Tuesday, April 30, 2013

KENNY ROGER'S SONG...LUCILLE.....संतोष शैल की आवाज़ में...



Kenny Rogers — Lucille lyrics
Songwriters: Bowling, Roger;Bynum, Hal


संतोष शैल की आवाज़ में...








In a bar in Toledo across from the depot
On a bar stool she took off her ring
I thought I'd get closer so I walked on over
I sat down and asked her name
When the drinks finally hit her
She said I'm no quitter
but I finally quit livin on dreams
I'm hungry for laughter and here ever after
I'm after whatever the other life brings

टोलेडो (जगह का नाम ) में डिपो के सामने वाले बार में
वो स्टूल पर बैठी थी और उसने वहीँ अपनी अंगूठी उतार दी..
मैंने उसे ऐसा करते हुए देखा और सोचा थोड़ा उसके करीब आ जाऊं
मैं उठ कर उसके पास चला गया, फिर उससे उसका नाम पूछा..
हम दोनों में जाम का एक दौर चला..और जब उसे शराब थोड़ी चढ़ गयी
उसने कहा ..यूँ तो मैं हारने वालों में से नहीं हूँ, लेकिन मैं सिर्फ सपनो के साथ अब नहीं जी सकती
मैं हंसी की भूखी हूँ और आज के बाद ज़िन्दगी से जो भी मुझे मिलेगा वो मंज़ूर होगा..

In the mirror I saw him and I closely watched him
I thought how he looked out of place
He came to the woman who sat there be-side me
He had a strange look on his face
The big hands were calloused he looked like a mountain
For a minute I thought I was dead
But he started shaking his big heart was breaking
He turned to the woman and said

तभी मैंने आईने में उसे देखा और मैंने गौर किया
मैंने देखा वो उस माहौल से परे था.
वो उस औरत के पास आया जो मेरे पास बैठी थी
उसके चेहरे पर अजीब से भाव थे
उसके हाथ खुरदुरे थे और शरीर पर्वत सा विशाल था
एक पल के लिए मुझे लगा की वो मुझे मार ही डालेगा
पर वो कांपने लगा उसका दिल टूट रहा था
और उसने उस महिला से कहा

You picked a fine time to leave me Lucille
With four hungry children and a crop in the field
I've had some bad times lived through some sad times
this time your hurting won't heal
You picked a fine time to leave me Lucille.

लुसिल तुमने मुझे छोड़ने का अच्छा समय चुना
चार भूखे बच्चों और खेत में खड़ी फसल के साथ
मैंने बुरे दिन देखे हैं, दुःख भरे दिन भी गुज़ारे हैं
लेकिन इस बार का दर्द नहीं झेला जाएगा
लुसिल तुमने मुझे छोड़ने का अच्छा समय चुना

After he left us I ordered more whisky
I thought how she'd made him look small
From the lights of the bar room
To a rented hotel room
We walked without talking at all
She was a beauty but when she came to me
She must have thought I'd lost my mind
I could'nt hold her 'cos the words that told her
Kept coming back time after time

उसके जाने के बाद मैंने और विस्की आर्डर किया
मैंने सोचा उस महिला ने उस आदमी को कितना छोटा महसूस करा दिया
बार रूम की रौशनी से किराए के कमरे तक
हम दोनों बिना बात किये चलते गए
वो खूबसूरत थी और जब वो मेरे पास आई
तो उसने सोचा होगा की मैंने अपना होशो हवास खो दिया होगा
मैं उसे थाम न सका क्यूंकि
उस आदमी की बातें बारबार मुझे याद आतें रहीं

You picked a fine time to leave me Lucille
With four hungry children and a crop in the field
I've had some bad times lived through some sad times
this time your hurting won't heal
You picked a fine time to leave me Lucille.

लुसिल तुमने मुझे छोड़ने का अच्छा समय चुना
चार भूखे बच्चों और खेत में खड़ी फसल के साथ
मैंने बुरे दिन देखे हैं, दुःख भरे दिन भी गुज़ारे हैं
लेकिन इस बार का दर्द नहीं झेला जाएगा
लुसिल तुमने मुझे छोड़ने का अच्छा समय चुना

You picked a fine time to leave me Lucille
With four hungry children and a crop in the field
I've had some bad times lived through some sad times
But this time your hurting won't heal
You picked a fine time to leave me Lucille.

लुसिल तुमने मुझे छोड़ने का अच्छा समय चुना
चार भूखे बच्चों और खेत में खड़ी फसल के साथ
मैंने बुरे दिन देखे हैं, दुःख भरे दिन भी गुज़ारे हैं
लेकिन इस बार का दर्द नहीं झेला जाएगा
लुसिल तुमने मुझे छोड़ने का अच्छा समय चुना

You picked a fine time to leave me Lucille
लुसिल तुमने मुझे छोड़ने का अच्छा समय चुना
You picked a fine time to leave me Lucille
लुसिल तुमने मुझे छोड़ने का अच्छा समय चुना

एक कविता, एक ग़ज़ल, कुछ चित्र ....



रुख को कभी फूल कहा आँखों को कवँल कह देते हैं
जब जब भी दीदार किया हम यूँ ही ग़ज़ल कह देते हैं

वो परवाना लगता है कभी और कभी दीवाना सा
जल कर जब भी ख़ाक हुआ शमा की चुहल कह देते हैं

वो आके खड़े हो जाते हैं जब सादगी लिए उन आँखों में
वो पाक़ मुजस्सिम लगते हैं हम ताजमहल कह देते हैं

लगता तो था कि आज कहीं हम शायद नहीं उठ पायेंगे
सीने में वो जो दर्द उठा चलो उसको अजल कह देते हैं

क्या जाने कितने पत्थर सबने बरसाए हैं आज 'अदा'
मंदिर की जिन्हें पहचान नहीं वो रंग महल कह देते हैं

अजल=मौत


मेरे दोनों बेटे और बिटिया अच्छी चित्रकारी कर लेते है। ये मेरे मयंक की चित्रकारी ...कैसी है ?
यह पूरा sketch पेंसिल से बनाया है...बच्चों का आपलोगों को पता ही है फेंक दिया था मयंक ने इसको...मैंने इसे सहेज कर रखा ...बाद में उसने इसे scan करके कुछ रंग डाला है कहीं कहीं...ये मुझे बहुत पसंद है....आप बताइए कैसी है ..??


ये पेटिंग मयंक ने मृगांक की बनाई है...

और ये कुछ ऐसे ही ....



एक ग़ज़ल 'किसने कहा हुजूर के तेवर बदल गए'  
आवाज़ 'अदा', 
संगीत 'संतोष शैल' 
शायर जनाब रिफत सरोश 
कच्चा-पक्का है बुरा मत मानियेगा...

Monday, April 29, 2013

निर्मल बाबा के बाद प्रकट हुई राधे माँ .....





 

यह आलेख यहाँ  से लिया गया है।

नई दिल्ली : कृपा के कारोबारी निर्मल बाबा के बाद एक और देवी का भारत भूमि पर अवतरण हो चुका है, इनको देवी दुर्गा का अवतार कहकर प्रचारित किया जा रहा है| इनका नाम है राधे माँ, ये कथित देवी दुर्गा की अवतार कही जाती हैं| दुल्हन जैसे भारी मेकअप और महंगे साड़ी-गहनों में नज़र आने वाली राधे मां के बार में पता चला है की अपने आशीर्वाद के बदले भक्तों से बड़ी कीमत वसूल रही हैं| इनके भक्तों में बड़े फिल्म और टीवी कलाकार भी शामिल हैं। कौन हैं राधे मां राधे मां का जन्म पंजाब के होशियारपुर जिले के एक सिख परिवार में हुआ था। राधे की शादी सरदार मोहन सिंह से हुई है। शादी के कुछ दिन बाद ही राधे की मुलाकात पास के शिव मंदिर में महंत रामदीन दास से हुई, जिन्होंने राधे के अन्दर की धार्मिक भावना को पहचानकर उसे जागृत करने का बीड़ा उठाया और धीरे-धीरे रामदीन दास ने राधे को धर्म की ओर मोड़ दिया| अब राधे, राधे से माँ बन चुकी थी| स्थानीय लोग उन्हें सत्संग, जागरण, पूजा और अन्य धार्मिक अनुष्ठानों के लिए बुलाने लगे। राधे मां के आशीर्वाद से लोगों के व्यक्तिगत, व्यापारिक और पारिवारिक समस्याओं का समाधान होने लगा। आज राधे मां का जलवा देश के अलावा विदेशों में फैला हुआ है। राधे माँ की टीम में टल्ली बाबा और छोटी माँ नाम की महिला भी जुड़ गयी| राधे के सभी काम यही टल्ली बाबा और छोटी माँ देखते हैं| होशियारपुर से मुंबई का लम्बा सफ़र राधे ने कैसे तय किया इस के बारे में कोई कुछ नहीं बताता| राधे माँ के सभी काम टल्ली और छोटी माँ के जिम्मे हैं| राधे कभी भी कुछ नहीं बोलती| 

आज राधे माँ मुंबई पहुच चुकी हैं वहां के एक बड़े कारोबारी संजीव गुप्ता भी इनके साथ जुड़े हुए हैं। कहा जाता है एक जागरण में गुप्ता की राधे मां की मुलाकात हुई थी। इस मुलाकात के बाद दोनों की निकटता बढती गयी| गुप्ता की कंपनी ग्लोबल मीडिया विज्ञापन इंडस्ट्री से जुडी है। सूत्र बताते है कि गुप्ता ने राधे मां को बताया की कैसे वो उनके साथ मिल कर रातों रात ख्याति पा सकती हैं फिर क्या था अचानक तेजी मुंबई में राधे माँ बढ़त बनाने लगी| बोरीवली पश्चिम में रेलवे स्टेशन से 10 मिनट की दूरी पर ‘राधे देवी माँ’ भवन है, इसी के ग्राउंड फ्लोर पर एक बड़ा सा हॉल है, जिसे ‘माता की चौकी’ कहा जाता है। राधे मां यहीं भक्तों को अपने दर्शन देती हैं। राधे माँ का जलवा स्टेज पर राधे मां दुल्हन की तरह फुल मेकप कर अवतरित होती हैं और झूमती नाचती रहती हैं। हाथ में त्रिशूल होता है माँ के साथ ही उनके श्रद्धालु भी झूमते नज़र आते हैं। इस सबके बीच जो अद्भुत नज़ारा होता है वो ये कि राधे मां जब किसी पर प्रसन्न होती हैं तब झूमते हुए उसकी गोद में कूद जाती हैं। कहा जाता है कि जिस भक्त की गोद में वो छलांग लगाती हैं उसके सभी कष्ट उसी समय से दूर हो जाते हैं। मुंबई आज राधे राधे कर रही है| यहाँ माँ के हाई वोल्टेज आयोजन होते हैं। इन आयोजनों में लाखों लोग शामिल होते हैं जिनमे आधे से अधिक युवा होती है। राधे माँ के भक्तों में दलेर मेंहदी, मनोज तिवारी, डॉली बिन्द्रा, हंसराज हंस, प्रहलाद कक्कड़, एमएस बिट्टा, अनूप जलोटा, शार्दुल सिंकदर, लखबीर सिंह लख्खा, अनुराधा पौडवाल, रूप कुमार राठौड़, नरेंद्र चंचल के साथ ही और भी कई शामिल हैं| इन के साथ और भी कई बड़े नाम हैं जो आज कल राधे-राधे की रट लगाये हुए हैं| आज भले ही सभी राधे माँ के गुणगान में लगे हों लेकिन बहुत से ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब न देना राधे की शख्सियत को रहस्मय बनाती है| जैसे इतने बड़े आयोजन का पैसा कहाँ से आता है? बड़े-बड़े स्तर पर होने वाले लंगर का पैसा कौन देता है| पंजाब से मुंबई तक का सफ़र कैसे तय किया| राधे माँ अपने को देवी का अवतार मानती हैं या फिर उनका उपासक| उनके खर्चे कैसे पूरे होते हैं| हमें उम्मीद है कि राधे माँ या फिर उनके सहयोगी टल्ली बाबा हमारे सवालों का जल्द से जल्द जवाब देंगे|



Sunday, April 28, 2013

कोई आज बता ही देवे हमको ....कहाँ है हमरा घर ??????


लड़की !
यही तो नाम है हमरा....
पूरे १९ बरस तक माँ-पिता जी के साथ रहे...सबसे ज्यादा काम, सहायता, दुःख-सुख में भागी हमहीं रहे, कोई भी झंझट पहिले हमसे टकराता था, फिर हमरे माँ-बाउजी से...भाई लोग तो सब आराम फरमाते होते थे.....बाबू जी सुबह से चीत्कार करते रहते थे, उठ जाओ, उठ जाओ...कहाँ उठता था कोई....लेकिन हम बाबूजी के उठने से पहिले उठ जाते थे...आंगन बुहारना ..पानी भरना....माँ का पूजा का बर्तन मलना...मंदिर साफ़ करना....माँ-बाबूजी के नहाने का इन्तेजाम करना...नाश्ता बनाना ...सबको खिलाना.....पहलवान भाइयों के लिए सोयाबीन का दूध निकालना...कपड़ा धोना..पसारना..खाना बनाना ..खिलाना ...फिर कॉलेज जाना....
और कोई कुछ तो बोल जावे हमरे माँ-बाबूजी या भाई लोग को.आइसे भिड जाते कि लोग त्राहि-त्राहि करे लगते.....
हरदम बस एक ही ख्याल रहे मन में कि माँ-बाबूजी खुश रहें...उनकी एक हांक पर हम हाज़िर हो जाते ....हमरे भगवान् हैं दुनो ...

फिर हमरी शादी हुई....शादी में सब कुछ सबसे कम दाम का ही लिए ...हमरे बाबूजी टीचर थे न.....यही सोचते रहे इनका खर्चा कम से कम हो.....खैर ...शादी के बाद हम ससुराल गए ...सबकुछ बदल गया रातों रात, टेबुलकुर्सी, जूता-छाता, लोटा, ब्रश-पेस्ट, लोग-बाग, हम बहुत घबराए.....एकदम नया जगह...नया लोग....हम कुछ नहीं जानते थे ...भूख लगे तो खाना कैसे खाएं, बाथरूम कहाँ जाएँ.....किसी से कुछ भी बोलते नहीं बने.....
जब 'इ' आये तो इनसे भी कैसे कहें कि बाथरूम जाना है, इ अपना प्यार-मनुहार जताने लगे और हम रोने लगे, इ समझे हमको माँ-बाबूजी की याद आरही है...लगे समझाने.....बड़ी मुश्किल से हम बोले बाथरूम जाना है....उ रास्ता बता दिए हम गए तो लौटती बेर रास्ता गडबडा गए थे ...याद है हमको....
हाँ तो....हम बता रहे थे कि शादी हुई थी, बड़ी असमंजस में रहे हम .....ऐसे लगे जैसे हॉस्टल में आ गए हैं....सब प्यार दुलार कर रहा था लेकिन कुछ भी अपना नहीं लग रहा था.....

दू दिन बाद हमरा भाई आया ले जाने हमको घर......कूद के तैयार हो गए जाने के लिए...हमरी फुर्ती तो देखने लायक रही...मार जल्दी-जल्दी पैकिंग किये, बस ऐसे लग रहा था जैसे उम्र कैद से छुट्टी मिली हो.....झट से गाडी में बैठ गए, और बस भगवान् से कहने लगे जल्दी निकालो इहाँ से प्रभु.......घर पहुँचते ही धाड़ मार कर रोना शुरू कर दिए, माँ-बाबूजी भी रोने लगे ...एलान कर दिए कि हम अब नहीं जायेंगे .....यही रहेंगे .....का ज़रूरी है कि हम उहाँ रहें.....रोते-रोते जब माँ-बाबूजी को देखे तो ....उ लोग बहुत दूर दिखे, माँ-बाबूजी का चेहरा देखे ....तो परेसान हो गए ...बहुत अजीब लगा......ऐसा लगा उनका चेहरा कुछ बदल गया है, थोडा अजनबीपन आ गया है.....रसोईघर में गए तो सब बर्तन पराये लग रहे थे, सिलोट-लोढ़ा, बाल्टी....पूरे घर में जो हवा रही....उ भी परायी लगी ...अपने आप एक संकोच आने लगा, जोन घर में सबकुछ हमरा था ....अब एक तिनका उठाने में डरने लगे.... लगा इ हमारा घर है कि नही !..........ऐसा काहे ??? कैसे ??? हम आज तक नहीं समझे....
यह कैसी नियति ??......कोई आज बता ही देवे हमको ....कहाँ है हमरा घर ?????? 

रिमझिम गिरे सावन...आवाज़ 'अदा' की...








मेरी पसंद के नए गाने और एक विज्ञापन ....

आज जाने क्यों दिल किया मैं अपनी पसँद के कुछ ओरिजिनल नए गाने डालूँ और एक फ़नी विज्ञापन भी। मुझे ये सारे गाने और यह विज्ञापन बहुत पसंद है। आपलोगों ने ये सुना/ देखा है ही, लेकिन बस आज मेरा दिल कर गया :):)


जो ख़्वाबों ख्यालों में सोचा नहीं था ....

दिल दे दिया है, जाँ तुम्हें देंगे ....

सुन ज़रा सोणिये सुन ज़रा ....


Friday, April 26, 2013

है निग़ाह मेरी झुकी-झुकी, ये ग़ुरूर मेरा हिज़ाब है....




ये थका-थका सा जोश मेरा, ये ढला-ढला सा शबाब है
तेरे होश फिर भी उड़ गए, मेरा हुस्न क़ामयाब है

ये शहर, ये दश्त, ये ज़मीं तेरी, हवा सरीखी मैं बह चली 
तू ग़ुरेज न कर मुझे छूने की, मेरा मन महकता गुलाब है

ये कूचे, दरीचे, ये आशियाँ, सब खुले हुए तेरे सामने 
है निग़ाह मेरी झुकी-झुकी, ये ग़ुरूर मेरा हिज़ाब है

है बसा हुआ कोई शऊर है, मेरे ज़ह्न के किसी कोने में 
है चमक गौहर की कोई, या नज़र में मेरी आब है

क्यूँ पिघल रही मैं बर्फ़ सी, न चराग़-ओ-आफ़ताब है 
अब क्या कहूँ ये क्यूँ हुआ, ये सवाल ला-जवाब है  

वो हज़ार इश्क़-ए-चमन सही, मेरी हज़ार दीद-ए-शिकस्त सही 

मैं हर क़दम पे कुचल गई, तेरे सामने सारा हिसाब है !

ये दिल कभी तो धड़क गया, कभी बिखर गया गुलाब सा   
है ख़ुमार तारी क्यूँ 'अदा', क्या जगा हुआ कोई ख़्वाब है ?

न रोएगी नर्गिस कहीं, न आएगा कोई दीदावर
ये दिन भी अब वो दिन नहीं, और रात ज़ाहराब है

ज़ाहराब=ज़हरीला पानी

जब से तेरे नैना मेरे नैनों से लागे रे ....

चाणक्य....



तक्षशिला (जो अब पकिस्तान में है) प्राचीन विश्वविद्यालय होने के लिए जग प्रसिद्ध था, यहाँ दूर-दूर से विद्यार्थी शिक्षा लेने आया करते थे, इसी विश्वविद्यालय के महाज्ञानी और विद्वान् ब्राह्मण चाणक्य, व्यवहारिक राजनीति, दर्शन और हठवादी राजकौशल के सिद्धहस्त व्यवहारदर्शी थे, भारत के आरंभिक इतिहास में इनकी अपार प्रतिष्ठा थी, उन्हें 'विष्णुगुप्त' के नाम से भी जाना जाता था, जो उनके माता-पिता का उनको दिया हुआ नाम था...
उनको उनके छद्मनाम 'कौटिल्य' से भी जाना जाता है जो उन्होंने अपनी प्रसिद्द पुस्तक 'अर्थशास्त्र', जो संस्कृत में लिखी गई है, के लेखक के रूप में अपनाया था ...यह पुस्तक शासन और कूटनीति पर लिखा गया एक वृहत ग्रन्थ है...
उन्होंने अपना छद्मनाम अपने गोत्र 'कुटिल' से लिया था, जबकि उनके सबसे लोकप्रिय नाम 'चाणक्य' का उदगम हुआ था 'चणक' से, जो उनके गाँव का नाम था ...चाणक्य का जन्म चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में 'चणक' नामक ग्राम में हुआ था...

वह शक्तिशाली नन्द वंश को सत्ताविहीन करने और चन्द्रगुप्त मौर्य को, जो सम्राट अशोक के पितामह थे भारत का प्रथम ऐतिहासिक सम्राट बनाने की अतुलनीय उपलब्धि के लिए सर्वाधिक जाने जाते हैं...

चन्द्रगुप्त, मगध के सम्राट बने और पाटलिपुत्र (आधुनिक बिहार की राजधानी पटना के समीप स्थित एक प्राचीन नगरी) को अपनी राजधानी बनाया तथा ईसा पूर्व ३२२ से २९८ तक राज किया ...उनके दरबार में यूनानी राजदूत 'मेगास्थनीज' ने अपनी पुस्तक 'इंडिका' में लिखा था, कि चन्द्रगुप्त के शासन काल में न्याय, शांति और समृद्धि का बोल-बाला था...

यूनानी दार्शनिक 'सुकरात' की तरह ही चाणक्य का चेहरा-मोहरा व्यक्तित्व प्रभावशाली नहीं था, लेकिन वो प्रकांड विद्वान् एवं चिन्तक थे ..सुकरात का मानना था कि 'विचारों का सौन्दर्य, शारीरिक सौन्दर्य से अधिक आकर्षक होता है'..चाणक्य एक कुशाग्र योजनाकार थे, 

दॄढ़प्रतिज्ञ चाणक्य के भीतर किसी भी प्रकार की कमजोर भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं था...योजनाओं को बनाने और उनका क्रियान्वयन करने में वो बहुत कठोर थे...

अंतिम नन्द राजा जो कि बहुत अलोकप्रिय था, उसने एक बार चाणक्य का भरी सभा में अपमान कर दिया था ...चाणक्य ने इस अपमान का बदला लेने का संकल्प ..अपनी शिखा खोल कर किया था ...

इसी नन्द राजा के अधीनस्थ उच्च सैन्य पद पर आसीन एक युवा परन्तु महत्वकांक्षी व्यक्ति 'चन्द्रगुप्त' ने तख्ता पलटने की कोशिश की परन्तु असफल होकर उसे भागना पड़ा ...विन्द्य के वनों में चन्द्रगुप्त भटकता रहा और वहीं वह चाणक्य से मिला...चाणक्य को उसने अपना गुरु, संरक्षक मान लिया...चाणक्य के सक्रिय सहयोग से चन्द्रगुप्त ने एक सशक्त सेना का गठन किया और अपने गुरु की सूझ-बुझ और पूर्ण योजनाओं के बल-बूते पर नन्द राजा को सिंहासनच्युत कर मगध का शासक बनने में सफल हुआ..बाद में चन्द्रगुप्त से चाणक्य को अपना सर्वोच्च सलाहकार अर्थात प्रधानमंत्री नियुक्त किया...

इस ज्ञानी और व्यवहारिक दार्शनिक ने धर्म, आचार संहिता, सामजिक व्यवहार शैली और राजनीति में कुछ विवेकपूर्ण विचार प्रकट किये हैं...उन्होंने इन्हें तथा और कई अन्य ग्रंथों से चुने गए सूत्रों को अपनी पुस्तक 'चाणक्य नीति दर्पण' में प्रस्तुत किया है उनके स्वतः सिद्ध सूत्र आज के चलन में भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने वो दो हज़ार साल पहले थे ..ज़रा आप भी जानिये...

विष से प्राप्त अमृत, दूषित स्थान से प्राप्त सोना, और मंगलकारी स्त्री को भार्या के रूप में स्वीकार करना चाहिए भले निम्न परिवार से हो और ऐसी पत्नी से प्राप्त ज्ञान को भी स्वीकार करना चाहिए', विचारों के अभिप्रायों को निकलने नहीं देना चाहिए उन्हें एक गुप्त मन्त्र की तरह प्रयुक्त करना चाहिए,

जो परिश्रम करता है उसके लिए कुछ भी हासिल करना असंभव नहीं है

शिक्षित व्यक्ति के लिए कोई भी देश अनजाना नहीं है

मृदुभाषी का कोई शत्रु नहीं होता 

झुंड में भी बछड़ा अपनी माँ को ढूंढ लेता है, उसी प्रकार काम करने वाला सदैव काम ढूंढ लेता है...

चाणक्य के बारे में जनमानस में लोगप्रिय धारणा और छवि उनके जीवन काल में ही एक असाधारण, विद्वान्, देशभक्त, संत, गुरु और कर्तव्यपरायण व्यक्ति की थी...प्रधानमन्त्री के उच्च आसन पर आसीन होते हुए भी वो संत का जीवन बिताते थे तथा जीवन के चरम मूल्यों के प्रतीक बन गए थे...


Thursday, April 25, 2013

हमारी जिंदगी में भी, कई बे-नाम रिश्ते हैं......



हमारी जिंदगी में भी, कई बे-नाम रिश्ते हैं
जिन्हें हम इतनी शिद्दत से न जाने क्यूँ निभाते हैं 

तुम्हारी हर दगाबाज़ी हमें जी भर  रुलाती है
सबेरा  जब भी होता है तो हम सब भूल जाते हैं 

यहाँ  ये कैसी दुनिया है जिसे आभासी कहते हैं
अगर  पत्थर वो  झूठे हैं, क्यूँ सच्चे चोट खाते हैं ? 

ज़रा रहने दो मुझमें भी अभी इतनी सी ग़ैरत तो
कि जब हम नज़रें मिलाते हैं हम नज़रें चुराते हैं

अभी उतना ही गिरने दो हमें ख़ुद की निगाहों में 
कभी झुक करके सोचें हम चलो ख़ुद को उठाते हैं

ये माना हम कभी कुछ भी नहीं दे पाए हैं तुमको   
मगर हम रूह की हद से तुम्हें मेरी जाँ बुलाते हैं

ये दिल दर्द के जज़्बात से जब भी लरज़ता  है
पकड़ कर डाल हम ख़ामोशियों के झूल जाते हैं

बड़ा है कौन यां ग़र तुम, कभी इस बात को सोचो
हरिजन के छुए पर ये बिरहमन क्यूँ नहाते हैं..?

कभी सोचा  'अदा' तुमने, गरीबों की ही बीवी को  
सभी देवर से क्यूँ बनकर के, भाभी जाँ बुलाते हैं ?

छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए... आवाज़ 'अदा' की..




Wednesday, April 24, 2013

तुमको मालूम हो, ये दिल कभी बेचारा न था ...

जब तुम न थे मेरे, मेरा कोई सहाऱा न था
पूरी दुनिया तो थी संग में, मगर कोई हमारा न था

अब भी रात बाक़ी है, मगर घूँघट उठाऊँ कैसे
हुस्न के ऐतमाद को, इश्क़ का भी इशारा न था

घोल के रंग-ओ-रोगन फिर, बियाबाँ रंगीं किये मैंने
इससे बेहतर मेरे लिए, कोई नज़ारा न था

दिल के हर गोशे में, एक आतिश सी सुलगती है
गुनगुनाते हैं अकेले में, किसी को भी पुकारा न था

लुत्फ़ की बात हो या फिर, क़हर की रात हो 'अदा '
तुम्हें मालूम हो इतना, कभी ये दिल बेचारा न था

और एक गीत....गाना इसे तीन लोगों को चाहिए था...लेकिन अपुन तो एकला चलो रे हैं ना !

Tuesday, April 23, 2013

“Is India safe?” and “Is it OK for women to travel by themselves?”


Andrew Caballero-Reynolds/Agence France-Presse/Getty Images
A tourist in a market in New Delhi, March 20, 2013.
The horrific gang rape and death of a young woman in Delhi in December has changed the perception many foreigners have of India. 
Questions like: “Is India safe?” and “Is it OK for women to travel by themselves?” have become a lot more common among foreigners thinking of traveling in India.
Women’s safety has become a major worry, so much so that tourist numbers have taken a hit. In the roughly three months since the Delhi rape case made headlines around the world, the number of foreign tourists in the country dropped 25% from the same period a year earlier, according to a new survey released by the Associated Chambers of Commerce and Industry of India, a trade body. 
The number of foreign women travelers has dropped even more: down 35% year-on-year. 
The study, which is based on a survey of 1,200 tour operators, cites the growing perception that India is not safe for women as a key reason for the drop.
Around 72% of the tour operators surveyed said that some women travelers – most of them from Western countries including the U.S., U.K. and Canada – have canceled their bookings over the past three months. The study found that New Delhi suffered more than any other tourist destination in India. 
A recent poll by The Wall Street Journal found that over 76% of respondents believe India is not safe for women travelers. 
The brutal Delhi gang rape in December triggered protests calling for improved women’s safety in India, and made the issue a public policy priority. Last month, the Indian Parliament passed a bill aimed at strengthening sexual assault legislation, with tougher penalties for offences including rape and stalking.  
Foreign women have also been victims of sexual harassment and assault in recent months. In mid-March, a Swiss woman said she was gang-raped while camping with her husband near Orchha, an emerging tourist destination in the central Indian state of Madhya Pradesh.
More recently, a British woman said she jumped from the balcony of her room to escape sexual harassment from the hotel manager standing outside her door. She was staying in Agra, a city that is home of India’s most famous tourist destination:  the Taj Mahal.
The ASSOCHAM study found that, combined, these three incidents had a significant impact in dissuading foreigners, especially women, from traveling to India.
Recent episodes of sexual harassment have prompted the U.K. to update its travel advice for British citizens in India, prioritizing warnings on women’s safety. Other governments, including the U.S., have similar travel advisories for India.  
Tourism is a growing industry in India. In 2012, 6.6 million foreign tourists traveled to India, up 5.4% from a year earlier, with foreign exchange earnings totaling $17.74 billion, according to government data. The busiest months for tourism are November through March.

Monday, April 22, 2013

क्या हम औरतें ऐसी ही होतीं हैं ???????(संस्मरण)


कल एक बहुत ही खूबसूरत फिल्म आ रही थी टी वी पर, 'पिंजर' । यूँ तो कई बार देखा है इस फिल्म को लेकिन हर बार यह फिल्म, मुझे बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर देती है । नायिका 'पूरो' की कहानी.....एक स्त्री की स्त्रियोचित संवेदनाओं की उथल-पुथल का, इन्द्रधनुषी शाहकार । रिश्तों, भावनाओं का निहायत खूबसूरती से संजोया हुआ, एक मार्मिक दस्तावेज़ है ये फिल्म। पाप-पुण्य, इंसानियत- हैवानियत, आबरू-बेआबरू, असंतोष, अविश्वास, छल-कपट, धर्मान्धता, बदला और बँटवारे की राजनीति के बीहड़ में रिश्तों का मुरझाना, पनपना और हर विसंगति को अपनाते, दरकिनार करते हुए एक स्त्री के मन में, अपने ही घाती के लिए प्रेम का फूटना, अपने आप में एक करिश्मा तो है लेकिन एक सवाल खड़ा कर सोचने को मजबूर कर ही देता है,  आखिर क्यूँ और कैसे, प्रेम संभव हो जाता है, उसी से जिसने उसे कहीं का नहीं छोड़ा होता है ?

एलिजाबेथ स्मार्ट का अपहरण 2002 में हुआ था। 9 महीनों बाद वो मिली। पुलिस ने उसे ढूंढ निकाला और साथ ही उसका अपहरणकर्ता भी गिरफ्तार हुआ। हैरानी इस बात से हुई, कि एलिज़ाबेथ को अपनों के पास और अपने घर सुरक्षित पहुँच जाने के बाद भी, अपने अपहरणकर्ता की सलामती की फ़िक्र थी। ये क्या है ? इसे आप प्रेम कहेंगे या आदत या फिर असुरक्षा में सुरक्षा का अहसास ? या फिर इसे आप स्त्रियोचित गुण ही कहेंगे ?

ऐसी ही एक घटना याद आ रही है जो मेरे बचपन में घटी थी । 'आशामणि' नाम था उसका लेकिन हमलोग, 'आसामनी' ही कहते थे। मोहल्ले की ही लड़की थी, बराबर ही उम्र रही होगी हमारी। तब 14-15 वर्ष रही होगी उसकी उम्र 
जिस दिन आसामनी गायब हो गयी थी । मोहल्ले में ये चर्चा, बहुत दिनों चलती रही, आख़िर आसामनी गयी कहाँ ? 

मोहल्ले वालों ने बहुत ढूँढा उसे। उसे नहीं मिलना था, वो नहीं मिली। वैसे भी गरीब की बेटी गायब हो जाए तो 'बोझ उतरने' जैसा ही अहसास होता है परिवार को। परिवार वालों के चेहरों से तो ये भी लगता था कभी-कभी, कहीं आसामनी मिल ही न जाए फिर जो ग्रह कटा है वो फिर झेलना पड़ेगा। कुछ दिनों तक ये चर्चा मोहल्ले में सिर्फ 'अटकल' लगाने के लिए होती रही, बाद में जब सारे 'अटकली विकल्प' ख़त्म  हो गए तो चर्चा भी समाप्त हो गयी।  धीरे-धीरे, इस घटना की जगह दूसरी घटनाओं ने ले लिए और आसामनी का गायब होना अनगिनत घटनाओं की गर्द में दब कर 'कोल्ड केस' बन गयी। लेकिन, मेरे मन में ये घटना घर कर गयी थी। कारण शायद ये भी हो हमउम्र होने की वजह से, रास्ते में आते-जाते, एक दूसरे से नज़रों का रिश्ता तो था ही। उसका इस तरह गायब हो जाना मेरी नज़रों को खाली कर गया था, किसी एक फ्रेम में ...

आज से तीन साल पहले मैं भारत गयी थी। माँ से मालूम हुआ कि, आसामनी आई हुई है। ये सुनते ही जाने क्यूँ, नज़रों का खाली फ्रेम भरता हुआ लगा था।  उसका नाम बिलकुल भी अनजाना नहीं लगा। उसका एकदम से वापिस आना, मुझे कहीं अन्दर एक संतुष्टि का ठहराव दे गया, लेकिन उत्सुकता का उफ़ान भी थमा गया । मैं इतनी बेचैन हो गयी उससे मिलने को कि नहीं रोक पायी खुद को और चल ही पड़ी मैं उससे मिलने। 

उसके घर के पास जब पहुंची तो आस-पास कौतुकता भरी नज़रें, मुझ पर टिकी ही रहीं मानों पूछ रहीं हों 'आज कैसे इधर का रास्ता भूल गयी तुम ?'  'ऐसे तो कभी नहीं आती'...पूछा तो किसी ने नहीं लेकिन मैंने ही कह दिया, 'आसामनी से मिलने आये हैं हम'। उसके घर के लोग भाग-भाग का कुर्सी ला रहे थे, और मेरी आँखें, आसामनी को ढूंढ रहीं थीं। कहाँ थी वो इतने दिन ? कैसी दिखती होगी ? क्या हुआ उसके साथ ? दिल में सवालों का भूचाल आया हुआ था। और कलेजा ऐसे धक्-धक् कर रहा था, जैसे सदियों बाद मैं ही वापिस आई हूँ। मेरा इंतज़ार, बस कुछ पलों का ही था और वो सामने आ ही गयी। देखा तो कहीं से भी ये वो आसामनी थी ही नहीं, न पहनावे से, न बोल-चाल से। ठेठ हरियाणवी बोली और ठेठ हरियाणवी परिधान। लेकिन आँखों में वही पुरानी पहचान थी। मैंने उसका हाथ थाम लिया। हाथ थाम कर यूँ लगा था, जैसे मैंने खुद को पा लिया हो। एक बहुत लम्बे, अनकहे, अनबूझे, इंतज़ार का अंत हुआ था, उस दिन। 

मेरे पूछने पर जो उसने बताया था, वो कुछ इस तरह था ... वो उस शाम, दूकान गयी थी कुछ लेने। उसकी माँ ने भेजा था। वापसी में अंधेरा, थोडा और घना हो गया था। रास्ते में एक औरत मिली थी, उससे बातें करती रही वो ... कुछ खाने को दिया था उसने। ग़रीब की आशाएँ, हमेशा पेट पर ही ख़त्म होतीं हैं। बस वही खाना उसके लिए मुहाल हो गया। उसके बाद जब, उसकी आँखें खुली, तो ख़ुद को ट्रेन में पाया उसने। जीवन में पहली बार ट्रेन में भी बैठी थी वो। वो औरत उसके साथ ही थी। कुछ कह नहीं पायी वो, न उस औरत से, न ही सहयात्रियों से। बचपन से, डर कर जो रहने को बताया गया था उसे। उसे बोलना तो  सिखाया ही नहीं गया था। उसे तो बस यही बताया गया था, लडकियां ज्यादा नहीं बोलतीं, बस वो नहीं बोली।

पता नहीं किन-किन रास्तों से, कहाँ-कहाँ होती हुई, उसकी ज़िन्दगी, कहाँ पहुँच रही थी, उसे कुछ भी मालूम नहीं था।कठपुतली की डोर की तरह, उसके जीवन की डोरी भी, एक हाथ से दुसरे हाथ में, आ-जा रही थी। 

अंततोगत्वा, उसे हरियाणा में एक किसान परिवार को बेच दिया गया। उसकी क़ीमत क्या लगी, ये उसे नहीं मालूम। परिवार में चार भाई थे, और एक पिता भी। माँ नाम की 'चीज़' भी थीं वहाँ, लेकिन बस 'चीज़' ही थी वो। खरीद कर या जीत कर लाई गयी 'चीज़' पर तो सबका अधिकार होता ही है।आसामनी पर भी अपने-अपने अधिकार का प्रयोग सबने किया। और बस उसकी ज़िन्दगी की सुबह-शाम उस घर में बदल गयी। दिन भर खेतों में हाड-तोड़ मेहनत, घर का भी काम और फिर रात को .....। खेत से घर और घर से खेत तक की दूरी तय करती हुई उसकी ज़िन्दगी कटने लगी।

सोचती हूँ, कैसे एक बच्ची का अल्हड़पन, रातों-रात 'प्रोमोशन' पाकर उसे औरत बना देता है ? बचपन उम्र के दायरे में नहीं होता, वो तो शरीर के दायरे में होता है। बस एक बार शरीर, उस दायरे से बाहर आ जाए फिर चाहे उम्र कुछ भी हो, बचपन खो जाता है।   

ख़ैर, एक ज़िन्दगी की शुरुआत, खरीद-फ़रोख्त से शुरू हुई, फिर वासना की धरातल पर वर्षों घिसटने के बाद , रिश्तों के बीज धीरे-धीरे पनपने लगे और देखते ही देखते आसामनी, उस परिवार के वंशज जनने लगी। उसके चार बच्चे हुए। उस परिवार के सबसे छोटे बेटे की अब वो पत्नी कहाती है। और वही उसे, उसके परिवार से मिलाने रांची ले आया था। मिली मैं, आसामनी के 'पति' से भी, अपनी गर्दन वो उठा नहीं पाया मेरे सामने, न ही नज़रें मिला पाया वो। लेकिन उसकी झुकी हुई नज़रें भी मुझे ठेंगा दिखा रहीं थीं। ये बिलकुल वैसा ही था, जैसे किसी ने किसी निर्दोष का बलात्कार किया हो और फिर उसी लड़की से शादी करके महान बन गया हो। उस आदमी से मिलकर मन खिन्न हो गया था। लेकिन मन में, यह भी आया विश्वास की कोंपलें कहीं तो फूटीं थीं, जो ये ले आया आसामनी को उसके माँ-बाप से मिलाने। मैं घर तो लौट आई लेकिन मन शान्ति और अशांति की जंग में मशगूल था । ये मन भी न, बहुत अजीब है।

दो-चार दिन बाद ही आसामनी बदहवास सी मेरे घर आई। पता चला उसके पति की तबियत ख़राब है। मेरी जानकारी में कोई, अच्छा सा डॉक्टर है तो बता दूँ। उसके आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। मैं फ़ोन में उलझी, उसे हर तरह से ढाढस बंधाने की कोशिश कर रही थी। उससे बार-बार मैं कह रही थी, सब ठीक हो जाएगा। और वो मुझसे कहती जाती थी, 'अगर मेरे आदमी को कुछ हो गया तो, मैं जी नहीं पाऊँगी ??? और मैं आवाक़, उसका मुंह देख रही थी और  सोच रही थी ......क्या सोच रही थी ??? पता नहीं मैं क्या सोच रही ...सच कहूँ तो, कुछ सोच ही नहीं पा रही थी ...

क्या है ये ? प्यार, प्रेम, मुट्ठी भर आसमान या धूप का एक टुकड़ाअसुरक्षा में सुरक्षा का अहसास, या फिर पिंजरे में आज़ादी की साँस, .... या फिर, शायद हम औरतें ऐसी ही होतीं हैं  ???????


तुम्हीं मेरे मंदिर 

तुम्हीं मेरे मंदिर .....आवाज़ 'अदा ' की





Sunday, April 21, 2013

मेरी दोस्ती, मेरा प्यार ...

संताः यार सच्चे दोस्त कौन होते हैं
बंताः सच्चे दोस्त वो होते हैं जो मुश्किल वक्त में भी तुम्हारे साथ खड़े रहे
संताः अब ये कैसे पता चले की कौन साथ है
बंताः अपनी शादी की एलबम देख लो, जो उस सबसे मुश्किल वक्त में भी तुम्हारे साथ खड़े हैं वो ही तुम्हारे सच्चे दोस्त हैं।

ये तो हुआ एक लतीफ़ा। लेकिन सचमुच एक अच्छा और सच्चा दोस्त कौन होता है ? मैं अगर अपनी बात कहूँ तो मैंने ज़िन्दगी में और कुछ कमाया या नहीं कमाया, बहुत अच्छी और सच्ची दोस्ती ज़रूर कमाई है। कम ही दोस्त हैं मेरे, लेकिन जो भी हैं, मुझे उनपर गर्व है। मेरी ज़िन्दगी में उनकी जो अहमियत है, वो किसी भी दूसरे रिश्ते से बहुत ऊपर है। वो मेरे हमराज़ हैं। मेरी बहुत सारी ख़ामियों से वो वाकिफ़ हैं। लेकिन वो मुझे, मेरी उन कमियों के साथ ही बहुत प्यार करते हैं। उन्होंने मुझे मेरी कमियों के कारण कभी नीचा नहीं दिखाया है, बल्कि उन्होंने मेरी ग़ैरहाज़िरी में भी मेरा साथ दिया है। वो उस वक्त मेरे साथ खड़े हो जाते हैं, जब मुझे उनकी सबसे ज़्यादा ज़रुरत होती है। वो उस वक़्त भी आकर खड़े हो जाते हैं, जब एक-एक कर सभी मेरा साथ छोड़ देते हैं। वो उस वक़्त भी मेरे साथ खड़े हो जाते हैं, जब उनके पास वक़्त भी नहीं होता। मेरे दोस्त मेरी कमियों को सिर्फ मुझसे ही कहते हैं, सबके सामने नहीं कहते हैं। उनको मेरी प्रतिष्ठा की रक्षा का पूरा भान रहता है।

कहते हैं जब आप सफल होते हैं, तब आपके दोस्तों को ये पता चलता है, कि आप कौन हैं, लेकिन जब आप असफल होते हैं, तो आपको पता चलता है कि आपके दोस्त कौन हैं ?  

धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी

आपात काले परखिये चारी   

यह उक्ति किसी भी काल, परिवेश और सन्दर्भ में हर उस शय के लिए सही है, जिसका ज़िक्र यहाँ किया गया है, उनमें दोस्त भी हैं। आपके सच्चे मित्र कौन हैं, इसकी पहचान आपको तब और ज़्यादा होती है, जब आप सचमुच किसी समस्या में आ जाते हैं। 


रहिमन  विपदा हो भली जो थोड़े दिन होए
हित अनहित जगत में जान पड़त सब कोई 

मैंने अपने दोस्तों को कभी कुछ भी नहीं दिया है, मैंने सिर्फ उन्हें बहुत अच्छा वक्त दिया है। उस अच्छे वक्त को हमसब मिलकर हमेशा याद करते हैं और बहुत खुश होते हैं। कहते हैं सच्चा प्रेम मिलना कठिन है, लेकिन सच्चा दोस्त मिलना उससे भी ज्यादा मुश्किल।      



एक अच्छे दोस्त की तलाश मनुष्य सारी उम्र करता है। क्या है इस 'दोस्ती' नामक रिश्ते का मनोविज्ञान ? आखिर हम क्या ढूंढते हैं अपने मित्र के अन्दर ? हज़ारों शख्स हमारी ज़िन्दगी में आते हैं और बिना कोई छाप छोड़े चले जाते हैं, लेकिन कोई एक चेहरा ऐसा होता है, जो बिलकुल अपना सा लग जाता है। कोई हमेशा के लिए हमारी ज़िन्दगी का हिस्सा बन जाता है। आखिर ऐसा क्यूँ हो जाता है भला ? हम उसे ही अपना मित्र समझते हैं, जो हमें समझता है। जिससे मिलकर या बात करके हमें, अपने होने का अहसास होता है। जो सच्चा दोस्त होता है, अगर वो सामने न भी हो तो उसकी कमी नहीं खलती है, लगता है वो साथ न होकर भी साथ है। बिना एक शब्द बात किये हुए भी उससे हम सबकुछ कह सकते हैं, और वो सबकुछ समझ जाता है। 'सहानुभूति' एक शब्द है, मेरे ख़याल से सह+अनुभूति इसका अर्थ होना चाहिए, अर्थात जो अनुभूति आपको होती है, वही अनुभूति अगर आपके मित्र को भी हो रही है, तो वो निःसंदेह आपका सच्चा मित्र है। आपका दोस्त आपका आईना होना चाहिए, उसमें आप बिलकुल वैसे ही नज़र आयें जैसे आप हैं। अपनी कमियों और खूबियों को आप अपने दोस्त के सामने खुल कर उजागर कर सकते हैं। और दोस्त ऐसा हो जो जजमेंटल ना बने। दोस्ती एक ऐसा रिश्ता होता है, जो निस्वार्थ भाव से आपके साथ जुड़ा रहता है, चाहे दुनिया उलट-पलट जाए। दोस्ती में कोई 'इफ्स एंड बट्स' नहीं होती। संसार की सारी मुसीबतें आपके सर पर टूट पड़ें, एक-एक कर सभी आपका साथ छोड़ दें, लेकिन जो आपका अपना है, जो सचमुच आपका दोस्त है, आपको किसी भी हाल में छोड़ कर नहीं जा सकता।


दोस्ती के कुछ अलिखित नियम होते हैं, जिनको अगर आप समझ जाते हैं तो आप एक सच्चे मित्र बन सकते हैं और आप एक सच्चा मित्र पा सकते हैं। कोई भी दो व्यक्ति एक जैसा नहीं सोचते, न ही उनकी भावनाएं एक सामान हो सकतीं हैं। लेकिन यदि उन्हीं दो व्यक्तियों के बीच मित्रता का सम्बन्ध होता है, तो ये अपेक्षित है कि दोनों मित्र एक दूसरे को इतनी शिद्दत से समझे, इतनी गहराई से महसूस करें, कि विचारों में भिन्नता होने के बावजूद भी, एकदूसरे के विचारों और भावनाओं का वो सम्मान करें। उनके अपने-अपने विचारों और भावनाओं का असर दोस्ती पर न पड़े। 

दो मित्रों के बीच बहुत ज्यादा स्पष्टवादिता हो, बातों में खुलापन होना बहुत ज़रूरी है। घुमा-फिर कर बात करना, बातों को छुपाना मित्रता की नींव को कमज़ोर करता है।


संदेह, पूर्वाग्रह और आजमाईश दोस्ती के लिए दीमक का काम करते हैं।

मित्रों की सहायता करने के लिए हमेशा तत्पर रहना, उनका सुख अपना हो कि न हो, उनका दुःख तो अपनाना ही चाहिए।


एक सच्चे मित्र का प्यार भरा हाथ अगर आपके सर पर है तो वो हाथ दुनिया की हर मुसीबत से लड़ने की ताक़त देता है। प्यार से भरा ये रिश्ता आपको ऊर्जावान बनाता है। दोस्त वही है, जो जरुरत के वक्त काम आए, जिसके आने से आपकी खुशी दोगुनी हो जाएँ और दुःख आधे। 

कहते हैं, दोस्ती जिंदादिली का नाम है। जब आपका सच्चा दोस्त आपके सामने आये तो आप खुद को और सबल महसूस करें। यह एक ऐसा रिश्ता है जिसे सिर्फ दिल से ही जिया जाता है। इसमें औपचारिकता, अहंकार व प्रदर्शन नहीं बल्कि सामंजस्य व आपसी समझ काम आती है। सामंजस्य, समर्पण, समझ और सहनशीलता एक अच्छे दोस्त और दोस्ती की पहचान होती है। दोस्ती में कोई अमीरी-गरीबी या ऊँच-नीच नहीं होती। इसमें केवल भावनाएँ होती हैं, जो दो अनजान लोगों को जोड़ती हैं। अगर आपको एक सच्चा दोस्त मिल गया है, तो आपका सच्चा दोस्त आपकी जिंदगी बदल सकता है। वह आपको बुराईयों के कीचड़ से निकालकर अच्छाइयों की ओर ले जाएगा। हमेशा आपकी झूठी तारीफ करने वाला और चापलूसी करने वाला आपका सच्चा दोस्त नहीं है।

सच्चा दोस्त वही है जो आपकी गलतियों पर पर्दा डालने के बजाय निष्पक्ष रूप से अपना पक्ष, आपके सामने प्रस्तुत करे। आपको आपकी बुराईयों से अवगत कराए, लेकिन दूसरों के सामने आपका सम्मान बचा कर रखे। वो आपको सही और सच्ची बात बताये, इसके लिए बेशक़ वो कुछ कडवे बोल, बोल जाए। उसके कुछ कड़वे वचन यदि आपकी जिंदगी को बदल देते हैं तो समझिए कि वही आपका सच्चा दोस्त है फिर ऐसे दोस्त को छोड़ना सबसे बड़ी मूर्खता होगी।
         
अजनबी तुम जाने पहचाने से लगते हो ...

Saturday, April 20, 2013

एक पेड़ ऐसा भी ....(आँखों देखी )

इस समय जो भी सुनने को मिल रहा है ...मेरा यह संस्मरण सामयिक कहा जा सकता है, इसलिए दोबारा डाल  रही हूँ। 



ट्रेन से उतरना ऊ भी अकेले और ऊ भी सारे सामान के साथ कितना मुश्किल है, उतरते साथ हम अपनी आँखें मीच-मिचाने लगे ...दूर-दूर तक कोई भी पहचाना सा चेहरा नज़र नहीं आया....कोई आया क्यों नहीं लेने ? फ़ोन तो कर दिए थे कि २ बजे की ट्रेन से हम आ रहे हैं...थैला, बास्केट, पर्स सबकुछ उठाना कितना मुश्किल है, हम बुदबुदा रहे थे ..कोई रिक्शा भी नहीं है..आज हमको पहली बार अपने गाँव आने पर कोफ़्त हो रही थी..धूप इतनी तेज़ कि मत पूछो...गर्मी के मारे समूचा बदन पसीने से नहाया हुआ बुझा रहा था... पसीने को आँचल से पोछते हुए हम बडबडाते जाते थे.. ..अब तो जाना ही होगा पैदल, कम से कम दो कोस का रास्ता है..सोच कर ही मन बैठ गया..लेकिन उपाय क्या है..साड़ी के आँचल को कस कर कमर से बाँध लिये ..सामने की चुन्नट उठा कर सामने ही खोस लिए, नीचे पेटीकोट नज़र आने लगा था..हुंह ..जाने दो का फर्क पड़ता है..सोचकर अपना ही कन्धा झटक दिए ... पर्स कंधे पर लटका लिए, एक हाथ में बास्केट और दूसरे हाथ में थैला लेकर दो कोस की दूरी तय करने के अभियान में लग गए ...

अब तक तो हम स्टेशन पर ही खड़े थे....स्टेशन क्या था एक छप्पर , जिसके नीचे, यात्रियों के बैठने के लिए दो-चार बेंच, जिसके हर बेंच पर कोई न कोई लेटा हुआ नज़र आ रहा था...शायद इस भरी दुपहरी में इससे ज्यादा आरामदेह जगह और कोई नहीं थी आस-पास...मेरा वहां बैठने का तो ,प्रश्न ही कहाँ उठता था...फिर क्या था मन बना लिए, चल-चल रे नौजवान...रुकना तेरा काम नहीं चलना तेरी शान...किसी मंजे हुए सेनानी की तरह अब कमर कसे हम भी मंजिल की ओर चल पड़े ....

रेलवे लाईन पार करके हम दूसरी तरफ आ गए...आसमान बिलकुल साफ़ और सूर्य देवता अपने पूरे ताम-झाम पर,  गाँव में वैसे भी आसमान साफ़ होता है, जेठ की दोपहरी और चिलचिलाती धूप....आँख उठा कर ऊपर देखने की कोशिश किये भी थे और कहे भी थे....वाह..!  सूर्य महाराज , आज मत बक्शना हमको....

रास्ते के नाम पर कच्ची सी पगडण्डी...जो आते जाते क़दमों से बनी थी...घास जमती भी तो कैसे...जमने से पहले ही  पाँव से रौंद दी जाती...पगडण्डी की मिटटी गर्मी में नमी खोकर धूल बनने लगी थी...इसलिए सारी पगडण्डी धूल से अटी पड़ी थी....बीच-बीच में जब लू कहें या हवा , चलती तो अपने साथ ग़ुबार भी उड़ाती जाती..गोल-गोल...और हम अपनी आँखें बचाने के लिए दूसरी तरफ मुंह घुमा लेते थे..दोनों हाथों में सामान जो था हमारे ..

अगर हम जानते कि कोई लेने नहीं आएगा तो हील पहन कर थोड़े ही ना आते ..चप्पल  ही पहन लेते ...अब हील की वजह से रास्ता चार कोस का हो जाएगा..माँ कितनी बार कहती है हील मत पहना करो...अच्छा नहीं होता हील पहनना...लेकिन माँ के ही कारण तो हमरी हाईट कम है...सारी हाईट भाई लोगों को दे दी...और हमको बना दी पांच फुट्टी...कितनी बार माँ को सुना चुके हैं हम ...इतनी नाटी काहे हैं हम ...माँ कहती है तुम नाटी नहीं हो...एकदम ठीक हो...अच्छी लगती हो...लड़की जात , बहुत  ज्यादा लम्बी अच्छी नहीं लगती है ...हम भी मुंह बिसूर के बोल ही दिए थे...हाँ हाँ..काहे नहीं तुम अपनी गलती थोड़े ही न मानोगी...माँ मेरा मन रखने को कहती..कितनी सुन्दर तो लगती हो तुम , बेकार में अपना मन ख़राब करती हो...वैसे भी पसेरी भर हीरा कभी कोई देखा है का...कीमती चीज़ का साईज हमेशा छोटा होता है.....माँ भला अपनी कृति को बुरा कैसे कह सकती है...उसको तो हम  सुन्दर लगेंगे ही...लेकिन हम भी कहाँ बात ज़मीन पर गिरने देते हैं ...अच्छा..! अगर हम एतना ही खूबसूरत हैं तो कोई ब्यूटी कॉम्पिटिशन वाला हमको लेता काहे नहीं है ...हाईट देखकर ही सब मना कर देते हैं...माँ धीरे से मुस्किया देती है ...लेकिन बोल जरूर दी थी...ई घर की लड़की लोग ब्यूटी कॉम्पिटिशन में नहीं जातीं हैं...और उसका ई बात पर हमरा एड़ी का बोखार चूंदी में चढ़ गया था ...बिफर कर हम बोले थे.. हाँ हाँ काहे नहीं...नाच न जाने आँगन टेढ़ा....माँ जोर से हँस कर हमरा मुहावरा सुधार गयी थी....ना ना..गलत बोलती हो..बोलो अंगूर खट्टे हैं.....

ई सब सोच कर धूप में लाल हुआ हमरा चेहरा मुस्कुरा उठा था ....माँ-बाप जैसी प्यारी चीज़ दुनिया में कुछ है का...सोचकर ही मन खुश हो गया...अब तक सूर्य भगवान् अपना जलवा दिखा चुके थे....हे भगवान् प्यास से गला सूख गया है अब तो ...सामने जो  पेड़ है..उसके नीचे ही रुक कर ज़रा सुस्ता लेते हैं ...दो घूँट पानी भी पी लेवेंगे....फिर का था लम्बा-लम्बा डग भरते हुए पहुँच गए हम विशाल, घने पेड़ की छाँव में... पेड़ के नीचे खड़ा होते साथ लगा जैसे, कश्मीर पहुँच गए...हुमायूं, बाबर, अकबर जो भी था...ऊ भी अगर यहाँ होता तो, यही कहता..धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है..यहीं है...यहीं है...मेरा खुद से बात करने का सिलसिला ज़ारी रहा ..

भगवान् ने भी गज़ब चीज बनाया है ...पेड़..! कितना घना है...कितना ठंढा है...इसके नीचे कितनी राहत है...सूरज के प्रकोप से एकदम से बच गए थे हम...बिलकुल ऐसा लगा जैसे पिता का साया हो सिर के ऊपर..जो छतरी बनकर जीवन की  कड़ी धूप से बचा लेते हैं...बाबा का चेहरा आँखों के सामने  तैर गया  था ...अब तक हलक भी सूखने लगा था...झट से थैले से पानी का बोतल निकाल कर गटागट एक सांस में पीने लगे हम  ...यह भी एक सुख है...असीम सुख...पानी का स्वाद अमृत से बढ़ कर लग रहा था ...थोड़ी देर इसी पेड़ की छाया में बैठ जाते हैं.....अरे पहुँच जायेंगे...अभी तो भरखर दोपहरिया है...आराम  आराम से जायेंगे...मन ही मन ख़ुद को समझाते रहे और विपरीत परिस्थिति को अनुकूल बनाने का प्रयास करते रहे ... अब हमको भी अकेले सफ़र का आनंद आने लगा था...

अगर बाबा को पता चला कि हम अकेले ही दो कोस चले थे और हमको लेने कोई नहीं आया था ..तो सबकी छुट्टी कर देंगे ऊ ...लाडली बेटी हैं उनकी हम ...हमको जो भी कष्ट देगा..ऊ तो भुगतेगा ही.....देख लेना सब बतावेंगे हम ...किसी को ऊ छोड़नेवाले नहीं हैं...सोच-सोच कर हम खुश होने लगे कि कैसे बाबा सबकी क्लास लेवेंगे...अब हम अपने मन में  कैसे शिकायत करना है ..इसका चक्रव्यूह रचने में जुट गए थे.....

अरे..!  ई कौन चला आ रहा है साइकिल की घंटी बजाता हुआ ...सामने से कोई बड़ी तेज़ी से चला आ रहा है.. ई तो रमेश है..मेरा चचेरा भाई...अच्छा तो अब याद आई हमरी...बचोगे नहीं बच्चू...ई जो एक-एक डेग हम चले हैं...सबका हिसाब हम देवेंगे बाबा को...और ई साइकिल में काहे आ रहा है.. मोटरसाइकिल कहाँ है...?

रमेश जब तक पास आया हमरा चेहरा गुस्से में और लाल हो गया...कहाँ थे तुम ? दीदी चलो, बैठो...जल्दी से...लेकिन हम कौन सा उसको छोड़ देने वाले थे...अरे...ऐ..!  हम साइकिल पर कैसे बैठेंगे ?.अरे पीछे करियर है उस पर बैठो...और का...! अच्छा...!  बाप जनम हम कभी नहीं बैठे...हमसे नहीं होगा ई सब....मोटरसाइकिल कहाँ है..? अब ऊ भी झुंझलाने लगा था ..अरे ! उसका काम हो रहा है...अब बैठो भी...
अरे ! ऐसा का काम हो रहा है..बताते काहे नहीं हो ? चलो न दीदी जल्दी, घर पहुँच कर बताएँगे...

उस दिन पता चला साइकिल के कैरियर में बैठना भी एक कला है...पूरे रास्ते रमेश चुप था..हम केतना बार पूछे कि का काम हो रहा है मोटरसाईकिल का..लेकिन ऊ कुछ नहीं बोला...अब पीछे बैठकर हम अपना बैलेंस बनाते कि उससे बतकही करते...

ख़ैर राम-राम करते हम गाँव पहुँच गए...दूसरा कोई दिन होता तो सब भागे आते..लेकिन आज कोई नहीं आया...ऐसा सन्नाटा पूरा गाँव में कि लगता था कोई मर गया है...दूर से देखे...मेरी दादी, मेरी सब फूफू, सारी चाची...गाँव भर का बच्चा लोग ..बड़का कूआं के चारो-चौहद्दी खड़े हैं...कोई न तो मुस्कुरा रहा है...न बतिया रहा है...बस सब फुसुर-फुसुर कर रहे थे..रमेश हमरा सामान अन्दर ले गया.और हम पहुँच गए कूआं पर...

दादी का पाँव छूवे ...सब चाची, फूफू फट-फट अपना पाँव आगे कर दीं...हम पाँव छूते जावें और बीच-बीच में कुआँ में हुलकते भी जावें और साथे-साथे पूछते जावें...का हुआ है ? 
हमरी मंझली फूफू फुसफुसाई...'साधन' डेग दी कुआँ में.....'साधन' मात्र सोलह साल की अबोध लड़की थी, हमारे गाँव की...रिश्ता तो कुछ भी नहीं था...लेकिन गाँव में सभी रिश्तेदार ही होते हैं... अरे डेग दी कि गिर गयी ? हमरी आवाज़ में गुस्सा मिश्रित आश्चर्य था...अरे नहीं , कूद गयी कूआं में...अरे  बाप रे  ! ऐसा काहे ? और आप सब खड़ा काहें हैं...निकालिए न उसको ...!!
अब कोई फायदा नहीं,  मेरी चाची बोल पड़ी...तो का साधन मर गयी ?  हम फट से पूछे...सब एक सुर में बोले ...हाँ ..! अब हम पूरी बात जानना चाहते थे ....लेकिन काहे कूद गयी ? दादी बोली...'काँचा जीव थी...' अब हमरा माथा घूम गया ...ई काँचा जीव का होता है ? चल..! घर चल...हमरी  बड़की फूफू...हमको धकियाते हुए घर ले जाने लगी....ऐ फूफू ! ई कांचा जीव का होता है...?  अरे पगली ! चल घर बताते हैं...घर पहुँचने से पहले ही हमको पता चल गया, कांचा जीव का माने...साधन माँ बनने वाली थी...बिना बियाह के माँ बनना ऊ भी गाँव में ...घोर पाप तो है ही...

कुआं के पास अब शोर मचने लगा था...कोई सिपाही-उपाही ले आये थे लोग,  हमरी मोटरसाईकिल में बिठा कर....लाश निकाली जा रही थी और पंचनामा की तैयारी हो रही थी...
 
अब हमरी दादी, फूफू, चाची सब घर पहुँच गए थे...हम भी नारी मुक्ति आन्दोलन का झंडा लेकर ,बहसबाजी की जुगत में लग गए थे...दादी के सामने बैठ गए ..हम बोले ..दादी अगर साधन किसी से प्रेम करती थी और उससे और उसके प्रेमी से भूल हो ही गयी थी तो ...उनका बियाह कर देना था...साधन को मरने की का ज़रुरत थी...कौन है ऊ लड़का जो ऐसा बेईमान निकला..,कहाँ है ऊ..? सब मुंह में ताला डाले बैठे रहे...वातावरण बहुत ही संदिग्ध और विषाक्त होने लगा था...हम बौराए हुए सबसे पूछते रहे...अरे कौन है ऊ लड़का..हमको बताओ अभी हम उस कमीने की ऐसी-तैसी करते हैं...कोई कुछ नहीं बोला...

अब हम ई जिद्द पकड़ लिए...कि साधन के घर जाना है...का जाने उसके माँ-बाप पर का बीत रही होगी...सब मना करते रहे हमको...लेकिन बात नहीं मानना हमारी प्रवृति जो ठहरी...पहुँच गए हम, अपना शोक व्यक्त करने...हमको निकलते देख दादी चिल्लाई अरे कोई उसके साथ जाओ...ई लड़की बात ही नहीं मानती है...हमरी फूफू हमको जाता देख, पीछे-पीछे चली आई...

साधन के घर का माहौल देख कर हमको लगा कहीं हम गलत घर में तो नहीं आ गए....वहां सबकुछ महा-सामान्य था...बस साधन की माँ का हृदय विदीर्ण दिखा...बाप ऐसा ही बैठा था ,जैसे हर दिन बैठता था...चेहरे पर न सोच, न शोक...ऐसे असामान्य घटना घटित होने पर भी, इतना सामान्य दिखने वाले इंसान से बात भी क्या की जा सकती थी...साधन की माँ इस तरह, छुप कर शोकाकुल थी ,मानो कोई पाप कर रही हो....हम खुदे सकते में आ गए ...कुछ कह नहीं पाए...और लौटने लगे...फूफू फिर फुसुर-फुसुर करने लगी...हम बोले थे न मत जाओ...मगर तुम काहे सुनोगी...! लेकिन फूफू इनको कोई दुःख नहीं है...दीनदयाल चाचा ऐसे बैठे हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं है...बाप हैं ई कि कसाई...! अब फूफू का धीरज टूट गया था...एक नंबर का कसाई है हरामजादा...तुम पूछ  रही थी न..कि ऊ लड़का कौन है...जो साधन को धोखा दिया है...उसका बाप ही है कमीना ऊ लड़का...ई सुनते ही हम तो गश खाकर गिरने-गिरने को हो गए....याद आ गया हमको वो रास्ते का घनी छाँव वाला पेड़...जिसके नीचे खड़े होकर हमको हमारे पिता का साया महसूस हुआ था...लगा ऊ पेड़ चरमरा कर हमपर ही गिर गया हो...धम्म से...!





 

Friday, April 19, 2013

एवरी थिंग इज फ़ाईन...

यूँ तो हमरी आदत है,  सुबह के साढ़े चार या पौने पाँच बजे उठ जाने का। बचपन से बाबा ने ऐसी आदत लगाई कि आज तक, हम उस आदत के मारे हुए हैं। हमरा जल्दी उठना कई बार, लोगों को हमको कुछ न कुछ सुनाने का ज़बरदस्त मौका दे ही देता है, 'न खुद सोती है न हमें सोने देती है', ई उलाहना हम सैकड़ों बार सुन चुके हैं। यही आदत अब हम विरासत स्वरुप अपनी बेटी को भी दे ही दिए हैं। अब हम अकेले काहे सुने ई उलाहना-फुलाहना, हमारे बाद भी तो कोई सुने :)

ख़ैर, उस दिन उठ कर बाहर झाँका तो देखा, मौसम बहुत बहुत ख़राब था । बल्कि ख़राब कहना भी, मौसम की तारीफ़ करना था। स्नो स्ट्रोम यानि बर्फीली आँधी चल रही थी, हवा की रफ़्तार भी बहुत ही तेज़ थी । उसके एक दिन पहले ही, मौसम बहुत सुहाना था। लेकिन मौसम से ज्यादा बेवफ़ा कोई और हो ही नहीं सकता। कभी-कभी तो लगता है, ये मौसम भी कोई इंसानी फितरत का जीता-जागता नमूना है, 

कभी एक चेहरा लगा, खुश करता है दुनिया को
कभी एक चेहरा लगा, खुश करता है खुद को
मौसम भी कोई बड़ा चित्रकार है
हर पल नई तस्वीर में ढाल लेता है खुद को। 
मौसम का क्या भरोसा, ये भी इन्सानी ज़ुबान की तरह कभी भी बदल जाता है।

ख़ैर जी ! हाँ तो हम क्या कह रहे थे, हाँ तो हम कुछ कह रहे थे न ! हाँ याद आया, हाँ तो हम कह रहे थे, मौसम ऐसा बेईमान था कि अगले कुछ घंटों तक उससे किसी भी तरह की कोई भी ईमानदारी की गुंजाईश हमको तो कम से कम नहीं ही थी। खिड़की के बाहर देखते ही मन एकदम से अलसा गया। आँधी-तूफ़ान देख के हम वापिस बिस्तर पर आ गए, कम्बल खींच कर फिर से बिस्तर में दुबक गए। हमने गौर किया है, अगर आप एक बार उठ कर फिर सो जाएँ तो जम कर नींद आती है, हमारे कौनो सुर्खाब के पर थोड़े ही लगे हैं, हमरे साथ भी वही हुआ। फिर से नींद आ गयी, वो भी जम कर। 

मेरी बेटी पौने छ: बजे निकल जाती है, यूनिवर्सिटी के लिए। दूसरा कोई भी दिन होता है , तो हम बिटिया से पहले ही उठते हैं, उसके लिए नास्ता बनाते हैं, वो तैयार होकर नीचे आती है, नास्ता करती है, हम उसको दरवाज़े तक छोड़ते हैं, थोड़ी देर लव यू लव यू होता। उसे हर तरह की ताक़ीद देते, आने का वक्त पूछते। मतलब ये कि हम दोनों माँ-बेटी के लिए हर सुबह दरवाज़े पर बिताये गए कुछ पल, बहुत-बहुत सुखद होते हैं। हर दिन दरवाज़े पर खड़े होकर उसे जाते हुए देखना, मेरी आदत हो गयी है। 

लेकिन उस दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मेरी बिटिया ने भी शायद, मुझे उस सुबह निर्दन्द सोते देखा, या फिर सोते हुए मेरी शक्ल ऐसी रही हो कि उसे उठाने का दिल ही नहीं किया, तो उसने नहीं उठाया। उसने खुद ही नास्ता बनाया, खुद ही खाया (जैसे बाकि दिन हम खाते थे :)) और अकेली ही तैयार हो गयी। हमको याद है जाने से पहले वो आई थी, हमारे पास और कहा था, "मम्मी हम जा रहे हैं ", थोड़ी सी मेरी नींद खुली थी,मन कुछ दोषी महसूस कर गया था। लेकिन उसने कहा 'आप आराम से सो जाओ, हम नास्ता कर लिए हैं ।' आलस ऐसा छाया हुआ था, हम भी कम्बल में घुसे-घुसे ही कह दिए। ठीक है बेटा अच्छे से जाना। बेटी ने हमको जादू की झप्पी दी और वो चली गयी। वो गई और इधर हम फिर नींद के हवाले हो गए।

शायद आधा घंटा बीता होगा, डोर बेल की आवाज़ सुनाई पड़ी, हम हड़बड़ाये उठे, लगा शायद बिटिया कुछ भूल गयी होगी, वही लेने आई होगी। दौड़ते हुए हम नीचे पहुंचे, तो देखा सामने का दरवाज़ा पूरा का पूरा खुला हुआ था, बर्फीली हवा अन्दर तक आ रही थी। घर भी काफी ठंडा लग रहा था। और दरवाज़े के सामने एक आकृति खड़ी थी। मौसम ऐसा था कि वो सिर्फ आकृति ही लग रही थी। पल भर को मेरा दिमाग ख़राब  हो गया, कौन है ये और इसने मेरे घर का दरवाज़ा कैसे खोल दिया है ?? दरवाज़े पर पहुँच कर देखा तो सामने एक महिला खड़ी थी। सर्दी इतनी थी कि दरवाज़े पर खड़ा होना कठिन काम था। मन में आ ही गया कैसे-कैसे लोग हैं। सवा छ: या साढ़े छ: बजे होंगे। इतनी सुबह-सुबह कुछ बेचने तो नहीं आ गयी ये, हिम्मत है बाबा इनलोगों की भी ?? हम हैरान भी थे और अन्दर-अन्दर नाराज़ भी। वो भी हमको देख कर समझ गई थी, हम सीधा बिस्तर से छलाँग मार कर ही आ रहे हैं। बाहर बरफ का बवंडर था और इतनी देर में ही मेरे मन में सवालों का बवंडर उठ गया था।  इतनी सुबह-सुबह कौन है ये, सबसे बड़ी बात, इसने मेरे घर का दरवाज़ा कैसे खोल लिया ??? इत्यादि, इत्यादि। 

हम जैसे ही दरवाज़े पर पहुँचे, उसका पहला सवाल था ' इज एवरी थिंग ओ के ?? मैंने कहा 'येस, एवरी थिंग इज फ़ाईन। उसके बाद जो उसने बताया वो कुछ इस तरह था। वो और उसके पति हमारे घर के आस-पास ही कहीं रहते हैं। सुबह-सुबह वो दोनों ऑफिस जाने को निकले थे। हमारे घर का दरवाज़ा, इतने खराब मौसम में पूरा खुला देख कर उन्हें कुछ आशंका हुई। उन्होंने हमारे घर के सामने गाडी रोक दी, तकरीबन बीस मिनट तक वो घर के सामने ही रुके रहे।  किसी भी तरह की कोई हरक़त उन्हें नज़र नहीं आई, तब उन्हें लगा कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं !!! इसी ख़याल से उस महिला ने घंटी बजा कर, अच्छी तरह जान लेना चाहा, कहीं कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी हमारे घर में ! क्योंकि ऐसे मौसम में घर बिलकुल खुला होना, अटपटी बात थी। मैंने खुद को जी भर के धिक्कारा, कैसा उल्टा-पुल्टा सोच लिया था मैंने। मैं उस महिला का न जाने कितनी बार धन्यवाद करती रही, और वो बार-बार कहती रही सॉरी मैंने आपको सोते हुए से जगा दिया। वो बार-बार मुझसे पूछती रही, सब ठीक है न, कुछ ज़रुरत तो नहीं है। वो पूरी तरह तसल्ली कर लेना चाहती थी। पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही वो और उसका पति दोनों ऑफिस गए। समय उनका भी कीमती था। ये सब करने की उनको कोई आवश्यकता भी नहीं थी। उनकी बला से उस तूफानी मौसम में कोई हमारे घर ही घुस जाता तो उनका क्या जाता भला ! हम जहाँ रहते हैं, वहाँ लोगों में संवेदनशीलता कूट-कूट कर भरी हुई है। हर इंसान हर वक्त मदद को तैयार रहता है। ये घटना बस अभी महीने भर पहले की है। बाद में पता चला कि मेरी बिटिया ने दरवाज़ा तो बंद किया था, लेकिन ताला लगाने का ज्यादा चलन भी नहीं है हमारे यहाँ, हवा इतनी तेज़ थी कि दरवाज़ा खुल ही गया। सोचती हूँ, दुनिया में अच्छाई तो है ही, लेकिन हर जगह दिखाई क्यों नहीं देती ये ?

और भी ऐसी ही छोटी-मोटी घटनाएँ हैं, सुनाती रहूँगी।