Monday, October 18, 2010

हम वहीं तर जाते हैं.....

पुराना है...
इक दिन में हम कई बार, देखो ना ! मर जाते हैं
क़ब्र के अन्दर, कफ़न ओढ़ कर, काहे को डर जाते हैं

राह में तेरे संग चलते हैं, पर दामन भी बचाते हैं
फ़िर आँखों में धूल झोंक कर, आ अपने घर जाते हैं

साजों की हिम्मत तो देखो, बिन पूछे बज जाते हैं
जब उनपर कोई थाप पड़े तो, गुम-सुम से हो जाते हैं

चुल्लू चुल्लू पानी लेकर, कश्ती से हम हटाते हैं
वो पलक झपकते सागर बन, और इसे भर जाते हैं

देखें तुझको या ना देखें, फर्क हमें क्या पड़ता है
साया भी ग़र छू कर गुज़रे, हम वहीं तर जाते हैं


अब गीत... पुराना है...का कहें अब....गाये तो हमहीं हैं न...!

16 comments:

  1. वाह!! वो पलक झपकते सागर बन फिर इसमें भर जाते है...

    क्या बात है..बहुत खूब!

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  2. चुल्लू चुल्लू पानी लेकर, कश्ती से हम हटाते हैं
    वो पलक झपकते सागर बन, और इसे भर जाते हैं
    सुन्दर रचना
    और गीत के क्या कहने

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  3. बहुत सुंदर !
    कविता को एक नए अंदाज़ में परिभाषित किया है आप ने !
    आप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ, क्षमा चाहूँगा,

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  4. रचना और चित्र दोनों लाजवाब। बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
    बेटी .......प्यारी सी धुन

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  5. मृत्यु का नवअर्थी प्रयोग भा रहा है ! दामन बचाकर, आँखों में धूल झोंकने की हिमाकत करने वाले के साये से भी तर जाने का ख्याल मुहब्बत में समर्पण की पराकाष्ठा सी लगती है !

    पता नहीं कैसे मुझे तो बस यही ख्याल आये ! पर लिखते वक़्त आपनें क्या तसव्वुर किया अब आप जानिये ! हां नहीं तो :)

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  6. पता नहीं किस बात से डर जाते हैं।

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  7. bahut hi pyaari si kavita, aur is geet ka to main sada se fan raha hoon....dubara sunane ke liye dhanyawaad.....
    idhar ka bhi rukh karein...
    http://i555.blogspot.com/2010/10/blog-post_17.html

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  8. जीवन्त अनुभव ।
    और गीत की जितनी तारीफ हो, कम है ..!
    आवाज का कायल होना कौन न चाहेगा !
    आभार !

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  9. 2.5/10 कविता के लिए

    6.5/10 गाने के लिए

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  10. मर मर कर जीना....... अमर बन जाते हैं :)

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  11. हम वहीं तर जाते हैं.....
    --
    भय के कारण पन्नों पर कुछ शब्द उभर आते हैं!
    --
    इस सुन्दर गीत के साथ तुक तो मिला ही दी!

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  12. याद आ गई पुरानी कविता की दो लाइनें --

    `ऐ मौत मेरी आजा मुझ को गले लगा ले
    सौ बार मर चुका हूँ इस बार तो उठा ले'

    --बहुत अच्छी अभिव्यक्ति !!

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  13. बहुत भावपूर्ण रचना...

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  14. "साजों की हिम्मत तो देखो, बिन पूछे बज जाते हैं
    जब उनपर कोई थाप पड़े तो, गुम-सुम से हो जाते हैं"
    उलटबांसी शायद इसी को कहा जायेगा, बिन पूछे बज जाना और थाप पड़ने पर गुमसुम हो जाना।
    और गीत? ... पुराना है...का कहें अब....गाये तो आपहीं हैं न...!वही दिव्य आवाज है, अच्छा तो लगना ही था।
    और ये उस्ताद जी के दरबार में रिवैल्यूऐशन की गुंजाईश नहीं है क्या? बहुत टाईट मार्किंग करते हैं उस्ताद जी।

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