Saturday, October 23, 2010

और देखो ! आज वो "अमर" हो गया



कल !
चमचमाती बोलेरों के काफिले में,
सैकडों बाहुबली,
कभी हुंकार,
तो कभी जयनाद करते हुए,
हथियारों के ज़खीरे के बीच,
कलफ लगी शानदार, गांधीविहीन धोती
और आदर्श रहित, खद्दर के कुर्ते में
एक मुर्दे को लाकर खड़ा कर गए
जिसके विवेक, स्वाभिमान
और अंतःकरण ने बहुत पहले,
ख़ुशी से खुदकुशी कर ली थी
बिना विवेक के वो
दीन-हीन लगता था,
बिना स्वाभिमान के
उसके हाथ जुड़ गए थे,
बिना अंतःकरण के
उसकी गर्दन झुकती ही जा रही थी,
दाँत निपोरे वो याचक बना रहा
हमने वहीँ खड़े होकर,
बिना सोचे,
उसे अभयदान दे दिया,
अगले ही पल उसके दाँत
हमारी गर्दन पर धँस गए
और देखो !
आज वो "अमर" हो गया

7 comments:

  1. गलती हमारी ही थी ..... वही नाप दी होती उसकी गर्दन ..... तो आज भारत अमर होता !

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  2. 3/10

    सामान्य लेखन
    कविता में जान डालने की कोशिश बहुत ज्यादा की गयी है लेकिन बात बनी नहीं. आन्दोलनकारी रचना है इसलिए शब्दों के कारण बहुतों को पसंद आएगी.

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  3. हम अपना भविष्य खुद चुनते हैं | और अभी तो बिहार में चुनाव भी हो रहे हैं...हमें उस नरभक्षी से बचना है..

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  4. वह कमाल है ! आज के नेताओं और राजनीति पर बहुत हे सशक्त और सटीक टिप्पणी..बधाई .

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  5. आज फिर पुरानी रचना । चलो कोई बात नहीं हमारे नेता भी तो वैसे के वैसे हैं ...आदर्शविहीन, अविवेकी, अस्वाभिमानी, मेरुहीन ...बस दिखाने के दाँत और और काटने के और ... सुंदर चित्रण ...हमारे नेताओं का ...

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  6. हमनें अपनी गर्दन अब तक सरेंडर नहीं की हैं उसे ! इसलिये उसकी अमरता पर सवाल से है हम जैसे चन्द लोग !

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