Friday, October 1, 2010

कोई आज बता ही देवे हमको ....कहाँ है हमरा घर ??????


(एक पुरानी प्रविष्ठी)
लड़की  !
यही तो नाम है हमरा....
पूरे २० बरस तक माँ-पिता जी के साथ रहे...सबसे ज्यादा काम, सहायता, दुःख-सुख में भागी हमहीं रहे... कोई भी झंझट, पहिले हमसे टकराता था फिर हमरे माँ-बाउजी से ...भाई लोग तो सब आराम फरमाते होते थे.....बाबू जी सुबह से चीत्कार करते रहते थे उठ जाओ, उठ जाओ...कहाँ उठता था कोई....लेकिन हम बाबूजी के उठने से पहिले उठ जाते थे...आंगन बुहारना ..पानी भरना....माँ का पूजा का बर्तन मलना...मंदिर साफ़ करना....माँ-बाबूजी के नहाने का इन्तेजाम करना...नाश्ता बनाना ,सबको खिलाना, पहलवान भईयों के लिए सोयाबीन का दूध निकालना, फिन कपड़ा धोना..पसारना, खाना बनाना, खिलाना ...फिर कॉलेज जाना....

और कोई, कुछ तो बोल जावे हमरे माँ-बाबूजी या भाई लोग को ..अईसे  भिड़ जाते कि लोग त्राहि-त्राहि करे लगते.....
हरदम बस एक ही ख्याल रहे मन में कि, माँ-बाबूजी खुश रहें...उनकी एक हाँक पर हम हाज़िर हो जाते ....हमरे भगवान् हैं दुनो ...

फिर हमरी शादी हुई....शादी में सब कुछ सबसे कम दाम का ही लिए ...हमरे बाबूजी टीचर थे न.....यही सोचते रहे इनका खर्चा कम से कम हो, खैर ...शादी के बाद हम ससुराल गए ...सबकुछ बदल गया रातों रात .....टेबुलकुर्सी, जूता-छाता, लोटा, ब्रश-पेस्ट, लोग-बाग, हम बहुत घबराए, एकदम नया जगह, नया लोग....हम कुछ नहीं जानते थे ...भूख लगे तो खाना कैसे खाएं, बाथरूम कहाँ जाएँ.....किसी से कुछ भी बोलते नहीं बने.....

जब 'इ' आये तो इनसे भी कैसे कहें कि बाथरूम जाना है, इ अपना प्यार-मनुहार जताने लगे और हम रोने लगे.....इ समझे हमको माँ-बाबूजी की याद आ रही है...लगे समझाने.....बड़ी मुश्किल से हम बोले बाथरूम जाना है....उ रास्ता बता दिए, हम गए तो लौटती बेर रास्ता गड़बड़ा गए थे ...याद है हमको....

हाँ तो....हम बता रहे थे कि शादी हुई थी......बड़ी असमंजस में रहे हम .....ऐसे लगे जैसे हॉस्टल में आ गए हैं....सब प्यार-दुलार कर रहा था, लेकिन कुछ भी अपना नहीं लग रहा था.....

दू दिन बाद हमरा भाई आया ले जाने हमको घर......कूद के तैयार हो गए जाने के लिए...हमरी फुर्ती तो देखने लायक रही...मार जल्दी-जल्दी पैकिंग किये... बस ऐसे लग रहा था जैसे उम्र कैद से छुट्टी मिली हो.....झट से गाड़ी में बैठ गए ..और बस, भगवान् से कहने लगे जल्दी निकालो इहाँ से प्रभू......घर पहुँचते ही धाड़ मार कर रोना शुरू कर दिए ....माँ-बाबूजी भी रोने लगे ...एलान कर दिए कि हम अब नहीं जायेंगे .....यहीं रहेंगे .....का ज़रूरी है कि हम उहाँ रहें.....रोते-रोते जब माँ-बाबूजी को देखे तो ....उ लोग बहुत दूर दिखे........माँ-बाबूजी का चेहरा देखे ....तो परेसान हो गए ...बहुत अजीब लगा......ऐसा लगा, उनका चेहरा कुछ बदल गया है.......थोडा अजनबीपन आ गया है.....रसोईघर में गए तो सब बर्तन पराये लग रहे थे, सिलोट-लोढ़ा, बाल्टी....पूरे घर में जो हवा रही....उ भी परायी लगी ...अपने आप एक संकोच आने लगा.......जोन घर में सबकुछ हमरा था ....अब एक तिनका उठाने में डरने लगे..लगा इ हमरा घर है कि नहीं !...ऐसा काहे ??? कैसे ??? हम आज तक नहीं समझे....
ई कैसी नियति ??......कोई आज बता ही देवे हमको ....कहाँ है हमरा घर ??????

और अब एक गीत ...असल में इस गीत को गाया रफी साहब ने है...लेकिन आज हम कोशिश कर रहे हैं..और बताइयेगा ज़रूर कैसा लगा !!
'आपके हसीं रुख पर आज नया नूर है, मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कुसूर है'


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