हकीक़त की ईंटों के नीचे दबे हैं जो
सपने अब पानी से गलने लगे हैं
सजीं हैं क़रीने से कीलें वफा की
तेरे नाम टंग कर मचलने लगे हैं
फर्जों के साहुल से कोना बना जो
अरमां गिरे फिर सम्हलने लगे हैं
जुड़तीं हैं जब-जब पथरीली यादें
अश्कों के मोती फिसलने लगे हैं
ख्वाबों का गारा जो हमने बनाया
मन-मन्दिर में मूरत बन ढलने लगे हैं
तोरण है गुम्बज है घंटी बेलपाती
अब प्राणों के दीपक भी जलने लगे हैं
साहुल - ये एक छोटा सा यंत्र होता है जिसे राज-मिस्त्री प्रयोग में लाते हैं , सीधी लाइन देखने के लिए.
बहुत अच्छा !
ReplyDeleteजुड़तीं हैं जब-जब पथरीली यादें
ReplyDeleteअश्कों के मोती फिसलने लगे हैं
बहुत खूब
फर्जों के साहुल से कोना बना जो
ReplyDeleteअरमां गिरे फिर सम्हलने लगे हैं
wow!! Ati sunder :-)
सम्वेदनायें भी कागज पर उतर सकती हैं... वाकई.
ReplyDeleteहकीक़त की ईंटों के नीचे दबे हैं जो
ReplyDeleteसपने अब पानी से गलने लगे हैं
...........वाह बहुत खूब.....क्या बात कही है.
वाह बहुत खूब...अच्छे शेर हैं
ReplyDelete"सपने अब पानी से गलने लगे हैं"
ReplyDeleteकभी किसी से सुना था कि कभी कभी ’घी से भी फ़ांस लग जाती है’, सुना तो हंसी आ गई थी। जब खुद को लगी तब समझा कि सही कहा था उसने।
सपने जो खुद पानी से ज्यादा द्र्व्यमान हैं, पानी से गलने लगे हैं..!!
पथरीली यादों पर अश्कों का फ़िसलना, यही वैविध्य है आपकी रचनाओं में
जो बांधता है।
आभार एवं शुभकामनायें।
कविता तो अच्छी है , ठीक है पर...
ReplyDeleteबाबा के स्वास्थ्य की अद्यतन जानकारी दीजिए ?
आपकी काव्य धारा से,
ReplyDeleteहोकर मुग्ध आज,
बिन सम्हाले स्वयं को,
हम पिघलने लगे हैं।
very nice...
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील रचना ...
ReplyDeleteयह कविता बहुत शान्दार हे.........
ReplyDeleteआप के पिता जि कि त्बियत अब कैसी हे .....?
ek aur khubsurat prastuti...badhai aapko. aapke baba kaise hai ?
ReplyDeleteसजीं हैं क़रीने से कीलें वफा की
ReplyDeleteतेरे नाम टंग कर मचलने लगे हैं
बहुत खूब लिखा है आपने. वैसे सारी पंक्तियाँ एक से बढ़कर एक है. खूबसूरती से आपने भावों को उकेरा है शब्दों के धरातल पर.
नए भावों से युक्त प्रभावी ग़ज़ल...बधाई।
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