तो ढिबरी हैं, बस बमकिये गए आउर फोनवे बीग दिए। जाए देवो हम कौनो डरते हैं का किसी से। :)

कल्हे ठेकुआ, निमकी और पुरुकिया बनाए थे, आधा घंटा में सब चट कर दिया बचवन, अब हमको छूछे चाय पीना पड़ेगा,

चलिए सूरज भगवान् दरसन देवे लगे हैं अब, और सामने अंगना में एगो खरगोस दीस रहा है, रोज़ आ जाता है ई सब, एक बार तो घर के भीतरे ढुकने का कोसिस भी किया था, हम धरने गए तो बकोट-भभोड़ दिया था हमको, बढ़नी से मारे तो भागिए गया...हाँ नहीं तो...!

दू-चार गो हुलचुलिया बेंग तो रोजे देख लेते हैं, अरे, उनका ठोर देखके अंग्रेजी फिलिम याद आ जाता है, कौनो देस की राजकुमारी थी, जो बेंग का ठोर पर चुम्मा कर दी, और बेंगवा राजकुमार बन गया। राम-राम केतनो कोई बड़का राजकुमार बन जावे, बेंग का ठोर पर तो हम मरियो जावेंगे, तईयो चुम्मा नहीं करेंगे...

चलिए अब सूरज देवता परकट होइए गए, दू गो मौगी दौड़ने निकल गई है, हमहूँ अब कौनो काम-ऊम कर लेवें, अब हियाँ खेत-खलिहान तो है नहीं कि, दौनी, निकौनी, कियारी-कदवा, पटवन-छिट्टा करें, न हमरे पास कोई गाय-गरु है कि दर्रा-चुन्नी सान के दे देवें...अभी तो हम भीतरे जावेंगे, फट से इस्टोव जलावेंगे, अउर अपना लेमन टी बनावेंगे..फिन आराम से पोस्ट-उस्ट पढेंगे, बचवन को हाँक लगावेंगे, सब उठेगा धडफड़ईले :) तो चलिए फिर मिलते हैं, काहे से कि अब बईठल-बईठल गोड़ो टटाने लगा है , एक कुंटल वोजन जो हो गया है हमरा .....हाँ नहीं तो..!

Saturday, June 23, 2012

अब कहाँ मिलते हैं, ऐसे भारत के लाल, ऐसे भाई, ऐसे शिष्य और ऐसे पुलिस वाले (संस्मरण )


बिहार के ही नहीं पूरे देश के पुलिस महकमें में एक नाम स्वर्णाक्षरों में हमेशा लिखा जाएगा, नाम है 'रणधीर  प्रसाद वर्मा' जो एक आई. पी.एस थे। रणधीर वर्मा धनबाद के बैंक की डैकती के सुराग का पता लगाने में लगे हुए थे, कहा जाता है, इसी डकैती के लिए कुछ टिप देने के लिए धोखे से उनको बुलाया गया था, और वो अकेले ही चले गए थे, और इसी दौरान उनको घात लगा कर, मारा गया था।

मैं रणधीर भईया के परम प्रिय गुरु, की पुत्री हूँ, उनका स्नेह मुझे हमेशा मिला था। मेरे पिता एक शिक्षक थे, और एक शिक्षक का धर्म, उन्होंने पूरी आस्था से जीवनपर्यंत निभाया। रणधीर भईया उनके बहुत प्रिय छात्र थे। रणधीर भईया अक्सर हमारे घर आया करते थे, मेरे बाबा के साथ बैठ कर घंटों बतियाया करते थे। कहा करते थे मुझसे  'मुन्ना तुम खुशकिस्मत हो, जो सर तुम्हारे पिता हैं, लेकिन मैं तुमसे ज्यादा खुशकिस्मत हूँ क्योंकि वो मेरे गुरु हैं' उम्र में वो मुझसे बहुत बड़े थे, और मुस्कुराते भी कम थे, इसलिए उनसे डर ही लगता था, जब भी आयें यही पूछते थे, खाली गाना चल रहा है या कुछ पढाई-लिखाई भी होता है। और हम डर कर सकुचा जाते थे। मुझसे वो बहुत कम बोलते थे, लेकिन स्नेह बहुत करते थे।

स्व. रणधीर वर्मा को मरणोपरान्त भारत सरकार ने 'अशोक चक्र' भी दिया है । 

एक दिन रणधीर भईया घर आये और बाबा के पास बैठ गए, कहने लगे 'सर ! मैंने आज तक जीवन में कभी घूस नहीं लिया, इसलिए आपको कभी कुछ दे नहीं पाया, लेकिन आज मैं आपको, घूस देना चाहता हूँ और यह चीज़ मैं सिर्फ आपको ही दे सकता हूँ, क्यूंकि आप से अच्छा कोई दूसरा पात्र मेरी नज़र में नहीं है, इस उपहार के लिए' मैं साथ ही बैठी हुई थी, और मुझे समझ में नहीं आ रहा था, इतने कड़क रणधीर भईया, बाबा को आज घूस दे रहे हैं। ऐसी क्या चीज़ हो सकती है, जो भईया आज बाबा को देने वाले हैं। बाबा के चेहरे पर भी उत्सुकता परिलक्षित हो रही थी। रणधीर भईया ने धीरे से अपनी जेब से एक खूबसूरत सा बक्सा निकाला और खोल कर सामने रख दिया। उस बक्से में एक पारकर पेन था। बाबा बहुत खुश हुए। पेन देते हुए भईया ने कहा था बाबा को 'सर मेरी नज़र में इस कलम को आपके हाथ से बेहतर हाथ, दूसरा नहीं मिल सकता है। इसे आप मेरी गुरु दक्षिणा समझिएगा और इससे जो भी आप लिखेंगे उसे मैं आपका आशीर्वाद समझूंगा और सर यह उपहार मेरी अपनी मेहनत की कमाई से लिया है मैंने, जिसकी शिक्षा मुझे आपने हमेशा दी है। मेरे हाथों में तो अब कलम शोभती ही नहीं, इन हाथों को तो अब बस इसकी आदत हो गयी है, कहते हुए उन्होंने होल्स्टर से पिस्तौल निकाल लिया था और बड़े प्रेम से उसे देखने लगे । इतना खूबसूरत उपहार पाकर मेरे बाबा का चेहरा ख़ुशी से दमक उठा था। आज भी वो कलम मेरे बाबा की आलमारी में सुरक्षित है। ऐसे थे मेरे रणधीर भईया।

मेरी शादी का दिन था, रणधीर भईया ने मुझसे वादा किया था मैं ज़रूर आऊंगा, मुझे मालूम था वो बहुत व्यस्त हैं, लेकिन मन में एक विश्वास था, कि ये हो ही नहीं सकता भईया न आयें, मुझे याद है, वो अपने पूरे दल-बल के साथ आये थे, सिर्फ एक घंटे के लिए, आकर उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा था, कहा था 'मुन्ना ! बस इतना याद रखना, तुम वीरेंदर नाथ कुँवर की बेटी हो और रणधीर वर्मा की बहन', मैंने झुक कर पाँव छू लिए थे उनके । उनकी आँखों में एक आदेश था और मेरी आखों में एक वादा। भूल नहीं पाती हूँ वो दिन। 

मैं तो बाहर गयी नहीं थी देखने, लेकिन लोग बताते हैं, घर के बहार 5-6 पुलिस की जीप खड़ी थी और 20-25 पुलिस वाले बारातियों को खाना परोस रहे थे, रणधीर भईया भी बारातियों को पूछ-पूछ कर खाना खिला रहे थे। इतनी पुलिस देख कर, एक बार को लोग घबरा ही गए थे, लेकिन सारे पुलिस वालों के हाथ में पूरी-कचौड़ी देख कर आश्वस्त हो गए। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक सोच लिया था, ज़रूर दुल्हन ने शादी से इनकार कर दिया होगा (जस्ट किडिंग )। 

मुझे ये भी बताया था लोगों ने, रणधीर भईया ने सिर्फ मिठाई खाई थी और बाकि पुलिस वालों को भी सिर्फ  मिठाई ही दिलवायी, किसी को खाना खाने नहीं दिया, न ही खुद खाए। कह दिया, इस समय मैं डयूटी पर हूँ,  मेरी बहन की शादी है, इसलिए मिठाई तो खाना ही है। एक भाई का फ़र्ज़ पूरा करके, बाबा के पाँव छू कर, दुल्हे को आशीर्वाद देकर रणधीर भईया चले गए। यह सब लिखते हुए भी मुझे सब याद आ रहा है।

मेरी शादी के, कुछ साल बाद ही,रणधीर भईया शहीद हो गए। 
अब गुरु-शिष्य की ऐसी परिपाटी कहाँ मिलती है देखने को। और अब कहाँ मिलते हैं, ऐसे भारत के लाल, ऐसे भाई, ऐसे शिष्य और ऐसे पुलिस वाले।

Friday, June 22, 2012

सिंथेसिस ऑफ़ कल्चर्स...

 भारतीय शादी में भारतीय दूल्हा दुल्हन विदेश में 
इन दिनों  एक विमर्श कईं जगह देख रही हूँ, सुहाग प्रतीकों को हिन्दुस्तानी महिलाएं धारण करें या न करें। सच पूछा जाए तो सिन्दूर को छोड़ कर और बाकि जितने भी सुहाग प्रतीक जो माने जाते हैं, बहुत पहले ही वो अपने दायरे से निकल चुके हैं। जैसे चूड़ियाँ, बिंदी, बिछुआ या बिछिया, पायल, मंगलसूत्र ...ये सब कुँवारी लडकियां भी आज से नहीं, बहुत पहले से पहनतीं हैं। यहाँ तक कि विधवाएं भी काली बिंदी और चूड़ियाँ  पहन लेतीं हैं, इसलिए इन प्रतीकों का सुहाग से कोई वास्ता नहीं है। हाँ सिन्दूर ही एक मात्र ऐसा प्रतीक है जिसे सही अर्थों में सुहाग चिन्ह माना जा सकता है। सिन्दूर को छोड़ कर सभी प्रतीक सुन्दरता के लिए ही व्यावहार में लाये जाते हैं। लेकिन वो दिन भी अब दूर नहीं जब सिन्दूर भी फैशन में आ जाएगा। अब नीचे के चित्र में देखिये रेखा ने सिन्दूर लगाया हुआ है। जबकि वो कम से कम अभी तो शादी-शुदा नहीं है। ये किसी फिल्म का दृश्य भी नहीं है, और तस्वीर बहुत हाल की है, तो हम तो इसे फैशन ही कहेंगे।


सुन्दरता का मानक अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग है, जैसे कहीं बहुत दुबला होना खूबसूरत माना जाता है तो कहीं भरा-पूरा बदन खूबसूरत कहा जाता है। यह सच है कि भारत में भारतीय परिधान के अंतर्गत इन सभी प्रतीकों का अहम् स्थान है, लेकिन अब दुनिया बहुत छोटी हो गयी है। टी. वी., इन्टरनेट के माध्यम से अब हम दुसरे देशों की संस्कृति और पहनावे देख सकते हैं साथ ही उनको आत्मसात भी कर सकते हैं। परिधान हमेशा से संस्कृति का परिचायक रहा है, और संस्कृति समय के साथ बदलती है। मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ यहाँ डाल  रही हूँ :

मनुष्य की आधारभूत,
भावनाओं पर, 
चढ़ते-उतरते,
नित्य नए, 
पर्दों का नाम ही,
'संस्कृति' है,

संस्कृतियाँ हमेशा, परिवेश के अनुसार बदलती है। हम जहाँ होते हैं उसी के अनुसार हमारी संस्कृति ढल जाती है। अब तो कनाडा में हिन्दू शादियों में दुल्हन सफ़ेद गाउन पहन रहीं हैं, तो क्या वो दुल्हन नहीं है, और क्या वो शादी, शादी नहीं है। एक तरह से आप देखें तो 'सिंथेसिस ऑफ़ कल्चर्स' अब हर जगह नज़र आता है । पहले लोग जहाँ जाते थे वहां की संस्कृति अपने हिसाब से अपना लेते थे, लेकिन अब संस्कृतियाँ लोगों तक पहुँच रहीं हैं। अपनी संस्कृति को बचाते हुए, अपनी संस्कृति में तब्दीलियाँ लाते हुए, दूसरी संस्कृति को अपनाना, मनुष्य की आधारभूत भावना है । इस बचाने-अपनाने में कुछ तो खोना पड़ता ही है, इस बात का खुलासा मैंने बहुत पहले अपनी एक पोस्ट पर किया था 'हिन्दू दुल्हन मुस्लिम दुल्हन ' । परिधान की रूप-रेखा अब सामाजिक ज़रुरत कम व्यक्तिगत पसंद ज्यादा है। पहले हम दूसरों के लिए कपडे पहनते थे, इस बात का ख्याल रखा जाता था कि  'लोग क्या कहेंगे', अब ऐसा नहीं है। व्यक्तिगत मूल्यों ने सामजिक सरोकारों को तूल  देना बंद कर दिया है। 

वैसे भारत में ही इन प्रतीकों के इस्तेमाल में फर्क है, कई स्थानों में हिन्दू विवाहों में, सफ़ेद पोशाक में विवाह का चलन है, जैसे शायद केरल में। जबकि उत्तर भारत में इस रंग को शोक का रंग माना जाता है। भारत में ही पंजाबियों में सिन्दूर का उतना चलन नहीं है। साउथ में भी सिन्दूर नहीं लगातीं हैं स्त्रियाँ। वहां मंगलसूत्र पहना जाता है, जब कि मंगलसूत्र का चलन बिहार और झारखण्ड या बंगाल में नहीं है। 

विदेशों में हो रही हिन्दू शादियों में भी, लाल अथवा पीले वस्त्रों में सजी दुल्हन अब कम ही देखने को मिलती है। विदेशों में तो सिन्दूर लगाई हुई, नयी दुल्हन नज़र नहीं हीं आतीं हैं। यह बदलाव यहाँ के परिवेश के हिसाब से हो रहा है। सिन्दूर जैसे प्रतीक, अपना मूल्य खो रहे हैं और दुसरे प्रतीक उनका स्थान ले रहे हैं, जैसे शादी का प्रतीक यहाँ 'अंगूठी' है, आप किसी के हाथ में, महिला हो या पुरुष अगर अंगूठी देखते हैं तो आप जान जाते हैं कि वो 'शादी-शुदा' है।  कितने पुरुष जब फ्लर्ट करते हैं तो सबसे पहले वो अपनी अंगूठी उतारते हैं, यह दिखाने के लिए कि वो 'अवेलेबल' हैं। :)

साड़ी के साथ सिन्दूर 

पाश्चात्य परिधान बिना सिन्दूर के 

अब इन प्रतीकों का इस्तेमाल ज़रुरत और कम्फर्ट के हिसाब से किया जाता है, मसलन अगर स्त्री साड़ी पहनेगी तो इन प्रतीकों का इस्तेमाल करेगी, क्योंकि ये प्रतीक इस लिबास के हिसाब से माफिक बैठते हैं । लेकिन अगर वही स्त्री कोई वेस्टर्न ड्रेस पहनेगी तो इन प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं करेगी, क्योंकि ये प्रतीक उस परिधान के अनुकूल नहीं हैं। जो रोज़ सिन्दूर लगातीं हैं, वो वेस्टर्न ड्रेस नहीं पहनती हैं, और अगर वो वेस्टर्न ड्रेस पहनतीं हैं और सिन्दूर लगाना ही चाहती हैं तो फिर वो ऐसे लगातीं हैं कि नज़र न आये। हाँ भारतीय पति, सास, ननद  ज़रूर चाहते हैं कि उसकी पत्नी या बहू ये सारे प्रतीक पहने, कारण कई हैं:
  1. महिला सुन्दर लगती है।
  2. पति को अच्छा लगता है, उसके नाम का सिन्दूर पत्नी ने लगाया हुआ है।
  3. कहीं परिवार वालों के मन में एक सुरक्षा की भावना आती है, शादी-शुदा स्त्री के साथ कोई बत्तमीजी नहीं करेगा , सिन्दूर का उपयोग एक सुरक्षा कवच देता है। हालांकि ये एक भ्रम ही है।
  4. यह भी भ्रम ही सही, सिन्दूर न सिर्फ पत्नी को सुरक्षा कवच देता है बल्कि पति को भी देता है। इसे नहीं लगाना अशुभ माना जाता है, ख़ास करके पति के जीवन के लिए। पति तो फिर भी झेल जाए सास को अपने बेटे की सुरक्षा की ज्यादा चिंता होती है, इसलिए वो चाहती है बहू  सिन्दूर लगाए।
  5. पति को पत्नी पर अपना आधिपत्य नज़र आता है। उसे इस बात का संतोष होता है कि उसकी पत्नी सिर्फ उसकी है। जिन्हें इसकी आदत होती है, नहीं लगाने पर आशंकित रहते हैं कहीं कुछ अप्रिय घटित हो न जाए।
हमारे पुरखों ने बहुत सोच-समझ कर सिन्दूर का आविष्कार किया था। प्राचीन काल में सिन्दूर पारे से बनता था, और पारा बहुत भारी धातु है, Mercury को Oxidize करके बनता है, मरक्युरिक ऑक्साइड( Mercuric Oxide ) (HgO) जिसका रंग लाल या नारंगी होता है। कहते हैं खोपड़ी के बीचो-बीच, जहाँ अक्सर स्त्रियाँ माँघ  निकालती है, वहाँ एक तंत्रिका गुजरती है, जो शारीरिक उत्तेजना के लिए जिम्मेदार होती है। मरक्युरिक ऑक्साइड जैसे भारी धातु के दबाव से, ऐसी उत्तेजना में कमी आती है, इसलिए हमारे पूर्वजों ने इसका चलन चलाया। ताकि स्त्री की कामेक्षा संयमित रहे।

गौर से देखा जाए तो यह गलत ही हुआ है, स्त्रियों के लिए तो कामेक्षा को वश में करने की औषधि का आविष्कार हो गया, लेकिन पुरुषों के लिए ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया। सिन्दूर का उपयोग, सांस्कृतिक, और सौन्दर्य बोध के लिए तो ठीक है, लेकिन इसके पीछे की मंशा, अप्राकृतिक रूप से इच्छाओं का दमन करना, स्त्रियों का दोहन ही माना जाएगा।

मैं सिन्दूर या अन्य सुहाग प्रतीकों का प्रयोग, स्त्री की अपनी मर्ज़ी से करने में विश्वास करती हूँ। इनके प्रयोग के लिए किसी पर कोई दबाव डालने के पक्ष में नहीं हूँ। अब समय आ गया है, कि हर स्त्री कम से कम अपनी देह पर अपना अधिकार रखे, उसे क्या पहनना है, कैसे पहनना है यह उसके अपने विवेक की बात होनी चाहिए। समाज का इसमें कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए। आज तक संस्कृतियों को जीवित स्त्रियों ने ही रखा है, आगे भी जो बदलाव आएगा, वही करेंगी। 

बाकी बातें पति-पत्नी के आपसी प्रेम पर भी निर्भर करता है। ये सारे प्रतीक, थोथे हैं अगर आपस में प्रेम, विश्वास, आस्था नहीं है। आपको पसंद है आप ज़रूर लगाइए, लेकिन अगर कोई नहीं लगाती तो उसकी आलोचना मत कीजिये, न ही उसे बाध्य कीजिये । मैं ये सारे काम इसलिए नहीं करती,  क्योंकि मैंने भारतीय संस्कृति को आगे बढाने का ठेका लिया हुआ है, मैं सिर्फ इसलिए करती हूँ क्योंकि मुझे अपने पति से अगाध प्रेम है, और उनको मुझसे, और मेरे लिए यही सबसे बड़ा सच है।

Thursday, June 21, 2012

यहाँ, ऐसा ही होता है ...(संस्मरण)

मैं इनको सलाम करती हूँ, और खुद को ख़ुशकिस्मत मानती हूँ, कि मैं और मेरा परिवार इनके संरक्षण में रहता है 

(शिखा की पोस्ट पढ़ी थी तो मुझे भी कुछ याद आ गया )
जो इंसान अच्छा होता है वो बस अच्छा होता है । अच्छाई दिखाने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती है। अच्छाई कहीं भी, कैसे भी नज़र आ ही जाती है। आपको बार-बार बताने की ज़रुरत नहीं होती कि आप कितने अच्छे हैं। जैसे बुराई नहीं छुपती, वैसे ही अच्छाई नहीं छुपती। अगर आप अच्छे हैं तो, अच्छे ही रहेंगे चाहे परिस्थिति कैसी भी हो। अच्छाई बड़ी सरल सी चीज़ है, अगर आप उसे छुपायें तो छुपती नहीं है, और अगर दिखाना चाहें तो दिखती नहीं है। अच्छाई बैनर पर लिखी कोई तहरीर नहीं, जिसे कोई पढ़ कर जान जाएगा आप बहुत अच्छे हैं। अगर आप सचमुच अच्छे  हैं, तो आपकी चुप्पी भी बता देगी।

बात कुछ साल पहले की है। मैं ओट्टावा के लोकल टेलीविजन के लिए काम करती थी, पार्ट टाइम। यहाँ हर शुक्रवार को साउथ एशियन कम्युनिटी का अपना प्रोग्राम आता है 2 घंटे के लिए, जिसमें लोकल न्यूज़, इवेंट्स और कुछ सांस्कृतिक एवम मनोरंजक कार्यक्रम प्रस्तुत किये जाते हैं। उन दिनों उस प्रोग्राम की होस्ट मैं ही थी। दीपावली आने वाली थी और उसके लिए मैं एक गाने की रेकॉर्डिंग, कैनेडियन पार्लियामेंट के परिसर में कर रही थी। हमने कोई परमिशन नहीं लिया था। बस हम रेकॉर्डिंग कर रहे थे। इंडिया गेट के सामने जिस तरह अमर जवान ज्योति हमेशा प्रज्वलित रहती है, वैसी ही एक ज्योति यहाँ के पार्लियामेंट के परिसर में भी चौबीस घंटे प्रज्वलित रहती है। क्योंकि  ज्योतिपर्व के लिए यह प्रोग्राम था, इसलिए इससे बेहतर लोकेशन और दूसरा मेरी नज़र में नहीं हो सकता था। 

जाड़े के दिन थे, वैसे भी जाड़े में दिन छोटे हो जाते हैं। लाख कोशिशों के बावज़ूद भी सूरज ढलने से पहले हम अपनी रेकॉर्डिंग पूरी नहीं कर पा रहे थे। रौशनी अब कम होती जा रही थी और हमलोग रेकॉर्डिंग कम रौशनी में ही किये जा रहे थे। मन में एक भय भी अब समाता जा रहा था। सेंसिटिव इलाका है, आये दिन आतंकवादियों की खबरें आतीं ही रहतीं हैं, ऊपर वाले के फज़ल से हमारी त्वचा का रंग भी आतंकवादियों से काफी मिलती-जुलती  है। जो अक्सर हमारे विरोध में चली जाती है। पार्लियामेंट की बात थी और वो भी 911 के बाद की बात, हर तरफ पुलिस की सुरक्षा मौजूद थी। कई पुलिस की गाड़ियाँ दूर से बैठ कर हम पर नज़र रखे हुए थीं।

इतने में देखा एक पुलिस की गाड़ी बहुत धीरे-धीरे बिना आवाज़ किये हुए चलती हुई, हमलोगों के क़रीब आकर रुक गयी। हमलोगों ने सोच लिया कि अब तो हम मुसीबत की गिरफ्त में आ ही गए...पास आकर उस गाडी ने खुद को आगे पीछे किया और अपनी हेड लाईट जला कर सीधा मुझ पर फोकस कर दिया। घबराहट के मारे मुझे अब पसीना आने लगा। उस पुलिस वाले ने कुछ नहीं बोला। लेकिन उसके इस काम से लाईटिंग बहुत अच्छी हो गयी...अब वो पुलिस वाला चलता हुआ हमारे पास आया...हमारे तो मन में चोर था ही, उसे देखे ही मैंने कहा...Officer ! we are almost done and we will be leaving soon. उसने मुस्कुरा कर कहा, No problem, take your time. You just go ahead and do your job. I have just come to ask you, if this much light is enough for your recording . अपनी कार की हेड लाईट की तरफ इशारा करते हुए उसने कहा। If you need more lights we can bring in some more cars. बोल कर उसने दूसरी गाड़ियों की ओर देखा, जहाँ बैठे पुलिस वाले बस उसके इशारे का इंतज़ार कर रहे थे...मैं हैरान रह गयी थी । कहाँ तो हमारी घिघी बंधी हुई थी कि अब कुछ न कुछ पंगा होगा और यहाँ तो कुछ और ही बात हो गयी। खैर मैंने भी कह ही दिया एक और गाडी आ जाती तो अच्छा था, उसने फट सिटी मारी और दनदनाती हुई दूसरी गाड़ी आ गयी, फटाफट दूसरी गाड़ी  ने बैक किया और हेड लाईट जला कर मुझपर फोकस कर दिया। बातों-बातों में ये भी पता चला कि कहीं मैं डिस्टर्ब न हो जाऊं इसलिए वह बहुत धीरे-धीरे आया था, ताकि कोई आवाज़ न हो, और उसकी गाडी की आवाज़ हमारी रेकॉर्डिंग में न आ जाए। ऐसे हैं यहाँ के पुलिस वाले। उन्हें मालूम है उनकी नौकरी, पब्लिक की मदद के लिए है, परेशान करने के लिए नहीं। अब मेरी रेकॉर्डिंग के लिए लाईटिंग परफेक्ट थी। आराम से मैंने अपनी रेकॉर्डिंग की और उनको दिल से धन्यवाद देकर चली आई। मेरे घर के बहुत पास ओट्टावा पुलिस का हेड ऑफिस है, जहाँ लगभग 7000 पुलिस कर्मी बैठते हैं, जब भी मिलते हैं, रास्ते में आते जाते, मुस्कराहट भरा अभिवादन हो ही जाता है।

हम हिन्दुस्तानी पुलिस से ये उम्मीद ही कहाँ करते हैं। मैं तो कल्पना में भी ऐसा कुछ भारतीय पुलिस से उम्मीद नहीं करती। हमें तो उम्मीद होती है उनसे अपना पॉवर दिखाने की, अपना वर्चस्व महसूस कराने की। शायद पुलिस में भरती होते साथ हिन्दुस्तानी अपने मानवीय गुण भूल जाते हैं। जबकि वो पुलिस बाद में हैं, इंसान पहले।
(लिखते-लिखते मुझे दो और वाकये याद आ गए जो हिन्दुस्तान में घटित हुए हैं, घबराइये नहीं दोनों बहुत ही सुखद हैं, भारत में भी अच्छे पुलिस वाले हैं। बेशक कम हैं। वो संस्मरण अगली बार )








Wednesday, June 20, 2012

मदद चाहिए हमको..

(कमेन्ट बॉक्स में समस्या है, माफ़ी चाहते हैं )

अच्छा लगता है, देखना अपने नाम के आगे 'डॉ' लिखा, ज़रा वजनी हो जाता है नाम और सामने वाला चार बार सोचता है, आपसे बोलने से पहिले, लेकिन हमरी ऐसी तकदीर कहाँ, नहीं कर पाए न पी.एच.डी. फिर हमरे जैसे जाने कितने हैं, जो यही सपना मन में लिए मर जायेंगे, हम भी सोचे अब बहुत हो गया, हम भी 'डाक्टर' बनूँगी, हमको अपना फ्यूचर वैसे भी बहुते डार्क दिखने लगा, कौन रोज़-रोज़ अपने डॉक्टर बेटा, की बीवी के धौंस में रहेगा जी (वैसे हमरे पति रोज़ ही वीरू की तरह सुना देते हैं, कर लो तंग आने दो बहुओं को चुन-चुन के बदला लूँगा, चुन-चुन के बदला लूँगा, तो हम ही कौन से कम हैं, हम बसंती की तरह बोल ही देते हैं..हाँSSSS  जब तक जान जाने जहाँ तंग करुँगीSSSSSS) , बस फिर का था हम भी पिल पड़े इन्टरनेट पर और निकाल लाये, कई मोती, जो बिना हींग-फिटकिरी लगाए डिग्री बाँट रहे हैं। केतना उपकार कर रहे हैं ई सब भले लोग, दुनिया उतनी बुरी थोड़े न है, एतना बड़ा डिग्री छापोइंग इंडस्ट्री खड़ा है, जो बिना ना-नुकुर किये आराम से डिग्री दे रहा है, फिर भी पता नहीं कैसे-कैसे लोग हैं, अपना फजीहत करवावे में लगे हुए हैं, जो अपना आँख फोड़-फोड़ कर पढ़ते हैं, बिन बात के, दिन रात मेहनत करते हैं, ई पढ़वैया लोग गज़ब दिमाग से पैदल हैं, का ज़रुरत है एतना ज़ह्मतखोरी करने का । आराम से डिग्री प्रोडक्सन ओर्गानाईजेशन को मास्टर कार्ड से पैसा दो, घर बैठे-बैठे डिग्री पाओ और प्रभु के गुण गाओ, अरे भईया आराम बड़े काम की चीज़ है, कोई इनका बताये भाई।

अब यही देखिये, जो पटरी पर बैठे रंग-रंग के 'डाक्टर' होते हैं, जिनके पास हर बिमारी का इलाज होता है बस 'एक बार मिल तो लें', बस एतना ही तो करना है, मिल कर देखिये, फिर हर बिमारी से ही नहीं आप खुदै से भी फुर्सत पा जाइएगा। बिन बात के लोगों ने, शिक्षा मंत्रालय, अलाना यूनिवर्सिटी, फलाना कॉलेज बनाया हुआ है, माँ-बाप फजूल में जूझे रहते हैं एडमिशन के खातिर।  एतना काम्पिटिशन, एतना कोर्स, एतना फीस सब लगा रखा है। का ज़रुरत है ई सबका ?

आज कल मेरा मृगांक हमरे ही पास है, न्यू योर्क में बेचारा खाना भी पकाता था, कपड़ा भी धोता था, यूनिवर्सिटी भी जाता था और पढाई भी करता था, अभी आ गया है परीक्षा की तैयारी करने, दिन के 15-20 घंटे तो पढता ही है, मूर्ख ही है ऊ भी...बोले उससे हम, ले लो डिग्री मात्र 500 डॉलर का सवाल है, तुम बिना मतलब मेरा लाखों डॉलर खर्चा करवा रहे हो। कहने लगा मम्मी आप क्या सोचतीं हैं, मैं ऐसा-वैसा बेटा हूँ, I am an expensive one....का कहें माना नहीं। अब कोशिश करने में का हर्ज़ था सो हम भी किये थे।

खैर, हम बात कर रहे थे, डाक्टर की डिग्री की, आपको गब्बर चाहिए, ऊ भी जिन्दा, मिल जाएगा। कहने का माने, आपको 'डॉक्टर' की  डिग्री चाहिए, मिल जाएगी, और पूरे ताम-झाम के साथ बरोबर मिल जायेगी । और ई रहे ताम-झाम :

Degree1Transcripts2Award of Excellence1Certificate of Distinction1Certificate of Membership1Verification Letter4

बस इन्टरनेट पर मेहनत करनी पड़ेगी। चलिए आधा काम तो हम ही कर देते हैं। बाकी आप कीजिये ...

यहाँ वहाँ जाइए :
ऊपर की लिस्टिंग यहाँ से ली गयी है:

ये सारी यूनिवर्सिटी आपको डॉक्टर की, डॉक्टरेट की, मास्टर की, यहाँ तक कि 'टेलर मेड' डिग्री या जो भी आपके दिल में आये, उसकी डिग्री दे देंगी, आपको कपडा धोने के लिए पी एच डी चाहिए मिल जाएगा, बर्तन माँजने के लिए डॉक्टरेट...फिकिर नोट मिलेगा जी, हण्ड्रेड परसेंट मिलेगा, बल्कि आप उनको सजेस्ट कर सकते हैं अपनी डिग्री। हम तो एक-दो ठो सजेस्ट भी कर दिए, बोले हम, आप काहे नहीं 'घास काटने' में पी एच डी (P. hD in Grass cutting or Lawn Mowing ) और 'बरफ हटाने' में डॉक्टरेट (Doctorate in Snow shoveling ) देते हैं, ई तो हमको मिलना ही चाहिए, हमको पूरे सत्रह साल का इन बातों का एक्सपेरिएंस है, ऊ समझा हम मजाक कर रहे हैं। लेकिन हम बहुते सिरिअस थे। हाँ नहीं तो।.!!

ये सारी तथाकथित यूनिवर्सिटीस पकिस्तान से संचालित हैं और इनको चलाने वाला सलेम कुरैशी, कराँची का रहने वाला है.. पाकिस्तान में वैसे भी 'डार्विन की थेओरी ' मानते नहीं ' मेंडल के ला ' से उनको एतराज़ है..इस हेतू लगे हुए हैं, डिग्री छपाई एंड सप्लाई में। 

हम भी अप्लाई कर दिए और हमको 15 मिनट में वो पी. एच .डी की डिग्री देने को तैयार हो गये, कहने लगे, हमने आपके क्वालिफिकेशनस चेक कर लिए हैं, और आप एलिजिबल हैं, आपको हम दे सकते हैं पी.एच. डी., बस आप बताइये आपको किस सब्जेक्ट में चाहिए। हम बोले हम तो इंटरनेश्नल बिजनेस में माहिर हैं, इसी में दे देओ । हमको कुछ पल रुकने को कहा गया और 10 मिनट में हीं फ़ोन आ गया, कहने लगे, हमने आपके बारे में सब पता कर लिया है...भगवान् जाने 10 मिनट में उन्होंने कैसे और कहाँ से चेक कर लिया। मुझे तो उनसे ही पता चला कि हमरी जन्मपत्री अनाथ अवेलेबल है, कोई भी कुछ भी मालूम कर सकता है...बाकायदा, बढ़िया प्रिंटिंग वाली डिग्री का फोटू दिखा दिए, महा कैलीग्राफिक प्रेसेंटेशन था, हमरी असली डिग्री से फ़ाआआआआर बेटर...बस हमको $598.20 देने होंगे। 

दाम तो उन्होंने ने $1000 से ऊपर ही बताया था, लेकिन हम कौन से कम हैं, बिना मोलाई किये हुए तो हम कनाडा में भी सब्जी तक नहीं लेते, फिर ई तो डिग्री की बात थी...अड़ गए हम कि $1092 बहुत ज्यादा है, कुछ कम कीजिये...बात $300 से शुरू किये हम । हालांकि ऊ भी ज्यादा था, लेकिन का करें हमरा दिल ही कुछ ऐसा है, बेचारे गरीब-गुरबा लोग हैं, कुछ दे ही देवें, यही सोच कर हम $300 से शुरू किये, लेकिन महा घाघ है ऊ लोग भी, बात आकर रुकी है $528.20 पर :):) बेचारे बहुत खुस हैं कि कनेडा वाले नूं वी असी टोपी पहना दित्ता। :):)

आप और भी बर्गेन कर सकते हैं, शायद 500 रुपये में भी मिल जाए, आज भी हिन्दुस्तानी करेंसी पाकिस्तान से बेहतर है। इतना ही नहीं अगर हम $350 और दूंगी तो हिलेरी किल्न्टन द्वारा सत्यापित डिग्री (लगता है हिलेरी भी कमा रही है ) भी मुझे मिल सकती है :):)..फिर देर किस बात की आप भी 'डॉक्टर' बन जाइए। अब तो हम भी खुदै डॉ. 'अदा' लिखने की सोच रही हूँ । एही ख़ातिर पहले ही हमरी डाक्टरी डिग्री का खिस्सा-खुलासा हम कर दे रही हूँ । फिलहाल पेमेंट नहीं किया है, बहुते बड़ी उलझन है, साडी खरीदूँ कि डिग्री, सब बचवन बोल रहा है, का मम्मी आप भी न पंगा लेने से बाज़ नहीं आतीं हैं। अब का करें आदत हो गयी है। बुढ़ापे में थोड़े ही न ई बेमारी जाने वाला है अब। वैसे भी एतना तो अर्न कर ही लिए हैं, बुजुर्गियत में पंगेबाज़ी की तो माफ़ी बनती है...हमरे पास अभी चार दिन हैं सोचने के लिए। 

आपलोग भी ज़रा मेरी मदद कर दीजियेगा , बताइये कि हमको का करना चाहिए ??? फ़ालतू वाले सजेशन नहीं छापेंगे हम, बहुते सिरिअस मामला है ई, कह देते हैं, इसलिए कोशिश भी मत कीजियेगा।

(अब ज़रा काम की बात.....सोचने वाली बात ई भी है पी एच डी का फुल फॉर्म होता है Doctor of Philosophy लेकिन ई सब सब्जेक्ट के लिए दिया जाता है, सोचिये ज़रा आप पी.एच.डी करते हैं, इंटरनेशनल बिजनेस में और आपको डिग्री मिलती है PhD in International Business अर्थात Doctor of Philosophy in International Business.. ई बात हमको समझ नहीं आई। अगर किसी को कोई ज्ञान हो तो बता दीजियेगा, हम सही कह रहे हैं कि कहीं कुछ गलत है।

जिन लोगों ने अपनी मेहनत से ये डिग्रियां हासिल की हैं, उनके साथ ये कितना बड़ा अन्याय है। आज मैं देखती हूँ, मेरा बच्चा कितनी मेहनत कर रहा है और कहीं कोई ऐसे ही, बिना मेहनत के डिग्रियां खरीद रहा है, खून खौल  उठता है।  कुछ सब्जेक्ट्स में नकली डॉक्टर की उपाधि लेने वाले, किसी की जान से तो नहीं खेलते लेकिन उन्हीं डिग्रियों का इस्तेमाल करके, अगर उनको नौकरी मिल जाती है, तो किसी क़ाबिल इंसान की नौकरी लेकर उसके जीवन से खेल जाते हैं , ऐसे बहुत सारे केस हैं। वहीँ नकली मेडिकल डॉक्टर जिन्होंने नकली डिग्री ली होती हैं, कितनों  की जान से खेलते रहते हैं । ऐसे लोगों का पर्दाफ़ाश होना ही चाहिए )

ये रही डिटेल:
edit Personal Details
Name on Degree: Swapna Manjusha Shail
Date of Birth:
(Make sure the details are correct as they will appear on your documents in the same manner)

edit Communication Details
Email: kavya.manjusha@gmail.com
Phone Number: 16138438499
PreferredTime: 17:00 : 18:00

Professional Details
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DocumentsNo. of Documents (PhD Degree)
Degree1
Transcripts2
Award of Excellence1
Certificate of Distinction1
Certificate of Membership1
Verification Letter4

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Select shipment country
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 Program(s)  Major(s)
 PhD Degree   International Business Administration
 
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N/A
 
Graduation GPA

 PhD Degree  Services
 Desired GPA GPA 3.9 – 4.00 (Summa Cum Laude)
 

 
edit Embassy Legalization and Apostille Services
N/A

edit Professional Certification(s)
N/A
 

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Order Amount
Program Package
(PhD Degree)
$944.00
Additional Documents N/A
GPA and Graduation Date $49.00
Professional Certification(s) N/A
Legalization Service(s) N/A
Shipment Cost $99.00
Total Order Amount $1092
8.70% Scholarship Discount $95.00
Total Discount         $493.80
Amount After
Discount
$598.20





Ashwood University is a SCAM (run by Salem Kureshi from Karachi, Pakistan)
Check out the following links:


http://www.diplomamillscam.com/ashwood-university-scam-how-truth-really-hurts-another-bogus-university-online 




Monday, June 18, 2012

India may get JUNK Status in the World Market...

S &P(Standard and Poor) may downgrade India to JUNK Status, it means foreign investors are no longer  interested in investing in India. People like me will have much more difficulty in convincing financiers that doing business in India will be safe bet. We will have to pay more interest on the Finance and will have to pay more premium on Insurance......Thanks to Our Great Politicians....!!
Industrial growth was 0.1%
Divided Politics has brought India to this situation..
GOD BLESS INDIA  !!
अब भी आँखें  नहीं खुली तो कब खुलेंगी बन्धु ....बिजली नहीं है, पानी नहीं है, लेकिन 'पानी माफिया' है, जितनी तेज़ी से वहाँ  'माफिया' बन जाते हैं, उससे एक चौथाई तेज़ी से भी अगर सब अपना काम करते होते तो शायद ये दिन नहीं देखना पड़ता। भारत की साख  वर्ल्ड मार्केट में ज़बरदस्त गिरने वाली है, लेकिन लोग बीजी हैं, हर तरह की पोलिटिक्स में, सास-बहू की पोलिटिक्स, मोहल्ले की पोलिटिक्स, गाँव की पोलिटिक्स, शहर की पोलिटिक्स, देश की पोलिटिक्स, ब्लॉग की पोलिटिक्स...वक्त ही नहीं है लोगों के पास 'अपना काम' ईमानदारी से करने के लिए। 

बूँद-बूँद से तालाब भरता है। एक छोटी सी ही बात है, ऑफिस के रिसोर्सेस ब्लॉग्गिंग के लिए उपयोग में लाते हैं लोग, एक बार भी नहीं सोचते कि सरकार या प्राईवेट कम्पनी ने इन्टरनेट, बिजली या कम्प्यूटर इस काम के लिए नहीं दिया है, इतना ही नहीं, जो वक्त आप इस काम में  लगा रहे हैं, अर्थात ब्लॉग्गिंग में, वो समय भी  आपका नहीं है। इस समय के लिए आपको वेतन दिया जाता है, और आप अपनी नौकरी से बेईमानी कर रहे हैं। लेकिन हम कहेंगे तो सब कहेंगे कहती है। कल को भारत की दुर्गति होगी तो सोचियेगा, शायद आपने भी इसमें थोडा योगदान किया  होगा।
मेरा भारत महान !!!

Sunday, June 17, 2012

हैपी फादर्स डे बाबा..

अक्टूबर २०१०

स्कूल जाते वक्त
हाथ थाम रखा था
अपने बाबा का,
इक छोटी सी बच्ची ने,

कितना रोई थी वो
स्कूल पहुँच कर ।
मत जाओ बाबा
मुझे नहीं रहना यहाँ,
क्या आप मेरे साथ नहीं रह सकते ?
नहीं बेटा अभी मुझे जाना हैं
बहुत सारे काम निपटाना है
तुम बिल्कुल ठीक रहोगी
शाम को फिर लेने आऊंगा
बस इतना अगर सोचोगी
तो ये दिन निकल जाएगा
बाबा की कितनी प्यारी हो तुम
ये दिल तुम्हें बताएगा
मैं हर पल तुम्हारे साथ रहूँगा
दूर रहूँगा तो क्या हुआ
दिल के ही पास रहूँगा

उस दिन उसकी शादी थी
वो बाबा की शहज़ादी थी
बाबा उसे देखते रहे दूर से
चली जायेगी आज
मेरी बच्ची मेरे घर से ।
छोटी लड़की ने अपने बाबा को देखा
बढ़कर आँखों से आँसू पोछा
कहा था उसने
बाबा अब मुझे जाना है
आपके आशीर्वाद  से
अपना फ़र्ज़ निभाना है
लेकिन आप जब भी बुलायेंगे
मुझे अपने पास ही पायेंगे
मुझे हर काम छोड़ कर आना है
संग खुशियों के पल बिताना है
मैं आपके साथ ही रहूँगी
दूर रहूँगी लेकिन
दिल के बहुत पास रहूँगी

आज वो छोटी लड़की बैठी है
अस्पताल में
अपने बाबा का हाथ थामे हुए
अपने आंसूओं को
वो छुपाती है
कितनी बहादुर है वो
ये दिखाती है
अपने बहादुर पिता की
बहादुर बेटी है वो
कहती है, आप एकदम ठीक हो जायेंगे
फिर हम कितनी सारी खुशियाँ मनाएंगे
लेकिन उसके बाबा जानते हैं
विधि का विधान पहचानते हैं
बेटी मुझे जाना होगा
सृष्टि का नियम निभाना होगा
बाबा मत जाइए मुझे छोड़ कर
मैं बहुत अकेली रह जाऊँगी
इस दुनिया की बहुत सी बातें
शायद नहीं सह पाऊँगी
नहीं बेटा तुम बिल्कुल ठीक रहोगी
मैं हर पल तुम्हारे साथ रहूँगा
दूर नहीं रहूँगा तुमसे
अब दिल में रहूँगा
हर संकट तुमसे पहले
मैं सहूंगा
तुम्हारी रगों में बहूँगा
तुम्हारे चेहरे पर सजूंगा
और अब मुझे जाना ही होगा...
लौट कर भी तो आना है.....!

Saturday, June 16, 2012

Santosh Shail sings...The Sound Of Silence




Santosh Shail sings

The Sound Of Silence

Hello darkness, my old friend
I've come to talk with you again
Because a vision softly creeping
Left its seeds while I was sleeping
And the vision that was planted in my brain
Still remains
Within the sound of silence

In restless dreams I walked alone
Narrow streets of cobblestone
'Neath the halo of a street lamp
I turn my collar to the cold and damp
When my eyes were stabbed by the flash of a neon light
That split the night
And touched the sound of silence

And in the naked light I saw
Ten thousand people maybe more
People talking without speaking
People hearing without listening
People writing songs that voices never shared
No one dared
Disturb the sound of silence

"Fools," said I, "you do not know
Silence like a cancer grows
Hear my words that I might teach you
Take my arms that I might reach you"
But my words like silent raindrops fell
And echoed in the wells of silence

And the people bowed and prayed
To the neon god they made
And the sign flashed out its warning
In the words that it was forming
And the sign said "The words of the prophets are written on the subway walls
And tenement halls
And whispered in the sound of silence

Friday, June 15, 2012

ऐसे हैं मेरे बाबा...!! (संस्मरण)


(मेरे बाबा अब नहीं रहे, लेकिन आज भी 'थे' कहने की हिम्मत नहीं जुटा पायी हूँ। वो आज भी मेरे लिए 'हैं'..बस्स !!)  

बात उन दिनों की है जब मेरी उम्र शायद १४-१५ साल की होगी, मेरे पिता जी को हमलोगों को घुमाने का बहुत शौक़ था, हर छुट्टी में कहीं न कहीं हमारा परिवार घूमने जाया करता था....उनदिनों भी गर्मियों की छुट्टियां थी...राँची के पास ही डाल्टेनगंज से १० किलोमीटर पहले बेतला में 'बेतला नेशनल पार्क' है, जहाँ वन्य प्राणियों की भरमार थी तब, जैसे, हाथी, बाघ, भालू, बईसान, कई प्रकार के हरिण, और भी तरह-तरह के जानवर.. पिताजी की बड़ी इच्छा थी कि हमलोग जू में जानवर देखने की जगह, प्राकृत रूप से रहते हुए जानवर देखें...

फिर क्या था गर्मी की छुट्टियां आईं और हम सभी तैयार होकर, सफ़ेद अम्बेसेडर गाड़ी में चल पड़े, जंगली जानवर देखने...हमलोग मुँह अँधेरे ही निकल गए थे वहाँ के लिए, और पहली बेला में ही पहुँच गए..

मेरे एक फूफाजी बेतला नेशनल पार्क के रेंजर थे...कोई दिक्कत नहीं हुई...उनको पहले ही पता था कि हमारा परिवार आ रहा है, मुझे याद है हमलोगों को गेस्ट हाउस में ठहराया गया, फूफा जी का भी क्वाटर वहीँ था, दिन का खाना तैयार था, खाना गेस्ट हाउस के खानसामा ने बनाया था, खाने में हिरण का मीट  दिया गया था, मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं आया था, मैं तो खा ही नहीं पाई...पहला कारण,  गेस्ट हाउस के पीछे ही जाने कितने सुन्दर-सुन्दर हिरण घूम रहे थे, दौड़ो और छू लो उनको, उनकी सुन्दरता देखते बन रही थी...इतने सुन्दर प्राणी को खाना !..मेरे बालमन को नहीं भाया था...दूसरी बात उसका मीट ही अजीब था...लगता था जैसे रबड़ खा रहे हैं....

ख़ैर, खाना खा कर हम लगभग २ बजे खुली जीप में निकल गए वन्य प्राणी देखने ...लेकिन वो समय तो जानवारों के लिए भी खा-पीकर आराम करने का होता है...इसलिए वन्य प्राणी नज़र तो आए लेकिन कुछ कम नज़र आए...

हमलोग घूम कर वापिस आ गए ...फूफा जी ने बताया कि रात में जाना और अच्छा होगा, जानवार  रात में ज्यादा निकलते हैं, हमलोग रात में चलेंगे....वैसे ११ बजे के बाद जंगल में जाने की इजाज़त नहीं है लेकिन हमारे साथ तो जंगल के मालिक ही थे....सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का...

तो जी हम सभी लगभग ११ बजे तैयार होकर, पीछे से खुली जीप में चल पड़े...जीप के पिछले हिस्से में हम सभी खड़े थे, मैं मेरे तीनों भाई, माँ और एक अर्दली..क्योंकि वहाँ से देखने में आसानी होती...गर्मी के दिन, ऊपर खुला आसमान, और आगे घना जंगल...बड़ा ही रोमांचकारी था सबकुछ, बीच-बीच में किसी जानवर की बोली या फिर झींगुर की आवाज़... 

सामने की सीट पर, ड्राइवर, बीच में फूफा जी और किनारे खिड़की के पास पिता जी यानी मेरे बाबा बैठे थे...पीछे खुली जीप में,  सबसे किनारे मैं खड़ी थी...गाड़ी जगह-जगह रूकती अँधेरे में पशुओं की चमकती आँखें नज़र आती, गाड़ी का इंजिन बंद कर दिया जाता, कुछ दूर तक गाड़ी लुढ़कती, और सर्चलाईट की रौशनी से हमें जानवर दिखाया जाता, हमलोग साँस रोके देखते....बाघ, चीतल, साम्भर, बड़े बड़े सींघ वाला बाईसन और न जाने क्या-क्या....यही होता जा रहा था...जानवरों की आँखें चमकती, गाड़ी रूकती, ड्राइवर इंजिन बंद कर देता,  सर्चलाईट का निशाना पशुओं पर पड़ता और हम देखते....

थोड़ी देर बाद बहुत जोर से रटरटरट... रटरटरट.... रटरटरट की आवाज़ आने लगी, जैसे कोई कुछ तोड़ रहा हो...देखा तो बड़े-बड़े जंगली हाथियों का झुण्ड था....जो बांस के पेड़ों को तोड़ता हुआ ,आ रहा था, गाड़ी रुकी, इंजिन बंद हुआ, सर्चलाईट का प्रकाश उनपर पड़ा तो उनका भी ध्यान हमारी तरफ हुआ....वो कुछ दूरी पर थे...लेकिन ऐसे विशाल जानवर, वो भी झुण्ड में ...हमने पहली बार देखा था....गाड़ी रुकी हुई थी...जब हमने देख लिया और चलना चाहा तो, गाड़ी ने स्टार्ट होने से ही मना कर दिया, ड्राइवर गाड़ी स्टार्ट करता, इंजिन घों घों करता और रुक जाता, जंगली हाथियों का झुण्ड अब भी हमारी तरफ बढ़ता चला आ रहा था... इंजिन फिर स्टार्ट किया गया..वो स्टार्ट नहीं हुआ...ड्राइवर पसीने से तर-बतर हो रहा था...फूफा जी के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं थी...जाने क्या बात थी, सर्चलाईट या इंजिन की आवाज़ ..जंगली हाथी नाराज़ लग रहे थे...अब वो हमारी तरफ दौड़ने लगे थे, बाँस के झुरमुट अब ज्यादा आवाज़ से टूटने लगे थे....तड़-तड़ाक की तेज़ आवाजें आने लगीं थी, और  बड़े-बड़े काले साए गुस्से में चिंघाड़ने लगे थे, ड्राइवर जुम्मन अब भी गाड़ी स्टार्ट कर रहा था...वो पूरा हिला हुआ था, वो बार-बार कभी हाथियों को देखता कभी गाड़ी को कोसता...फूफाजी की हालत बहुत खराब हो रही थी....और हमलोग सभी अपनी जगह पर ख़ामोश खड़े थे...इतने में बाबा ने अपनी साइड का दरवाज़ा खोला...फूफा जी कहने लगे अरे आप क्या कर रहे हैं...मत जाइए...लेकिन वो उतर गए ..वो चलते हुए पीछे आए..पीछे आकर जीप पर ऊपर चढ़ गए, मुझे पीछे कर दिया और सामने खड़े हो गए...बिल्कुल ऐसे खड़े हो गए, जैसे कह रहे हों...मेरे बच्चों से पहले मुझसे होकर तुम्हें गुजरना होगा 'गणेश जी', वो बिल्कुल शांत थे...उनके चेहरे पर ज़रा भी उद्विग्नता नहीं थी...न ही वो परेशान थे, एक भी शब्द उन्होंने नहीं कहा था, बस हम सबको पीछे करके सामने, जीप की रेलिंग पकड़ कर खड़े हो गए...

हाथियों का झुण्ड अब भी दौड़ता चला आ रहा था....मौत बिल्कुल सामने थी बस कुछ ही मीटर की दूरी पर,  ड्राइवर और फूफा जी गाड़ी स्टार्ट करने में लगे हुए थे, हमारे और मौत के बीच का फासला बस १०-११ मीटर का रह गया था, कि अचानक गाड़ी स्टार्ट हो गई...हमें तो जैसे भगवान् ने अपने हाथों में ले लिया हो ऐसा लगा, ड्राइवर ने तो और कुछ देखा ही नहीं बस गाड़ी दौडानी शुरू कर दी...हमें तो ऐसा  लग रहा था जैसे, किसी मरने वाले से कहा गया हो, अगर बचना है तो जितनी दूर ,जितनी जल्दी भाग सकते हो भागो, और वो बस भागना शुरू कर देता है,  शायद  जुम्मन ने ज़िन्दगी में कभी भी इतनी तेज़ गाड़ी न चलाई होगी, जितनी तेज़ उसने उस दिन चलाई थी.....मगर हाथियों का झुण्ड अब भी हमारी जीप के पीछे भाग रहा था...और ड्राइवर की स्पीड बढ़ती ही जा रही थी..फूफा जी चीखते जाते, जुम्मन स्पीड बढाओ....वो मुड़-मुड़ कर हाथियों से जीप की दूरी का मुआयना करते जाते ...और मेरे बाबा चट्टान की तरह जीप की रेलिंग पकड़े ..शांत भाव से हाथियों की आँखों में आँखें डाले उनकी तरफ देखते रहे...हम सभी जीप की रफ़्तार से अपने शरीर का ताल बनाये रखने की कोशिश में जुटे रहे... अब हाथियों के झुण्ड और जीप के बीच की दूरी बढ़ती जा रही थी...हाथी अब भी पीछे थे...

कुछ दूर जाने के बाद उनके झुण्ड को वापिस मुड़ते देखा था मैंने ...जीप ने भी गेस्ट हाउस आकर ही दम लिया था...फूफा जी बार-बार भगवान् का शुक्र अदा कर रहे थे, हम सब एक दूसरे को बस देख रहे थे, माँ ने हम सब को समेट लिया था..उस दिन लगा कि मारने वाले से बचाने वाले के हाथ ज्यादा लम्बे  होते हैं...मैं बस अपने बाबा को देख रही थी, मेरे लिए तो मेरे भगवान् मेरे बाबा ही थे, हैं और रहेंगे...मैं अपने बाबा से लिपट गई थी...वो मंजर मैं कभी नहीं भूलती, आज भी जब वो साथ होते हैं..तो मुसीबतें, पास आने की हिम्मत नहीं करतीं हैं...क्योंकि हम सबके जीवन की इस ढाल से टकराने की हिम्मत किसी मुसीबत में नहीं है...ऐसे हैं मेरे बाबा...!! 

Wednesday, June 13, 2012

हम गाना गाते थे, और हमरे बाबू जी रोते थे..

एक तो हम लड़की पैदा हुए, दूसरे मध्यमवर्गीय परिवार में, तीसरे ब्राह्मण घर में, चौथे बिहार में और पांचवे थोडा बहुत टैलेंट लिए हुए, तो कुल मिला कर फ्रस्ट्रेशन का रेसेपी बहुते अच्छा रहा. याद है हमको, सिनेमा हॉल में सिनेमा देखने को मनाही रही, काहे कि उहाँ पब्लिक ठीक नहीं आता है, सिनेमा जाओ तो भाइयों के साथ जाओ, तीन ठो बॉडीगार्ड, और पक्का बात कि झमेला होना है, कोई न कोई सीटी मारेगा और हमरे भाई धुनाई करबे करेंगे, बोर हो जाते थे, सिनेमा देखना न हुआ पानीपत का मैदान हो जाता था...

इ भी याद है स्कूल से निकले नहीं कि चार गो स्कूटर और मोटर साईकिल पीछे लग जाते थे , हम रिक्शा पर और पीछे हमरी पलटन, स्लो मोसन में, घर का गली का मुहाना आवे और सब गाइब हो जावें....

एक दिन एक ठो हिम्मत किया था गली के अन्दर आवे का, आ भी गया था...और बच के चल भी गया, बाकि मोहल्ला प्रहरियों का नज़र तो पड़िये गया था....  

दूसर दिन उन जनाब की हिम्मत और बढ़ी, फिर चले आये गल्ली के अन्दर में, हम तो गए अपना घर बाद में पता चला उनका वेस्पा गोबर का गड्ढा में डूबकी लगा गया, निकाले तो थे बाद में लोग-बाग़ , बाकि काम नहीं किया शायिद, काहे की उ नज़र आये ....वेस्पा नहीं.....

हम गाना गाते थे, और हमरे बाबू जी रोते थे, इसका बियाह कैसे होगा इ गाती है !!! आईना के आगे २ मिनट भी ज्यादा खड़े हो जावें तो माँ तुरंते कहती थी "इ मेन्जूर जैसे का सपरती रहती हो"  माने इ कहें कि चारों चौहद्दी में पहरा ही पहरा, गीत गावे में भी रोकावट था, खाली लता दीदी को गा सकते थे, और हमको आशा दीदी से ज्यादा लगाव था, कभी गाने को नहीं मिला आशा दीदी का चुलबुला गीत सब, सब बस यही कहते रहे, इ सब अच्छा गीत नहीं है, अच्छा घर का लड़की नहीं गाती है इ सब, हम आज तक नहीं समझे कि गीत गावे से अच्छा घर का लड़की बुरी कैसे हो जाती है, गीत गावे से चरित्र में धब्बा कैसे लगता है, उस हिसाब से तो आशा जी का चरित्र सबसे ख़राब है, फिर काहे लोग उनका गोड़ में बिछे हुए हैं, बस यही बात पर आज हम गाइए दिए हैं इ गीत, अब आप ही बताइए, इसको गाकर हम कोई भूल किये हैं का.....का हमरी प्रतिष्ठा में कोई कमी आएगी आज के बाद ????



फिल्म : मेरे सनम
आवाज़ : आशा भोंसले
गीतकार : मजरूह सुल्तानपुरी
संगीतकार : ओ.पी. नैय्यर 
सिनेमा के परदे पर गायीं  हैं 'मुमताज़' 
और ईहाँ आवाज़ है हमारी.....स्वप्न मंजूषा 'अदा' ...

ये है रेशमी
जुल्फों का अँधेरा न घबराइये
जहाँ तक महक है
मेरे गेसुओं के चले आइये

सुनिए तो ज़रा जो हकीकत है कहते हैं हम
खुलते रुकते इन रंगीं लबों कि कसम
जल उठेंगे दिए जुगनुओं कि तरह २
ये तब्बस्सुम तो फरमाइए

ला ला ला ला ला ला ला ला
प्यासी है नज़र ये भी कहने की है बात क्या
तुम हो मेहमाँ तो न ठहरेगी ये रात क्या
रात जाए रहे आप दिल में मेरे २
अरमाँ बन के रह जाइए.

ये है रेशमी
जुल्फों का अँधेरा न घबराइये
जहाँ तक महक है
मेरे गेसुओं के चले आइये