Saturday, October 30, 2010

सपने अब पानी से गलने लगे हैं ....


हकीक़त की ईंटों के नीचे दबे हैं जो               
सपने अब पानी से गलने लगे हैं

सजीं हैं क़रीने से कीलें वफा की
तेरे नाम टंग कर मचलने लगे हैं

फर्जों के साहुल से कोना बना जो
अरमां गिरे फिर सम्हलने लगे हैं

जुड़तीं हैं जब-जब पथरीली यादें
अश्कों के मोती फिसलने लगे हैं

ख्वाबों का गारा जो हमने बनाया 
मन-मन्दिर में मूरत बन ढलने लगे हैं

तोरण है गुम्बज है घंटी बेलपाती
अब प्राणों के दीपक भी जलने लगे हैं

साहुल - ये एक छोटा सा यंत्र होता है जिसे राज-मिस्त्री प्रयोग में लाते हैं , सीधी लाइन देखने के लिए.

15 comments:

  1. जुड़तीं हैं जब-जब पथरीली यादें
    अश्कों के मोती फिसलने लगे हैं
    बहुत खूब

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  2. फर्जों के साहुल से कोना बना जो
    अरमां गिरे फिर सम्हलने लगे हैं

    wow!! Ati sunder :-)

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  3. सम्वेदनायें भी कागज पर उतर सकती हैं... वाकई.

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  4. हकीक़त की ईंटों के नीचे दबे हैं जो
    सपने अब पानी से गलने लगे हैं
    ...........वाह बहुत खूब.....क्या बात कही है.

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  5. वाह बहुत खूब...अच्छे शेर हैं

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  6. "सपने अब पानी से गलने लगे हैं"
    कभी किसी से सुना था कि कभी कभी ’घी से भी फ़ांस लग जाती है’, सुना तो हंसी आ गई थी। जब खुद को लगी तब समझा कि सही कहा था उसने।
    सपने जो खुद पानी से ज्यादा द्र्व्यमान हैं, पानी से गलने लगे हैं..!!
    पथरीली यादों पर अश्कों का फ़िसलना, यही वैविध्य है आपकी रचनाओं में
    जो बांधता है।
    आभार एवं शुभकामनायें।

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  7. कविता तो अच्छी है , ठीक है पर...

    बाबा के स्वास्थ्य की अद्यतन जानकारी दीजिए ?

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  8. आपकी काव्य धारा से,
    होकर मुग्ध आज,
    बिन सम्हाले स्वयं को,
    हम पिघलने लगे हैं।

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  9. यह कविता बहुत शान्दार हे.........

    आप के पिता जि कि त्बियत अब कैसी हे .....?

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  10. ek aur khubsurat prastuti...badhai aapko. aapke baba kaise hai ?

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  11. सजीं हैं क़रीने से कीलें वफा की
    तेरे नाम टंग कर मचलने लगे हैं
    बहुत खूब लिखा है आपने. वैसे सारी पंक्तियाँ एक से बढ़कर एक है. खूबसूरती से आपने भावों को उकेरा है शब्दों के धरातल पर.

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  12. नए भावों से युक्त प्रभावी ग़ज़ल...बधाई।

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